पिछले दिनों उससे एक शादी में मुलाक़ात हुई । उसने मुझे पहचान लिया । मैं तो देखते ही पहचान गयी थी । आश्चर्य उसके द्वारा मुझे पहचान लेने में है । कॉलेज छोड़ने के पंद्रह साल बाद आपको साथ वालों के द्वारा पहचाना जाना मायने रखता है । कमर के आस - पास चर्बी का ढेर, चेहरा फूल की जगह फूला हुआ, मेकअप की अनगिनत पर्तों के बीच उम्र को छिपाने की नाकाम कोशिश और उंगली पकड़ कर खड़ा हुआ एक बच्चा जब आपके साथ हो । बच्चा, जो आँखें फाड़ - फाड़ कर कभी अपनी माँ तो कभी उन अंकल को देख रहा है । बच्चे को विश्वास ही नहीं हो रहा कि घर पर दिन -रात पापा से झगड़ने वाली मम्मी हँस - हँस कर किसी से बात भी कर सकती है ।
उसने मुझे पहचान लिया था । अब बात आगे बढ़नी थी । अगला सवाल जो कि प्रत्याशित था ,'' क्या कर रही हो आजकल ''?
मैंने जवाब दिया '' कुछ नहीं ''।
''कुछ तो कर ही रही होगी । आजकल कोई औरत खाली नहीं बैठती ''।
''कुछ नहीं सरकारी नौकरी कर रही हूँ और क्या ?''
मैंने सरकारी नौकरी को कुछ नहीं करने की श्रेणी में रखा । उसने भी घरेलू कार्यों को खाली बैठने की श्रेणी में रखा ।
''वाह ! '' सुनते ही उसने आँखें चौड़ी करीं और भवों को जितना ऊँचा तान सकता था तान लिया ।
अब पूछने की बारी मेरी थी ।
''और सुनाओ तुम क्या कर रहे हो ''?
वह कुछ कहने ही वाला था कि उसका फोन बज उठा । उसने जेब से फोन निकाला और रिसीव करने में उतनी देर लगाई जितनी देर में मैं उसका विशाल स्क्रीन, मॉडल और कंपनी का नाम स्पष्ट देख सकूं ।
''कुछ ख़ास नहीं ''। उसका जवाब आया ।
कुछ ख़ास तो करते ही होंगे तभी तो साठ हज़ार का फोन रखा हुआ है, मैं कहना चाहती थी पर कह नहीं पाई ।
'' फिर भी बताओ तो सही ''।
'' बस ऐसे ही काम चल रहा है ''उसने जवाब टाल दिया ।
इतने में उसके पास एक नौजवान आया, '' साहब ! मैडम और बच्चे बाहर गाड़ी में इंतज़ार कर रहे हैं ''।
'' यह मेरा कार्ड है, कभी मौका मिले तो बात करेंगे । अभी जल्दी में हूँ । लड़का और लड़की को हॉस्टल छोड़ने जा रहा हूँ । तुम अपना कार्ड दे दो ''। मैं खिसिया कर हंस दी । कार्ड और मैं ? भला हो टीचरी का कि पर्स में रेजगारी हो न हो पेन व कागज़ हमेशा रहता है । उसी एक छोटे से पुर्ज़े पर अपना फोन नम्बर लिख कर दे दिया ।
'' बाय द वे, बच्चे कहाँ पढ़ते हैं ? स्कूल के नाम से उसके स्टेटस का पता चलने की पूरी - पूरी सम्भावना थी ।
''दून स्कूल में ''
मेरी कल्पना में शहर में स्थित तीन चार दून स्कूलों के नाम आ रहे थे ।
'' कौन से वाले दून में ? आवास विकास वाले या रामपुर रोड वाले में ?''
