रविवार, 24 मार्च 2013

इन पर कौन सा एक्ट लगेगा ?



 बिल तो पास हो गया लेकिन ये लोग किस दायरे में आएँगे ?

 साथियों,
             इस प्रकार के महानुभाव आपको बस और ट्रेन में थोक के भाव मिलेंगे। पूरी बस खाली हो तब भी ये आपकी ही बगल में बैठेंगे । ये बहाने - बहाने से नींद के झोंकों में डूब जाते हैं और आपके कंधे को तकिया बना लेते हैं । आप कितना भी अपने कंधे को झटका दें, उनका सर धकेल कर दूसरी तरफ लुड़का दें, कोहनी मार -मार के आपकी कोहनी दुखने लग जाएगी, इन्हें कुछ फर्क नहीं पड़ेगा । ये फिर बैतलवा डाल पर की तर्ज़ पर आपके कंधे पर टिक जाते हैं । '' भाई साहब, ठीक से बैठिये '' के आपके निरंतर जाप करने का इन पर कोई असर नहीं होता । दरअसल ये पूरी तरह होशो - हवास में रहते हैं । बस महिला के कंधे पर ही इन्हें ठीक से नींद आती है । अगर कोई पुरुष इनके बगल में आकर बैठ जाए तो इनकी नींद वैसे ही काफूर हो जाती है जैसे सजा सुनकर संजय दत्त और उसके चाहने वालों की । कभी - कभी नींद के सुरूर में ये इस कदर बेहोश हो जाते हैं कि इन्हें अपने हाथ पैरों के इधर - उधर चले जाने का होश नहीं रहता, ठीक उसी तरह जिस तरह खेनी प्रसाद वर्मा को अपनी जुबां का भरोसा नहीं रहता जो माइक को देखते ही बेकाबू हो जाती है । ये ऐसा जानबूझ कर करते हैं या वाकई नींद में ऐसा हो जाता है इस विषय पर अभी व्यापक शोध की सम्भावना है । लेकिन इतना तय है कि कोई पुरुष बगल में बैठा हो तो इनके हाथ पैर बेकाबू नहीं होते । अगर आप तंग आकर जोर से डांट दें या गुस्से से बड़बड़ाते  हुए दूसरी सीट में चली जाएं तो इनकी हालत  देखने लायक होती है । ये इतने मासूम से दिखने लगते हैं कि आपको भ्रम हो जाता है कि कहीं आप ही तो इनके साथ बदतमीजी नहीं कर रही थीं । ये अपनी आँखें मलेंगे, चारों और उबासी लेते हुए नज़र दौडायेंगे, अंगड़ाई तोड़ेंगे, सर तीन - चार बार जोर से को झटकेंगे । मानो सभी यात्रियों से कहना चाह रहे हों '' यात्री गण कृपया ध्यान दें, अभी अभी क्या हुआ मुझे कुछ नहीं पता ''।


 साथियों,
                            ये महानुभाव  आपको हर जगह  मिल जाएंगे । इन्हें दुनयावी भाषा में दुकानदार कहा जाता है । आप इनकी दूकान से कुछ भी  खरीदें, ये पैसा लेते या देते समय आपके हाथों को अवश्य स्पर्श करते हैं । ये स्पर्श थेरेपी के स्पेशलिस्ट होते हैं । इन्हें भय होता है कि यदि ये आपके हाथ को पकड़ कर पैसे ना लें तो इन पैसों को शायद धरती निगल जाएगी । आपके हाथों को छूकर इन्हें एहसास होता है कि पैसा एकदम सही हाथों में गया है । पुरुषों के साथ इन्हें कोई ख़तरा नहीं होता है । सो ये टूटे रूपये या रेजगारी इत्यादि को काउंटर पर रखकर छोड़ देते हैं । धरती निगल भी जाए तो इन्हें कोई परवाह नहीं । ये इस सिद्धांत पर अमल करते हैं कि मेहनत का पैसा औरत का होता है, चाहे वह पति की जेब से चुरा गया ही क्यूँ ना हो । इधर कुछ समय से भारत में जो मॉल कल्चर आ गया है उससे ये दुकानदार बहुत हताश हो गए हैं । यह भी क्या बात हुई कि कार्ड से पेमेंट कर दिया जाए और हाथों को गर्मी का एहसास ही न हो । इस तरह से दुकानदार और ग्राहक के मध्य सौहार्दपूर्वक सम्बन्ध कैसे स्थापित होंगे ? रीटेल में एफ़. डी. आई के. आने का जो विरोध हो रहा है उसका सबसे बड़ा कारण यही है । लेकिन इसे आउट नहीं किया गया ।

