इस संसार से बहुत सी चीज़ें विलुप्त होने की कगार पर हैं, जिनमें हम साहित्य, संस्कृति, मूल्य, नैतिकता, भाईचारा, विश्वास का नाम बेधड़क होकर ले सकते हैं | इधर जिस एक भावना का तेजी से क्षरण हुआ है, वह है विश्वास| छात्र को अध्यापक पर, पत्नी को पति पर, प्रेमी को प्रेमिका पर, सरकार को कर्मचारियों पर, मालिक को नौकर पर, लेखकों को प्रकाशकों पर और प्रकाशक को पाठक पर विश्वास नहीं रहा|
आज बोर्ड परीक्षा की कॉपियां जांचते समय यह बात और भी स्पष्ट हो गई जब एक कॉपी के अन्दर पाँच सौ रूपये का नोट मिला| आप लोग सोच रहे होंगे कि इसमें कौन सी नई बात है? हममें से अधिकतरों ने अपने - अपने ज़माने में कॉपियों के अन्दर कुछ ना कुछ उत्कोच ज़रूर रखा होगा| साईं राम, जय माता दी या ॐ नमः शिवाय जैसे वाक्य तो अवश्य लिखे होंगे | लेकिन यहाँ बात कुछ अलग है | छात्र या छात्रा ने कॉपी के अन्दर रखे हुए हरे नोट के साथ जो अपने हाथ से लिखा हुआ नोट नत्थी किया था, वह छात्र - अध्यापक के मध्य बढ़ती अविश्वास की खाई को स्पष्ट करता है| छात्र ने लिखा था ''गुरूजी, यह नोट आपको घूस के रूप में नहीं दे रहा हूँ, बल्कि मेरी कॉपी को ठीक से जांचने के लिए दे रहा हूँ| कृपया मेरी कॉपी ठीक से जांचियेगा"|
गुरुजनों को गंभीर चिंतन करने का अवसर मिल गया | उनके लिए गंभीर चिंतन की नौबत यदा कदा ऐसे अवसरों पर ही आ पाती है| ऐसी नौबत क्यों कर आई होंगी? क्या हमारे छात्र जानते हैं कि हम ज्यादा कॉपियां मिलने के लालच में आँखें बंद करके कॉपियां जांचते हैं? इस विषय पर कई तरह के अनुमान हवा में तैरे| आखिरकार सभी गुरुजन इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि ज़रूर यह किसी सरकारी अध्यापक का पुत्र होगा और उसे यह ब्रह्म-ज्ञान अपने पिता को कापियां जांचते हुए देख कर प्राप्त हुआ होगा|
बहरहाल, अध्यापक ने उसके आग्रह पर या नोट के कारण, कहना मुश्किल है, ठीक से कॉपी जांची| परिणामस्वरूप उसके पचास में से उन्चास नंबर आए| गुरुजन ने स्वयं स्वीकार लिया कि यदि छात्र ऐसा नहीं लिखता तो शायद उसके इतने नंबर नहीं आते | छात्र की आशंका निर्मूल नहीं निकली|
गणित के अध्यापकों की मेज़ पर चांदी कट रही थी| मेरे जैसे भाषा के विषय के अध्यापकों की आँखों में वे नोट वैसे ही चुभ रहे थे जैसे मायावती की नोटों की माला विपक्षियों को| मेरी मेज़ पर बैठे हुए सभी इस बात पर एकमत थे कि इस पैसे को इन्कम-टैक्स के दायरे में लाया जाना चाहिए | हर दूसरी कॉपी में कोई ना कोई नोट नत्थी था| नोटों के आधार पर सरकार चाहती तो छात्रों की आर्थिक और सामाजिक स्थिति का अनुमान लगा सकती थी| विगत वर्षों में रूपये का कितना अवमूल्यन हुआ है यह भी पता लगाया जा सकता था| मैं याद कर रही थी बोर्ड परीक्षा में गणित के पेपर वाले दिन अपने साथ ड्यूटी पर लगी हुई