कार - नामा --------
अब मैं गाड़ी पुराण पर आती हूँ । हाँ ! मैंने भी गाड़ी खरीद ली है । कौन सी खरीदी ? कितने की खरीदी ? कब खरीदी ? यह मत पूछियेगा । मैं नहीं चाहती कि किसी भी कार कंपनी को इसके माध्यम से प्रचार मिले ।
जब गाड़ी नहीं थी तब भी नाक में दम था--
'' कब खरीद रही हो गाड़ी ''? [ स्वगत ] जब पैसा होगा तब खरीद लेंगे ' । जब पास में सरकारी नौकरी हो तो ऐसा खुलेआम कहने में एक तो शर्मिंदगी होती है और दूसरे कोई विश्वास भी नहीं करता।
''आजकल तो सबके पास है गाड़ी ''।[ स्वगत ] सब के पास कैसे हुई जी ? हमारे पास तो नहीं है अभी । हम क्या सब में नहीं आते ?
''कब तक स्कूटी और बाइक से जाते रहोगे, अच्छा नहीं लगता ''? [ स्वगत ] अब तो लेनी ही पड़ेगी । हमें कार में देखकर उन्हें अच्छा लगे यह हमारा फ़र्ज़ बनता है ।
'' कुछ तो शर्म करो, इतने सारे बैंक लोन दे रहे हैं ''। [स्वगत ] क्या कहना ! ऐसा लगता है मानो बैंक बिना ब्याज के क़र्ज़ बाँट रहा हो और हम इंकार किये जा रहे हों ।
''बिन कार जीवन बेकार, अब तो ले डालो यार ''। [ स्वगत ] अभी तक की गयी पढ़ाई - लिखाई, ऊंची - ऊंची डिग्रियां, शादी - विवाह, बच्चे, नौकरी सब व्यर्थ सिद्ध हो गया ।
ऐसे नीति वचन सुन - सुन कर जब कान पक गए और एकाउंट में डाउनपेमेंट लायक बीस प्रतिशत रकम जमा हो गयी तब चल पड़े उधर, जिधर सारे डग एक न एक दिन जाते हैं अर्थात, गाड़ी लेने । आधे दिन में बैंक से चैक और बचे हुए आधे दिन में शोरूम से कार की चाभी हाथ में लेकर हम कार के मालिक की हैसियत से घर आ गए । सुबह गए थे तब दोपहिए के मालिक थे, शाम को लौटे तो चार पहियों के स्वामी हो चुके थे । जो यह कहते है कि भारत में लालफीताशाही और लेट लतीफी है, उन्हें भारत में आकर कार ज़रूर खरीदनी चाहिए वह भी किस्तों में ।
मारे खुशी के चाभी का छल्ला उंगली में झुलाते हुए मुझे कई बार आभास हुआ कि निकट भविष्य में ऐसा भी समय आने वाला है जब इंसान के मुंह से 'कार' निकला नहीं कि कंपनी वाले दरवाज़े पर '' ये लीजिये चाभी, आपने पांच मिनट पहले कार लेनी है कहा था ''।
कार के मालिक हैं हम आज से । इतनी बड़ी खुशी अकेले कैसे हज़म करते ? अपने परिचितों, रिश्तेदारों को फोन से यह महत्वपूर्ण सूचना दी । कुछ ने बधाई दी कुछ चुप्पी साध गए । जब आस - पड़ोस में दो - दो लड्डू कागज़ की पुड़िया में रख कर बांटने लगे तब वही लोग जो अक्सर कार खरीद लेने के लिए सलाहें दिया करते थे, बधाई देना भूल कर कहने लगे ---
'' आजकल तो हर ऐरे - गैरे, नत्थू खैरे के पास गाड़ी हो गयी है ''। इनका तहे दिल से आभार । खुद को समाज का सम्माननीय नागरिक समझने की गलतफहमी से मुक्ति मिल गयी ।
'' खरीद तो लेते हैं सभी लेकिन चलाने की औकात हर किसी की नहीं होती ''। इनका भी शुक्रिया । इंसान को अपनी औकात जाननी हो तो कार ज़रूर खरीद लेनी चाहिए ।
''चपरासी भी गाड़ी से चलते हैं आजकल ''। कार को वास्तविक रूप से समाजवाद स्थापित करने का आभार ।
