शनिवार, 31 अक्तूबर 2009

परीक्षाओं का मौसम

आजकल परीक्षाओं का मौसम है| हमारे विद्यालय में गृह परीक्षाएं चल रही हैं| 
गृह परीक्षा में  ड्यूटी करने पर पैसा नहीं मिलता इसलिए इसे कटवाने के लिए हम अपनी सारी ताकत झोंक दिया करते हैं, हाँ अगर पैसा मिलता होता तो स्थिति इसके बिलकुल उलट होती. गृह परीक्षा और गृह युद्ध में ज्यादा फर्क नहीं होता है| बच्चों को जब पेपर दिया जाता है तो उनके चेहरे पर वैसा ही कौतुहल होता है जैसे पहली बार किसी आतंकवादी ने बन्दूक पकडी हो .समस्त काले अक्षर यकायक भैंस बराबर हो जाते हैं.
पेपर बाँटने के पश्चात हम उन्हें पहले नक़ल करने अर्थात आतंकवाद को पसारने का भरपूर मौका देते हैं, हम उन्हें नज़रंदाज़ करके पड़ोसी मुल्क यानी बगल की कक्षा के मास्टर से गप्प मारने चले जाते हैं , जैसे ही वे निश्चित होकर नक़ल करने लगते हैं हम चुपके से आकर उनकी कापियों का  अधिग्रहण कर लेते हैं .
कभी - कभी गुस्से में अमेरिका की तरह मुँह से निकल जाता है " छिः ! किस स्कूल से पढ़कर आए हो ? किसने तुम्हें पास कर दिया ?इस पर  वह बस अंगुली ही नहीं दिखाता है , उसकी हँसती हुई आँखें अचानक अल - कायदा की तरह पलटवार करती हैं "आप जैसों  ने ही '''
कई बार अपने साथी अध्यापकों के रिश्तेदारों या टयूशन वाले यहाँ तक कि उनके चेलों तक की संदेहास्पद  गतिविधियों  को उसी तरह से नज़रंदाज़ करना पड़ जाता है जिस तरह भारत अपने मित्र राष्ट्र नेपाल की माओवादी गतिविधियों को करता है.
 कई बार फर्जी एनकाउन्टर, यानी कि बात कोई और करे  झापड़ किसी और को लगाकर अपने पक्ष में  हवा बनानी  पड़ती है.  बच्चे सोचते हैं कि कब ये मास्टर रूपी फौज  की नज़र पलटे और हम अपने साथ लाए हुए गोला बारूद यानी नक़ल सामग्री का प्रयोग करें, इनके गोला - बारूद रखने के गुप्त स्थानों का पता चल जाए तो देश - विदेश की सर्वोच्च  जासूसी संस्थाएं चुल्लू भर पानी में डूब मरेंगी . हर संभावित जगह पर दबिश दिए जाने के बावजूद  नकल में  अक्ल  वाला बाजी मार लेता है जो जितना प्रशिक्षित आतंकवादी होगा उसके गुप्त ठिकाने उतने ही खुफिया होंगे . बेवकूफ लोग मोजों में से गोला बारूद निकालते हैं और धर लिए जाते हैं . अक्लमंद शरीर के विभिन्न अंगों पर असलहे लपेट कर यानी प्रश्नों के उत्तर लिखकर लाते हैं और कभी पानी पीने, कभी टॉयलेट जाने के बहाने से उन्हें उतारते यानी धोते चले जाते हैं , पर्ची पकडी जाए तो अक्लमंद साइनाइड की तरह बिना देरी किये  चबा लिया करता है. अन्य कोई विद्रोह होता तो ये भी बराबर का पलटवार करते परन्तु परीक्षा के दिनों में आपातकाल लगाकर इनके सारे अधिकार छीन लिए जाते हैं , इसका बदला ये बाद में घात लगाकर हमला बोलकर चुकाते हैं
कभी - कभी हम  मास्टर लोग  झपकी ले लिया करते हैं, वह भी इस अंदाज़ में कि सामने बैठा बच्चा तक यह समझता है कि मास्साब कोई गहन चिंतन में डूबे हैं.
   लडकियां  भी कम आतंकवादी नहीं होतीं ,हाँ लेकिन एक बात गौर करने वाली होती है , परीक्षा के दौरान इनके चेहरों की रौनक उसी तरह से गायब हो जाती है जैसे गूगल के मानचित्र में  भारत से काश्मीर ,  नाक से लेकर लाल टीका माथे तक का सफ़र बिना किसी  रोक टोक के वाघा - सीमा  पार  करता हुआ प्रतीत होता  है , कपडे बिना प्रेस किये हुए, बिखरे - सूखे बाल , हाथ में लाल धागा, गले में काला  ताबीज़ लटका हुआ होता है , डिब्बे में लाल फूल और उसकी हर पत्ती  पर गणित का एक सूत्र, मानो ईश्वर स्वयं सामीकरण  बनकर फूल पर उतर आए हों, मुझे पता होता है कि इस ताबीज़ में भी अवश्य ही  भगवान् की कोई ऐसी  कृपा बरसी होगी, लेकिन कभी उसे खोलने की हिम्मत नहीं हुई .भगवान् पर इतना अविश्वास  करना ठीक नहीं होता.
  अंतिम  के पंद्रह मिनटों  में हमारे थक जाने की वजह से उनके लिए मौसम अनुकूल हो जाता है , चेतावनी   देने और  लाख मुस्तैदी रखने के बावजूद में कुर्सी - मेजों की  सीमा रेखा का अतिक्रमण बहुत तेज हो जाता है  . कभी - कभी  जिस तरह सीमा पर तैनात फोर्स घुसपैठ को  चुपचाप खड़ी - खड़ी देखती रहती है उसी तरह से हमारी भी हालत हो जाती है , और हम पोखरण विस्फोट की तर्ज पर  मेज पर डंडा पटककर बच्चों  धमकाने की असफल कोशिश करते हैं .
उसके बाद कापियां जांचने की बारी आती है तब प्रश्नों के उत्तर कापियों में से ढूंढ़ना उतना ही दुष्कर कार्य होता है जितना कि पकडे गए उपद्रवियों में से एक निर्दोष को छांटना.
पता नहीं कि यह किसका दुर्भाग्य है कि लिखते तो ये भी शायद एक रूपया ही हों , लेकिन हम तक आज भी सिर्फ दस पैसे ही पहुँच पाते हैं .