दूसरी अध्यापिका को, जिनके साथ गप मारने में तीन घंटे के समय का पता तक नहीं चला, जिस कारण मैं उनका नाम तक नहीं पूछ पाई थी और जिसने पेपर ख़त्म होने के बाद मीठी मीठी मुस्कान के साथ मुझे घर जाने की अनुमति दे दी थी| गणित की कॉपियां जमा करने का भार उसने अपने ऊपर सहर्ष ले लिया था| मैं उसके एहसानों के बोझ तले दब कर घर लौट गयी थी| अब मुझे उनकी मीठी मुस्कान का अर्थ समझ में आया| वे इस क्षेत्र में पुरानी खिलाड़ी थीं, गणित के इस महत्त्व से भली- भांति परिचित होंगी| कॉपियां जमा करने के बाद वे हर कॉपी को चेक करती थीं| इस प्रकार नोट गंतव्य तक पहुँचने के पहले ही बीच में अपहृत कर लिए जाते थे|
कहने वाले विद्वान् ने यूँ ही नहीं कहा गया होगा कि विद्या से धन की प्राप्ति की जा सकती है| रह-रह कर मुझे अपनी हाईस्कूल की गणित की अध्यापिका की याद आ रही थी जिसकी वजह से गणित के साथ मेरे समीकरण ठीक से नहीं बैठ पाए| सत्र की शुरुआत ही वे ऐसे भीषण अंदाज़ में करती थीं कि गणित लेने वाले गणित के नाम से खौफ़ खाने लग जाएं| एक ही लेक्चर रोज़ देती थीं कि ''गणित छोड़ दो लड़कियों, वर्ना फ़ेल हो जाओगी और साल बर्बाद चला जाएगा|" उस समय लगता था कि ये कितनी भली हैं जो हम लोगों के कीमती सालों की चिंता में लगी रहती हैं और एक हम हैं जो गणित के पीछे भागते फिरते है| आज समझ में आता है कि ऐसा वे इसलिए कहती होंगी क्योंकि जैसी गणित वे पढ़ाती थीं उसमें सिर्फ और सिर्फ फेल ही हुआ जा सकता था|
उनके द्वारा इतना भय दिखाया जाता कि आधी से ज़्यादा लड़कियां महीना बीतते-बीतते गृह विज्ञान की कक्षा में जाकर बैठ जातीं| सिर्फ़ एक महीने की मेहनत और बाकी साल चैन की सांस, यह उनका अध्यापकी का उसूल था| उनके इस उसूल की वजह से देश ने मेरे जैसी कई प्रतिभाशाली इंजीनियरों को पैदा होने से पहले ही ख़त्म कर दिया| कई सालों बाद यह रहस्य खुला कि वे जहाँ जहाँ स्थानान्तरण में जाती थीं, वहाँ जाकर छात्राओं को इतना हतोत्साहित करती थी कि उनकी सात पीढ़ियों तक कोई गणित की ओर रुख ना करे| बीस वर्षों के उनके नौकरी में उन्होंने मुश्किल से बीस लड़कियों को गणित पढाई होगी या कहें कि कुछ जिद्दी लड़कियों के कारण, जिन्हें इंजीनियर बनने से कम कुछ भी मंज़ूर नहीं था, गणित पढ़ानी पड़ गई होगी| रह गए मेरे जैसे, जो न घर के रहे ना गणित के|
अध्यापक वाकई विश्वसनीय नहीं होते| अगली कॉपी में हज़ार का नोट नत्थी था| अबकी बार नंबर बढ़वाने की वही परंपरागत प्रार्थना लिखी थी, ''मैं बहुत ग़रीब हूँ, मेरे ऊपर सारे घर का भार है, जवान बहिन, बूढी माँ, अपंग भाई| सर! अगर आप मुझे पास कर देंगे तो आप पर भगवान बहुत कृपा करेगा|" अध्यापक के माथे पर वाकई सिकुड़नें तैर गईं| इस नोट के कारण या हज़ार के नोट के नकली होने की आशंका के कारण, कहना मुश्किल है| कुछ अध्यापकों की तरफ से यह विचार भी आया कि कॉपियां जांचते समय नोटों की असलियत की जांच करने की मशीन की व्यवस्था भी सरकार को करनी चाहिए|
