इस संसार से बहुत सी चीज़ें विलुप्त होने की कगार पर हैं, जिनमें हम साहित्य, संस्कृति, मूल्य, नैतिकता, भाईचारा, विश्वास का नाम बेधड़क होकर ले सकते हैं | इधर जिस एक भावना का तेजी से क्षरण हुआ है, वह है विश्वास| छात्र को अध्यापक पर, पत्नी को पति पर, प्रेमी को प्रेमिका पर, सरकार को कर्मचारियों पर, मालिक को नौकर पर, लेखकों को प्रकाशकों पर और प्रकाशक को पाठक पर विश्वास नहीं रहा|
आज बोर्ड परीक्षा की कॉपियां जांचते समय यह बात और भी स्पष्ट हो गई जब एक कॉपी के अन्दर पाँच सौ रूपये का नोट मिला| आप लोग सोच रहे होंगे कि इसमें कौन सी नई बात है? हममें से अधिकतरों ने अपने - अपने ज़माने में कॉपियों के अन्दर कुछ ना कुछ उत्कोच ज़रूर रखा होगा| साईं राम, जय माता दी या ॐ नमः शिवाय जैसे वाक्य तो अवश्य लिखे होंगे | लेकिन यहाँ बात कुछ अलग है | छात्र या छात्रा ने कॉपी के अन्दर रखे हुए हरे नोट के साथ जो अपने हाथ से लिखा हुआ नोट नत्थी किया था, वह छात्र - अध्यापक के मध्य बढ़ती अविश्वास की खाई को स्पष्ट करता है| छात्र ने लिखा था ''गुरूजी, यह नोट आपको घूस के रूप में नहीं दे रहा हूँ, बल्कि मेरी कॉपी को ठीक से जांचने के लिए दे रहा हूँ| कृपया मेरी कॉपी ठीक से जांचियेगा"|
गुरुजनों को गंभीर चिंतन करने का अवसर मिल गया | उनके लिए गंभीर चिंतन की नौबत यदा कदा ऐसे अवसरों पर ही आ पाती है| ऐसी नौबत क्यों कर आई होंगी? क्या हमारे छात्र जानते हैं कि हम ज्यादा कॉपियां मिलने के लालच में आँखें बंद करके कॉपियां जांचते हैं? इस विषय पर कई तरह के अनुमान हवा में तैरे| आखिरकार सभी गुरुजन इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि ज़रूर यह किसी सरकारी अध्यापक का पुत्र होगा और उसे यह ब्रह्म-ज्ञान अपने पिता को कापियां जांचते हुए देख कर प्राप्त हुआ होगा|
बहरहाल, अध्यापक ने उसके आग्रह पर या नोट के कारण, कहना मुश्किल है, ठीक से कॉपी जांची| परिणामस्वरूप उसके पचास में से उन्चास नंबर आए| गुरुजन ने स्वयं स्वीकार लिया कि यदि छात्र ऐसा नहीं लिखता तो शायद उसके इतने नंबर नहीं आते | छात्र की आशंका निर्मूल नहीं निकली|
गणित के अध्यापकों की मेज़ पर चांदी कट रही थी| मेरे जैसे भाषा के विषय के अध्यापकों की आँखों में वे नोट वैसे ही चुभ रहे थे जैसे मायावती की नोटों की माला विपक्षियों को| मेरी मेज़ पर बैठे हुए सभी इस बात पर एकमत थे कि इस पैसे को इन्कम-टैक्स के दायरे में लाया जाना चाहिए | हर दूसरी कॉपी में कोई ना कोई नोट नत्थी था| नोटों के आधार पर सरकार चाहती तो छात्रों की आर्थिक और सामाजिक स्थिति का अनुमान लगा सकती थी| विगत वर्षों में रूपये का कितना अवमूल्यन हुआ है यह भी पता लगाया जा सकता था| मैं याद कर रही थी बोर्ड परीक्षा में गणित के पेपर वाले दिन अपने साथ ड्यूटी पर लगी हुई