कितने घाघ हैं ये बाघ!
नैनीताल या ऐसे ही किसी प्रसिद्द जनपद में रहने वालों की ये विशेषता होती है कि उन्हें जनपद से बाहर वाले लोग बहुत भाग्यशाली मानते हैं जबकि होता इसका ठीक उलटा है. सिर्फ़ एक मुख्य शहर ही ऊँचाई में होने के कारण ठंडा होता है बाकी सभी घाटी में बसे होने के कारण अत्यंत गर्मी वाले होते हैं. मेरे साथ भी ऐसा ही है, लोग अक्सर मुझसे रश्क करते हैं कि मैं नैनीताल जैसी खूबसूरत जगह में रहती हूँ. लोगों को नहीं मालूम होता कि नैनीताल की ठंडी हवाएं नैनीताल की सीमा समाप्त होते ही ठंडी हो जाती हैं. इसके अलावा लोगों का यह भी मानना होता है कि मैं अक्सर नैनीताल के भ्रमण में जाती रहती हूँ, और वहाँ के हर दर्शनीय और अदर्शनीय स्थलों से भली प्रकार परिचित हूँ. जब कोई मुझसे पूछता है कि ''तुमने टिफन टॉप या स्नोवियु तो ज़रूर देखा होगा'', मैं झूठ - मूठ में सिर हिला देती हूँ, नैनीताल का सम्मान बनाये रखने के लिए इतना झूठ बोलने में कोई हर्जा नहीं है.
ऐसा नहीं है कि मैं नैनीताल नहीं जाती हूँ. अक्सर जाती हूँ. मेरे विभाग का मुख्यालय वहीं है, तो मैं कब तक अपनी खैर मना सकती हूँ. घूमती भी बहुत हूँ, ये अलग बात है कि यह घूमना सिर्फ़ एक दफ्तर से दूसरे दफ्तर तक ही सीमित रहता है, अफसरों के इंतज़ार में टकटकी लगाये रहने के चक्कर में याद ही नहीं रहता कि नैनीताल एक पर्यटक स्थल है. जब लोग नाना प्रकार की जगहों के बारे में उत्साह से वर्णन करते हैं, वहीं मेरे जेहन में बस एक झील घूमती रहती है. अक्सर ऑफिसों के चक्कर काटते-काटते थक जाने पर यही विचार आता है कि इससे अच्छा तो इस झील में जल समाधि ले लेती. ऑफिसों के चक्कर क्यूँ काटने पड़ते हैं, यह सरकारी कर्मचारी भली प्रकार समझ सकते हैं.
दुर्भाग्य इतना है कि नौकरी भी ऐसी जगह पर लगी जो कॉर्बेट पार्क के समीप है. एक तो नैनीताल ऊपर से कोर्बेट. करेला ऊपर से नीम चढ़ा . लोग कहते हैं. क्या किस्मत है तुम्हारी, इतनी बढ़िया जगह पर नौकरी लगी है. मेरे मना करने से पहले ही लोग यह मान लेते हैं कि मैं वहाँ अक्सर भ्रमण करने के लिए जाती हूँ, भाँति - भाँति के बाघों के दर्शन करती हूँ और जंगल सफारी का आनंद उठाती हूँ. एक बार फिर कोर्बेट की शान बनाए रखने के लिए मैं उनके अनुमान पर हाँ की मुहर लगा देती हूँ.
यूँ मैंने मन में कई बार कोर्बेट भ्रमण का कार्यक्रम बनाया लेकिन जबसे मैंने जानवरों का बदलता व्यवहार देखा, खासतौर से मासूम घोषित हो चुके बाघों के विषय में, तब से मेरी इच्छा ही नहीं हुई कि मैं वहाँ जाऊं.