'' पैसा बहुत है आजकल लोगों के पास, कहाँ फेंकू, कहाँ फेंकूं सोचते रहते हैं ''। कोटिशः धन्यवाद । हमें पैसे वाला समझ ही लिया गया आख़िरकार ।
''नई है या सेकेण्ड हैण्ड ?, आजकल अंदाज़ ही नहीं लगता''। ये भी खूब बात है । आए - दिन नई - नई कारें लांच करती कम्पनियाँ पता नहीं इसे सुनकर खुश होंगी या दुखी होंगी ।
'' हफ्ते में एक बार खड़े - खड़े स्टार्ट कर लेना वरना बैटरी खराब हो जाएगी ''। पड़ोसियों को हमारी नई गाड़ी की कितनी फ़िक्र है । कौन कहता है आजकल के पड़ोसी किसी के सुख - दुःख में काम नहीं आते ?
यूँ कार क्यों खरीदी जाए इस पर भी व्यापक शोध की सम्भावना है । मेरे आस - पास देखते ही देखते सभी लोग कार वाले हो गए । जितनी कारें उससे ज़्यादा उसे खरीदने के कारण पैदा हो गए । सबके पास अपना अलग कारण । सबकी अपनी अलग ज़रूरतें ।
एक ने कहा, ''बीमारी में अस्पताल जाने की सुविधा होती है ''।
गौर से सोचा जाए तो इंसान की आधी बीमारियां भी कार पर सवार होकर ही आती हैं । पैदल चलना कम हो जाता है । इंसान हर वीकेंड पर बाहर खाने के लिए जाने लगता है । पाचन तंत्र धीरे- धीरे कमज़ोर पड़ने लगता है । कॉलेस्ट्रोल का स्तर नई उचाईयों पर पहुँच जाता है । पेट्रोल के नित्य घटते और बढ़ते हुए दामों से दिमाग में हर समय तनाव हावी रहने लगता है । हर आने - जाने वाले को उनके परिचितों से मिलवाने ले जाना और जाते समय उन्हें स्टेशन तक छोड़ना, इन सबमें ब्लडप्रेशर और शुगर दोनों बढ़ जाते है ।
दूसरे ने कहा, ''सभी सदस्य एक साथ कहीं भी आ - जा सकते हैं ''। इस तर्क में दम लगता है । सभी का मतलब पति - पत्नी ,दो बच्चे और माँ या बाप में से कोई एक । कार में सीट तो पांच ही होती हैं ना । इनमे से चार तो स्कूटर में भी आ जाते थे ।
तीसरे के शब्द थे, '' शादी - ब्याह में जाना आसान होता है'' ।
यह कारण थोड़ा वाजिब जान पड़ा । कार में सवार होकर शादी जाने से साड़ी की क्रीज़ और मेकअप के खराब होने का खतरा नहीं रहता । शादी - ब्याह में जाने का आधा मूड तब चौपट हो जाता है जब वापिस लौटने के लिए रिक्शे ,टेम्पो या बस का इंतज़ार करना पड़ता है । खाना खाने में भी मन नहीं लगता और सारा समय नज़रें उन कार वालों के ऊपर जमी रहतीं हैं जिनका घर हमारे घर रास्ते में पड़ता है । जैसे ही वे बाहर निकलते हैं, हम भी उनकी कार के सामने जाकर खड़े हो जाते हैं और उन्हें देखकर खीसें निपोरने लगते हैं । मजबूरन उन्हें साथ चलने के लिए पूछना ही पड़ जाता है और फिर सारा रास्ता वे कार खरीदने की नसीहतें और कौन सा मॉडल खरीदें इसका सुझाव देते हुए काट देते हैं।
चौथे ने थोड़ा सोचकर बताया, ''स्टैण्डर्ड मेंटेन करने के लिए ज़रूरी हो गया है आजकल''।
पांचवे के विचार थे, ''दफ्तर या ऑफिस जाने में आसानी होती है''।