दूसरी अध्यापिका को, जिनके साथ गप मारने में तीन घंटे के समय का पता तक नहीं चला, जिस कारण मैं उनका नाम तक नहीं पूछ पाई थी और जिसने पेपर ख़त्म होने के बाद मीठी मीठी मुस्कान के साथ मुझे घर जाने की अनुमति दे दी थी| गणित की कॉपियां जमा करने का भार उसने अपने ऊपर सहर्ष ले लिया था| मैं उसके एहसानों के बोझ तले दब कर घर लौट गयी थी| अब मुझे उनकी मीठी मुस्कान का अर्थ समझ में आया| वे इस क्षेत्र में पुरानी खिलाड़ी थीं, गणित के इस महत्त्व से भली- भांति परिचित होंगी| कॉपियां जमा करने के बाद वे हर कॉपी को चेक करती थीं| इस प्रकार नोट गंतव्य तक पहुँचने के पहले ही बीच में अपहृत कर लिए जाते थे|
कहने वाले विद्वान् ने यूँ ही नहीं कहा गया होगा कि विद्या से धन की प्राप्ति की जा सकती है| रह-रह कर मुझे अपनी हाईस्कूल की गणित की अध्यापिका की याद आ रही थी जिसकी वजह से गणित के साथ मेरे समीकरण ठीक से नहीं बैठ पाए| सत्र की शुरुआत ही वे ऐसे भीषण अंदाज़ में करती थीं कि गणित लेने वाले गणित के नाम से खौफ़ खाने लग जाएं| एक ही लेक्चर रोज़ देती थीं कि ''गणित छोड़ दो लड़कियों, वर्ना फ़ेल हो जाओगी और साल बर्बाद चला जाएगा|" उस समय लगता था कि ये कितनी भली हैं जो हम लोगों के कीमती सालों की चिंता में लगी रहती हैं और एक हम हैं जो गणित के पीछे भागते फिरते है| आज समझ में आता है कि ऐसा वे इसलिए कहती होंगी क्योंकि जैसी गणित वे पढ़ाती थीं उसमें सिर्फ और सिर्फ फेल ही हुआ जा सकता था|
उनके द्वारा इतना भय दिखाया जाता कि आधी से ज़्यादा लड़कियां महीना बीतते-बीतते गृह विज्ञान की कक्षा में जाकर बैठ जातीं| सिर्फ़ एक महीने की मेहनत और बाकी साल चैन की सांस, यह उनका अध्यापकी का उसूल था| उनके इस उसूल की वजह से देश ने मेरे जैसी कई प्रतिभाशाली इंजीनियरों को पैदा होने से पहले ही ख़त्म कर दिया| कई सालों बाद यह रहस्य खुला कि वे जहाँ जहाँ स्थानान्तरण में जाती थीं, वहाँ जाकर छात्राओं को इतना हतोत्साहित करती थी कि उनकी सात पीढ़ियों तक कोई गणित की ओर रुख ना करे| बीस वर्षों के उनके नौकरी में उन्होंने मुश्किल से बीस लड़कियों को गणित पढाई होगी या कहें कि कुछ जिद्दी लड़कियों के कारण, जिन्हें इंजीनियर बनने से कम कुछ भी मंज़ूर नहीं था, गणित पढ़ानी पड़ गई होगी| रह गए मेरे जैसे, जो न घर के रहे ना गणित के|
अध्यापक वाकई विश्वसनीय नहीं होते| अगली कॉपी में हज़ार का नोट नत्थी था| अबकी बार नंबर बढ़वाने की वही परंपरागत प्रार्थना लिखी थी, ''मैं बहुत ग़रीब हूँ, मेरे ऊपर सारे घर का भार है, जवान बहिन, बूढी माँ, अपंग भाई| सर! अगर आप मुझे पास कर देंगे तो आप पर भगवान बहुत कृपा करेगा|" अध्यापक के माथे पर वाकई सिकुड़नें तैर गईं| इस नोट के कारण या हज़ार के नोट के नकली होने की आशंका के कारण, कहना मुश्किल है| कुछ अध्यापकों की तरफ से यह विचार भी आया कि कॉपियां जांचते समय नोटों की असलियत की जांच करने की मशीन की व्यवस्था भी सरकार को करनी चाहिए|
