मंगलवार, 28 अप्रैल 2009

पहाड़ की औरत जब वोट डालने जाती है

साथियों .....सरकार भी बड़ी अजीब चीज़ होती है ....वैसे तो साल भर हम गरीब टीचरों के पीछे पड़ी रहती है ...गरियाती रहती है ...लेकिन जब कोई जिम्मेदारी वाला काम होता है ...तो हमें याद करने में उसे ज़रा भी संकोच नहीं होता ....तो चुनाव हों और वो हमें खाली बैठने दे ऐसा कैसे हो सकता है ? पिछले साल  ग्राम पंचायत के चुनाव में ऐसी ही एक ड्यूटी देते समय  मैंने एक कविता लिखी थी ....न न ...ड्यूटी के समय नहीं ...उसके बाद ...
 
 सौ प्रतिशत वोट डालती पहाडी औरत के जज्बे को मेरा सलाम .....
 
पहाड़ की औरत जब वोट  डालने जाती है
देर रात तक जाग कर
गाय का गोबर साफ़ कर
सुबह चार बजे उठ जाती है
पहाड़ की औरत जब वोट डालने जाती है
 
बरसों से सहेजे झुमके चूड़ी
शादी में मिली लाल साड़ी
पैरों में हील की चप्पल डाल लेती है
पहाड़ की औरत जब वोट डालने जाती है
 
बच्चों के लिए कुछ माटी के खिलौने 
ससुर के लिए खट्टा मीठा चूरन लाने
पिठ्या के पैसों को बटोर लाती है
पहाड़ की औरत जब वोट डालने जाती है
 
अंधी सास का हाथ थाम कर
छुटके को कमर में डाल कर
चाची, मामी को आवाज़ लगती है 
पहाड़ की औरत जब वोट डालने जाती है
 
  और साथियों पहाड़ की औरत जो खुद एक पहाड़ सी जिन्दगी जीती है जब वोट डालती है तो
 
सूरज की गर्मी , जाड़ों की गलन
बारिश की सड़न, काम की उलझन
उसके कदम नहीं रोक पाती है
पहाड़ की औरत जब वोट डालने जाती है
 
मीलों पथरीले रास्ते , बाघों की सच्चाई
नदियों का वेग , पहाड़ों की ऊंचाई
उसके आगे बौनी हो जाती है
पहाड़ की औरत जब वोट डालने जाती है