पिछले कई सालों से प्रियंका गाँधी अपने दल - बल, राजनैतिक दल नहीं, बल्कि परिवार और कुछ परिचितों [असली बल अब इसी दल के पास है] के साथ जब भी कॉर्बेट घूमने के लिए आती है, जंगल में छिपे हुए सारे बाघ उसे दर्शन देने के लिए दौड़े चले आते हैं. यह अभी नहीं पता चल पाया है कि दर्शन देने के लिए आते हैं या स्वयं दर्शन प्राप्त करने, कारण जो भी हो हर बार प्रियंका खुशी -खुशी लौटती है, मानों बाघों के दर्शन करने से ही ईश्वर के दर्शन हो जाते हों. इस संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि एयरसेल वालो ने ही बाघों से टाई अप कर रखा हो कि जब प्रियंका के आने की सूचना मिले तो फ़ौरन सारे काम - काज छोड़कर दर्शन के लिए हाज़िर हो जाना.
सदियों से लोग गिरगिट को ही रंग बदलने के लिए बदनाम करते रहे, और बाघों की ओर किसी ने ध्यान ही नहीं दिया. जबकि वर्तमान में बेचारा गिरगिट रंग बदलने के मामले में बाघों से बहुत पीछे रह गया है.
वैसे कोर्बेट पार्क जाना और बाघों के दर्शन करना इंसान के भाग्य पर निर्भर करता है. यह बात मैं पक्के दावे के साथ कह सकती हूँ. मेरे एक परिचित हर साल इसी उम्मीद में कोर्बेट जाते हैं कि शायद अबकी बार बाघ के दर्शन हो जाएं, और हर बार एक हफ्ते तक ठहरने के बाद भी अभी तक उनके खाते में मात्र एक जंगली सुअर, हिरणों का झुण्ड, और शायद एक लकडबग्घा जो हंस रहा था, दिखाए दिया . शायद इसलिए क्यूंकि झाड़ी के अन्दर से जो पूंछ झाँक रही थी उसे देखकर उनके लड़के ने दावा किया कि ऐसी पूंछ लकड़ बग्घे की ही होती है. अगर बचपन में उसने विभिन्न जानवरों की पूँछों के विषय में नहीं पढ़ा होता तो यह हमेशा रहस्य बना रहता कि वह पूंछ चिढ़ाता हुआ जानवर लकडबग्घा था.
एक और कारण से जानवरों की मासूमियत के विषय में मेरा संदेह और भी दृढ़ हो गया. काफ़ी सालों बाद कानपुर स्थित चिड़ियाघर जाने का मौका मिला. चिड़ियाघर प्रशासन ने चिड़ियाघर के अन्दर दोपहिया वाहन, कार, जीप, सबको प्रवेश की अनुमति दे रखी है. अब कानपुर की सड़कों पर ही जाम नहीं लगता, अपितु चिड़ियाघर के अन्दर भी जाम लगता रहता है. यहाँ ट्रैफिक पुलिस का काम बन्दर संभालते हैं. जब तक खाने के लिए उन्हें कुछ मिल नहीं जाता, वे आगे से हटते ही नहीं. प्रशासन शायद यह चाहता हो कि जानवर भी जान लें कि चिड़ियाघर से बाहर रहने में कितनी मुश्किलें हैं. एक कारण यह भी हो सकता है कि जानवरों को नई नई गाड़ियों के दर्शन करवाए जाएं, ताकि वे छोटी, बड़ी गाड़ियों और उनके स्वामियों के स्टेंडर्ड में अंतर महसूस कर सकें. मैं ऐसा इसलिए कह सकती हूँ कि मैंने स्वयं कई बंदरों को छोटी गाड़ियों को अनदेखा करते और लम्बी गाड़ियों के आगे सलाम करते देखा.