जिस तरह सभी नदियां समुद्र में जाकर मिलती हैं उसी तरह गाड़ी खरीदने के सभी कारण एक ही जगह जाकर मिलते हैं, '' उसने भी खरीद ली, इसने भी खरीद ली, बस मैं ही रह गया । ये जो कल तक साइकिल से चलते थे सिर ऊपर नहीं उठाते थे, और आज जब कार में बैठे होते हैं तो कैसे घमंड से देखते हैं सड़क पर चलने वालों को । क्या मैं इन सबसे भी गया गुज़रा हूँ जो एक कार तक नहीं खरीद सकता ? लानत है मेरी नौकरी और क़र्ज़ लुटाते बैंकों पर ।
कार खरीदना एक ऐसे लड़के के लिए लड़की देखने जाने जैसा होता है, जिसके पास न नौकरी हो न रहने की जगह हो, लेकिन शादी करने की प्रबल इच्छा हो । लड़के की इच्छा का सम्मान करना चाहिए ऐसा सोचकर जब लड़के के माँ - बाप उसकी शादी कर सकते हैं तो हम बिना पार्किंग, बिना पक्की सड़क, गेट या मोड़ने की सुविधा के बिना कार नहीं ले सकते क्या ? ऐसी ही विकट किन्तु ज़रूरी परिस्थितियों में हमारी गाड़ी भी आकर खड़ी हो गयी आँगन में, अपनी पूरी आन - बान -शान के साथ । इतने साल के इंतज़ार के बाद नई - नवेली दुल्हन की तरह शर्माती हुई खड़ी है । इसके स्वागत - सत्कार में कोई कमी नहीं रखी जाएगी, यह सोचकर सबसे पहले पिछली दीपावली से पूजा में रखा हुआ नारियल फोड़ा । आरती उतारी । सबसे नज़दीकी मंदिर में इस नई दुल्हन को ले गए । देश में जगह - जगह मंदिर होने का यह फायदा भी है कि गाड़ी को दूर नहीं ले जाना पड़ता अन्यथा पहले ही दिन पेट्रोल के दाम दिल में फंस कर रह जाते । यूँ अभी तक हमने पेट्रोल दामों से कोई सरोकार नहीं रखा था । वह तीन रूपये महंगा हो रहा है या दो रुपया सस्ता, हमारी सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता था । गाड़ी जो नहीं थी । अब जब गाड़ी आ गयी तो पेट्रोल के दाम के साथ अपनापा भी आ जाएगा ।
मंदिर के पुजारी ने राई - मंतर करके नज़र उतारी । पता नहीं किसकी नज़र लगती ? मोहल्ले में सबसे बाद में तो हमारी आई । हमारे लाख आहें भरने के बावजूद हमारी नज़र तो आजतक किसी की गाड़ी पर नहीं लग पाई, फिर भला हमारी सबसे सस्ती गाड़ी पर क्यों कोई अपनी नज़र लगाएगा ? भक्ति से भरे हुए वातावरण में ऐसे तुच्छ से प्रश्नों को दिल में ही जज़्ब कर जाना पड़ा ।
सुई - धागे से सिलकर गाड़ी में नीबू मिर्च लटका दिए । घर में पड़े - पड़े सूख रहे थे और बाजार वाला महंगा बेच रहा था। ड्राइविंग सीट के सामने शीशे के ठीक नीचे एक छोटी सी घंटी लटका दी, जिसे मंदिर के पुजारी, जिनकी मंदिर के एक कोने में नाना प्रकार के धार्मिक एवं नज़र उतारू वस्तुओं की दुकान भी है, से कार की नज़र उतारने एवज़ में खरीदना पड़ा था । घंटी सामने लटकी हो तो हर मंदिर आने पर टन्न से बजाने में आसानी होती है, कई ड्राइवरों को मैंने ऐसा करते हुए देखा है । हिंदुस्तान में हर दस मिनट की दूरी पर एक मंदिर है अतः ड्राइवर का एक हाथ स्टेयरिंग में और दूसरा हाथ घंटी में रहता है । एक प्लास्टिक के हनुमान जी भी सामने गदा पकडे हुए लटका दिए । डैश बोर्ड पर प्लास्टर ऑफ़ पेरिस के शिवजी बैठा दिए । इतनी सिक्योरिटी जुटाने के बाद भारतीयों को ड्राइविंग सीखने की ज़रूरत ही क्या है ?
