मंगलवार, 25 फ़रवरी 2014

कितने घाघ हैं ये बाघ!

कितने घाघ हैं ये बाघ!

नैनीताल या ऐसे ही किसी प्रसिद्द जनपद में रहने वालों की ये विशेषता होती है कि उन्हें जनपद से बाहर वाले लोग बहुत भाग्यशाली मानते हैं जबकि होता इसका ठीक उलटा है. सिर्फ़ एक मुख्य शहर ही ऊँचाई में होने के कारण ठंडा होता है बाकी सभी घाटी में बसे होने के कारण अत्यंत गर्मी वाले होते हैं. मेरे साथ भी ऐसा ही है, लोग अक्सर मुझसे रश्क करते हैं कि मैं नैनीताल जैसी खूबसूरत जगह में रहती हूँ. लोगों को नहीं मालूम होता कि नैनीताल की ठंडी हवाएं नैनीताल की सीमा समाप्त होते ही ठंडी हो जाती हैं. इसके अलावा लोगों का यह भी मानना होता है कि मैं अक्सर नैनीताल के भ्रमण में जाती रहती हूँ, और वहाँ के हर दर्शनीय और अदर्शनीय स्थलों से भली प्रकार परिचित हूँ. जब कोई मुझसे पूछता है कि ''तुमने टिफन टॉप या स्नोवियु तो ज़रूर देखा होगा'', मैं झूठ - मूठ में सिर हिला देती हूँ, नैनीताल का सम्मान बनाये रखने के लिए इतना झूठ बोलने में कोई हर्जा नहीं है.


ऐसा नहीं है कि मैं नैनीताल नहीं जाती हूँ. अक्सर जाती हूँ. मेरे विभाग का मुख्यालय वहीं है, तो मैं कब तक अपनी खैर मना सकती हूँ. घूमती भी बहुत हूँ, ये अलग बात है कि यह घूमना सिर्फ़ एक दफ्तर से दूसरे दफ्तर तक ही सीमित रहता है, अफसरों के इंतज़ार में टकटकी लगाये रहने के चक्कर में याद ही नहीं रहता कि नैनीताल एक पर्यटक स्थल है. जब लोग नाना प्रकार की जगहों के बारे में उत्साह से वर्णन करते हैं, वहीं मेरे जेहन में बस एक झील घूमती रहती है. अक्सर ऑफिसों के चक्कर काटते-काटते थक जाने पर यही विचार आता है कि इससे अच्छा तो इस झील में जल समाधि ले लेती. ऑफिसों के चक्कर क्यूँ काटने पड़ते हैं, यह सरकारी कर्मचारी भली प्रकार समझ सकते हैं.

दुर्भाग्य इतना है कि नौकरी भी ऐसी जगह पर लगी जो कॉर्बेट पार्क के समीप है. एक तो नैनीताल ऊपर से कोर्बेट. करेला ऊपर से नीम चढ़ा . लोग कहते हैं. क्या किस्मत है तुम्हारी, इतनी बढ़िया जगह पर नौकरी लगी है. मेरे मना करने से पहले ही लोग यह मान लेते हैं कि मैं वहाँ अक्सर भ्रमण करने के लिए जाती हूँ, भाँति - भाँति के बाघों के दर्शन करती हूँ और जंगल सफारी का आनंद उठाती हूँ. एक बार फिर कोर्बेट की शान बनाए रखने के लिए मैं उनके अनुमान पर हाँ की मुहर लगा देती हूँ.

यूँ मैंने मन में कई बार कोर्बेट भ्रमण का कार्यक्रम बनाया लेकिन जबसे मैंने जानवरों का बदलता व्यवहार देखा, खासतौर से मासूम घोषित हो चुके बाघों के विषय में, तब से मेरी इच्छा ही नहीं हुई कि मैं वहाँ जाऊं.

पिछले कई सालों से प्रियंका गाँधी अपने दल - बल, राजनैतिक दल नहीं, बल्कि परिवार और कुछ परिचितों [असली बल अब इसी दल के पास है] के साथ जब भी कॉर्बेट घूमने के लिए आती है, जंगल में छिपे हुए सारे बाघ उसे दर्शन देने के लिए दौड़े चले आते हैं. यह अभी नहीं पता चल पाया है कि दर्शन देने के लिए आते हैं या स्वयं दर्शन प्राप्त करने, कारण जो भी हो हर बार प्रियंका खुशी -खुशी लौटती है, मानों बाघों के दर्शन करने से ही ईश्वर के दर्शन हो जाते हों. इस संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि एयरसेल वालो ने ही बाघों से टाई अप कर रखा हो कि जब प्रियंका के आने की सूचना मिले तो फ़ौरन सारे काम - काज छोड़कर दर्शन के लिए हाज़िर हो जाना.