आजकल तो यह पता नहीं चल पाता कि कॉपी किस सेंटर की आई है| सेंटर लड़कियों का है या लड़कों का, यह भी नहीं जाना जा सकता | लेकिन आज से कई सालों पहले कापियां इज्ज़त से घरों में लाई जाती थीं और सारा घर उन्हें सम्मान की नज़रों से देखता था| तब कॉपियों में पास करने की अपील लड़के विधवा औरत बनकर किया करते थे| पिताजी जब कापियां घर लाते थे तो उन्हें गुप्त जगह पर रख दिया करते थे कि हमें खबर तक न हो| इसका कारण यह था कि हम भाई बहिन चुपके-चुपके कॉपियों में नोट तलाश किया करते थे| कभी कभार सफलता भी मिल जाया करती थी| लेकिन पिताजी ऐसे रुपयों को घर में किसी सूरत में रखना पसंद नहीं करते थे| पहली फ़ुर्सत में कॉलेज जाकर चपरासी को वह नोट थमा आते थे| चपरासी उस नोट को दारु में उड़ाए या जुए में, इससे उन्हें कोई सरोकार नहीं रहता था| ईमानदार आदमी बाहर देखने पर अच्छा लगता है लेकिन अगर घर में हो तो घरवालों को बहुत चुभता है|
हज़ार के नोट वाली कॉपी लगभग ख़ाली थी| ऐसे धर्मसंकट का सामना युधिष्ठिर को भी नहीं करना पड़ा होगा| ख़ाली कॉपी में गुंजाइश निकालने की कला अध्यापकों को नेताओं से सीखनी चाहिए| आंकड़े नहीं थे, फिर भी नंबर देने थे, क्यूंकि हज़ार के नोट का सवाल था| सभी की टेबल पर बहस गर्म थी कि इसे पास किया जाए या नहीं| सूचना-का-अधिकार, इससे बड़ा आतंकवादी शब्द आजकल दूसरा नहीं है, जिसने हर ख़ासो-आम के सारे अधिकार छीन लिए हैं| इस शब्द के आतंक के कारण उसे पास करने के विषय में एक मत नहीं बन पा रहा था| ''कितना कहा था कि सारे प्रश्न किया करो, पर ससुरे सुनते ही नहीं", "अगर सारे प्रश्न करने का प्रयास भी किया होता या मात्र उतार भी दिए होते तो आज इतना सोचने की नौबत नहीं आती|"
अंततः हज़ार का नोट हार गया और सूचना का अधिकार जीत गया| नोट सबके सामने निकला था इसीलिये सबकी टेबल पर कोल्ड ड्रिंक और समोसे मन मसोसते हुए पहुँचाने पड़े| जिनकी कॉपी के नोट गल रहे थे वे मन ही मन सोच रहे थे कि इससे तो अच्छे पुराने दिन होते थे जब छात्र मेहनतकश हुआ करते थे और कॉपी किसके पास गई है इसका पता लगाने की जी जान से कोशिश किया करते थे| आए दिन कोई न कोई ख़राब पेपरों का मारा दरवाज़े पर दस्तक दिया करता था| मिठाई, फल, फूल और ज्यादा ख़राब हुआ तो पचास या सौ का नोट भी लिफ़ाफ़े में रखकर चुपके से मेज़ के नीचे रख जाता था|
बहरहाल, इस घटना से यह पता चला कि आप अपनी कॉपी को नोटों की सहायता से ठीक से भले ही जंचवा सकते हैं लेकिन पास नहीं करवा सकते| अब चाहे इसे सूचना के अधिकार का डर कहें या अध्यापकों की बची-खुची नैतिकता कहें कि आज भी रुपयों से सब कुछ नहीं खरीदा जा सकता|