साथियों, दिसंबर का महीना बीत चुका है ,इस महीने की बीतने से मेरा मन उसी प्रकार दुखी है जिस तरह देश भर के शिक्षक अपने स्वर्णकाल के समाप्त होने से ज्यादा , सिब्बल युग के अविर्भाव के कारण दुखी हैं. मेरे पास इस माह का गुणगान करने के लिए उसी प्रकार शब्द नहीं हैं, जिस प्रकार स्टिंग ऑपरेशन में पकड़े जाने पर माननीय आँध्रप्रदेश के भूतपूर्व राज्यपाल के पास अपनी सफाई में कुछ भी कहने के लिए शब्दों का टोटा पड़ गया था .
इस महीने से मेरा जुड़ाव अकस्मात् ही नहीं हुआ, जबसे मैंने सरकारी नौकरी का दामन थामा है, तभी से मेरे ज्ञान चक्षुओं ने विस्तार पाया और इस महीने के प्रति मेरे मन में अनुराग उत्पन्न हुआ . प्राइवेट नौकरी वाले इस महीने के महत्त्व को उसी प्रकार नहीं समझ सकते .
साथियों, कवियों और लेखकों की नज़रों में बसंत के अलावा और कोई मौसम, मौसम कहलाने योग्य ही नहीं है, उन्होंने इस माह की उपेक्षा वैसे ही की जैसे आटा - दाल और चीनी के बढ़ते हुए दामों से हलकान जनता की टूटी कमर की वर्तमान सरकार ने.
साथियो, यही वह महीना है जब जाड़े की ऋतु अपने पंख फैला चुकी होती है ,और हमारे जैसे सरकारी कर्मचारियों को बची - खुची छुट्टियों की उसी प्रकार याद आ जाती है जिस प्रकार चुनावों के समीप आते ही नेता को यकायक जनता की सेवा करने की याद आ जाती है.
दफ्तर और स्कूलों से कर्मचारियों की उपस्थिति उसी प्रकार कम हो जाती है जिस प्रकार कोपेनहेगेन में हुए जलवायु परिवर्तन के सम्मलेन से विकसित देशों की. स्कूलों में बच्चे जाड़े के कारण पत्ते की तरह कांपते हैं, और हम मास्टर लोग घरों में ठाठ से आग तापते हैं. दफ्तरों में जाने पर आम जनता उसी प्रकार अपना सिर धुनती है जिस प्रकार कसाब के नित नए बयानों को सुनकर उसे पकड़ने वाली पुलिस, कि किस कुघड़ी में इस पर नज़र पड़ी थी. काश! इसके बदले किसी आम आदमी को पकड़ लाए होते तो कबके अपराध क़ुबूल कर चुका होता,और फांसी पर झूल चुका होता.
साथियों, यही वह महीना होता है जब कर्मचारियों की छुट्टियों का अक्षय पात्र , मंत्रियों के विवेकाधीन कोष की तरह खुल जाता है, पिछली सारी छुट्टियों पर लीपापोती करने के लिए सब उसी प्रकार से एकजुट हो जाते हैं जिस प्रकार विवेकाधीन कोष के दुरुपयोग का भांडा फूट जाने समस्त मंत्रीगण, मंत्रीमंडल को बचाने के लिए कंधे से कन्धा मिला लेते हैं.
साथियों, यही वह माह - ए - कलह होता है, जिसमे अधिकारियों और कर्मचारियों के बीच की खाई, अमीर और गरीब के बीच सदियों से चली आ रही खाई से भी ज्यादा गहरी हो जाती है, साल भर वह कर्मचारियों के साथ उसी प्रकार घुला मिला रहता है जिस प्रकार भारत के नक़्शे में दिल्ली. लेकिन इस महीने के आते ही अंडमान - निकोबार बनकर अपनी कुर्सी दूर कर लेता है, और छुट्टी की अर्जियों के अम्बार को फटी - फटी आँखों से ऐसे देखता है, जैसे गरीब आदमी आजकल दुकानों पर टंगी हुई राशन के दामों की लिस्ट को देखता है, अर्जियों पर हस्ताक्षर करते हुए वह इस प्रकार डरता है ,जैसे परमाणु अप्रसार संधि पर उससे जबरदस्ती हस्ताक्षर करवाए जा रहे हों.