आजकल तो यह पता नहीं चल पाता कि कॉपी किस सेंटर की आई है| सेंटर लड़कियों का है या लड़कों का, यह भी नहीं जाना जा सकता | लेकिन आज से कई सालों पहले कापियां इज्ज़त से घरों में लाई जाती थीं और सारा घर उन्हें सम्मान की नज़रों से देखता था| तब कॉपियों में पास करने की अपील लड़के विधवा औरत बनकर किया करते थे| पिताजी जब कापियां घर लाते थे तो उन्हें गुप्त जगह पर रख दिया करते थे कि हमें खबर तक न हो| इसका कारण यह था कि हम भाई बहिन चुपके-चुपके कॉपियों में नोट तलाश किया करते थे| कभी कभार सफलता भी मिल जाया करती थी| लेकिन पिताजी ऐसे रुपयों को घर में किसी सूरत में रखना पसंद नहीं करते थे| पहली फ़ुर्सत में कॉलेज जाकर चपरासी को वह नोट थमा आते थे| चपरासी उस नोट को दारु में उड़ाए या जुए में, इससे उन्हें कोई सरोकार नहीं रहता था| ईमानदार आदमी बाहर देखने पर अच्छा लगता है लेकिन अगर घर में हो तो घरवालों को बहुत चुभता है|
हज़ार के नोट वाली कॉपी लगभग ख़ाली थी| ऐसे धर्मसंकट का सामना युधिष्ठिर को भी नहीं करना पड़ा होगा| ख़ाली कॉपी में गुंजाइश निकालने की कला अध्यापकों को नेताओं से सीखनी चाहिए| आंकड़े नहीं थे, फिर भी नंबर देने थे, क्यूंकि हज़ार के नोट का सवाल था| सभी की टेबल पर बहस गर्म थी कि इसे पास किया जाए या नहीं| सूचना-का-अधिकार, इससे बड़ा आतंकवादी शब्द आजकल दूसरा नहीं है, जिसने हर ख़ासो-आम के सारे अधिकार छीन लिए हैं| इस शब्द के आतंक के कारण उसे पास करने के विषय में एक मत नहीं बन पा रहा था| ''कितना कहा था कि सारे प्रश्न किया करो, पर ससुरे सुनते ही नहीं", "अगर सारे प्रश्न करने का प्रयास भी किया होता या मात्र उतार भी दिए होते तो आज इतना सोचने की नौबत नहीं आती|"
अंततः हज़ार का नोट हार गया और सूचना का अधिकार जीत गया| नोट सबके सामने निकला था इसीलिये सबकी टेबल पर कोल्ड ड्रिंक और समोसे मन मसोसते हुए पहुँचाने पड़े| जिनकी कॉपी के नोट गल रहे थे वे मन ही मन सोच रहे थे कि इससे तो अच्छे पुराने दिन होते थे जब छात्र मेहनतकश हुआ करते थे और कॉपी किसके पास गई है इसका पता लगाने की जी जान से कोशिश किया करते थे| आए दिन कोई न कोई ख़राब पेपरों का मारा दरवाज़े पर दस्तक दिया करता था| मिठाई, फल, फूल और ज्यादा ख़राब हुआ तो पचास या सौ का नोट भी लिफ़ाफ़े में रखकर चुपके से मेज़ के नीचे रख जाता था|
बहरहाल, इस घटना से यह पता चला कि आप अपनी कॉपी को नोटों की सहायता से ठीक से भले ही जंचवा सकते हैं लेकिन पास नहीं करवा सकते| अब चाहे इसे सूचना के अधिकार का डर कहें या अध्यापकों की बची-खुची नैतिकता कहें कि आज भी रुपयों से सब कुछ नहीं खरीदा जा सकता|
