मान्यवरों, क्यों लौटना चाहते हैं गाँव की ओर? अच्छा! घास खिलाने या यूँ कहिये कि गाँव वालों को चारा डालने? शहरी जानवर आपका फेंका चारा नहीं खा रहे हैं इसीलिये ना! आपका इंतज़ाम तो पुख्ता है ना?
आजकल मौसम ख़राब चल रहा है, तबीयत ख़राब हो गई तो कहाँ जाएंगे? वैसे अस्पताल भी है यहाँ, जिसमें बड़ी मुश्किल से पाँच साल बाद एक डॉक्टर को सरकार ने ठेके पर नियुक्त किया था, जो नियुक्ति के फ़ौरन बाद से लापता है, आज तक उसके बारे में पता नहीं चला| यहाँ का फार्मासिस्ट ही यहाँ का सर्वेसर्वा है, जिसने सरकारी दवाओं को बेच - बेच कर कोठी खड़ी कर ली है| सुनते हैं कि उसी ने डॉक्टर को डरा धमका कर वापस भेज दिया| इसके अलावा कई पीढ़ियों से यहाँ एक बंगाली डॉक्टर है, जिसके पास आम जनता इलाज के लिए जाती है| जाए भी क्यों ना? मात्र १० रूपये में मरीज़ देखने के साथ - साथ वह तीन समय की दवाई भी देता है| जब दवाई ख़त्म हो जाती है तो कैसा भी मर्ज़ हो, वह इंजेक्शन ठोंक देता है|
स्वागत कैसा होगा और कौन करेगा ? महिलाएं यानी आधी आबादी? वह तो सुबह मुँह-अँधेरे ही खेतों में चली जाती है ताकि गृहस्थी की गाड़ी के पंक्चर हो चुके दूसरे पहिये को रात को दारु पीकर मार-पीट करने के लिए ताकत मिलती रहे|
वन्य जीवन यानि पर्यावरण? हाँ इसे बचाना हर इंसान का फ़र्ज़ है, लेकिन सुनिए! आज अचानक से सारी दुनिया बाघों को बचाने के लिए चिंताग्रस्त हो गई है परन्तु बाघों के मुँह से अपने बच्चों को बचाने के लिए मात्र दराती लेकर जो भिड़ जाती है उस औरत को बाघ के मुँह से छुडाने कोई नेटवर्क नहीं आता|
आपके टेंट में जेनेरेटर तो होंगे ना, क्योंकि यहाँ जब बिजली चली जाती है तो आसानी से नहीं आती| अक्सर बिजली के खम्भों से भड़ाम की आवाज़ आती है और ट्रांसफार्मर फूंक जाता है| और फुंकी हुई चीज़ को ठीक होने में हफ़्तों भी लग सकते हैं| क्यों? क्योंकि जितने कनेक्शन नहीं हैं उससे तिगुनी कटिया तारों में डली रहती हैं| डरपोक बिजली का बिल भरते हैं और बाहुबली कटिया डालते हैं|
हरा-भरा वातावरण देखने की इच्छा है आपकी? लेकिन महाशय, यहाँ के अधिकाँश गाँव वालों ने अपनी ज़मीनें बड़े-बड़े ज़मींदारों के पास गिरवी रख रखी हैं और अब वे अपनी ही ज़मीनों पर मजदूरी करते हैं| क्यों? क्योंकि किसी के लड़के को शहरी लड़कों की देखा देखी मोटर साइकिल चाहिए तो किसी को अपनी लड़की की शादी में दहेज़ देना है| अक्सर गाँव की तरफ आने वाली सड़क के मोड़ में शहरों की तेज़ रफ़्तार की बराबरी करते किशोरों के तरबूज की तरह फटे सिरों और उन पर विलाप करती माँओं के समाचार, अखबार में सबसे कोने पर आप पढ़ ही लेते हैं|
युवा पीढ़ी! हाँ, यहाँ भी पाई जाती है, लेकिन अगर आप इनके भरोसे आना चाहते हैं तो बेकार है| क्योंकि इन्होंने आजकल मुँह पर नकाब डालकर घरों के ताले तोड़ने में कुशलता हासिल कर ली है| आपके टेंटों की सुरक्षा व्यवस्था पुख्ता तो है ना? इसे शनि का सिंग्नापुर समझ के मत आना, यहाँ के राहू केतुओं के आगे कैसा भी शनि क्यों न हो, दुम दबा कर भाग जाता है| ये गैंग बनाकर चलते हैं| जब इनके मुँह पर नकाब नहीं होता तब ये गाँव में उपद्रव करते हैं, पान की दुकानों पर खड़े होकर मसाला चबाते हैं| जब मसाला नहीं चबाते तब ये ज़ोर-ज़ोर से माँ बहिन की गालियाँ बकते हैं, राह चलती लड़कियों को छेड़ते हैं| उनको भगा कर ले जाना इनके लिए बहादुरी का काम है| कभी-कभी ये कॉलेज भी चले जाते हैं| लेकिन बस चुनावी मौसम में, जब कॉलेज में उपद्रव करने की या बसों और कार्यालयों में तोड़ - फोड़ करने की ज़रुरत होती है|