पैदल यात्रियों के लिए जहाँ किसी भी किस्म की पोलिथीन को ले जाने पर पाबंदी है, वहीं गाड़ियों वाले भांति भांति की रंगीन थैलियों के साथ शान से भ्रमण करते हैं. गाड़ियों के अन्दर झाँकने के लिए हिम्मत और ताकत दोनों चाहिए. इनके बच्चे जानवरों के बाड़े में चिप्स, कुरकुरे के टुकड़े फेंककर निशाना साधने का अभ्यास भी करते हैं. इसके पीछे शायद उनकी यह मंशा रहती हो कि जानवर भी इस आधुनिक स्वाद से वंचित ना रह सकें . हम पैदल यात्रियों के लिए बोर्ड पर साफ़ - साफ़ लिखा रहता है कि ''कृपया जानवरों को कुछ ना खिलाएं, अन्यथा जुर्माना हो सकता है''. पैदल चलने वाले सारे नियम - कानूनों को पढ़ते हुए चलते हैं, जबकि गाड़ियों के अन्दर बैठे लोगों को इस प्रकार के बोर्ड नहीं दिखते. उनमें से कई लोग ठीक से सलाम कैसे किया जाता है, या हाथ कैसे जोड़े जाते हैं, इसकी बाकायदा गाड़ियों से उतरकर ट्रेंनिंग भी देते हैं.
हम पैदल यात्रियों को गाड़ियों वालों के साथ-साथ जानवरों की भी उपेक्षा शिकार होना पड़ता है. जानवरों के बदलते हुए व्यवहार को देखकर मैं हर साल अपना कॉर्बेट भ्रमण का कार्यक्रम रद्द कर देती हूँ.
नैनीताल या ऐसे ही किसी प्रसिद्द जनपद में रहने वालों की ये विशेषता होती है कि उन्हें जनपद से बाहर वाले लोग बहुत भाग्यशाली मानते हैं जबकि होता इसका ठीक उलटा है. सिर्फ़ एक मुख्य शहर ही ऊँचाई में होने के कारण ठंडा होता है बाकी सभी घाटी में बसे होने के कारण अत्यंत गर्मी वाले होते हैं. मेरे साथ भी ऐसा ही है, लोग अक्सर मुझसे रश्क करते हैं कि मैं नैनीताल जैसी खूबसूरत जगह में रहती हूँ. लोगों को नहीं मालूम होता कि नैनीताल की ठंडी हवाएं नैनीताल की सीमा समाप्त होते ही ठंडी हो जाती हैं. इसके अलावा लोगों का यह भी मानना होता है कि मैं अक्सर नैनीताल के भ्रमण में जाती रहती हूँ, और वहाँ के हर दर्शनीय और अदर्शनीय स्थलों से भली प्रकार परिचित हूँ. जब कोई मुझसे पूछता है कि ''तुमने टिफन टॉप या स्नोवियु तो ज़रूर देखा होगा'', मैं झूठ - मूठ में सिर हिला देती हूँ, नैनीताल का सम्मान बनाये रखने के लिए इतना झूठ बोलने में कोई हर्जा नहीं है.
ऐसा नहीं है कि मैं नैनीताल नहीं जाती हूँ. अक्सर जाती हूँ. मेरे विभाग का मुख्यालय वहीं है, तो मैं कब तक अपनी खैर मना सकती हूँ. घूमती भी बहुत हूँ, ये अलग बात है कि यह घूमना सिर्फ़ एक दफ्तर से दूसरे दफ्तर तक ही सीमित रहता है, अफसरों के इंतज़ार में टकटकी लगाये रहने के चक्कर में याद ही नहीं रहता कि नैनीताल एक पर्यटक स्थल है. जब लोग नाना प्रकार की जगहों के बारे में उत्साह से वर्णन करते हैं, वहीं मेरे जेहन में बस एक झील घूमती रहती है. अक्सर ऑफिसों के चक्कर काटते-काटते थक जाने पर यही विचार आता है कि इससे अच्छा तो इस झील में जल समाधि ले लेती. ऑफिसों के चक्कर क्यूँ काटने पड़ते हैं, यह सरकारी कर्मचारी भली प्रकार समझ सकते हैं.