कितना सजीव लिखती है आप ,एक बार तो मैं मानो उस कक्ष में ही पहुँच गई जहाँ कॉपी चेक हो रही थी
जवाब देंहटाएंपर सच है पैसे से आप सब नहीं खरीद सकते
1,गणित छोड़ दो लड़कियों, वर्ना फ़ेल हो जाओगी
जवाब देंहटाएं2.कॉपियां जांचते समय नोटों की असलियत की जांच करने की मशीन की व्यवस्था भी सरकार को करनी चाहिए|
3.ईमानदार आदमी बाहर देखने पर अच्छा लगता है लेकिन अगर घर में हो तो घरवालों को बहुत चुभता है|
4.सूचना-का-अधिकार, इससे बड़ा आतंकवादी शब्द आजकल दूसरा नहीं है,
5अब चाहे इसे सूचना के अधिकार का डर कहें या अध्यापकों की बची-खुची नैतिकता कहें कि आज भी रुपयों से सब कुछ नहीं खरीदा जा सकता|
जय हो। आपकी लेखन क्षमता गजब की है।
"गुरूजी, यह नोट आपको घूस के रूप में नहीं दे रहा हूँ, बल्कि मेरी कॉपी को ठीक से जांचने के लिए दे रहा हूँ| कृपया मेरी कॉपी ठीक से जांचियेगा", शिक्षकों की गिरती हुयी नैतिकता पर बहुत ही निर्मलता से कटाक्ष है.
जवाब देंहटाएंस्वयं एक अध्यापिका होने के बादजूद भी आप इतने सहज भाव से सच्चाई लिख देतीं हैं,
साधुवाद !!!
बहुत बढ़िया ........... एक दम सटीक कहा है आपने - रूपया सब कुछ नहीं खरीद सकता !
जवाब देंहटाएंश्री रुपिय्ये नमः का मंत्र कहीं फेल तो हुआ, बहुत अच्छा लगा ईमानदारी के दर्शन करके आजकल दुर्लभ हो गयी हैं न
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढ़िया तरीके से अपने विवरण लिखा हैं, पाठक को बांध के रखने वाला लेख, हम तो सेव कर लिए इसको
ha ha ha ....kitna sajeev varnan kia hai ...maan gaye mastarni ji aap ko.
जवाब देंहटाएंbahut hi achcha aur vyangatmak lekh...sab kuch chitra ke samaan saamne tha...copiyan, use check karte teacher, andar nikalte note, fir unse mangayi chai aur samose...waah...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंमैं तो आपके लेखन के वाचन के दौरान प्रतिपल अपने अनुभवों को भी सहगामी बनाता रहा :
एक बार मेरे एक सहकर्मी जो बोर्ड के पेपर मेरे साथ ही बैठ कर चेक कर रहे थे, ने दिखाया कि एक कापी मे लिखा था "मेरी शादी तय हो गयी है पर अगर मै परीक्षा में फेल हो गयी तो शादी टूट जायेगी"
और भी बहुत कुछ ---
इस पर हम हँसे या रोयें, क्या करें गुरु पर विश्वास करें या न करें, शिक्षण प्रणाली विश्वसनीय रह ही नहीं गई है, काश हमने भी अपने जमाने में यही अकल लगाई होती तो नंबर ज्यादा आते और आलम कुछ और ही होता, पर केवल नंबर ज्यादा लाने से अकल थोड़े ही बड़ जाती है, रहती तो उतनी ही है।
जवाब देंहटाएंबहुत ही विचारणीय प्रश्न उठाया है, मेरे घर में भी एक शिक्षक हैं जो कि बहुत वरिष्ठ हैं, आज फ़ोन करके उनसे मैं यही बात पूछूँगा, क्या करॆं बच्चों को पढ़ाये और साथ में पाँच सौ या हजार का नोट भी नत्थी करने के लिये दें।
शानदार लेख...