यही मैंने समझाना चाहा पति महोदय को लेकिन उन्होंने समझने से बिलकुल इंकार कर दिया ।'' गाड़ी सीख लो, तुम्हें आसानी होगी'' ऐसा उन्होंने कहा । दरअसल मेरे गाड़ी सीखने से आसानी उन्हें होने वाली थी लेकिन ऐसा उन्होंने कहा नहीं, परन्तु मैंने समझ लिया । पति - पत्नी एक दूसरे के संवादों के बीच छिपे हुए अर्थ मन ही मन समझ जाते हैं ।
मैंने उन्हें विश्वास में लेने की बहुत कोशिश करी कि '' औरतें बड़ा सा काला चश्मा लगाए हुए पति की बगल में बैठी हुई ही अच्छी लगतीं हैं । ये धूप भी कितनी कमाल की होती है जो गाड़ी चलाने वाले पति की आँखों में नहीं लगती बल्कि बगल में बैठी पत्नी को लगती है जिस कारण वे बड़े - बड़े गॉगल्स लगाने पर मजबूर हो जाती हैं । कितने खुश दिखते हैं सारे पति अपनी - अपनी पत्नियों को गाड़ी में बैठा कर दुनिया भर की सैर कराते हुए । रास्ते भर वो मुझे सड़क पर गाड़ी चलाती हुई महिलाएं दिखा रहे थे और मैं उन्हें पति के बगल में बैठी हुई महिलाओं को । निगाहों में फर्क शायद इसी को कहते हैं । मुझे सड़क पर गाड़ी चलते हुए सभी पुरुष नज़र आ रहे थे उन्हें केवल स्त्रियां ही दिख रहीं थीं ।
मेरे सारे तर्कों को उन्होंने वही घिसी - पिटी सालों से चली आ रही पंक्तियों से काटने की कोशिश की, ''आजकल की औरतें हवाई जहाज चला रहीं हैं और तुम कार तक नहीं सीखना चाह रही हो ''।
मैंने भरपूर प्रतिरोध किया, '' हवाई जहाज तो मैं भी चला लूंगी लेकिन इस शहर की सड़कों पर गाड़ी चलाना कितना मुश्किल है, जहाँ न सड़कें हैं, न ट्रैफिक के नियम हैं और न उन नियमों को मानने वाले हैं । हवाई जहाज चलाने वाली महिलाऐं ज़रा यहाँ की सड़क पर चला कर दिखाएँ'' । ये निशाना नहीं लगा तो उन्होंने दूसरा पासा फेंका । बड़ी चालाकी से गाड़ी चलाने को उन्होंने महिलाओं के आत्मसम्मान और आज़ादी से जोड़ दिया । मैंने दबे स्वरों में कई बार कहा '' मेरे लिए मेरी स्कूटी से ही पर्याप्त आत्मसम्मान की सप्लाई हो जाती है और आज़ादी का मतलब विचारों की आज़ादी होना चाहिए न कि गाड़ी चलाने की आज़ादी । मेरे सारे तर्क हमेशा की तरह उनकी निगाह में खोखले सिद्ध हुए और इतवार का दिन मुझे ड्राइविंग सिखाने के लिए मुक़र्रर कर दिया गया । बालों में मेहंदी लगाने वाला अनमोल समय समय ड्राइविंग जैसी फालतू चीज़ पर कुर्बान करने का मुझे बहुत अफ़सोस हुआ । लेकिन कुछ नहीं किया जा सका । उन्हें मेरे बालों की सफेदी मंज़ूर थी लेकिन ड्राइविंग सीखना टालना नामंज़ूर । सुबह - सुबह चल पड़े हम खाली सड़क पर । अपने कई मित्रों को