सदियों से लोग गिरगिट को ही रंग बदलने के लिए बदनाम करते रहे, और बाघों की ओर किसी ने ध्यान ही नहीं दिया. जबकि वर्तमान में बेचारा गिरगिट रंग बदलने के मामले में बाघों से बहुत पीछे रह गया है.

वैसे कोर्बेट पार्क जाना और बाघों के दर्शन करना इंसान के भाग्य पर निर्भर करता है. यह बात मैं पक्के दावे के साथ कह सकती हूँ. मेरे एक परिचित हर साल इसी उम्मीद में कोर्बेट जाते हैं कि शायद अबकी बार बाघ के दर्शन हो जाएं, और हर बार एक हफ्ते तक ठहरने के बाद भी अभी तक उनके खाते में मात्र एक जंगली सुअर, हिरणों का झुण्ड, और शायद एक लकडबग्घा जो हंस रहा था, दिखाए दिया . शायद इसलिए क्यूंकि झाड़ी के अन्दर से जो पूंछ झाँक रही थी उसे देखकर उनके लड़के ने दावा किया कि ऐसी पूंछ लकड़ बग्घे की ही होती है. अगर बचपन में उसने विभिन्न जानवरों की पूँछों के विषय में नहीं पढ़ा होता तो यह हमेशा रहस्य बना रहता कि वह पूंछ चिढ़ाता हुआ जानवर लकडबग्घा था.

एक और कारण से जानवरों की मासूमियत के विषय में मेरा संदेह और भी दृढ़ हो गया. काफ़ी सालों बाद कानपुर स्थित चिड़ियाघर जाने का मौका मिला. चिड़ियाघर प्रशासन ने चिड़ियाघर के अन्दर दोपहिया वाहन, कार, जीप, सबको प्रवेश की अनुमति दे रखी है. अब कानपुर की सड़कों पर ही जाम नहीं लगता, अपितु चिड़ियाघर के अन्दर भी जाम लगता रहता है. यहाँ ट्रैफिक पुलिस का काम बन्दर संभालते हैं. जब तक खाने के लिए उन्हें कुछ मिल नहीं जाता, वे आगे से हटते ही नहीं. प्रशासन शायद यह चाहता हो कि जानवर भी जान लें कि चिड़ियाघर से बाहर रहने में कितनी मुश्किलें हैं. एक कारण यह भी हो सकता है कि जानवरों को नई नई गाड़ियों के दर्शन करवाए जाएं, ताकि वे छोटी, बड़ी गाड़ियों और उनके स्वामियों के स्टेंडर्ड में अंतर महसूस कर सकें. मैं ऐसा इसलिए कह सकती हूँ कि मैंने स्वयं कई बंदरों को छोटी गाड़ियों को अनदेखा करते और लम्बी गाड़ियों के आगे सलाम करते देखा. 

पैदल यात्रियों के लिए जहाँ किसी भी किस्म की पोलिथीन को ले जाने पर पाबंदी है, वहीं गाड़ियों वाले भांति भांति की रंगीन थैलियों के साथ शान से भ्रमण करते हैं. गाड़ियों के अन्दर झाँकने के लिए हिम्मत और ताकत दोनों चाहिए. इनके बच्चे जानवरों के बाड़े में चिप्स, कुरकुरे के टुकड़े फेंककर निशाना साधने का अभ्यास भी करते हैं. इसके पीछे शायद उनकी यह मंशा रहती हो कि जानवर भी इस आधुनिक स्वाद से वंचित ना रह सकें . हम पैदल यात्रियों के लिए बोर्ड पर साफ़ - साफ़ लिखा रहता है कि ''कृपया जानवरों को कुछ ना खिलाएं, अन्यथा जुर्माना हो सकता है''. पैदल चलने वाले सारे नियम - कानूनों को पढ़ते हुए चलते हैं, जबकि गाड़ियों के अन्दर बैठे लोगों को इस प्रकार के बोर्ड नहीं दिखते. उनमें से कई लोग ठीक से सलाम कैसे किया जाता है, या हाथ कैसे जोड़े जाते हैं, इसकी बाकायदा गाड़ियों से उतरकर ट्रेंनिंग भी देते हैं. 