सोमवार, 26 अक्तूबर 2009

त्यौहार का दिन और गैस चोरी हो गई

साथियों , कैसा लगेगा आपको जब घर में दो - दो आयोजन हों और पता चले कि आपकी गैस चोरी हो गयी हो..कल जब इस नाचीज़ ने चिट्ठा - चर्चा पर नज़र डाली तो पाया कि किन्हीं आकांक्षा  की कृपादृष्टि मेरे ब्लॉग पर पड़ चुकी है , और उन्होंने बिना मुझसे पूछे मेरी रसोई से गैस निकली और अपनी रसोई में फिट कर ली , मैंने कई दिनों तक धूप में ,लम्बी लाइन में खड़ी होकर दो भाइयों के झगड़े के बावजूद गैस भरवाई , ताकि मेरे ब्लॉग का चूल्हा जलता रहे ,और महोदया उसे एक झटके में खोल कर ले गयी , आपके पास रोटी पकाने के लिए गैस नहीं थी तो मुझसे मांग लेतीं , मुझे भी सुकून होता कि मेरे ब्लॉग की रोटी से कोई और भी अपना पेट भर रहा है ,आपने तो चार - पांच रोटी रूपी टिप्पणी तक सेंक ली ,कोई और बहिन होती तो आपसे अवश्य ही पचास रूपये झटक लेती ..लिंक
 मैं हिन्दुस्तानी स्त्री हूँ उससे भी बढकर एक  ब्लोगर हूँ ,, मेरी किसी पडोसन को या सहेली को मेरी कोई साड़ी या जेवर पसंद आ जाती है तो मैं उसे उदारता पूर्वक पहिनने के लिए दे दिया करती हूँ , हांलाकि बिना टयूशन वाली मास्टरनी के पास ऐसी कोई साड़ी या जेवर नहीं है यह तो मैं अपने को खुश रखने के लिए कह रही हूँ , जब बात गैस की हो जाती है, वह भी बिना पूछे लगी गई, तो गुस्सा आना स्वाभाविक है .http://shefalipande.blogspot.com/2009/08/blog-post.html
,  स्टोव में तेल नहीं है क्यूंकि इस साल स्कूल में पढाना पड़ गया सो मैं बी . पी . एल .कार्ड नहीं बनवा पाई , और मिट्टी का तेल लेने की योजना मिट्टी में मिल गई ., वैसे अगर स्टोव पर खाना बनाना पड़ता तो गुस्से में पम्प जोर से मारती और ऐसे में स्टोव के फटने का भी खतरा था, पांडे जी को खामखाह ही जेल हो जाती , हांलांकि इससे उनके बार बार  यह कहने की परीक्षा हो जाती कि मेरे हाथ का खाना खाने से जेल का खाना ज्यादा अच्छा होता होगा.
 
 थक हार के चूल्हा सुलगाना पड़ता ,इस प्रक्रिया में , मैं ही ज्यादा सुलगती और कुछ शोले पांडे जी पर भी ज़रूर  गिरते.
 .तो बात थी दो - दो आयोजनों की .....एक तो पाबला जी बता ही चुके हैं ....आज से आठ साल हमारा  निहार रंजन पांडे जी के साथ गठबंधन हुआ था ,आठ साल कहने से ही ''आठ - आठ आँसू'' 'जाने क्यूँ याद आ जा रहे हैं , ये वही साल २००१ था ,जब विवाह से ठीक एक माह पूर्व न्यूयार्क का ट्विन टावर जीरो ग्राउंड में बदल गया था, ,सेंसेक्स पांच हज़ार की उच्चतम सीमा को लाँघ गया था ,जो कि मंदी के आने का पूर्वाभास था ,भाजपा के बंगारू लक्ष्मण को घूस के आरोप  में  बिना राम के वनवास  मिल चुका  था ,,उसी साल हमारा आज ही के दिन पाणिग्रहण हुआ था ,बीस - पच्चीस बाराती, बिना बैंड - बाजे के गोधूली के समय {चक्का जाम के कारण बारात सुबह पांच बजे की जगह शाम पांच बजे पहुँच पाई , हर कोई अपने - अपने स्तर से पांडे जी को बचाने के प्रयास में जुटा हुआ था }  हमारे द्वारे पहुंचे , फटाफट ट्वेंटी - ट्वेंटी की तर्ज़ पर विवाह संपन्न हुआ, एक कपडों की अटैची और एक किताबों से भरा हुआ संदूक { पांडे जी की इच्छानुसार }लेकर हम खाली हाथ बारातियों के टीका पानी न मिलने के कारण  मुरझाए हुए चेहरों के साथ  कानपुर आ गए .
 
दूसरे, कल यानी सत्ताईस अक्टूबर के दिन हमारा इस धरा पर पदार्पण हुआ था. इसीलिए ये दो हमारे लिए  दिन बहुत ही ख़ास हैं , और हमारी गैस चोरी हो गई , बनाएं तो क्या बनाएं ? 
 
अभी - अभी जाकर उनके ब्लॉग में देखा तो पता चला  कि वहां हमारी गैस नहीं है , और ना गैस को चुरा कर लगाने का कोई निशान ....काश कि हम भी टेक्नोलोजी के मास्टर होते तो  उसी समय कौपी  करके या स्नेप लेके अभी मय सबूत के पेश कर रहे होते ....
 