दुर्भाग्य इतना है कि नौकरी भी ऐसी जगह पर लगी जो कॉर्बेट पार्क के समीप है. एक तो नैनीताल ऊपर से कोर्बेट. करेला ऊपर से नीम चढ़ा . लोग कहते हैं. क्या किस्मत है तुम्हारी, इतनी बढ़िया जगह पर नौकरी लगी है. मेरे मना करने से पहले ही लोग यह मान लेते हैं कि मैं वहाँ अक्सर भ्रमण करने के लिए जाती हूँ, भाँति - भाँति के बाघों के दर्शन करती हूँ और जंगल सफारी का आनंद उठाती हूँ. एक बार फिर कोर्बेट की शान बनाए रखने के लिए मैं उनके अनुमान पर हाँ की मुहर लगा देती हूँ.
यूँ मैंने मन में कई बार कोर्बेट भ्रमण का कार्यक्रम बनाया लेकिन जबसे मैंने जानवरों का बदलता व्यवहार देखा, खासतौर से मासूम घोषित हो चुके बाघों के विषय में, तब से मेरी इच्छा ही नहीं हुई कि मैं वहाँ जाऊं.
पिछले कई सालों से प्रियंका गाँधी अपने दल - बल, राजनैतिक दल नहीं, बल्कि परिवार और कुछ परिचितों [असली बल अब इसी दल के पास है] के साथ जब भी कॉर्बेट घूमने के लिए आती है, जंगल में छिपे हुए सारे बाघ उसे दर्शन देने के लिए दौड़े चले आते हैं. यह अभी नहीं पता चल पाया है कि दर्शन देने के लिए आते हैं या स्वयं दर्शन प्राप्त करने, कारण जो भी हो हर बार प्रियंका खुशी -खुशी लौटती है, मानों बाघों के दर्शन करने से ही ईश्वर के दर्शन हो जाते हों. इस संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि एयरसेल वालो ने ही बाघों से टाई अप कर रखा हो कि जब प्रियंका के आने की सूचना मिले तो फ़ौरन सारे काम - काज छोड़कर दर्शन के लिए हाज़िर हो जाना.
सदियों से लोग गिरगिट को ही रंग बदलने के लिए बदनाम करते रहे, और बाघों की ओर किसी ने ध्यान ही नहीं दिया. जबकि वर्तमान में बेचारा गिरगिट रंग बदलने के मामले में बाघों से बहुत पीछे रह गया है.
वैसे कोर्बेट पार्क जाना और बाघों के दर्शन करना इंसान के भाग्य पर निर्भर करता है. यह बात मैं पक्के दावे के साथ कह सकती हूँ. मेरे एक परिचित हर साल इसी उम्मीद में कोर्बेट जाते हैं कि शायद अबकी बार बाघ के दर्शन हो जाएं, और हर बार एक हफ्ते तक ठहरने के बाद भी अभी तक उनके खाते में मात्र एक जंगली सुअर, हिरणों का झुण्ड, और शायद एक लकडबग्घा जो हंस रहा था, दिखाए दिया . शायद इसलिए क्यूंकि झाड़ी के अन्दर से जो पूंछ झाँक रही थी उसे देखकर उनके लड़के ने दावा किया कि ऐसी पूंछ लकड़ बग्घे की ही होती है. अगर बचपन में उसने विभिन्न जानवरों की पूँछों के विषय में नहीं पढ़ा होता तो यह हमेशा रहस्य बना रहता कि वह पूंछ चिढ़ाता हुआ जानवर लकडबग्घा था.