ड्राइविंग सिखाने वाले और उसकी शान बघारने वाले पति की उम्मीदें तब धाराशाही हो गईं जब दिन समाप्ति कगार पर आ गया और मुझे क्लच क्या है ? गेयर , ब्रेक और एक्सीलेटर कौन से हैं यही समझ में नहीं आए । उन्होंने मुझसे कहा सिंपल सा फार्मूला है ----A फॉर एक्सीलेटर B फॉर ब्रेक C फॉर क्लच याद रखना है बस । उन्होंने कह दिया बस लेकिन उन्हें नहीं पता कि शिक्षा में यही सबसे मुश्किल होता है। इसे ही सिखाने में टीचर्स को नानी याद आ जाती है । जब हमारे विभागीय अधिकारी ही ये बात समझ नहीं पाते तो पतिदेव को कहाँ से समझ में आता । उन्हें बार - बार यह महसूस हो रहा था कि मैं उन्हें परेशान करने के लिए ऐसा अभिनय कर रही हूँ । हम दोनों एक दूसरे को अपनी तकलीफ नहीं समझा पा रहे थे । यूँ शादी के महीने भर बाद वे यह मानने लगे थे कि उपरवाले ने मेरा निर्माण उन्हें तकलीफ देने के लिए ही किया है । कार सिखाने की इस घटना के बाद से उपरवाले पर उनका रहा - सहा विश्वास भी जाता रहा ।
एक हफ्ते तक लगातार मेरे पीछे माथा पच्ची करने के बाद जैसे मैं अपने स्कूल में बच्चों के आगे हार मान लेती हूँ कि 'तुम्हें कोई कुछ नहीं सिखा सकता' उसी तरह ''औरतों को दुनिया की कोई ताकत ड्राइविंग नहीं सिखा सकती'' कहकर उन्होंने भी आखिरकार हार मान ली । '' बेचारे बच्चे '' मेरे द्वारा रोज़ डांट - फटकार खाते उन बच्चों के साथ मुझे अचानक से बहुत सहानुभूति हो गयी । खुद मुझे ही विश्वास नहीं हो पा रहा था कि ये मैं ही हूँ क्या ? सुबह चार बजे उठने के बाद से एक हाथ से रोटी बनाकर दूसरे हाथ से चाय बनाती हूँ । फिर एक हाथ से अपना और बच्चों का नाश्ता पैक करती हूँ दूसरे हाथ से बच्चों पानी की बोतलें भर कर रखती हूँ । इसी दौरान पानी गर्म करना और बच्चों के कपड़े निकालकर बिस्तर पर रखना भी चलता रहता है ।
एक हफ्ते की घनघोर मशक्क़त के बाद भी कार के साथ मेरी कुंडली मेल नहीं खा पा रही थी । राहु, केतु और शनि मानो क्लच, एक्सीलेटर और गेयर का रूप बदलकर मेरी कुंडली में कुंडली जमा कर बैठ गए थे ।
वे मानें या न मानें लेकिन कार सीखने की मैंने भरपूर कोशिश की । सपने में भी मैं खुद को स्टीयरिंग थामे देखती थी । रात भर पैर कवायद करते रहते थे कभी ब्रेक कभी एक्सीलेटर आँखों के सामने नाचते रहते । उन दिनों मैं सोचती थी कि सरकार ऐसे लोगों को अर्जुन पुरस्कार क्यों नहीं प्रदान करती है जो कार चलाते हुए मोबाइल में बात भी करते जाते हैं, सिगरेट सुलगा लेते हैं , दारु पी लेते हैं, और भी पता नहीं क्या - क्या कर लेते हैं ।