साथियों, 
                       आप लोग जानते ही हैं कि महिलाओं के पास कितनी ही कपड़े क्यूँ ना हो जाएं, जब भी अलमारी खोलती हैं लगता है अरे सब पुराने हो गए । अब क्या पहनूं ? इससे बड़ा धर्मसंकट किसी भी महिला के लिए कोई हो ही नहीं सकता । घंटों तक अलमारी को निहारने के बाद फटाक से बाज़ार जाकर दो - तीन सूट खरीद लिए जाते हैं और अंततोगत्वा दर्जी नाम के इस प्राणी की शरण में जाना पड़ता है । इनके पास जाएं और बिना नाप दिए आ जाएँ ऐसा हो ही नहीं सकता । अगर आप अपना पुराना सूट नाप के लिए देना चाहें तो ये फ़ौरन मना कर देते हैं '' नहीं जी, ये फिटिंग पुरानी है, हम नई नाप लेंगे ।'' आप अगर आनाकानी करेंगे तो ये कहेंगे, '' हमारा क्या है हम इसी नाप पर बना दते हैं लेकिन अगर सूट खराब हो गया तो हमसे मत कहियेगा ।'' सिलाई के सूट से महंगी होने के कारण आप डर जाती हैं । ना चाहते हुए भी पुनः नाप हेतु इंचटेप गले में लटकाए हुए इस अदने से प्राणी  सामने आपको हाथ  खोलकर प्रस्तुत होना पड़ता है । ये महाशय आपके हर अंग की तीन - तीन, चार - चार बार नाप लेता है । आप मन मसोस कर रह जाती हैं । एक हफ्ते बाद दी गयी तारीख पर आप अपने सूट के विषय में पूछने जाती हैं तो यह कहता है '' '' दीदी, आपकी नाप मिल नहीं रही है, दूकान में सफाई की वजह से खो गयी शायद ''। आप भुनभुनाते हुए इस भाई को पुनः नाप देती हैं । आजकल ये लोग शिकायत करते हैं '' जब से सिले सिलाए वस्त्रों का ज़माना आया है, हमारी रोजी रोटी पर संकट आ गया है । दरअसल ये संकट रोजी - रोटी पर नहीं है बल्कि नाप -जोख पर है । बचपन में एक कहानी पढ़ते थे ''जुम्मन दर्जी'' वाली, उसकी सिलाई इतनी मज़बूत होती थी कि भले  ही कपड़ा तार तार हो जाए लेकिन सिलाई सही सलामत रहती थी । उसे भी सिले सिलाए वस्त्रों का फैशन चलने से अफसोस होता था । उसका अफ़सोस भी जायज़ लगता था । आजकल के  दर्जी भी अफ़सोस करते हैं । इनका अफ़सोस भी जायज़ लगता है । 

साथियों,
               ये प्रजाति आपके आस - पास ही पाई  जाती है । आप सरलता से इन्हें पहचान नहीं पाते हैं । इनके पहिचानने के लिए सूक्ष्म नज़रों की आवश्यकता होती है । ये आपके नातेदार, रिश्तेदार, बन्धु, मित्र, हितैषी, सुख - दुःख में काम आने वाले कोई भी हो सकते हैं । इन्हें बच्चों से बहुत लगाव होता है ख़ास तौर से बच्चियों से । ये आपके घर की बच्चियों पर जब तब प्रेम की वर्षा करते रहते हैं । बच्चियां देखते ही ये अपने को रोक नहीं पाते हैं और लपक कर उन्हें गोद में उठा लेते हैं, चुम्बनों की वर्षा करते हैं, एक आध टॉफी, चोकलेट आदि देकर घंटों तक अपने पास बैठा कर रखते  हैं । अक्सर इनके पास एक अचूक अस्त्र होता है, कि इनके लड़के ही लड़के होते हैं, लडकियां नहीं होतीं । इसी वजह से ये आपके घर बहाने - बहाने से आया करते हैं । प्यार करते - करते ये भावातिरेक में यह भूल जाते हैं की इनके हाथ - पैर कहाँ जा रहे हैं । इस समय इनकी हालत साधु - महात्मा सरीखी हो जाती है । वास्तव में ये आध्यात्मिक उच्चता की स्थिति में पहुँच जाते हैं । अब ऐसे इंसान पर घर वाले किस प्रकार संदेह कर सकते हैं