बचपन में हिन्दी की किताब में भारतेंदु हरिश्चंद्र जी का एक पाठ हुआ करता था जिसमे एक बहुत ही बढ़िया पंच लाइन हुआ करती थी ''ये त्यौहार ही हमारी मुनसिपेलिटी हैं'' टीचर बताया करती थी कि इसका मतलब यह हुआ कि हमारे घरों में साफ़ - सफाई अक्सर तीज - त्योहारों के अवसर पर ही हुआ करती है, इसीलिए ये हमारे लिए मुनसिपेलिटी का काम करते हैं, वैसे आजकल इसे यूँ भी समझा जा सकता है कि जब लाख बुलाने पर मुनसिपेलिटी वाले नहीं आएं , और जब हम उम्मीद छोड़ दें तो ये अचानक प्रकट हो जाते हैं, तब समझ लेना चाहिए कि ज़रूर कोई त्यौहार निकट होगा ,तभी इन्होने सशरीर प्रकटीकरण की आवश्यकता समझी, और इस दिन को ही त्यौहार का दर्जा दे- देना चाहिए .
वैसे पोस्ट का विषय ये नहीं था, ये तो बस यूँ ही इन दिनों घर की सफाई करते समय दिमाग में आ गया. विषय तो उड़न परी पी . टी.उषा के आँसू और क्रिकेट के आंसुओं का तुलनात्मक अध्ययन से सम्बंधित था,जो इन दिनों घर की सफाई की भेंट चढ़ गया था,
क्रिकेट से सिर्फ उषा की आँखों में ही आँसू नहीं आते बल्कि ऐसे कई लोग हैं जिनके आगे क्रिकेट का नाम भर ले लो तो गंगा जमुना बहने लगती है ,मैच के दौरान ऑफिसों में जाने पर आम आदमी की आँख से , स्कूलों में बच्चों की , घरों में पत्नियों की , करोड़ों की बोली हारने पर शाहरुख़, प्रिटी और शिल्पाओं की आँख के अनमोल आँसू क्या कोई भूला होगा ?
लोगों ने इस मौके पर आव देखा ना ताव, बस क्रिकेट के पीछे पड़ गए, भला क्रिकेट से किसी खेल की तुलना कैसे की जा सकती है
वैसे क्रिकेट की बराबरी कोई और गेम कर ही नहीं सकता, दौड़ तो कतई नहीं , भला यह भी कोई खेल हुआ कि जूते पहनो, ट्रेक सूट पहनो और दौड़ पडो , ना कोई गलब्ज़, ना हैट, ना पैड, ना कोई रोमांच ना रोमांस.
क्रिकेट खेलना एक तरह से संयुक्त परिवार में रहने जैसा होता है , सारे सदस्यों को एक साथ रखना कित्ती मुश्किल बात है ,ये दौड़ जैसा एकल परिवार वाला खेल क्या समझेगा ?
बौल फेंकते समय जो एकाग्रता चाहिए वह किसी और खेल में कहाँ ? हर पल बौल पर गर्ल फ्रेंड की तरह पैनी नज़र रखनी होती है ,इधर बौल से नज़र हटी उधर टीम से बाहर. कूटनीतिक चालें अपनानी होती है , देखना दाईं तरफ, और फेंकना बाएँ तरफ . फेंकते - फेंकते अचानक रुक जाना ,गुस्सा आ जाए तो बौल पर थूक का लेप लगा देना ,१८० की स्पीड से दौड़ते हुए आना और अचानक घुर्रा फेंकना.
और दौड़ में क्या है बस नाक की सीध में दौड़ते जाना , ना कोई तिकड़म, न कोई लात घूंसा ना गाली गलौज ..ना चीअर ना चीयर गर्ल्स .
फील्डिंग करने में कित्ती जोखिम है कभी देखा है ...फ्रंट के दर्शकों की बोतलें,खाली रेपर्स से लेकर गाली तक खानी पड़ती है ...इतनी सब दिक्कतों को भी झेल लिया जाता है बशर्ते पैसा लगातार मिलता रहे ,लेकिन इन्हें क्या मिला ? , सहवाग और युवराज बेचारे तो लगभग रो ही पड़ते हैं '' जब तक बल्ला चलता है तब तक ठाठ हैं '' उसके बाद इनका क्या होगा यह सोचकर ही आँसू आ जाते हैं और युवराज उसकी इंजरी पर तो दुनिया का ध्यान ही नहीं गया , लगती होगी और खेलों में भी चोट , लेकिन क्रिकेट में इंजरी जैसी कोई चोट नहीं हो सकती .ये सीधे दिल पर लगती है .इतनी चोट - चपेट खाने के बाद भी इन्हें क्या मिला?
हमने कभी सोचा नहीं था कि इन्हें इतनी आर्थिक असुरक्षा होती होगी ,क्या किसी और खेल के खिलाडी को हमने इस तरह पैसों का रोना रोते हुए देखा ? असुरक्षा की इतनी गाढी क्रीज़ तो किसी रिक्शे चलाने वाले या दिहाड़ी पर लगे हुए मजदूर के माथे पर भी देखने को नहीं मिलती, जिसको पता ही नहीं कि कल अगर शहर बंद हुआ चूल्हा कैसे जलेगा? दुनिया भर के उत्पाद बेचने वाले इन क्रिकेटरों को बिना बौल के एल . पी. डब्लू. होते देख कर मन खिन्न हो जाता है..आओ साथियों सब मिल कर धिक्कारें , साथियों सब मिल कर धिक्कारें ,
धिक्कार है, इन पेप्सी, कोक वालों को, इन एडिडास वालों को, इन पेन , पेंसिल बनने वालों को, करोडों की बोली लगाने वालों को ,उन्हें भी धिक्कार जिनकी शानदार पार्टियों में इन्होने ठुमका लगाया , दुकानों के रिबन काटे ,रियलिटी शो में शो पीस बने , जिनके लिए इन्होने अपना बल्ला तक ताक पर रख दिया, धिक्कार की यह सूची इतनी लम्बी है कि एक पोस्ट में उन्हें समेटना संभव नहीं हो पायेगा ,बाकी अगली पोस्ट में .