एक और कारण से जानवरों की मासूमियत के विषय में मेरा संदेह और भी दृढ़ हो गया. काफ़ी सालों बाद कानपुर स्थित चिड़ियाघर जाने का मौका मिला. चिड़ियाघर प्रशासन ने चिड़ियाघर के अन्दर दोपहिया वाहन, कार, जीप, सबको प्रवेश की अनुमति दे रखी है. अब कानपुर की सड़कों पर ही जाम नहीं लगता, अपितु चिड़ियाघर के अन्दर भी जाम लगता रहता है. यहाँ ट्रैफिक पुलिस का काम बन्दर संभालते हैं. जब तक खाने के लिए उन्हें कुछ मिल नहीं जाता, वे आगे से हटते ही नहीं. प्रशासन शायद यह चाहता हो कि जानवर भी जान लें कि चिड़ियाघर से बाहर रहने में कितनी मुश्किलें हैं. एक कारण यह भी हो सकता है कि जानवरों को नई नई गाड़ियों के दर्शन करवाए जाएं, ताकि वे छोटी, बड़ी गाड़ियों और उनके स्वामियों के स्टेंडर्ड में अंतर महसूस कर सकें. मैं ऐसा इसलिए कह सकती हूँ कि मैंने स्वयं कई बंदरों को छोटी गाड़ियों को अनदेखा करते और लम्बी गाड़ियों के आगे सलाम करते देखा.
पैदल यात्रियों के लिए जहाँ किसी भी किस्म की पोलिथीन को ले जाने पर पाबंदी है, वहीं गाड़ियों वाले भांति भांति की रंगीन थैलियों के साथ शान से भ्रमण करते हैं. गाड़ियों के अन्दर झाँकने के लिए हिम्मत और ताकत दोनों चाहिए. इनके बच्चे जानवरों के बाड़े में चिप्स, कुरकुरे के टुकड़े फेंककर निशाना साधने का अभ्यास भी करते हैं. इसके पीछे शायद उनकी यह मंशा रहती हो कि जानवर भी इस आधुनिक स्वाद से वंचित ना रह सकें . हम पैदल यात्रियों के लिए बोर्ड पर साफ़ - साफ़ लिखा रहता है कि ''कृपया जानवरों को कुछ ना खिलाएं, अन्यथा जुर्माना हो सकता है''. पैदल चलने वाले सारे नियम - कानूनों को पढ़ते हुए चलते हैं, जबकि गाड़ियों के अन्दर बैठे लोगों को इस प्रकार के बोर्ड नहीं दिखते. उनमें से कई लोग ठीक से सलाम कैसे किया जाता है, या हाथ कैसे जोड़े जाते हैं, इसकी बाकायदा गाड़ियों से उतरकर ट्रेंनिंग भी देते हैं.
हम पैदल यात्रियों को गाड़ियों वालों के साथ-साथ जानवरों की भी उपेक्षा शिकार होना पड़ता है. जानवरों के बदलते हुए व्यवहार को देखकर मैं हर साल अपना कॉर्बेट भ्रमण का कार्यक्रम रद्द कर देती हूँ.
बाघों को पता चलने दीजिये आप लिख रही हैं कुछ घाग वाग जैसी बात उनके बारे में :)
जवाब देंहटाएंपता नहीं जानवर अन्दर ही हैं कि बाहर आकर बस गये हैं।
जवाब देंहटाएंवाह अच्छा आलेख
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज बुधवार (26-02-2014) को लेकिन गिद्ध समाज, बाज को गलत बताये; चर्चा मंच 1535 में "अद्यतन लिंक" पर भी है!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
उफ़्फ़ अब आदमखोरों को खुल्ले आम घूमते देख, जंगलों में जाकर बाघ देखने की इच्छा वैसे भी खत्म हो गई है ।
जवाब देंहटाएंकुछ समय जोधपुर में रहा. दुनिया भर से लोग मेहरानगढ़ का किला देखने जाते हैं. वह मेरी खिड़की से दिखता था एक दिन लगा कि चलो मैं भी हो आउं सो, सुबह की सैर के लिए चला गया. यही हाल क्नॉट प्लेस का है, जो दिल्ली आकर क्नॉट प्लेस नहीं वो क्या दिल्ली अाया. अब रोज़ जाता हूं पर कुछ खास नहीं दिखता... मुर्गी दाल बराबर
जवाब देंहटाएंहर कोई रंग बदल रहा है ,बाघ पीछे क्यों रहें ........
जवाब देंहटाएंबेचारा बाघ.......!!!!!
जवाब देंहटाएंबहुत ही रोचक एवं दिलचस्प वृत्तांत ! बहुत खूब !
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