हम पैदल यात्रियों को गाड़ियों वालों के साथ-साथ जानवरों की भी उपेक्षा शिकार होना पड़ता है. जानवरों के बदलते हुए व्यवहार को देखकर मैं हर साल अपना कॉर्बेट भ्रमण का कार्यक्रम रद्द कर देती हूँ.

मंगलवार, 18 फ़रवरी 2014

यह तो होना ही था केजरीवाल जी !

यह तो होना ही था केजरीवाल जी ! सरकार ऐसे ही थोड़े चलती है । आपकी नीतियां शुरू से ही गलत रही थीं, जिसका खामियाज़ा आपको यूँ भुगतना पड़ा ।  

आपको अभी बहुत कुछ सीखने की ज़रूरत है । आपके पास उपयुक्त शब्दावली का अभाव है । आप दिल से बात करते हैं हम दिमाग से सुनते हैं । आपको नेताओं के लिए बनाए गए शब्दकोष का भली - भाँति अध्ययन करके आना चाहिए था । इसमें  ---निश्चित रूप से, कहीं न कहीं , हम देख रहे हैं, नो कमेंट, मामला हमारे संज्ञान में अभी नहीं आया, उचित कार्यवाही की जायेगी, विपक्ष का षड्यंत्र है, मेरे बयान को तोड़ - मरोड़ कर पेश किया गया, मामला कोर्ट में विचाराधीन है, जैसे नामालूम कितने ही खूबसूरत शब्द थे, आपने उनकी अनदेखी करी, जिसका परिणाम आपको भुगतना पड़ा ।  

आपकी शुरुआत ही गलत हुई ? आपने जनता से एस.एम्.एस.करके, उनके बीच सभाएं करके राय मांगी कि सरकार बनानी चाहिए या नहीं । ऐसा कभी देखा गया न सुना गया । जनता कौन होती है आपको यह बताने वाली ? जनता का काम वोट देना है बस । दरअसल जनता को वोट के बदले या तो नोट लेने की आदत है या चोट खाने की आदत है । उसके एस.एम्.एस.का दुरूपयोग हुआ । अपने कीमती एस.एम्.एस.से वह अपना बिग बॉस चुन रही थी, बेस्ट डांसर ढूंढ रही थी, बेस्ट गायक तलाश रही थी, बेस्ट कुक के लिए और बेस्ट सीरियल के लिए वोट कर रही थी । इतनी ज़िम्मेदारियों के बीच आपने सरकार बनाने के लिए राय माँगी तो वह अचकचा सी गयी थी और इसी दुविधा में उसने आपको सरकार बनाने की राय दे डाली होगी ।  

आपकी पार्टी की नीतियां स्पष्ट नहीं है । विदेश नीति, अंतर्राष्ट्रीय नीति, कश्मीर समस्या, पकिस्तान और चीन जैसे पड़ोसी के साथ सम्बन्ध, आर्थिक नीतियां, आतंकवाद, अमेरिका, विकास दर, नक्सल समस्या, माओवाद, जैसे अनेकानेक मुद्दे थे, जिन पर आप जनता को सालों तक उलझा सकते थे । आप आम आदमी की समस्याएं लेकर बैठ गए । जबकि आम आदमी ने अपनी समस्याओं को समस्या मानना ही छोड़ दिया था । ये आपकी ही गलती थी कि आपने उसे याद दिलाया कि जिन्हें वह महबूब के प्रेमपत्रों की तरह सीने से लगाए हुए है उसे समस्या कहते हैं ।  

आपने जनता दरबार लगाना चाहा जो कि बिलकुल ही वाहियात प्रयोग रहा । जनता की इतनी समस्याएं हैं कि उन्हें सुनते - सुनते आप छत पर तो क्या अंतरिक्ष में भी चलें जाएंगे, नहीं सुन पाएंगे । आपको हुज़ूर दरबार लगाने चाहिए थे, अपने आस - पास चापलूसों की फ़ौज़ खड़ी करनी चाहिए थी । आपके आस - पास चमचों की भीड़ रहती तो आपको किसी किस्म की दिक्कत का सामना नहीं करना पड़ता । आम आदमी की निष्ठा सदा से संदिग्ध रही है । जबकि चापलूस कभी अपना व्यक्तित्व कभी नहीं बदलते । वे जहाँ भी रहते हैं अपने हुज़ूर को खुश रखते हैं । चापलूस आपके तारणहार ही नहीं खेवनहार भी सिद्ध होते । पांच साल तो चुटकी बजाते ही कट जाते । 