स्लोग ओवर खुशदीप भाई से उधार लेकर.....
विदाई के
 समय माँ अपनी बेटी को रोता देखकर ....
''चुप हो जा बेटी , भगवान् ने चाहा तो तुझे ले जाने वाला खुद रोएगा ''..
 
 दावत के लिए  हमने मेहनत  ब्लोगर साथियों के लिए मीट का इंतजाम किया है , हम घनघोर शाकाहारी हैं .मीटिंग में अलाहाबाद तो ना जा सके लेकिन  तथापि आज मीट अवश्य पकाएंगे ...क्यूंकि गैस वापिस आ गई है  
 
चाय कम  , खर्चे ज्यादा
 बहस कम , चर्चे ज्यादा 
प्रश्न कम , पर्चे ज्यादा
सोए कम, रोए ज्यादा
 पाए कम , खोए ज्यादा 
 
पोस्ट कम मार्टम ज्यादा 
दुःख कम, मातम ज्यादा 
औरत कम , मर्द ज्यादा 
मलहम कम, दर्द ज्यादा
 
 मक्खी कम , मच्छर ज्यादा 
शगुन कम  फ़च्चड़ ज्यादा             
विचार कम आचार ज्यादा
सम्मलेन कम प्रचार ज्यादा
 
 पटाखा कम धमाका ज्यादा
संगम कम मंथन ज्यादा
बेनामी कम सूनामी ज्यादा
परेशानी कम हैरानी ज्यादा
 
 श्रोता कम कुर्सी ज्यादा 
पानी कम बिसलेरी ज्यादा   
दुल्हन कम  स्वयंवर ज्यादा 
ब्लोगर कम नामवर ज्यादा 
 
माइक कम  फाइट ज्यादा 
अतिथी कम   संचालक ज्यादा 
 समीक्षक कम आलोचक ज्यादा 
स्माइल कम , मोबाइल ज्यादा
 
 
टांग कम खिंचाई ज्यादा 
लगाई कम बुझाई ज्यादा
 हाँ हाँ कम, हाहाकार ज्यादा 
कार कम ,पत्रकार ज्यादा
 
 चाट कम ठेला ज्यादा 
मेल कम, मेला ज्यादा 
समय कम, भड़ास ज्यादा
लिखा कम छपास ज्यादा      
 
इस पोस्ट को लगाने से  पहले आकांक्षा जी का माफी का फोन आ चुका है,नई - नई ब्लोगर हैं , जानकारी के
 अभाव में अपनी मित्र द्वारा भेजी गई मेल को अपने ब्लॉग में लगा बैठीं , और इस नाचीज़ का नाम देना भूल गईं ....चलिए जो हुआ सो हुआ ....आप इस मीट  और हमारे विवाह की दो मजेदार फोटुओं का आनंद उठाइए .           

शनिवार, 24 अक्तूबर 2009

सच कहते हैं बड़े - बुजुर्ग ज़माना बदल गया ...

ज़माना बहुत बदल गया है ,पहले यदि कोई विद्यार्थी  दीवाली के दौरान स्कूल में गलती से भी फुलझडी या हैण्ड बम  चलाता था तो फुलझडी से ज्यादा चिंगारियां मास्साबों की आँखों से बरसती थीं, और यह भेद करना मुश्किल हो जाता था कि किसकी आवाज़ ज्यादा तेज है ,पटाखे की या पिटाई की .
आज बच्चे पंद्रह दिन पहले से बम फोड़ना शुरू कर देते हैं , यह बच्चों की कृपादृष्टि और स्वयं मास्साब की लोकप्रियता पर निर्भर करता है कि बम फोड़ने की जगह कौन सी होगी  ,मास्साब की मेज़ के ऊपर या उनकी कुर्सी के नीचे.   निकट भविष्य में बम की जगह आर,डी.एक्स.
  आने वाला है .  पहले माता पिता रोशनी को ज्यादा महत्त्व देते थे , शुद्ध लोग थे, सो घरों में शुद्ध घी खाया भी जाता था और दीयों में जलाया भी जाता था ,अब मनुष्य रिफाइंड आदमी बन गया है गरीब  आदमी कोल्हू में बैल की तरह  रात - दिन पिसता है, अमीर लोग उससे निकले हुए  तेल को रिफाइंड करके दिए में डाल कर जलाते हैं.  कई जगह  दियों में मोमबत्तियां सुशोभित रहती हैं ,ताकि दूर से  देखने वाले को देसी घी के दिए का भ्रम बना रहे .
आजकल माता पिता आवाज़ को ज्यादा महत्त्व देते हैं , क्यूंकि अब घरों में आवाजें नहीं होतीं , ना किसी के आने की आहट, ना बच्चों के हंसने , खेलने ,खिलखिलाने ,दौड़ने ,और भागने की. इसीलिए इन आवाजों को  पटाखों और बमों  के रूप में  बाहर से एक्सपोर्ट करना पड़ता है ,घरों में दो ही चीज़ बोलतीं हैं एक टी. वी. दूसरा मोबाइल.
पहले के लोग हँसी मज़ाक की फुलझडीयाँ  छोड़ते थे ,आजकल के लोग अन्दर ही अन्दर सुलगते रहते हैं फटते नहीं ,मामूली बातों पर विस्फोट कर डालते हैं   ज़रूरी मसलों पर फुस्स बम हो जाते हैं . पहले एक बच्चा अनार जलाता था और सौ लोग  उस बच्चे को देखते थे ,आज एक बच्चा सौ अनार अकेले जला लेता है ,उसे देखने वाला एक भी नहीं होता.
पहले घर की महिलाएं महीनों पहले से घर की साफ़ - सफाई करने लग जाती थीं ,कोना - कोना जगमगाता था ,आज घर को नहीं स्वयं को चमकाने में ज्यादा रूचि लेती हैं . घरों में हाथों से बनी कंदीलों के बजाय   दीवाली के बम्पर ऑफर की खरीदारी रूपी झालरें जगह - जगह लटकी रहती हैं  
 हफ्तों पहले से  पत्र और कार्ड्स में लिपटे, स्नेह से भीगे हुए ,रंग - बिरंगे शुभकामना सन्देश घर के दरवाजे पर दस्तक देते थे, जिन्हें बड़े प्यार से घर की  बैठक में सजाया जाता था, अब हमारे ही द्वारा भेजा गया  एस .एम् .एस .या ई .मेल .कई  जगहों से फोरवर्ड हो कर  लौट के बुद्धू घर को आवे के तर्ज़ पर हमारे पास  वापिस आ जाता है, कहा जा सकता है कि यह हमसे भी ज्यादा फॉरवर्ड हो गया है 
पहले महालक्ष्मी का इंतज़ार जोश -खरोश से होता था , दिल में हर्ष - उल्लास भरा होता था , आजकल अगर यह महीने के आखिर में हो तो   कई महीने पहले से दीवाली का फंड अलग से बनाना पड़ता  है कई बार उधार भी करना पड़ जाता है ..
पहले स्नेह बहता था अब शराब बहती है ,पहले हम मीठे होते थे तो मिठाइयों की विविधताएं नहीं हुआ करती थीं ,अब हम कड़वे हो गए हैं, और मिठाइयों की वेराइटी का कोई अंत नहीं मिलता . 
सच कहते हैं बड़े - बुजुर्ग ज़माना बदल गया