बहुत सोच - विचार कर मेरे लिए ड्राइविंग स्कूल में सीखने की व्यवस्था की गयी । इसके लिए भारत में सबसे ज़्यादा कारें बेचने वाली कंपनी की सेवाएं ली गईं । कंपनी का कर्मचारी बिलकुल सरकारी कर्मचारी के सदृश्य मेहनतकश निकला । पहले दिन ही उसने जान लिया कि मैं सरकारी नौकरी में हूँ । आम भारतीय की तरह उसके भी दिमाग में यह बात आ गयी कि मेरे पास बोरों में भरकर रुपया - पैसा रखा हुआ है । दूसरे दिन उसने मेरे घर का पता पूछा और तीसरे दिन वह सुबह - सुबह अत्यंत आवश्यक कार्य लिए मुझसे दो हज़ार रूपये उधार मांग कर ले गया कि दो - चार दिन में वापिस कर देगा । ''अभी नहीं है'' कहने में संकोच हुआ कि कहीं वह यह न समझे कि मेरी कमाई पर मेरा इतना भी हक़ नहीं है। अतः दो हज़ार रूपये मन मारकर देने पड़े । दो - चार दिन गुज़र गए । इन दो - चार दिनों में ड्राइविंग सीट पर मैं अब थोड़ा - थोड़ा सहज महसूस करने लग गयी थी । असहजता मुझे तब महसूस होने लगी जब प्रशिक्षण अवधि ख़त्म होने में एक - दो दिन ही बाकी रह गए । मैं इंतज़ार करती रह गयी पर उसने रूपये लौटाने का नाम नहीं लिया । एक - दो बार याद दिलाने पर उसने इतनी बार सॉरी - सॉरी का पाठ किया कि मुझे अपनी क्षुद्रता पर शर्म आने लगी । उसने वादा किया कि वह स्वयं आकर दे जाएगा और मुझे तकलीफ नहीं होने देगा ।
प्रशिक्षण असफलतापूर्वक ख़त्म हो गया । असफलतापूर्वक इसलिए क्यूंकि उसने उन निर्जन स्थानों पर ड्राइविंग का अभ्यास करवाया जहाँ परिंदा भी पर नहीं मार सकता था । मैंने बार - बार उससे भीड़ वाली सड़क पर सिखाने की ज़िद की लेकिन उसने अनसुना कर दिया । उसके पैर में भी ब्रेक और क्लच होने के कारण आख़िरी दिन तक मुझे पता नहीं चल पाया कि मैं कितने पानी में हूँ । प्रशिक्षण ख़त्म होने के दिन पति बहुत खुश हो गए कि अब उन्हें मेरा ड्राइवर नहीं बनना पड़ेगा, जिसका कि डर उन्हें शादी की शुरुआत से ही था । पता नहीं हम औरतों को कभी यह डर क्यों नहीं लगता कि हम शादी के बाद किसी के घर की नौकरानी बनकर रह जाएँगी ? हम घर की मालकिन होने के झूठे एहसास को पकड़ कर सारी उम्र काट लेती हैं । पतिदेव इतने खुश हो गए कि तुरंत गाड़ी बाहर निकाल कर मेरी परीक्षा लेने लगे । मैं भी ताज़ा प्रशिक्षण प्राप्त किये होने के कारण आत्मविश्वास से लबालब होकर ड्राइविंग सीट पर बैठ गयी । जैसे ही गाड़ी स्टार्ट करनी चाही वह इतनी ज़ोर से झटके के साथ आगे बढ़ गयी कि मैं सब भूल गयी , कहाँ ब्रेक हैं, कहाँ हॉर्न है, और फिर मुझे अपनी ज़ोर की चीख के साथ धड़ाम