आपने धरना दिया । आपकी आलोचना हुई । आलोचना करने वाले समझ नहीं पा रहे थे कि आलोचना असल में करनी किसकी है ? धरने की या आपकी ? या आपके द्वारा किये जा रहे धरने की ? आप लाख कहते रहें कि आप आम आदमी हैं, जैसा कि आपकी टोपी पर भी लिखा गया है, तब भी आपको आम आदमी नहीं माना गया । अगर मानते होते तो इतना बवाल नहीं मचता । क्यूंकि आम आदमी और धरना - प्रदर्शन तो एक तरह से पर्यायवाची शब्द हैं । धरना भी इतनी सी मामूली बात के लिए कि मंत्री का आदेश न मानने वाले दोषी पुलिस वालों को सस्पेंड किया जाए । इसके बदले आपको यह करना चाहिए था कि उन पुलिस कर्मियों को थोड़े समय के लिए स्टडी टूर पर विदेश भेज देते, जहाँ वे विभिन्न देशों की कानून - व्यवस्था का अध्ययन करते और अपने अनुभवों से राज्य के अन्य अफसरों को भी लाभान्वित करते । इस तरह बारी - बारी से सभी स्टडी टूर में जाते रहते । आपके राज्य में खुशहाली छाई रहती । 

आप मफलर ओढ़े रहते हैं जबकि आपको गैंडे की खाल ओढ़नी चाहिए थी । कोई कुछ भी कह देता आपको कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए था । ज़रा - ज़रा सी बात पर आप माफी मांगने लग जाते हैं । माफी माँगना इंसान की कमज़ोरी को दर्शाता है । इस मामले में आपको अपने पड़ोसी राज्यों से सीख लेनी चाहिए थी । आपके पड़ोसी राज्यों में दंगों में कई लोग मारे गए फिर ठण्ड का निवाला बने । क्या उनको माफी मांगते हुए किसी ने देखा ? राज्य के सारा महकमा खोई हुई भैंसे ढूँढता रहा । क्या किसी के माथे पर भूले से भी शिकन आई  ? 

आपने आते ही सबकी लाल बत्तियां बुझा दीं । जबकि आपको सत्ता सँभालते ही लाल बत्तियां बांटनी चाहिए थीं । लाल बत्तियां सरकार के लिए संकटमोचक होती हैं । जिसने भी ज़रा सा मुंह फुलाया या नाक सिकोड़ी, उसे लाल बत्ती थमा देने से संकट टल जाता है । आपके कुछ  विधायकों के पार्टी से मोहभंग होने प्रमुख  कारण यह भी रहा । लाल बत्तियां होतीं तो विरोधी पार्टियों के विधायक भी आपकी पार्टी में कच्चे धागे से खिंचे चले आते । 

आपके मंत्रियों को सरकार चलाने का ज़रा भी अनुभव नहीं है । पिछली कुछ घटनाओं से इस बात को बल मिलता है कि वे बिलकुल अव्यवाहरिक हैं । आपके मंत्री राजनीति नहीं जानते । राजनीति क्या वे तो रातनीति भी नहीं जानते । जो काम दिल के उजाले में भी नहीं किये जाते, उन्हें वे रात को करते हैं वह भी कैमरों के साथ । और तो और वे रात के अँधेरे में वहाँ रेड डालने जाते हैं, जहाँ उन्हें खुद होना चाहिए था ।

आपका कहना है कि आपने दिल्ली वालों के लिए दिन - रात काम किया । यहाँ भी आप चूक गए । सरकार चलना हो या सरकारी नौकरी करनी हो, दोनों का मूलमंत्र एक ही होता है - सदा व्यस्त दिखो लेकिन करो कुछ मत । काम करने वाले से सभी की अपेक्षाएं बढ़ जाती हैं । निकम्मे आदमी, सरकार हो या नौकरी, आराम से निभा ले जाते हैं ।  

आपका उद्देश्य ही गलत था । आप भ्रष्टाचार के खिलाफ जीत कर आए थे । और भारत का आम इंसान भ्रष्टाचार के साथ जीने का इतना आदी हो चुका है कि उसके बिना जीने की कल्पना से ही घबराने लगता है । पहले दफ्तरों के चक्कर काटने से रिटायर्ड लोगों का समय कट जाया करता था, दफ्तर के बाबुओं, चपरासियों से अपनापा हो जाता था , चाय पीने - पिलाने में  दिन कट जाया करता था । अब वही रिटायर्ड लोग खाली हो गए और उनके घर में दिन रात झगड़ा होता रहता है । 