मंगलवार, 20 अक्तूबर 2009

''ये त्यौहार ही हमारी मुनसिपेलिटी हैं''

बचपन में हिन्दी की किताब में भारतेंदु हरिश्चंद्र जी का एक पाठ हुआ करता था जिसमे एक बहुत ही बढ़िया पंच लाइन हुआ करती थी ''ये त्यौहार ही हमारी मुनसिपेलिटी हैं'' टीचर बताया करती थी कि इसका मतलब यह हुआ कि हमारे घरों में साफ़ - सफाई अक्सर तीज - त्योहारों के अवसर पर ही हुआ करती है, इसीलिए ये हमारे लिए  मुनसिपेलिटी का काम करते हैं, वैसे आजकल इसे यूँ भी समझा  जा सकता है कि जब लाख बुलाने पर मुनसिपेलिटी वाले नहीं आएं , और जब हम उम्मीद छोड़ दें तो ये अचानक प्रकट हो जाते हैं, तब समझ लेना चाहिए कि ज़रूर कोई त्यौहार निकट होगा ,तभी इन्होने सशरीर प्रकटीकरण की आवश्यकता समझी, और इस दिन को ही त्यौहार का दर्जा दे- देना चाहिए .
वैसे पोस्ट का विषय ये नहीं था, ये तो बस यूँ ही इन दिनों घर की सफाई करते समय दिमाग में आ गया. विषय तो उड़न परी पी . टी.उषा के आँसू और क्रिकेट के आंसुओं का तुलनात्मक अध्ययन से  सम्बंधित था,जो इन दिनों घर की सफाई की भेंट चढ़ गया था, 
 क्रिकेट से सिर्फ उषा की आँखों में ही आँसू नहीं आते बल्कि ऐसे कई लोग हैं जिनके आगे क्रिकेट का नाम  भर ले लो तो गंगा जमुना बहने लगती है ,मैच के दौरान   ऑफिसों में जाने पर आम आदमी की आँख से , स्कूलों में बच्चों की , घरों में पत्नियों की , करोड़ों की बोली हारने पर शाहरुख़, प्रिटी और शिल्पाओं की आँख के  अनमोल  आँसू क्या कोई भूला होगा ?
लोगों ने इस मौके पर आव देखा ना ताव, बस क्रिकेट के पीछे पड़ गए, भला क्रिकेट से किसी खेल की तुलना कैसे की जा सकती है
वैसे क्रिकेट की बराबरी कोई और गेम कर ही नहीं सकता, दौड़ तो कतई नहीं , भला यह भी कोई खेल हुआ कि जूते पहनो, ट्रेक सूट पहनो और दौड़ पडो , ना कोई गलब्ज़, ना हैट, ना पैड,  ना कोई रोमांच ना रोमांस.
क्रिकेट खेलना एक तरह से संयुक्त परिवार में रहने जैसा होता है , सारे सदस्यों को एक साथ  रखना कित्ती मुश्किल बात है ,ये दौड़ जैसा एकल परिवार वाला खेल क्या समझेगा ?
 
बौल  फेंकते समय जो एकाग्रता चाहिए वह किसी और खेल में कहाँ ? हर पल बौल पर गर्ल फ्रेंड की तरह पैनी  नज़र रखनी होती है ,इधर बौल  से नज़र हटी  उधर टीम से बाहर. कूटनीतिक  चालें  अपनानी होती है , देखना दाईं तरफ, और फेंकना बाएँ तरफ . फेंकते - फेंकते अचानक रुक जाना ,गुस्सा आ जाए तो बौल पर  थूक का लेप लगा देना  ,१८० की स्पीड से दौड़ते हुए आना और अचानक  घुर्रा फेंकना.
 
और दौड़ में क्या है बस नाक की सीध में दौड़ते जाना ,  ना कोई तिकड़म, न कोई लात घूंसा ना  गाली गलौज ..ना चीअर ना चीयर गर्ल्स .
 