हरियाली? अरे, आप तो खेतों की तरफ आ गए| हाँ, ये वाला खेत नरीराम का है, ये बगल वाला पनीराम का और जो उस तरफ दिख रहा है वह अनीराम का| उससे सटा हुआ मनीराम का है| सही समझे आप, चारों सगे भाई हैं| भाईचारा कहा आपने? यह चारा यहां नहीं मिलता| ये जो चारों भाई हैं ना, ये एक दूसरे के विरुद्ध षड़यंत्र बुनने में व्यस्त रहते हैं| कोई किसी की मेढ़ खोद देता है तो वह बदले में पानी चुरा आता है| चारों के बीबी बच्चे एक दूसरे के विरुद्ध खुलेआम अपशब्दों का प्रयोग करते हैं| अदालत में चारों का एक दूसरे के खिलाफ कोई न कोई मुकदमा साल भर चलता रहता है|
शान्ति की तलाश? लेकिन यहाँ तो रात होते ही कच्ची शराब पीकर धुत्त मर्दों द्वारा घरों के भीतर से औरतों को मारने-पीटने की आवाजें दरवाज़े फाड़कर बाहर चली आती हैं| हर घर एक दूसरे का तमाशाई बन जाता है| सिर फूटने से लेकर टांग टूटने तक कुछ भी हो सकता है| जो आपके ए. सी. टेंटों के भीतर चुपके-चुपके होता है, वह यहाँ खुले में और वह भी डंके की चोट पर होता है| लेकिन चिंता न करें, सुबह होते-होते सब कुछ ऐसे शांत हो जाता है जैसे कि कुछ हुआ ही न हो|
सीधा-सादा जनजीवन? न जन सीधा-सादा रह गया है और न ही जीवन| यहाँ का आदमी चाहे दिन भर हाथ पर हाथ धर के बैठा रहे लेकिन बाहर वालों पर एक्स-रे से भी तेज़ नज़र रखता है| अगर आपने ज़रा सा भी उल्टा-सीधा करने की कोशिश की तो सूचना के अधिकार के अंतर्गत क्या कार्यवाही करनी होती है यह उसे भली भाँति पता है|
शिक्षक? बुद्धिजीवी वर्ग? इनकी बुद्धि के क्या कहने| सड़क किनारे का स्कूल है, इसलिए बीस बच्चों पर पाँच शिक्षक तैनात हैं| उस कच्ची सड़क पर बारह किलोमीटर दूर सौ बच्चे हैं और दो शिक्षिकाएं| दोनों बारी बारी से छुट्टी पर जाती हैं और गाँव की एक इंटर पास लड़की बच्चों को पढ़ाती है| खाना बनाने वाली हरिजन है, सो ब्राह्मन बच्चे मिड-डे मील का खाना नहीं खाते| अगर खिलाने की कोशिश करो तो गाँव वालों के साथ मार-काट की नौबत आ जाती है| आज बच्चे कम क्यों हैं? हिन्दू बच्चे हरिद्वार कांवड़ लेकर गए हैं| पैदल लौटने में पता नहीं कितने दिन लग जाएं, कुछ नहीं कहा जा सकता| मुस्लिम बच्चे नमाज़ पढ़ने चले गए,हैं सो अब लौट कर नहीं आएँगे| बाकी बच्चे गाँव में एक शादी है इसलिए वहां गए हैं| जब तक गाँव में शादियों का मौसम रहेगा बच्चों का स्कूल आना असंभव है| अधिकारी क्या करते हैं? दो गधेरे, तीन नाले, एक नदी, और रास्ते में मिलने वाले अजगर और तेंदुओं से एनकाउन्टर की आशंका हो तो कौन सा अधिकारी झाँकने की हिम्मत बटोरेगा|
हमें गाँव में तुम्हारे टेंट नहीं चाहिए| अभी चाहे जैसे भी हैं, हमारे गोबर घरों में तो हैं| फिर वे मेह्ताओं की चमक से अंधे होकर उनके टेंटों में चौकीदारी किया करेंगे और धनियाएं उनकी रसोई के डिब्बों में कैद होकर रह जाएँगी|
सीधा-सादा जनजीवन? न जन सीधा-सादा रह गया है और न ही जीवन| यहाँ का आदमी चाहे दिन भर हाथ पर हाथ धर के बैठा रहे लेकिन बाहर वालों पर एक्स-रे से भी तेज़ नज़र रखता है| अगर आपने ज़रा सा भी उल्टा-सीधा करने की कोशिश की तो सूचना के अधिकार के अंतर्गत क्या कार्यवाही करनी होती है यह उसे भली भाँति पता है....