आपको देश के कानून पर भरोसा नहीं है । आप कानून का, संविधान का उल्लंघन करते हैं । क़ानून के हाथ बहुत लम्बे होते हैं । वे वहाँ से तक क्लीन चिटें निकाल लाते हैं जहाँ से कोई सोच भी नहीं सकता है । बाईस साल बाद ही सही, राजीव गांधी के हत्यारों को उम्र कैद तो हुई ही । आपकी भी आवाज़ देर सबेर सुन ही ली जाती । आपके अंदर धैर्य का सर्वथा अभाव देखा गया । 

जिस प्रकार लड़की के जन्म के साथ ही उसका पिता उसका दहेज़ जुटाने लग जाता है, उसी प्रकार दिल्ली वासी भी अपने बच्चों के जन्म से पहले ही स्कूलों में एडमिशन के लिए डोनेशन की रकम जमा करने लग जाते हैं । पैसे जमा करने के तनाव में दिल्लीवासी को कोई समस्या दिखाई ही नहीं देती थी । बिजली, पानी को भूल कर वह सिर्फ मिशन एडमिशन में जुटा रहता था । इस प्रकार वह फ़िज़ूलखर्ची से भी बच जाया करता था । आपने नर्सरी में डोनेशन बंद करवा दिया । जिससे आम आदमी एकदम से खाली हो गया । उसका पैसा बच गया । अब दिमाग खाली हो और पास में पैसा भी बचा हुआ हो तो आदमी का ध्यान इधर - उधर जाना स्वाभाविक है । ऐसे में वह आपकी सरकार की ओर गौर से लगा और आम आदमी जब किसी की ओर गौर से देखने लग जाए तो इसे खतरे की घंटी मानना चाहिए ।  

सांस्कृतिक दृष्टि से भी आपकी उपलब्धियां शून्य रहीं । इन उन्चास दिनों में दिल्ली में एक भी महोत्सव का आयोजन नहीं हुआ । सलमान, माधुरी के ठुमके देख कर ठण्ड से अकड़ते जिस्मों में कैसी गर्मी आ जाती है, ये आप क्या जानो केजरी बाबू ? 

आप एफ़.आई.आर.लिखवा रहे हैं वह भी उनके खिलाफ, जिनकी जेब में सरकार रहती है । जिसकी भरी हुई जेब में डाका डाला जाएगा वह भला चुप क्यूँ रहेगा ? वे कोई आम आदमी थोड़े ही थे कि जिसकी जेब कट भी जाए तो उसे उतना अफ़सोस नहीं होता क्यूंकि उसकी जेब में सरकार नहीं बल्कि सौ - दो सौ रूपये, राशन के बिल, पत्नी की फोटो, डॉक्टर की पर्ची या छुट्टी की एप्लिकेशन पडी रहती है ।    

इंसान के सीने में आग भले ही न हो लेकिन अगर वह घाघ है तो उसका कोई कुछ बिगाड़ नहीं पाता । राजनीति में पारदर्शिता से अधिक आवश्यकता खारदर्शिता की होती है । अपने पड़ोसी उत्तराखंड को ही देख लेते । इस नए राज्य में इतने मुख्यमंत्री बन चुके हैं कि रोज़ एक आशंका बनी रहती है कि कल सुबह जब हम आँख खोलेंगे तो पता नहीं कौन मुख्यमंत्री होगा । आप हर राज्य से थोडा - थोडा भी सीखते तो किसी किस्म की परेशानी में नहीं फंसते । जनलोकपाल बिल कैसे लाया जाता है यह तेलंगाना के लिए लाए गए बिल से सीखते । 

आपका स्वयं इस्तीफ़ा देना वैसे ही है जैसे लड़के वाला होकर भी लड़की वालों को दहेज़ देना । राजनीति के इतिहास को आपने ढंग से देखा होता तो पता चलता कि इस्तीफ़ा मांगने की चीज़ होती है, देने की नहीं । 

इन उन्चास दिनों में कई लोग गरीब हो गए जिनमें पुलिस वाले, डोनेशन लेने वाले, रिश्वत लेने वाले भी शामिल थे । आपकी सरकार को इन्हीं गरीबों की हाय लग गयी । गरीबों की हाय क्या -क्या कर सकती है इस पर कबीर दास जी विस्तार से प्रकाश डाल गए हैं । 
 