  फील्डिंग करने में कित्ती जोखिम है कभी देखा है ...फ्रंट के दर्शकों की बोतलें,खाली  रेपर्स से लेकर गाली तक खानी पड़ती है ...इतनी सब दिक्कतों को भी झेल लिया जाता है बशर्ते पैसा लगातार मिलता रहे ,लेकिन इन्हें क्या मिला ? , सहवाग और युवराज बेचारे तो लगभग रो ही पड़ते हैं '' जब तक बल्ला चलता है तब तक ठाठ हैं '' उसके बाद इनका क्या होगा यह सोचकर ही  आँसू आ जाते हैं और युवराज उसकी इंजरी  पर तो दुनिया का ध्यान ही नहीं गया , लगती होगी और खेलों में  भी चोट , लेकिन क्रिकेट में  इंजरी  जैसी कोई चोट नहीं हो सकती .ये सीधे दिल पर लगती है .इतनी चोट - चपेट खाने के बाद भी इन्हें क्या मिला?
हमने कभी सोचा नहीं था कि इन्हें इतनी आर्थिक असुरक्षा होती होगी ,क्या किसी और खेल के खिलाडी को हमने इस तरह पैसों का रोना  रोते हुए देखा ? असुरक्षा की इतनी गाढी क्रीज़   तो किसी रिक्शे चलाने वाले या दिहाड़ी पर लगे हुए मजदूर के माथे पर भी देखने को नहीं मिलती, जिसको पता ही नहीं कि कल अगर शहर बंद हुआ  चूल्हा कैसे जलेगा? दुनिया भर के उत्पाद बेचने वाले इन क्रिकेटरों को बिना बौल के एल . पी. डब्लू. होते देख कर मन खिन्न हो जाता है..आओ साथियों सब मिल कर धिक्कारें , साथियों सब मिल कर धिक्कारें ,
 
धिक्कार  है,  इन पेप्सी, कोक वालों को, इन एडिडास वालों को, इन पेन , पेंसिल बनने वालों को,  करोडों की  बोली लगाने वालों को ,उन्हें भी धिक्कार जिनकी  शानदार पार्टियों में इन्होने  ठुमका लगाया , दुकानों के रिबन काटे ,रियलिटी शो में शो पीस बने , जिनके लिए इन्होने अपना बल्ला  तक ताक पर रख दिया,    धिक्कार की यह सूची इतनी लम्बी है कि एक पोस्ट में उन्हें समेटना संभव नहीं हो पायेगा ,बाकी अगली पोस्ट में . 

बुधवार, 14 अक्तूबर 2009

इन्हें इंसान ही बने रहने दिया जाए

ग्रामीण इलाके में शिक्षण कार्य करने के कारण अक्सर मुझे वह देखने को मिलता है, जिसे देखकर यकीन करना मुश्किल होता है कि यह वही भारत देश है, जो दिन प्रतिदिन आधुनिक तकनीक से लेस होता जा रहा है,जिसकी  प्रतिभा और मेधा का लोहा सारा विश्व मान रहा है, जहाँ की स्त्री शक्ति दिन पर सशक्त होती जा रही है ,  लेकिन इसी  भारत के लाखों ग्रामीण इलाके अभी भी अंधविश्वास की गहरी चपेट में हैं, इन इलाकों से विद्यालय में आने वाली अधिसंख्य लडकियां कुपोषण, उपेक्षा, शारीरिक और मानसिक  प्रताड़ना का शिकार  होती  हैं, क्यूंकि ये एक अदद लड़के के इंतज़ार में जबरन पैदा हो जाती हैं, जिनके  इस दुनिया में आने पर कोई खुश नहीं हुआ था,  और यही  अनचाही लडकियां जब बड़ी हो जाती हैं, तो अक्सर खाली पेट स्कूल आने के कारण शारीरिक रूप   से कमजोरी के चलते   मामूली  सा  चक्कर आने पर यह समझ लेती हैं कि उनके शरीर में देवी आ गयी है, हाथ - पैरों के काँपने को वे अवतार आना समझ लेती हैं  , मैं बहुत प्रयास करती हूँ कि बच्चों की इस गलतफहमी को दूर करुँ, मैं उन्हें समझाती   हूँ कि ये देवी - देवता शहर के कॉन्वेंट या पब्लिक स्कूलों के बच्चों के शरीर में क्यूँ नहीं आते ? इन्हें सिर्फ ग्रामीण स्कूलों के  बच्चे ही क्यूँ याद आते हैं, लेकिन उन्हें समझाने का कोई फायदा नहीं होता क्यूंकि  उनके पास उन्हें  विरासत में मिले  हुए अकाट्य तर्क होते हैं, जिनसे पार पाना बहुत मुश्किल होता है. अपने इस विश्वास को सिद्ध करने के लिए उनके पास अनेकों झूठी अफवाहों  से उपजे उदाहरण,  माता - पिता की अज्ञानता  और  देवी माँ के द्वारे इंतज़ार करती हुई  भक्तों की भारी भीड़ के जयकारे होते हैं .
 
हमारे देश के लोगों की ख़ास आदत होती है कि किसी मुसीबत में फंसे हुए या  दुर्घटना
 में घायल , दम तोड़ते हुए  इंसान की मदद को आगे आने के बजाय आँखें मूँद कर  चुपचाप कन्नी काट लिया करते  हैं, लेकिन किसी इंसान के शरीर में देवता का अवतरण हुआ है , यह सुनते हीबिना आगा - पीछा सोचे , उस  घर की दिशा की ओर दौड़ पड़ते हैं, देखते ही देखते  देवी के चरणों पर चढ़ावे का ढेर लगा  देते हैं,  जिसे देखकर   इन लड़कियों के लिए  इस दैवीय  मकड़जाल से निकल पाना बहुत मुश्किल हो जाता है .
 