कुत्ते के काटने से लेकर यात्रवाकाश तक .नाना प्रकार की छुट्टियाँ वातावरण में दिखाई पड़ती हैं, कर्मचारी गण छुट्टियों से सम्बंधित सरकारी आदेशों की प्रतियों को लाने में एक ऑफिस से दूसरे ऑफिस यात्रा करने में व्यस्त रहते हैं. यात्रवाकाश नामक छुट्टी अधिकतर अपने घर में एक कमरे से दूसरे कमरे तक यात्रा करके बिताई जाती है, लेकिन वर्णन ऐसे किया जाता है जैसे कि बिलकुल अभी - अभी शहर पहुंचे हैं, और कर्तव्यनिष्ठ इतने हैं कि बिना हाथ - मुँह धोए सीधे दफ्तर चले आ रहे हैं, प्रमाण के तौर पर थका हुआ चेहरा, अस्त - व्यस्त , तुड़े - मुड़े कपड़े, एक आध बैग और पड़ोसी से मांग कर लाया हुआ टिकट भी सुबूत के तौर पर कईयों के हाथ में दिखलाई देता है, और हर कर्मचारी को उसके दर्शन करवाए जाते हैं., घर पर आग सेंकते - सेंकते चिंगारी से जल जाने की घटना को रास्ते पर हुए एक्सिडेंट से जोड़ कर जीवंत बनाने की भरपूर कोशिश की जाती है.
इस माह कर्मचारियों के दाँत ठण्ड से किटकिटाते हैं ,और अधिकारियों के क्रोध से. अधिकारीयों को ठण्ड लगते ना कभी देखा गया और ना कभी सुना गया , कुर्सी से निकलने वाली गर्मी किसी भी तरह की ठण्ड को काटने की सामर्थ्य रखती है . वह तरह तरह के आदेश निकलवा कर कर्मचारियों के साल भर तक लगाए हुए छुट्टियों के गुणा भाग के गणित को काटता चला जाता है, शुक्र, शनिचर और इतवारों की गणना के बीच वह राहू - केतु बनकर कुण्डली मार कर बैठ जाता है, लेकिन कर्मचारी भी पुराने इतिहास के आधार पर नए - नए तोड़ निकाल कर उसके आदेश की उसी तरह धज्जियां उड़ाते हैं जिस तरह सपाई आजकल सपा की धज्जी उड़ा रहे हैं .जो कर्मचारी साल - भर तक नियमपूर्वक सुबह - शाम अधिकारी के ऑफिस में सलाम बजाते हैं, उनकी अर्जियों पर बिना देखे ही उसी प्रकार दस्तखत हो जाते हैं जिस प्रकार संसद में सांसदों, विधायकों की वेतन - वृद्धि और नाना प्रकार के भत्तों का बिल बिना किसी बहस के पास हो जाता है,
सरकारी नौकरी में आकर ही मैंने जाना कि छुट्टियों को स्वीकृत ना करना भी मानवाधिकार के हनन के दायरे में आता है, ''छुटियाँ मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और में इसे लेकर रहूँगा'' यह तो हर किसी की ज़ुबान पर जोर -शोर के साथ रहता है, लेकिन इस जन्मसिद्ध अधिकार को पाने में सफल वही होता है, जो सीधे अधिकारी के पास जाकर सीना तान कर कहता है ''तुम मुझे फ्रेंच लीव दो में तुम्हें अद्धा दूंगा ''
दिसंबर माह की महिमा तो अपरम्पार है .
जवाब देंहटाएंबहुत दिनों के बाद आपकी पोस्ट पढना काफी आनंद दायक रहा.अच्छी पोस्ट.
यह भी खूब रही...
जवाब देंहटाएंsateek rachana.badhayee
जवाब देंहटाएंदिसंबर माह की महिमा से हम कैसे इंकार कर सकते हैं ..हमारा तो अस्तित्व की इस माह से है हा हा हा ...अच्छी पोस्ट शैफाली बहुत दिनों बाद तुम्हें पढ़ा अच्छा लगा
जवाब देंहटाएंइतनी लम्बी छुट्टी ब्लॉगजगत से! पाठकों ने तो स्वीकार नहीं की थी।
जवाब देंहटाएंबढ़िया लेख!
घुघूती बासूती
दिसम्बर मास की महिमा से हम ङी अवगत हो गये!
