ज़माना बहुत बदल गया है ,पहले यदि कोई विद्यार्थी दीवाली के दौरान स्कूल में गलती से भी फुलझडी या हैण्ड बम चलाता था तो फुलझडी से ज्यादा चिंगारियां मास्साबों की आँखों से बरसती थीं, और यह भेद करना मुश्किल हो जाता था कि किसकी आवाज़ ज्यादा तेज है ,पटाखे की या पिटाई की .
आज बच्चे पंद्रह दिन पहले से बम फोड़ना शुरू कर देते हैं , यह बच्चों की कृपादृष्टि और स्वयं मास्साब की लोकप्रियता पर निर्भर करता है कि बम फोड़ने की जगह कौन सी होगी ,मास्साब की मेज़ के ऊपर या उनकी कुर्सी के नीचे. निकट भविष्य में बम की जगह आर,डी.एक्स.
आने वाला है . पहले माता पिता रोशनी को ज्यादा महत्त्व देते थे , शुद्ध लोग थे, सो घरों में शुद्ध घी खाया भी जाता था और दीयों में जलाया भी जाता था ,अब मनुष्य रिफाइंड आदमी बन गया है गरीब आदमी कोल्हू में बैल की तरह रात - दिन पिसता है, अमीर लोग उससे निकले हुए तेल को रिफाइंड करके दिए में डाल कर जलाते हैं. कई जगह दियों में मोमबत्तियां सुशोभित रहती हैं ,ताकि दूर से देखने वाले को देसी घी के दिए का भ्रम बना रहे .
आजकल माता पिता आवाज़ को ज्यादा महत्त्व देते हैं , क्यूंकि अब घरों में आवाजें नहीं होतीं , ना किसी के आने की आहट, ना बच्चों के हंसने , खेलने ,खिलखिलाने ,दौड़ने ,और भागने की. इसीलिए इन आवाजों को पटाखों और बमों के रूप में बाहर से एक्सपोर्ट करना पड़ता है ,घरों में दो ही चीज़ बोलतीं हैं एक टी. वी. दूसरा मोबाइल.
पहले के लोग हँसी मज़ाक की फुलझडीयाँ छोड़ते थे ,आजकल के लोग अन्दर ही अन्दर सुलगते रहते हैं फटते नहीं ,मामूली बातों पर विस्फोट कर डालते हैं ज़रूरी मसलों पर फुस्स बम हो जाते हैं . पहले एक बच्चा अनार जलाता था और सौ लोग उस बच्चे को देखते थे ,आज एक बच्चा सौ अनार अकेले जला लेता है ,उसे देखने वाला एक भी नहीं होता.
पहले घर की महिलाएं महीनों पहले से घर की साफ़ - सफाई करने लग जाती थीं ,कोना - कोना जगमगाता था ,आज घर को नहीं स्वयं को चमकाने में ज्यादा रूचि लेती हैं . घरों में हाथों से बनी कंदीलों के बजाय दीवाली के बम्पर ऑफर की खरीदारी रूपी झालरें जगह - जगह लटकी रहती हैं
हफ्तों पहले से पत्र और कार्ड्स में लिपटे, स्नेह से भीगे हुए ,रंग - बिरंगे शुभकामना सन्देश घर के दरवाजे पर दस्तक देते थे, जिन्हें बड़े प्यार से घर की बैठक में सजाया जाता था, अब हमारे ही द्वारा भेजा गया एस .एम् .एस .या ई .मेल .कई जगहों से फोरवर्ड हो कर लौट के बुद्धू घर को आवे के तर्ज़ पर हमारे पास वापिस आ जाता है, कहा जा सकता है कि यह हमसे भी ज्यादा फॉरवर्ड हो गया है
पहले महालक्ष्मी का इंतज़ार जोश -खरोश से होता था , दिल में हर्ष - उल्लास भरा होता था , आजकल अगर यह महीने के आखिर में हो तो कई महीने पहले से दीवाली का फंड अलग से बनाना पड़ता है कई बार उधार भी करना पड़ जाता है ..
पहले स्नेह बहता था अब शराब बहती है ,पहले हम मीठे होते थे तो मिठाइयों की विविधताएं नहीं हुआ करती थीं ,अब हम कड़वे हो गए हैं, और मिठाइयों की वेराइटी का कोई अंत नहीं मिलता .
सच कहते हैं बड़े - बुजुर्ग ज़माना बदल गया