    पाठ्यक्रम निर्धारित करने वाले बड़े - बड़े शिक्षाविद पाठ्यक्रम का निर्धारण करते समय अधिसंख्य ग्रामीण इलाकों के बच्चों के विषय में नहीं सोचते हैं, उनकी नीतियाँ शहरी क्षेत्रों के चंद सुविधासंपन्न बच्चों को फायदा पहुँचती हैं , शिक्षाविद  यौन शिक्षा की जोर - शोर से वकालत करते हैं ,स्कूलों में कंडोम बांटने के बारे में विचार करते हैं , योग की कक्षाएं अनिवार्य कर देते हैं,  नैतिक शिक्षा की बात करते हैं, मिड डे मील का मेनू सेट करते हैं, नंबरों की जगह  ग्रेडिंग सिस्टम लागू कर देते हैं,  लेकिन देश को सदियों पीछे ले जाते इस अंधविश्वास के निर्मूलन की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता.यह जानने की कोशिश कोई नहीं करता कि  कितनी  लडकियां  देवी बनकर, पढ़ाई - लिखाई से दूर होकर अपने घर वालों के लिए सोने का अंडा देने वाली मुर्गियां बन गयी  हैं, जहाँ से वापस लौटना अब उनके लिए संभव नहीं  है .
इन्हें इंसान ही बने रहने दिया जाए  

शुक्रवार, 9 अक्तूबर 2009

करवा चौथ ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकता है

वर्तमान भारतवर्ष में शायद ही कोई ऐसा त्यौहार बचा हो जो  सम्पूर्ण राष्ट्र को एकता के सूत्र में पिरो सके, ऐसे समय में करवाचौथ ही एकमात्र ऐसा त्यौहार बच गया है जिसमे थोड़ी बहुत सभी धर्मों की झलकियाँ मिल जाती हैं ...देखिये
दीवाली : के रूप में महीनों पहले से पति की जेब में मेहनत से जमा किये हुए "हाथ के मैल" की सफाई; चेहरे की रंगाई-पुताई और टूट-फूट की मरम्मत; पति के दिल का बिना तेल-बाती के जलना; कमाई का धुँआ उड़ना; महँगी  डिजाइनर  साड़ी और  मंहगे जेवरों को देखकर पडोसिनों का चकरघिन्नी की तरह आगे-पीछे घूमना और इस घमंड में पत्नी के दिल में अनार, फुलझडी का छूटना ........
 
होली: पतियों द्बारा खरीदारी रूपी चीर को किसी कदम्ब पर बाँधने का असफल प्रयास और असफल होने पर दिल में होली का जलना; पत्नी का चेहरा मेकप के कारण गुलाबी, होंठ लिपस्टिक से लाल, पति के चेहरे का रंग पीला पड़ना, इस सदमे से  खोया - खोया रहना ...
 
ईद: पति रूपी बकरे को  चुपचाप हलाल हो जाना पड़ता है अन्यथा मुहर्रम का मातम भी लगे-हाथ हो सकता है .
 
जब पति सांता क्लॉस बनकर  चुपचाप तकिये के नीचे महँगी ज्वेलरी रखे या लेटेस्ट मोबाइल रखे तभी  उसे दुनिया के आगे संत की उपाधि मिलती है| बड़ा दिन: व्रत करने वाली महिला के लिए यह दिन सबसे बड़ा होता है, किसी भी तरह से ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेता.
 
सारा दिन व्रत रखने से महिलाओं के चेहरे पर सिखों के शहीदी दिवस के भाव आना ,उनकी इस अदा पर पतियों का शहीद हो जाना.
 
भगवान् बुद्ध के वचनों  का पतियों द्बारा  पूर्णतः पालन करना. साल भर चाहे कितनी भी मार - कूट कर ले, इस दिन संयम रखना .
 
जन्माष्टमीअगर कोई नासमझ पति खाली हाथ घर आ जाए तो आँखों से गंगा जमुना बहने लगती है और डलिया भर के उपहार लाने पर ही घर रूपी जेलखाने में पुनः प्रवेश मिलता है  
 
शिवरात्रीमहिलाओं की  खरीदारी देखने से ऐसा लगना मानो  इन्होने भांग का नशा किया हो, जिसका सुरूर उतरने का नाम ही नहीं लेता.
 
 
बाल दिवस: दिन भर बच्चों को संभालना पड़ता है तो पतियों के लिए यह बाल दिवस| यह दिन पत्नियों द्वारा ड्राई दिन और अहिंसा का डिक्लेयर कर देने से दो अक्टूबर ....
 
क्यूँ हुआ ना यह एक सर्व धर्म त्यौहार ??
 

बुधवार, 7 अक्तूबर 2009

करवा चौथ पर इन देवियों से मिलिए ...

उस घर में जब पहुँची मैं
अजब वहां का हाल था
वो बनी थी अंबे - दुर्गा
झगड़ा ही जिनका काम था 
 
बिखरे हुए थे सारे बाल 
आँखों में जलते थे अंगार 
भभूत लपेटी थी तन पे 
सिर पे सुशोभित चूनर लाल 
 
आँखों को घुमाया गोल - गोल 
एक नज़र में लिया सबको तोल 
उछल - उछल कर लगी नाचने 
थर - थर क्रोध से लगी काँपने 
 
" और जोर से बजाओ थाली 
मुझमें आ गयी शेरोंवाली 
मैं ही काली, कलकत्ते वाली 
मेरा वार ना जाए खाली "
 
किया जोर से अट्टहास 
रुक गयी सबकी पल में सांस 
सिंहासन से कूद कर 
नाचती आई घर वालों के पास 
 
हाथ - पैरों को ऐसे मरोड़ा 
देवर - जेठ का हाथ तोड़ा 
सास - ननद का पकड़ा झोंटा 
ससुर की पीठ पर जमाया सोटा 
चुप्पी साधे खड़ा था जो भी 
 फ़ौरन चरणों पर जा लोटा
 
पडोसिनों को मारी लात
थप्पड़ - घूसों की हुई बरसात
मेरी पूजा नहीं करोगी
सुन लो कलमुंही , कुल्च्छ्नियों
आजीवन रोती रहोगी
 
इतने में पति की आई याद
था दूर खड़ा वह दम को साध
"समझे खुद को प्राणनाथ
कुत्ते - कमीने ,और बदजात
वहां खड़ा है सहमा - सिमटा"
कहकर फेंका थाली, चिमटा
 
बोली सास कराह कर
लिखी भूमिका तूने इसकी
मैं करूंगी उपसंहार
जीत गयी तू अबकी, मैं गयी हूँ हार
जी भर के करवा ले अपनी जय जैकार
 अगली बार, लूंगी जब अवतार,
सात पुश्तें तेरी, करेंगी  हाहाकार ...
 