जवाब देंहटाएंओह !!! शेफाली जी आप के आलेख पढ़ते ही हंसी तो बिखरती ही है ,बहुत कुछ सोचने भी लगता है मन । यथार्थ को इतनी चुटीली भाषा मे लिख पाना हर किसी के बस का नही । बधाई ।
जवाब देंहटाएं- हज़ार के नोट वाली कॉपी लगभग ख़ाली थी| ऐसे धर्मसंकट का सामना युधिष्ठिर को भी नहीं करना पड़ा होगा|
जवाब देंहटाएं- ईमानदार आदमी बाहर देखने पर अच्छा लगता है लेकिन अगर घर में हो तो घरवालों को बहुत चुभता है|
- आज समझ में आता है कि ऐसा वे इसलिए कहती होंगी क्योंकि जैसी गणित वे पढ़ाती थीं उसमें सिर्फ और सिर्फ फेल ही हुआ जा सकता था|
- गुरुजनों को गंभीर चिंतन करने का अवसर मिल गया | उनके लिए गंभीर चिंतन की नौबत यदा कदा ऐसे अवसरों पर ही आ पाती है|
वाह... जबरदस्त... अल्टीमेट..
"गुरूजी, यह नोट आपको घूस के रूप में नहीं दे रहा हूँ, बल्कि मेरी कॉपी को ठीक से जांचने के लिए दे रहा हूँ| कृपया मेरी कॉपी ठीक से जांचियेगा",
जवाब देंहटाएंईमानदार आदमी बाहर देखने पर अच्छा लगता है लेकिन अगर घर में हो तो घरवालों को बहुत चुभता है|
बहुत सही लिखा है...बात को एक घटना से जोड़ना कोई आपसे सीखे....इसे कहते हैं धारदार रचना....बढ़िया व्यंग...
Bhav Vibhor
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लगा आपका लेखन पढ़ना! और यह भी कि यह वाकया छात्र - अध्यापक के मध्य बढ़ती अविश्वास की खाई को स्पष्ट करता है। ऐसी नौबत क्यों कर आई होंगी? क्या छात्र जानते हैं कि परीक्षक ज्यादा कॉपियां मिलने के लालच में आँखें बंद करके कॉपियां जांचते हैं?
जवाब देंहटाएंईमानदार आदमी बाहर देखने पर अच्छा लगता है लेकिन अगर घर में हो तो घरवालों को बहुत चुभता है|
जवाब देंहटाएंवैसे तो पूरी पोस्ट पर ही सौ नंबर बनते है.. पर मैं उपरोक्त पंक्ति को अलग से सौ नंबर दूंगा.. और इन नम्बरों के लिए वो हज़ार का नोट आप घर भिजवा देना.. :)
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंआने वाले कल में हो सकता है कि नोटों के साथ...उत्तरपुस्तिकाएं नत्थी की जानी लगें
जवाब देंहटाएंYe avishwaas din-ba-din badhta hi ja raha hai.. guru-shishya parampara to kahne bhar ko rah gayee hai ab. ye udaharn kabhi nahin bhool sakta Shefali ji.. bahut hi aavashyak aur samayik post.. abhar
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंइसे 09.05.10 की चर्चा मंच (सुबह 06 बजे) में शामिल किया गया है।
http://charchamanch.blogspot.com/
bahut hi badhiya likha hai...ekdam sajeev aur saamayik...
जवाब देंहटाएंनोट असली था या नकली????
जवाब देंहटाएंये तो आपने बताया ही नहीं.
वैसे, क्या आपने इस नोट की सत्यता को जांचा था क्या???
आजकल के बच्चे बहुत चालाक और शरारती हो गए हैं.