की आवाज़ सुनाई दी । उसके बाद पांच हज़ार प्रशिक्षण की फीस और पंद्रह हज़ार गाड़ी बनवाने के । यह आत्मविश्वास दिखाना मुझे कुल जमा बाईस हज़ार रुपयों में पड़ा । दो हज़ार उधार दिए भी इसमें जोड़ देना पड़ा क्यूंकि प्रशिक्षण देने वाले ने मुझे वाकई तकलीफ नहीं दी, उस दिन के बाद से उसका सिम बदल जो गया था । ऑफिस जाकर पता चला कि यह उसका अंतिम बैच था और अब वह दिल्ली के किसी अमीर आदमी को अपनी सेवाएं देगा । मैं खिसियाई हंसी हंस कर रह गयी जब वहां रिसेप्शनिस्ट ने पूछा '' वह आपसे भी पैसे ले गया क्या ''?
बाईस हज़ार के नुकसान से से उतनी तकलीफ नहीं हुयी जितनी यह सुनकर हुई,'' तुम औरतें बस बेलन और करछी पकड़ने के लायक हो ''। ऐसा कुछ मुझे सुनाई दिया लेकिन उन्होंने ऐसा बिलकुल भी नहीं कहा नहीं कहा, ऐसा वे दावे के साथ कई दिन तक दोहराते रहे ।
यह झटका वाकई बड़ा था । शारीरिक और आर्थिक दोनों प्रकार की हानि की आशंका के मद्देनज़र दोबारा स्टीयरिंग पकड़ने का साहस नहीं हुआ । महीने भर की शान्ति रही । मैं निश्चिन्त हो गयी थी । मेरी निश्चिंतता देखकर पति महोदय परेशान हो गए । बार - बार मेरे आगे वह शेर दोहराने लगते , '' गिरते हैं शहसवार ही मैदान - ए - जंग में, वो तिफ़्ल क्या गिरे जो घुटनों के बल चले ''। मुझे शहसवार बनने की तनिक भी इच्छा नहीं है, मुझे तिफ़्ल ही रहने दिया जाए, मैंने साफ़ - साफ़ कहा । बहुत दिनों के बाद लम्बी शान्ति जो मिली थी । किसे पता था कि वह तूफ़ान के आने से पहले की शाांति थी ।
फिर एक दिन दरवाज़े की घंटी बजी और ड्राइविंग को ज़िंदगी के अनिवार्य पाठ्यक्रम का दर्जा देते हुए मुझसे बिना पूछे मुझे दूसरे ड्राइविंग स्कूल वाले की शरण में डाल दिया गया ।
दूसरे ड्राइविंग स्कूल वाले ने मुझे गाड़ी सहजतापूर्वक चलाने के कुछ नुस्खे बताए जिन्हें आप सब को बताना मैं अपना कर्तव्य समझती हूँ --------
''एक्सीडेंट से कभी डरना नहीं चाहिए, गाड़ी चलाते समय बेधड़क होकर रहना चाहिए । यूँ समझना चाहिए कि सड़क अपने बाप ने बनवाई है और बाकी लोग इस पर आपकी दरियादिली के कारण चल रहे हैं '' ।
''जानवरों की वजह से कभी गाड़ी की स्पीड काम नहीं करनी चाहिए । जिस दिन आपकी गाड़ी के नीचे पहला कुत्ता आके मर गया, समझो आपको गाड़ी चलानी आ गयी । कुत्ते गाड़ियों के लिए नारियल के सामान होते हैं । पहिये के नीचे इनका सर आते ही समझो शगुन हो गया और पहली बाधा पार हो गयी । आपके दिल में जो डर बैठा हुआ है वह भी इसी से जाएगा ''।