पहाड़ के रास्तों में जगह - जगह सिशून के पौधे लगे रहते हैं,  इसके पत्ते उलटे भी चुभते हैं और सीधे भी चुभते हैं । ऐसे सिशून के पत्ते अब हर जगह उगने लगे हैं ----

आप आंदोलन करेंगे तो ये कहेंगे '' आंदोलन तो हर कोई कर सकता है, ज़रा चुनाव लड़के, सिस्टम में आके देखो तब पता चलेगा ''

आप चुनाव लड़ेंगे और सिस्टम में आएँगे तो ये कहेंगे '' आंदोलन करने वालों को सिस्टम में नहीं आना चाहिए, इससे आंदोलन की पवित्रता भंग होती है ''। 

आप अल्पमत के चलते सरकार नहीं बनाना चाहेगे तो ये कहेंगे '' देखो कैसे लोग हैं ? सरकार बनाने से डर रहे हैं , दिल्ली को दुबारा चुनाव में धकेल रहे हैं ''। 

आप सरकार बना लेंगे तो ये कहेंगे '' धिक्कार है ! कैसा आदमी है '' जिनको गाली देता था उन्ही के सहयोग से सरकार बना रहा है ''। 

आपने अपने बच्चों की कसम खाई थी कि न भाजपा से समझौता करेंगे न कॉंग्रेस से । इस पर ये कहेंगे '' कैसा आदमी है, 'एक नेता के लिए देश बड़ा होना चाहिए या अपना परिवार ''। 

आप सहयोग ले लेंगे तो कहेंगे ''थू ! थू  ! कैसा पिता है अपने ही बच्चों की झूठी कसम खाता है '' । 

आप जनता की राय मांगेंगे तो ये कहेंगे '' अजीब लोग हैं ! हर काम जनता से पूछ कर करेंगे क्या ''?

जनता से नहीं पूछेंगे तो कहेंगे '' ये कैसी आम आदमी की सरकार है, जनता की राय की कोई अहमियत ही नहीं ''।  

आप सरकारी बंगला लेंगे तो ये कहेंगे '' वाह ! आम आदमी सरकारी बंगले में रहता है क्या ? कहते कुछ है और करते कुछ है ''। 

आप उससे छोटा बंगला लेंगे तो कहेंगे '' आम आदमी क्या बंगले में नहीं रहते हैं ? केजरीवाल नौटंकी करता है ''। 

सरकार चलाएंगे तो कहेंगे '' कहाँ गया जनलोकपाल, जिसको लेकर इतना बड़ा आंदोलन किया ''?

जनलोकपाल बिल लाएंगे तो कहेंगे '' ये कोई समय है, ये कोई तरीका है जनलोकपाल बिल लाने का ''?   

आप कुछ काम करके अपने किये वादों पर अमल करना चाहेंगे तो ये हँसेंगे  '' देखो ! आखिरकार इनका कुर्सी लालच सामने आ ही गया । कैसे कुर्सी से चिपक गए '' ?

आप इस्तीफ़ा देंगे तो कहेंगे '' देखो भगोड़े, कायर, रणछोड़दास को । सत्ता संभालनी इसके बस  की बात नहीं थी, बहाने ढूंढ रहा था इस्तीफ़ा देने के ''।    

ये सिशून के पत्ते .......... 



गुरुवार, 13 फ़रवरी 2014

स्थिति

चाकू की नोक, 
तीखी तेज़ धार 
मिर्च की छौंक, 
आँखों पर फुहार 
कुर्सी, माइक 
अदरक, चूड़ी 
संसद का त्योहार 
धक्का - मुक्की 
गाली, घूंसे, लात 
बेहोशी और हृदयाघात   
मार - काट, हंगामा, 
कुश्ती का अखाड़ा 
कबड्डी का बाड़ा । 


कर लें आधा -आधा 
संसद की मर्यादा, 
यह सुविधा यह अधिकार 
ना नोक तंत्र में है 
ना जोक तंत्र में है  
मज़ा ये सारा सिर्फ 
भारतीय लोकतंत्र में है । 

अरे ! अरे ! अरे ! आप 
गरियाएं नहीं, घबराएं नहीं,  
लजाएँ नहीं, शरमाएं नहीं, 
और 
इतनी भी चिंता न करें श्रीमन !
क्यूंकि, 
स्थिति तनावपूर्ण किन्तु नियंत्रण में है ।