बुधवार, 16 अक्तूबर 2013

व्यंग्य कथा ……. साहित्य और समाज

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डिस्क्लेमर……. इस कथा को किसी यादव और किसी कुमारी से जोड़कर ना देखा जाए ।

चिलचिलाती धूप पड़ रही है । स्कूल की छुट्टी हो चुकी है । बच्चे घर जाने के लिए बस का इंतज़ार कर रहे हैं । जिसका इंतज़ार किया जा रहा है उस बहुप्रतीक्षित बस के आने में अभी थोड़ी देर है । इससे पहले भी कई बसें इस रास्ते से गुज़र चुकी हैं, पर दूर से ही ढेर सारे स्कूली बच्चों को अपने इंतज़ार में खड़ा देखकर अपनी गति तेज़ कर देती हैं । बच्चे हाथ देते हैं लेकिन वह नहीं रुकती । बच्चे गुस्से से चिल्लाते रह जाते हैं । एक - आध लड़के बड़ा सा पत्थर बस की और निशाना साधकर मारते है जो टायरों से टकरा कर झाड़ियों में गुम हो जाता है ।

यूँ बच्चों को बहुत दूर नहीं जाना है । बमुश्किल दो या तीन किलोमीटर की दूरी पर सभी के घर आ जाते हैं । छुट्टी होते ही पैदल चलेंगे तो घंटे भर के अन्दर पहुँच जाएँगे । लेकिन नहीं, वे पूरे दो घंटे बस का इंतज़ार करते हैं । अभी एक बस दूर से दिख रही है लेकिन बच्चों को उसकी वेशभूषा और तेवर देखकर यह समझ में आ जाता है कि यह यहाँ रुकने वाली नहीं है । यह रुकेगी तो स्टॉप से एक किलोमीटर आगे या एक किलोमीटर पीछे । बच्चे चाहें तो वहां तक दौड़ कर पहुँच सकते हैं, लेकिन वे यह कष्ट नहीं उठाते । बस में बैठा ड्रायवर इस बात को अच्छी तरह से जानता  हैं, इसीलिये वह निश्चिन्त होकर बस को रोके रहता है और तसल्ली से सवारियां चढ़ाता और उतारता है ।

ठीक दो घंटे बाद बहुप्रतीक्षित बस का आगमन होता है । उसमे यात्री ठूंस - ठूंस कर भरे हैं । खड़े होने की भी जगह नहीं बची है । कंडक्टर एक दयावान इंसान है । जगह हो या न हो, रोज़ बच्चों के लिए बस रोकता है ।

यहाँ से बच्चे अब लड़का और लडकी में विभक्त हो गए । लड़कों ने बस को देखा, बस ने लड़कों को देखा । दोनों ने एक दूसरे को समझ लिया । दो घंटे तक अपने इंतज़ार में खड़े बच्चों को देखकर बस की आँखें भर आईं । बस कराहते  हुए बोली '' बच्चों ! बस के अन्दर तिल धरने की भी जगह नहीं बची है, तुम कहाँ खड़े रहोगे ''?

लड़कों ने उत्तर दिया, ''आमा, ये तो तुम्हारे रोज़ के बहाने हैं । बचपन से तुम्हारा यही डायलॉग सुनते आ रहे हैं, और आज इतने बड़े हो गए हैं । तुम चुपचाप खड़ी रहा करो । हम युवा हैं । बस हो या दुनिया हम अपनी जगह बनाना जानते हैं ''।  इतना कहकर लड़कों ने अपनी जगह तलाशनी शुरू कर दी । कुछ सीधे छत में चढ़ गए । कुछ बस के पीछे की सीढ़ी से चिपक गए । बचे - खुचे बस के दरवाज़े पर लटक गए । एक पैर  बाहर एक पैर अन्दर, इस तरह से सभी बस में एडजस्ट हो गए । पैर कहना भी ज्यादती होगी । किसी के पैर की अंगुलिया ही अन्दर हो पायीं,  किसी का अंगूठा, तो कोई ऐढ़ी के सहारे ही लटक गया ।

अब लड़कियों की बारी आई । बस ने लड़कियों को देखा । लड़कियों ने बस को देखा । दोनों ने एक एक दूसरे को समझ लिया । बस फिर से कराह उठी, '' मेरी बच्चियों ! लड़के तो लड़के हैं । किसी भी तरह से सैट हो गए, अब तुम क्या करोगी ? बस के अन्दर तिल धरने की भी जगह नहीं है ।
लडकियां, '' आमा ! आप अपने तिलों का लड्डू बनाओ या तेल निकालो, हमें कोई मतलब नहीं है । [ लडकियां आप का प्रयोग करती हैं ] । आप हमारी चिंता मत करो । अपनी चिंता करो । हम आज की नारियां हैं । हमारे लिए कंडक्टर जगह बना देगा ''।