''औरतें अगर गाली देना सीख जाएं तो देखना चुटकियों में गाड़ी सीख सकती हैं । गलती चाहे अपनी हो लेकिन अगर आपको धुँवाधार, धाराप्रवाह घनघोर किस्म की गालियां देना आता हो तो कोई आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकता । पुरुषों को देखा है कितनी जल्दी सीख लेते हैं । मैं तो कहता हूँ कि गाड़ी खरीदने से पहले हर महिला के पास गालियों का भरपूर भण्डार होना चाहिए । गालियां सीट बेल्ट से ज़्यादा महत्वपूर्ण होती हैं । सीट बेल्ट आपको मात्र दुर्घटना से बचाने में सहायक होती है, जबकि गालियां आपको दुर्घटना होने बाद होने वाले लड़ाई - झगडे और मुआवज़े की रकम बचाने में सहायक सिद्ध होती हैं''।
'' सड़क पर गाड़ी हमेशा यह सोचकर उतारनी चाहिए की हम गाड़ी चलाने लिए ही सड़क पर आए हैं, हमारे पास ब्रेक नहीं है । ब्रेक नाम की चीज़ अगले के पास हैं । रोकनी होगी तो अगला रोकेगा, हम क्यों रोकें'' ?
''दुर्घटनाएं हमेशा सामने वाले की गलतियों की वजह से होतीं हैं । यह सामने वाला ही होता है जिसके ऊपर आप जैसे नौसिखियों की गलती माफ़ करने की और उन्हें जगह देने की ज़िम्मेदारी होती है'' ।
'' गाड़ी पर खरोंच मतलब आपकी त्वचा पर खरोंच । गाड़ी पर निशान माने आपके अपने शरीर पर निशान । गाड़ी पर ज़रा से आघात को सीधे - सीधे दिल का आघात मानना चाहिए । पहले सड़क पर जम कर तमाशा करें । तमाशे से मन नहीं भरे तो पुलिस को बुलाने की धमकी देनी चाहिए । घबरा कर वह आपका मुंहमांगा मुआवज़ा देने को तैयार हो जाएगा । पांच सौ रूपये के नुकसान के लिए सीधे पांच हज़ार मुआवज़ा मांगने में ज़ुबान ज़रा भी लटपटानी नहीं चाहिए ।
'' ओवरटेक करने में इतनी उतावली दिखानी चाहिए जैसे कि स्टेशन में ट्रेन सीटी बजा कर आपको बुला रही हो या आपकी फ़्लाइट उड़ान भरने के लिए आपका इंतज़ार कर रही हो । पास लेने की जगह हो न हो आप हॉर्न बजाते रहिये । आस - पास के लोग लगातार पीं - पीं -पीं की कर्कश आवाज़ से तंग आकर किनारे हो जाएंगे, और आप आसानी से आगे निकल जाते हैं ''।
साथियों , गाड़ी सीखना आपके अनुभवों को नया विस्तार देता है, खासतौर से अगर आप महिला हैं तो अनुभवों की बाढ़ सी आ जाती है । रास्ते चलते कई तरह की बातें, कानों में यहाँ - वहाँ, कई - कई दिशाओं से आती रहती हैं । मसलन -
''ज़रूर कोई लेडीज़ होगी, ऐसी स्पीड में लेडीज़ ही चला सकती हैं
''चींटी जैसी चाल, न पास देंगी, न आगे ही जाएंगी''।
''कछुआ भी इनसे तेज़ चलता है'' ।
''आप अभी तक नहीं सीख पाई, हद हो गयी''।
इस तरह के वातावरण में, मैं या कोई अन्य महिला गाड़ी कैसे सीख सकती है बताइये ?