कही ऐसा तो नहीं कि-"आपको नकली नोट थमाकर वो शरारती तत्त्व असली नंबर ले ले."
बहुत बढ़िया लिखा हैं आपने.
धन्यवाद.
WWW.CHANDERKSONI.BLOGSPOT.COM
वाह वाह !
जवाब देंहटाएंशेफाली जी आपके लेखन शैली तो लाजवाब है !
एक ही लेख में हास्य भी , प्रेरणा भी और समझ पर चोट भी !
वास्तव में यह बोर्ड की कापियों में नोट मिलने की बात में भी बचपन से पिताजी से सुनता आया हूँ |
परन्तु आपने जिस तरीके से प्रस्तुत किया है लाजवाब है !
''गुरूजी, यह नोट आपको घूस के रूप में नहीं दे रहा हूँ, बल्कि मेरी कॉपी को ठीक से जांचने के लिए दे रहा हूँ| कृपया मेरी कॉपी ठीक से जांचियेगा"|
ये बात तो एकदम नयी थी और कहीं ना कहीं सच भी ! हम सब लोग अक्सर गलत मूल्याङ्कन का शिकार हुए ही हैं कभी ना कभी ! और खासकर अपने यू पी बोर्ड (अब उत्तराखंड बोर्ड ) में तो मैं कई बार हुआ हूँ !...
एक और उत्कृष्ट लेख के लिए बधाई |
यूँ ही लिखती रहें ....
बहुत ही बढ़िया...धाराप्रवाह व्यंग्य ...तालियाँ
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंएक गहन विषय
एक स्वच्छ निष्कर्ष
पर बीच में.. इनका इस तरह का समावेश.. आह्हा
"भाषा के विषय के अध्यापकों की आँखों में वे नोट वैसे ही चुभ रहे थे जैसे मायावती की नोटों की माला विपक्षियों को|"
"अध्यापक के माथे पर वाकई सिकुड़नें तैर गईं| इस नोट के कारण या हज़ार के नोट के नकली होने की आशंका के कारण, कहना मुश्किल है| कुछ अध्यापकों की तरफ से यह विचार भी आया कि कॉपियां जांचते समय नोटों की असलियत की जांच करने की मशीन की व्यवस्था भी सरकार को करनी चाहिए|"
"सूचना-का-अधिकार, इससे बड़ा आतंकवादी शब्द आजकल दूसरा नहीं है, जिसने हर ख़ासो-आम के सारे अधिकार छीन लिए हैं|"
तुम कभी सुधरना भी मत, लड़की
तू ऎसी लिखती ही भली है ।
तुझे क्या नम्बर दूँ ?
100 / 100....
सिम्पली सुपर्ब !
नोट बाद में भिजवा देना !
मॉडरेशन लगाया क्या ?
जवाब देंहटाएंऒईज़्ज़ा.. ऍप्रूवल ?
मास्टरी शा’ इले ऍप्रूव कर देना, मैं कोई नोट न लूँगा ।
यही कुछ चीजें ही तो हैं, जो जिंदगी को अभी जीने लायक बनाए हुए हैं।
जवाब देंहटाएंकौन हो सकता है चर्चित ब्लॉगर?
पत्नियों को मिले नार्को टेस्ट का अधिकार?
नोट रखने का सिलसिला तो दशकों से चल रहा है। हाँ जो दस रुपये का नोट माँ कापियों के साथ आज से बीस साल पहले ला कर दिखाती थीं वो आपकी पोस्ट से लगता है कि पाँच सौ या हजार के हो गए हैं।
जवाब देंहटाएंबोर्ड परीक्षा में कॉपियों को जिस तेजी और ऊपर ऊपर से कई शिक्षक जाँचते हैं इसकी बाबत भी घर में बहुत कुछ सुनता रहा हूँ। वैसे जब से प्रश्नपत्र वस्तुनिष्ठ प्रकृति के हो गए हैं जाँचते वक़्त शिक्षक बस सैम्पल उत्तर दिखते ही नंबर दे देते हैं। छात्र ने कितना विषय को समझ कर लिखा या रट कर, इसका मूल्यांकन वर्तमान शिक्षा पद्धति करती कहाँ है?
