व्यंग्य कथा ……. साहित्य और समाज p
डिस्क्लेमर……. इस कथा को किसी यादव और किसी कुमारी से जोड़कर ना देखा जाए ।
लडकियां, '' आमा ! आप अपने तिलों का लड्डू बनाओ या तेल निकालो, हमें कोई मतलब नहीं है । [ लडकियां आप का प्रयोग करती हैं ] । आप हमारी चिंता मत करो । अपनी चिंता करो । हम आज की नारियां हैं । हमारे लिए कंडक्टर जगह बना देगा ''।
इतने में एक जादूगर प्रकट हुआ । लोग उसे कंडक्टर पता नहीं क्यों कहते हैं ? जहाँ तिल धरने को भी जगह नहीं हो रही थी वहां दिन पर दिन ताड़ जैसी होती जा रही लड़कियों के लिए जगह बनाना किसी जादू को देखने से कम नहीं है ।
उसने बीस - पच्चीस लड़कियों के लिए खड़े होने की जगह बनानी शुरू कर दी । जगह बनाने की इस प्रक्रिया में वह कभी किसी लडकी की कमर को पकड़ लेता, किसी का हाथ बस के ऊपर डंडे में फंसा देता, तो किसी का सीट के हत्थे में अड़ा देता । किसी को सीट के ऊपर वाले डंडे में टिका देता, किसी को गर्म बोनट के ऊपर बैठा देता । लड़कियों ने उसे भगवान् और खुद को इस धरती पर बोझ मानकर अपने - आप को पूर्णतः उसके हाथ में सौंप दिया । लड़कियों के बस्तों को उसने ड्रायवर की सीट के नीचे डाल दिया ।
अब वह कंडक्टर अपने फ़र्ज़ को निभाने के लिए चल पड़ा । उसी जगह से, जहाँ बाल बराबर जगह भी नहीं थी, वह जादूगर की तरह रास्ता बनाते हुए टिकट के एक या दो रूपये वसूल करने के लिए अग्निपथ की और बढ़ गया । ठुंसी हुई लड़कियों के बदन को पीसता, रगड़ता, अब वह किसी निपुण दर्जी में बदल चुका था । लड़कियों के शरीर का कोई भी अंग ऐसा नही बचा था जहाँ की उसने नाप न ली हो । उस जादूगर को यह भी पता था कि न तो लडकियां और ना ही लड़कों में से कोई पैसा देने वाला है । फिर भी वह बिला नागा अपना फ़र्ज़ निभाने जाता है । लड़कियों से पैसा मांगने जाता तो वे कहतीं,हैं '' पहले लड़कों से मांग कर लाओ, अगर उन्होंने पैसे दे दिए तो हम भी दे देंगे '' । यह सुनते ही उसे गुस्सा आ जाता है । वह फिर से वही कुचलने, पीसने और रगड़ने की प्रक्रिया दोहराता है । कम से कम तीन बार में वह इस चक्र को पूरा करता है । टिकट के पैसे किस तरह से वसूल किये जाते हैं यह उसे अच्छी तरह से आता है ।
लड़कों से पैसे मांगने का सवाल ही नहीं उठता । वे बस के अन्दर बैठे ही नहीं हैं तो पैसे क्यूँ देंगे ? अगर बैठे भी होते तब भी नहीं देते । सवाल सीधे - सीधे सिद्धांतों का है । बच्चे चाहते तो पैदल भी जा सकते थे पर नहीं, जब बस उपलब्ध है, जो ठीक उनके घर के दरवाज़े पर रुकती है तो वे पैदल जाने का कष्ट क्यूँ करें ? कंडक्टर को पता है कि लड़कियां पैसे नहीं देंगी, फिर भी वह किराया मांगने के अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं करता है । वह बार - बार उनको टटोलता रहता है और गाली देकर बेइज्जती भी करता है । लड़कियां चाहती तो एक या दो रूपये दे सकती हैं पर नहीं देतीं हैं । जब बिना पैसे दिए काम चल जा रहा है तो पैसे देना कहाँ की बुद्धिमानी है ? इसके अतिरिक्त जब लड़के किराया नहीं दे रहे तो वे भी क्यूँ देंगी । ऐसा लिंग - भेद वे किसी भी सूरत में बर्दाश्त नहीं करेंगी । लड़के चाहते तो वे भी बस में लटकने के पैसे दे सकते थे, पर वे नहीं देंगे । जिस एक रूपये से गुटखा खाया जा सकता है उसे कंडक्टर को देकर क्यूँ बर्बाद करें ? वह भी ऐसी बस में जिसमे बैठने की भी जगह नहीं हो । ये अलग बात है कि बस के अन्दर बैठने की जगह होती तब भी वे गेट पर लटकना ही पसंद करते हैं ।
सवाल सिर्फ सिद्धांतों का है ।
सवाल सिर्फ सिद्धांतों का है ।