 
 
 
 
 
 
 
 
  

शुक्रवार, 2 अक्तूबर 2009

लो आया बचत का मौसम ....

मंत्रियों  ने होटल छोडे , 
हर गली में बबुआ डोले 
लो आया बचत का मौसम 
नए अंदाज़  का मौसम .......बचत के इस सीजन में देखिये ऊपर वाले के यहाँ क्या चल रहा है ?
 
 
ईश्वर - चित्रगुप्त से .....
बताओ चित्रगुप्त ! पृथ्वी पर क्या चल रहा है ?
चित्रगुप्त .....महाराज ! पृथ्वी तो मात्र चल रही है , लेकिन भारत वर्ष दौड़ रहा है।
 
ईश्वर ...वो कैसे ? पहेली मत बुझाओ, साफ़ साफ़ कहो।

चित्रगुप्त ...पूरा भारतवर्ष इस समय बचत की चपेट में है।

 
ईश्वर ....ये कौन सी नई बीमारी है ? हमने तो लेटेस्ट स्वाइन फ्लू भेजी थी , इसमें ज़रूर विदेशी ताकतों का हाथ है ।
.चित्रगुप्त ..महाराज इसके कीटाणु बहुत तेजी से फैलते हैं, इससे ग्रस्त होने पर इंसान के अन्दर बचत करने की भावनाएं जोर मारने लगती हैं।.
 
ईश्वर  ...अच्छा !! इसका मतलब मैं ये समझूं कि मंत्रियों और नेताओं ने हवाई जहाज से उड़ना छोड़ दिया है?
चित्रगुप्त....नहीं महाराज, ये आपने कैसे सोच लिया ? भारत वर्ष में जो ज़मीन से जितना ऊपर उड़ान भरता है , उसकी जड़ें ज़मीन में उतनी गहरी होती जाती हैं। हाँ यह अवश्य हुआ है कि अब वे लोग आम इंसान यानि कि जानवर के साथ सफ़र करने में शर्मिन्दा नहीं हो रहे हैं । ये लोग उड़ भले ही हवा में रहे हों , लेकिन खाना ज़मीन पर, वो भी गरीब के घर खा रहे हैं । समाजवाद का समाजवाद , बचत की बचत ,पाँचों उंगलियां कढाई में और सिर हेंडपंप  के नीचे।.
 
ईश्वर .....और कौन कौन बचत में सहयोग कर रहा है ?
चित्रगुप्त....सारी पार्टियां ....यथा ...भाजपा ,  और बसपा ..।.
 
ईश्वर .....क्या मायावती ने चंदा माँगना और हीरे ज़वाहरात, बंगले खरीदने बंद कर दिए हैं ?और भाजपा  ने कुर्सी का मोह त्याग  दिया है ?
चित्रगुप्त .....महाराज ! मायावती ने  एक मूर्ति कंस्ट्रक्शन कंपनी खोल ली है ,  जिसमे सिर्फ उसकी ही मूर्तियाँ बनाईं  जाएँगी। अब जनता अपनी फरियाद लेकर अपने गली और मोहल्ले की मूर्ति के पास चली जाया करेगी , इससे मायावती के अनमोल समय की बचत  होगी। परिणामस्वरूप वह
अपने जन्मदिन का  सेलिब्रेशन  धूम - धाम से कर सकेगी ।

 और भाजपाई तो सिर से लेकर पैर तक बचत रस से सराबोर चल रहे हैं । नेताओं की बचत तो अपने - आप ही हो गयी। बाकी बचत वे अपने बच्चों एवं रिश्तेदारों को टिकट देकर पूरी कर रहे हैं ,आजकल वहां 'दो टिकट पर एक फ्री' ऑफर चल रहा है।
   
ईश्वर... युवा शक्ति क्या कर रही है इस अभियान में?
चित्रगुप्त .... महाराज जवान लड़के और लडकियां भी इस बचत अभियान में बराबर सहयोग प्रदान कर रही हैं।
 
ईश्वर .....क्या वाकई ? क्या नवजवानों  ने  शादी - विवाह में होने वाला  दान- दहेज़ , बैंड - बाजा दिखावा , और आडम्बर बंद कर दिए हैं ?
चित्रगुप्त ....इन्होने तो बैंड का ही बाजा  बजा दिया . अब नवजवान लिव - इन यानी कि बिना विवाह किये साथ रह रहे हैं , जो इनसे महरूम रह गए वे समलैंगिक  हो गए हैं .ना होगी शादी , ना बजेगा बैंड , बचत ही बचत ...{ ईश्वर अपनी कुर्सी से गिरते - गिरते बचे }

 
ईश्वर ....वहां सुप्रीम कोर्ट नामक एक संस्था भी तो है , जो हर फ़टे  में अपनी टांग अडाती है , उसने इसका विरोध नहीं किया ?
चित्रगुप्त .....दरअसल सुप्रीम कोर्ट के कई वकील अपनी पत्नियों से त्रस्त हैं , वे अक्सर सरेआम कहते हैं कि पत्नी के चरणों में ही स्वर्ग जान लेना चाहिए .उन्हीं के अथक प्रयासों से यह संभव हो पाया।
 

 ईश्वर ....और कौन कौन इस कार्यक्रम में शामिल हैं ?राखी सावंत का नाम आजकल सुनने में नहीं आ रहा ?क्या उस भारतीय नारी की शादी करके बोलती बंद हो गयी है ?
चित्रगुप्त ....शादी का तो पता नहीं , लेकिन आजकल वह बच्चे पालना सीख रही है , ताकि बाद में क्रेच का एवं नौकर का  खर्चा बच सके .पहले कपडों की बचत करती थी अब पैसों की कर रही है ।