बहुत बढ़िया लेखन, पहले आकर पढ़ रहा था कि बीच में छोड़ कर जाना पड़ा। अब आकर पूरा पढ़ा। बधाई हो उत्कृष्ट लेखन के लिए। और जो वाक्य अनूप शुक्ल जी ने छाँटे हैं, उनमें से तीसरा वाला तो मैंने भी छाँटा था - नमक का दरोगा के बाद अब ऐसा बढ़िया 'उवाच' देखने को मिला है, कोटनीय है।
जवाब देंहटाएंआपके लेखन में कोटनीयता एक बड़ा तत्त्व है। पता नहीं मैंने कहाँ कहा है, पर आज यहाँ दोहराता हूँ कि - "शेफाली पाण्डेय की सशक्त लेखनी को मैं कहानी और लघु-उपन्यास रचते देखना चाहता हूँ, शायद हमें गौरा पंत "शिवानी" के बाद एक और समर्थ कहानीकारा मिले - हमें इस सशक्त लेखिका के विकासक्रम का साक्षी बनने का सौभाग्य मिले, ऐसी कामना है।"
आप तक कामना पहुँचा दी, समझो अपने कान्हा जी तक ही पहुँचा दी हमने। अब बस वक़्त की बात है। होना तो ये है ही।
..आज भी रुपयों से सब कुछ नहीं खरीदा जा सकता.
जवाब देंहटाएं..उम्दा पोस्ट.
आपने तो निशब्द कर दिया ,,,,,,,,,,,,,ज़बरदस्त विश्लेषण ,,,,सारे दृश्य एक -एक कर सामने आते रहे ,,,,,,बहुत ही बढ़िया
जवाब देंहटाएंआपने तो निशब्द कर दिया ,,,,,,,,,,,,,ज़बरदस्त विश्लेषण ,,,,सारे दृश्य एक -एक कर सामने आते रहे ,,,,,,बहुत ही बढ़िया
जवाब देंहटाएं1988 मे हाइ स्कूल मे था, तब पता चला की मास्टर लोग कापी ढंग से नही जाँचते ओर मुझे गणित के सेकेंड पेपर मे पास ही नही किया..तब आरटी आई नही था ओर ना ही कॉपी के अंदर रखने के लिए--10- 20 या हज़ार रुपये.एक साल बर्बाद हुवा-रीचेक का रिज़ल्ट अलाहाबाद से आते आते-चमोली मार्च मे पहुँचा--तब तक दूसरे साल के फॉर्म भर गये थे -पर मे पास था 38 नंबर आए तेई पचास मे से.....पर 1 साल बर्बाद हो गया था,बहुत कष्ट मे साल बीता--अपने मेरे दिल की बात लिख डी शेफाली मेडम आप का हृदय से साधुवाद!
जवाब देंहटाएं1988 मे हाइ स्कूल मे था, तब पता चला की मास्टर लोग कापी ढंग से नही जाँचते ओर मुझे गणित के सेकेंड पेपर मे पास ही नही किया..तब आरटी आई नही था ओर ना ही कॉपी के अंदर रखने के लिए--10- 20 या हज़ार रुपये.एक साल बर्बाद हुवा-रीचेक का रिज़ल्ट अलाहाबाद से आते आते-चमोली मार्च मे पहुँचा--तब तक दूसरे साल के फॉर्म भर गये थे -पर मे पास था 38 नंबर आए तेई पचास मे से.....पर 1 साल बर्बाद हो गया था,बहुत कष्ट मे साल बीता--अपने मेरे दिल की बात लिख डी शेफाली मेडम आप का हृदय से साधुवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर और सत्यता दर्शाता लेख।
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