आजकल परीक्षाओं का मौसम है| हमारे विद्यालय में गृह परीक्षाएं चल रही हैं|
गृह परीक्षा में ड्यूटी करने पर पैसा नहीं मिलता इसलिए इसे कटवाने के लिए हम अपनी सारी ताकत झोंक दिया करते हैं, हाँ अगर पैसा मिलता होता तो स्थिति इसके बिलकुल उलट होती. गृह परीक्षा और गृह युद्ध में ज्यादा फर्क नहीं होता है| बच्चों को जब पेपर दिया जाता है तो उनके चेहरे पर वैसा ही कौतुहल होता है जैसे पहली बार किसी आतंकवादी ने बन्दूक पकडी हो .समस्त काले अक्षर यकायक भैंस बराबर हो जाते हैं.
पेपर बाँटने के पश्चात हम उन्हें पहले नक़ल करने अर्थात आतंकवाद को पसारने का भरपूर मौका देते हैं, हम उन्हें नज़रंदाज़ करके पड़ोसी मुल्क यानी बगल की कक्षा के मास्टर से गप्प मारने चले जाते हैं , जैसे ही वे निश्चित होकर नक़ल करने लगते हैं हम चुपके से आकर उनकी कापियों का अधिग्रहण कर लेते हैं .
कभी - कभी गुस्से में अमेरिका की तरह मुँह से निकल जाता है " छिः ! किस स्कूल से पढ़कर आए हो ? किसने तुम्हें पास कर दिया ?इस पर वह बस अंगुली ही नहीं दिखाता है , उसकी हँसती हुई आँखें अचानक अल - कायदा की तरह पलटवार करती हैं "आप जैसों ने ही '''
कई बार अपने साथी अध्यापकों के रिश्तेदारों या टयूशन वाले यहाँ तक कि उनके चेलों तक की संदेहास्पद गतिविधियों को उसी तरह से नज़रंदाज़ करना पड़ जाता है जिस तरह भारत अपने मित्र राष्ट्र नेपाल की माओवादी गतिविधियों को करता है.
कई बार फर्जी एनकाउन्टर, यानी कि बात कोई और करे झापड़ किसी और को लगाकर अपने पक्ष में हवा बनानी पड़ती है. बच्चे सोचते हैं कि कब ये मास्टर रूपी फौज की नज़र पलटे और हम अपने साथ लाए हुए गोला बारूद यानी नक़ल सामग्री का प्रयोग करें, इनके गोला - बारूद रखने के गुप्त स्थानों का पता चल जाए तो देश - विदेश की सर्वोच्च जासूसी संस्थाएं चुल्लू भर पानी में डूब मरेंगी . हर संभावित जगह पर दबिश दिए जाने के बावजूद नकल में अक्ल वाला बाजी मार लेता है जो जितना प्रशिक्षित आतंकवादी होगा उसके गुप्त ठिकाने उतने ही खुफिया होंगे . बेवकूफ लोग मोजों में से गोला बारूद निकालते हैं और धर लिए जाते हैं . अक्लमंद शरीर के विभिन्न अंगों पर असलहे लपेट कर यानी प्रश्नों के उत्तर लिखकर लाते हैं और कभी पानी पीने, कभी टॉयलेट जाने के बहाने से उन्हें उतारते यानी धोते चले जाते हैं , पर्ची पकडी जाए तो अक्लमंद साइनाइड की तरह बिना देरी किये चबा लिया करता है. अन्य कोई विद्रोह होता तो ये भी बराबर का पलटवार करते परन्तु परीक्षा के दिनों में आपातकाल लगाकर इनके सारे अधिकार छीन लिए जाते हैं , इसका बदला ये बाद में घात लगाकर हमला बोलकर चुकाते हैं
कभी - कभी हम मास्टर लोग झपकी ले लिया करते हैं, वह भी इस अंदाज़ में कि सामने बैठा बच्चा तक यह समझता है कि मास्साब कोई गहन चिंतन में डूबे हैं.
लडकियां भी कम आतंकवादी नहीं होतीं ,हाँ लेकिन एक बात गौर करने वाली होती है , परीक्षा के दौरान इनके चेहरों की रौनक उसी तरह से गायब हो जाती है जैसे गूगल के मानचित्र में भारत से काश्मीर , नाक से लेकर लाल टीका माथे तक का सफ़र बिना किसी रोक टोक के वाघा - सीमा पार करता हुआ प्रतीत होता है , कपडे बिना प्रेस किये हुए, बिखरे - सूखे बाल , हाथ में लाल धागा, गले में काला ताबीज़ लटका हुआ होता है , डिब्बे में लाल फूल और उसकी हर पत्ती पर गणित का एक सूत्र, मानो ईश्वर स्वयं सामीकरण बनकर फूल पर उतर आए हों, मुझे पता होता है कि इस ताबीज़ में भी अवश्य ही भगवान् की कोई ऐसी कृपा बरसी होगी, लेकिन कभी उसे खोलने की हिम्मत नहीं हुई .भगवान् पर इतना अविश्वास करना ठीक नहीं होता.
अंतिम के पंद्रह मिनटों में हमारे थक जाने की वजह से उनके लिए मौसम अनुकूल हो जाता है , चेतावनी देने और लाख मुस्तैदी रखने के बावजूद में कुर्सी - मेजों की सीमा रेखा का अतिक्रमण बहुत तेज हो जाता है . कभी - कभी जिस तरह सीमा पर तैनात फोर्स घुसपैठ को चुपचाप खड़ी - खड़ी देखती रहती है उसी तरह से हमारी भी हालत हो जाती है , और हम पोखरण विस्फोट की तर्ज पर मेज पर डंडा पटककर बच्चों धमकाने की असफल कोशिश करते हैं .
उसके बाद कापियां जांचने की बारी आती है तब प्रश्नों के उत्तर कापियों में से ढूंढ़ना उतना ही दुष्कर कार्य होता है जितना कि पकडे गए उपद्रवियों में से एक निर्दोष को छांटना.
पता नहीं कि यह किसका दुर्भाग्य है कि लिखते तो ये भी शायद एक रूपया ही हों , लेकिन हम तक आज भी सिर्फ दस पैसे ही पहुँच पाते हैं .