इतने में एक जादूगर प्रकट हुआ । लोग उसे कंडक्टर पता नहीं क्यों कहते हैं ? जहाँ तिल धरने को भी जगह नहीं हो रही थी वहां दिन पर दिन ताड़ जैसी होती जा रही लड़कियों के लिए जगह बनाना किसी जादू को देखने से कम नहीं है ।

उसने बीस - पच्चीस लड़कियों के लिए खड़े होने की जगह बनानी शुरू कर दी । जगह बनाने की इस प्रक्रिया में वह कभी किसी लडकी की कमर को पकड़ लेता, किसी का हाथ बस के ऊपर डंडे में फंसा देता, तो किसी का सीट के हत्थे में अड़ा देता । किसी को सीट के ऊपर वाले डंडे में टिका देता, किसी को गर्म बोनट के ऊपर बैठा देता । लड़कियों ने उसे भगवान् और खुद को इस धरती पर बोझ मानकर अपने - आप को पूर्णतः उसके हाथ में सौंप दिया । लड़कियों के बस्तों को उसने ड्रायवर की सीट के नीचे डाल दिया ।

अब वह कंडक्टर अपने फ़र्ज़ को निभाने के लिए चल पड़ा । उसी जगह से, जहाँ बाल बराबर जगह भी नहीं थी, वह जादूगर की तरह रास्ता बनाते हुए टिकट के एक या दो रूपये वसूल करने के लिए अग्निपथ की और बढ़ गया । ठुंसी हुई लड़कियों के बदन को पीसता, रगड़ता, अब वह किसी निपुण दर्जी में बदल चुका था । लड़कियों के शरीर का कोई भी अंग ऐसा नही बचा था जहाँ की उसने नाप न ली हो । उस जादूगर को यह भी पता था कि न तो लडकियां और ना ही लड़कों में से कोई पैसा देने वाला है । फिर भी वह बिला नागा अपना फ़र्ज़ निभाने जाता है । लड़कियों से पैसा मांगने जाता तो वे कहतीं,हैं  '' पहले लड़कों से मांग कर लाओ, अगर उन्होंने पैसे दे दिए तो हम भी दे देंगे '' । यह  सुनते ही उसे गुस्सा आ जाता है । वह फिर से वही कुचलने, पीसने और रगड़ने की प्रक्रिया दोहराता है । कम से कम तीन बार में वह इस चक्र को पूरा करता है । टिकट के पैसे किस तरह से वसूल किये जाते हैं यह उसे अच्छी तरह से आता है ।

लड़कों से पैसे मांगने का सवाल ही नहीं उठता । वे बस के अन्दर बैठे ही नहीं हैं तो पैसे क्यूँ देंगे ? अगर बैठे भी होते तब भी नहीं देते । सवाल सीधे - सीधे सिद्धांतों का है । बच्चे चाहते तो पैदल भी जा सकते थे पर नहीं, जब बस उपलब्ध है, जो ठीक उनके घर के दरवाज़े पर रुकती है तो वे पैदल जाने का कष्ट क्यूँ करें ? कंडक्टर को पता है कि लड़कियां पैसे नहीं देंगी, फिर भी वह किराया मांगने के अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं करता है । वह बार - बार उनको टटोलता रहता है और गाली देकर बेइज्जती भी करता है । लड़कियां चाहती तो एक या दो रूपये दे सकती हैं पर नहीं देतीं हैं । जब बिना पैसे दिए काम चल जा रहा है तो पैसे देना कहाँ की बुद्धिमानी है ? इसके अतिरिक्त जब लड़के किराया नहीं दे रहे तो वे भी क्यूँ देंगी । ऐसा लिंग - भेद वे किसी भी सूरत में बर्दाश्त नहीं करेंगी । लड़के चाहते तो वे भी बस में लटकने के पैसे दे सकते थे, पर वे नहीं देंगे । जिस एक रूपये से गुटखा खाया जा सकता है उसे कंडक्टर को देकर क्यूँ बर्बाद करें ? वह भी ऐसी बस में जिसमे बैठने की भी जगह नहीं हो । ये अलग बात है कि बस के अन्दर बैठने की जगह होती तब भी वे गेट पर लटकना ही पसंद करते हैं ।

सवाल सिर्फ सिद्धांतों का है ।


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