जवाब देंहटाएंpooree post gzb kee likhee hai,hmesha kee trh ,achhee lgee.
बहुत सुन्दर आलेख!
जवाब देंहटाएंअहा ! तो ये है भारत की एकता का राज़....
जवाब देंहटाएंमहानगरों से लेकर दूर-दराज़ के गांवों तक, सबके मूल्य एक ही हैं :)
आपका यह आलेख पढ़ा। आपने शीर्षक में पूछा है क्यों चलें गांव की ओर? एक जवाब सूझा है --
जवाब देंहटाएंगौशालों की गंध से है सनी हुई हवाएं
छ्प्परों पर धूल सी जमीं मान्यताएं
स्वेदसिक्त श्रमरत सर गमछे का छोर
इसी लिए चलें हम गांव की ओर!
waah waah......
जवाब देंहटाएंbahut hi shaandar likha aapne
देखता रोज था, दूर से कभी क्लिक नहीं किया। आज रहा न गया, और चला आया। आना ही था, वो कुछ जो छूट रहा था। आज से नियमत पाठक होने की कसम खाए जाता हूँ। उम्दा लेखन, मेरे कहने की शायद जरूरत ही न थी यहाँ।
जवाब देंहटाएंandher nagri chaupat raja...
जवाब देंहटाएंहमेशा की तरह बहुत ही सटीक और धारदार रचना. शुभकामनाएं.
जवाब देंहटाएंरामराम.
गांव का खाका बहुत सही खींचा है...व्यंग के साथ ही सोचने पर मजबूर करता है ये लेख....क्या हाल है हमारे गांव और शहरों का.....अच्छे लेख के लिए बधाई
जवाब देंहटाएंबहुत जानदार पर वैचारिक व्यंग्य है। शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएंओह्ह बिलकुल निर्मम सत्य कह दिया गाँवों के बारे में...अब लगता है वैसे हरे..भरे.. मासूम..शांत.. सुहाने गाँव बस पुरानी किताबों में ही हैं या फिर हमारी हिंदी फिल्मों में..
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढ़िया आलेख हमेशा की तरह...
बहुत बढ़िया!
जवाब देंहटाएंbahut hi badhiyaa likhaa hain aapne.
जवाब देंहटाएंlekin, kuch din zaraa bach kar, saawdhaan rahiyegaa.
aapne purae desh ke gaawo ke logo ko naaraaz kar diyaa hain or unkaa gussaa mol le liya hain.
bahut hi badhiyaa, excellent.
thanks.
WWW.CHANDERKSONI.BLOGSPOT.COM
होली की बहुत-बहुत शुभकामनायें. बाद में आ के पढती हूं.
जवाब देंहटाएंholi ke pavan parv par bahut bahut shubhkaamnaye ,aaj bhi aese gaon hai jahan unki pahchan kayam hai ,sundar rachna
जवाब देंहटाएंसही स्कैच बनाया आपने
जवाब देंहटाएंसारी बातें ऐसे कह पाना कितना आसान है ? आप सचमुच प्रसव पीड़ा से गुज़रती होंगी... कुछ लिखने के अपने आप को लगभग मारना पड़ता है.... शुक्रिया.
जवाब देंहटाएं