''देहरादून वाले दून में, जहाँ प्रियंका गांधी के बच्चे पढ़ते हैं''।
अब बारी मेरी थी कि मैं भवों को जहाँ तक हो सके चढ़ा लूँ और आँखों को जहाँ तक हो सके चौड़ा कर लूँ । मेरा मुंह बिना प्रयास किये गोल हो गया । सीटी बजाने की ट्रेनिंग न होने की वजह से बज नहीं पाई।
वह अपनी गाड़ी के पास गया । गाड़ी वही थी जो पिछले ही हफ्ते टी.वी. के विज्ञापन में दिखाई दे रही थी । खासी महंगी गाड़ी थी । इतनी कि गौर से देखने में ही डर लग जाए कि कहीं खरोंच न आ जाए ।
उसने गाड़ी में बैठी अपनी पत्नी से मुझे मिलवाया । बीबी क्या थी समझो कि किसी अभिनेत्री ने लगातार फ्लॉप फ़िल्में देने के कारण शादी कर ली हो ।
'' कहाँ पोस्टिंग है आजकल ?'' उसका यह प्रश्न मुझे अपनी दुनिया वापिस खींच लाया ।
मैंने जगह का नाम बताया । उसने दूरी पूछी ।
''१०० किमी के लगभग हो जाता है आना - जाना ''।
''ओह माय गॉड! पहले क्यों नहीं बताया ? इतना ट्रैवल करती हो ? अभी मुझे एक एप्लिकेशन लिख कर दे दो । एक हफ्ते समय लगेगा । ट्रांसफर घर के पास हो जाएगा'''। वह ख़ासा चिंतित हो गया ।
उसके अफ़सोस ज़ाहिर करने से ऐसा लगा कि मेरे इतनी दूर रोज़ाना के आने - जाने से उसे बहुत दुःख पहुंचा हो । मुझे हांलाकि इतनी तकलीफ कभी नहीं होती है। बस के अंदर जाते ही मैं खुद को निद्रा देवी के हवाले कर देती हूँ फिर मेरा स्टेशन आने तक मुझे जगाने की सारी ज़िम्मेदारी कंडक्टर की होती है।
मैंने फटाफट एप्लिकेशन दे दी । 'न जाने किस रूप में भगवान् मिल जाए' यह सोचकर मैं हमेशा अपने पर्स में एक एप्लिकेशन रखती थी ।
उसने अपनी गाड़ी बैक करी तब मैंने गाड़ी को और गौर से देखा । गाड़ी में एक नेम प्लेट लगी थी जिस पर '' अध्यक्ष'' लिखा था । नीचे छोटे - छोटे अक्षरों में एक ऐसी पार्टी का नाम लिखा था जो बस चुनाव के समय ही अस्तित्व में आती है । मैंने अनुमान लगाया कि इसी पार्टी का ख़ास काम होगा जो वह नहीं किया करता होगा ।
मुझे याद आने लगा कि वह कभी क्लास में नहीं गया लेकिन परीक्षा में हमेशा पास हो जाता था । सारे टीचर्स का काम भाग - भाग कर करता था । एडमिशन के लिए आई लड़कियों के फॉर्म उनसे जबरदस्ती लेकर खुद ही जमा करता था। शहर में हो रही हर किस्म की हड़ताल में उसका चेहरा अवश्य दिख जाता था । जलनिगम, विद्युत्, परिवहन से लेकर सफाई कर्मचारियों तक के धरने में बैठा हुआ मिलता था हम पढ़ने - लिखने वाले पहले तो डिग्रियों के पीछे लगे रहे । फिर नौकरी की तलाश में भटकते रहे । हज़ारों फॉर्म भरने के बाद नौकरी हासिल हुई । नौकरी मिली तो इतनी दूर कि आने - जाने में ही सारा समय निकल जाता है । बचा हुआ समय ऐसे शख्स की तलाश में निकल जाता है जो बिना रुपया खिलाए ट्रांसफर करवा सके ।
आज उस कुछ ख़ास नहीं करने वाले के पास सब कुछ ख़ास है । ख़ास कार, ख़ास पत्नी, ख़ास स्कूल में पढ़ते बच्चे ख़ास इलाके में कोठी, ख़ास मोबाइल, ख़ास लोगों से सम्बन्ध ।
इतना सब देख चुकने के बाद मेरे ज्ञान चक्षु पूर्णतः खुल चुके थे । मुझे भली प्रकार से समझ में आ गया कि यह समय ऐसे ही '' कुछ ख़ास नहीं करने वालों का है ''।
एक लम्बे अन्तराल के बाद। एक खालिस सच और सच यही है । सुन्दर।
जवाब देंहटाएंरोचक...सेवा का फल मेवा ही तो होता है, कितनी दुआएं उसने एकत्र की होंगी जब लोगों के लिए इतने काम किये होंगे..
जवाब देंहटाएंबहुत सटीक... कुछ खास न करने वाले बहुत कुछ खास कर रहे हैं....मेहनती सिर्फ किताबी कीड़ा बन रेंगते रह जाते हैं....
जवाब देंहटाएंलाजवाब...
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ये उस दौर की बात है : ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
जवाब देंहटाएंबहुत ही रोचक|आपकी कहानियाँ खिच कर कहानी के अन्त तक ले ही जातीं हैं|ब्लॉग में लिखना जारी रखें|सादर|
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