जवाब देंहटाएंशानदार। मजेदार। जानदार। उपमायें जबरदस्त हैं। फ़िनिशिंग झकास। इसे मैंने ड्राफ़्ट में भी पढ़ा था सरसरी तौर पर कानपुर में। अब और किस्से भी फ़ाइनल किये जायें।
जवाब देंहटाएंbahut badhiyaa.
जवाब देंहटाएंlikhte rahiye.
zaraa, 2010 ke shuruaat ki mahimaa bhi bataa dijiye.
thanks.
www.chanderksoni.blogspot.com
बहुत लाजवाब.
जवाब देंहटाएंरामराम.
दिसम्बर-महिमा...आनन्दम..आनन्दम.
जवाब देंहटाएंमजा आ गया ! इतनी सारी उपमाऍं । लगता है लेख को ठंडी लग रही थी इसीलिए उपमाओं के स्वेटर और शाल पहना-पहनाकर आगे बढाया गया है ।
जवाब देंहटाएंआपके इतने अच्छे अच्छे लेख पढकर प्रोफाइल में लिखा हुआ कहीं छप नहीं पाई इसीलिए यहाँ चली आई हर बार खटकता है ।
''छुटियाँ मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और में इसे लेकर रहूँगा''
जवाब देंहटाएंसत्यवचन, शेफाली बहना...
जय हिंद...
बहुत अच्छा आलेख।
जवाब देंहटाएंओह ! तो मा साब गोया मामला ये कि आप सारी पोल खोले दे रही हैं सरकारी छुट्टियों की वो भी दिसंबर वाली , और उसमें भी मसाला डाल डाल के ,ठीक है जी। मजा आ गया ,आज ही औफ़िस में सबको पढवाए देते हैं
जवाब देंहटाएंअजय कुमार झा
अरे अब छटे वेतन मिलने के बाद भी अध्दा कुछ तो शर्म करो ।
जवाब देंहटाएंsundar aalekh vibhinn masalo se bhara ,aapki maa ki bhi rachna padi aapki di hui pustak se achchi lagi ,unke blog ke baare suna hai ,apne mitr se link lekar wahan bhi jaana hai ,meri jiji haldwani ki rahi aapko dekh unki yaad aa gayi .
जवाब देंहटाएंदिसम्बर आरती बना कर अपनी डेस्क के सामने टांक लें..आप तो कवियत्री हैं..बढ़िया रच लेंगी. :)
जवाब देंहटाएंमस्त रहा वर्णन!!
तुम मुझे फ्रेंच लीव दो में तुम्हें अद्धा दूंगा
-हा हा!
बहुत अच्छा लिखती हैं. शैफाली जी, आपके ब्लॉग का नाम तो मुझे बहुत ही पसंद आया. अपने कुमाऊँ की मिट्टी की खुसबू सी महसूस होती है.
जवाब देंहटाएंकाफी प्रेरणादायक आलेख है। अधिकारियों और कर्मचारियों को दिशा देने में मील का पत्थर सिद्ध होगा। ऐसे ही पोल खोलती रहिये। राजनीति, फजीहती इत्यादि धर्मों का बेहतर समन्वय।
जवाब देंहटाएंकहीं छप नहीं पाई इसीलिए यहाँ चली आई .....
जवाब देंहटाएंtotally wrong! jahan tak mughey yaad hai yr-1990-91 ke aas-pas aapki choti-choti kavitayen amar ujala,dainik jagran mai chapa karti thi,ho sakta hai mera sochna galat ho, but iam sure ki us samay Sefali Pant ya Shefali Pandey ke naam se koi likhta jarur tha,
हा.हा.हा. मजा आ गया पढ़कर...
जवाब देंहटाएंलेखन शैली काफी रोचक है.
tum mujhe frinch liiv do mai tumhe adhdha dunga....ha...ha....ha.
जवाब देंहटाएंवसंत पंचमी की बधाई ..........
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढ़िया...तीखा व्यंग्य... इतनी व्यंगात्मक उपमाएँ कहाँ से खोज लाती हैं?...
जवाब देंहटाएंआंध्र के राज्यपाल और कोपेनहेगन की उपमा अद्भुत है शेफाली. इस स्तरीय व्यंग के लिए हार्दिक बधाई.
जवाब देंहटाएंगणतंत्र दिवस की शुभकामनायें.
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