उस घर में जब पहुँची मैं
अजब वहां का हाल था
वो बनी थी अंबे - दुर्गा
झगड़ा ही जिनका काम था
बिखरे हुए थे सारे बाल
आँखों में जलते थे अंगार
भभूत लपेटी थी तन पे
सिर पे सुशोभित चूनर लाल
आँखों को घुमाया गोल - गोल
एक नज़र में लिया सबको तोल
उछल - उछल कर लगी नाचने
थर - थर क्रोध से लगी काँपने
" और जोर से बजाओ थाली
मुझमें आ गयी शेरोंवाली
मैं ही काली, कलकत्ते वाली
मेरा वार ना जाए खाली "
किया जोर से अट्टहास
रुक गयी सबकी पल में सांस
सिंहासन से कूद कर
नाचती आई घर वालों के पास
हाथ - पैरों को ऐसे मरोड़ा
देवर - जेठ का हाथ तोड़ा
सास - ननद का पकड़ा झोंटा
ससुर की पीठ पर जमाया सोटा
चुप्पी साधे खड़ा था जो भी
फ़ौरन चरणों पर जा लोटा
पडोसिनों को मारी लात
थप्पड़ - घूसों की हुई बरसात
मेरी पूजा नहीं करोगी
सुन लो कलमुंही , कुल्च्छ्नियों
आजीवन रोती रहोगी
इतने में पति की आई याद
था दूर खड़ा वह दम को साध
"समझे खुद को प्राणनाथ
कुत्ते - कमीने ,और बदजात
वहां खड़ा है सहमा - सिमटा"
कहकर फेंका थाली, चिमटा
बोली सास कराह कर
लिखी भूमिका तूने इसकी
मैं करूंगी उपसंहार
जीत गयी तू अबकी, मैं गयी हूँ हार
जी भर के करवा ले अपनी जय जैकार
अगली बार, लूंगी जब अवतार,
सात पुश्तें तेरी, करेंगी हाहाकार ...