 
ईश्वर ...और मातृ  शक्ति ? वह  इस कार्यक्रम पीछे क्यों है ?
चित्रगुप्त .....महाराज , महिलाएं अपनी तरह से योगदान दे रही है यथा एक स्वाइन फ्लू वाला नकाब लगाकर वे लिपस्टिक , पाउडर, फेशिअल , क्रीम इत्यादि नाना प्रकार के सौंदर्य प्रसाधनों पर होने वाला खर्चा बचा रही हैं ।

 
ईश्वर ....शिक्षा के मंदिरों यानि स्कूलों में इस दिशा  में क्या चल रहा है ?
चित्रगुप्त .....वहां सी. बी. एस. सी. ने नम्बरों की बचत करके ग्रेडिंग सिस्टम लागू कर दिया है। अब कोई फेल  नहीं होगा

 
ईश्वर ...अरे वाह ! तो अब से कोई बच्चा फेल  होने की वजह से आत्महत्या नहीं करेगा ।

चित्रगुप्त ...हाँ महाराज ! अब बच्चे फ़ेल होने की  वजह से नहीं बल्कि  ग्रेडिंग कम होने की वजह से आत्महत्या कर सकेंग। इससे फेल होने पर भी आत्महत्या का स्टेंडर्ड मेंटेन रहता है ।

 
ईश्वर ...और चित्रगुप्त , समाज के ठेकेदार ....कवि और साहित्यकार इस दिशा में क्या कर रहे हैं ?
चित्रगुप्त .....महाराज , कवि गण मंचों पर फूहड़ चुटकुले सुनाकर  कविताओं की बचत कर रहे है , लेखक लोग मुद्दों की बचत कर रहे हैं ..स्त्री शरीर ...और स्त्री - पुरुष के जटिल संबंधों के अलावा और कुछ नहीं लिख रहे हैं ।

 
ईश्वर ....और बुद्धू बक्सा ?
चित्रगुप्त ....महाराज ! यहाँ बचत की बहुत संभावना है , आजकल एक बड़ा सा खेत और चार - पांच लड़कियों को एकत्र कर लिया जाता है , एक ही कहानी को अलग - अलग तरीके से फिल्माया जाता है ,या कभी उब गए तो  टेस्ट बदलने को ८ - १० तथाकथिक मशहूर लोगों को एक कमरे में बंद करके एक दूसरे पर छोड़ दिया जाता है , इसमें न हींग लगती है ना फिटकरी और रंग चोखा ही चोखा। डायलोग, स्क्रिप्ट ,ऐक्टिंग सबकी बचत।.  इसमें सिर्फ साउंड का खर्चा आता है, कार्यक्रम की सफलता  ज्यादा  से ज्यादा ढोल - नगाडों की आवाज़ पर निर्भर करती है।
 
ईश्वर ...और मास्टर ? समाज का निर्माता , उसका क्या योगदान है ?उसने बच्चों का मिड डे मील खाना छोड़ा या नहीं ?
चित्रगुप्त ...महाराज ! हमने  हर संभव उपाय किये , कभी मेंढक तो कभी साँप खाने में डाले ,लेकिन यह पता नहीं किस मिटटी का बना है इस पर किसी का कुछ असर नहीं हुआ। बचत के नाम पर पेन बच्चों से मांगता है । बीड़ी तक शेयर करके पीता  है। इसे  समय की बचत में महारथ हासिल है । कक्षा में १० मिनट देरी से जाता है । १० मिनट पहले आ जाता है । भरी बस में कंडक्टर के द्बारा बेइज्ज्ती करने पर भी आधा ही टिकट देता है।
 
ईश्वर ... और इधर   ब्लागर नाम की एक नई प्रजाति विकसित हुई है , जो स्वयं  को बहुत फन्ने खां समझती  है। उन्होंने कुछ किया या हमेशा की तरह सिर - फुटव्वल में ही वक्त गुजार दिया ?
चित्रगुप्त ....महाराज ! ब्लागर पोस्ट की बचत कर रहे हैं , वे टिप्पणियों पर नज़र रखते हैं ,और टिप्पणियों पर ही पोस्ट लिख रहे हैं.
 
 ईश्वर ...और आम आदमी ? क्या वह अभी भी दो वक्त का खाना खा रहा है ?
चित्रगुप्त .....उसके तो अंदाज़ हे अनोखे हैं। पानी में हल्दी घोल कर दाल  समझ कर पी जाता है। बड़े - बड़े लोग कहते है कि एक घंटा बत्ती बंद करनी चाहिए तो वह गर्मी की रातें मच्छरों   के बीच गुजार देता है। वे कहते है पानी बचाओ , तो वह नहाना बंद कर देता है। वे कहते हैं कि पर्यावरण बचाओ तो वह  डर के मारे सारा जीवन टूटी साइकिल से स्कूटर पर नहीं आ पाता।
और क्या बताऊं, बुड्ढे लोगों के भी मुँह में मास्क लगे हुए हैं ताकि खाने को देखकर उनके मुँह में लार  ना टपकने लग जाए , बुढ़िया औरतें किसी ना किसी बहाने से  हफ्ते में चार दिन व्रत - उपवास रख रही हैं।

 
ईश्वर .... चित्रगुप्त, तुमने तो मेरी आँखें ही खोल दीं ..अब हमें भी बचत करनी चाहिए ...मैं अभी आदेश पंजिका में बचत करने के आदेश निकलवाता हूँ .आज से सारे नाच गाने , मौज मस्ती बंद।
 
चित्रगुप्त फ़ाइलें और अपना मुंह लटकाये हुये बाहर आते हैं। सभी देवतागण उनको घेरकर उनके खिलाफ़ नारे लगाने लगते हैं कि इतना भी सच बताने की क्या जरूरत थी। धर्मराज ने अपने काम का अपहरण चित्रगुप्त द्वारा किये जाने की बात कहकर उनके खिलाफ़ मानहानि का मुकदमा ठोक दिया है।