गुरुवार, 14 अक्तूबर 2010

श्राद्ध पक्ष के पंडित .......

 
श्राद्ध पक्ष के पंडित .......
श्राद्ध पक्ष ख़त्म हो चुके हैं | कॉमनवेल्थ खेल ख़त्म होने वाले हैं | श्राद्ध पक्ष के पंडित, जिसके आगे जी आप ना भी लगाना चाहें, तो भी स्वतः ही लग जाता है    हैं,  में और आम दिन के पंडित में उतना ही फर्क होता है जितना कॉमनवेल्थ खेलों के दौरान होने वाले घोटालों में और रोज़मर्रा की ज़िंदगी में सामने आने वाले घोटालों में |
 
हमारे देश में कई तरह के लोग रहते हैं | कुछ लोग अपने माता - पिता का जीते जी बहुत अच्छा श्राद्ध करते हैं | उनके मर जाने के बाद उससे कई गुना शानदार  श्राद्ध करते हैं | उनसे आस पड़ोस, समाज, नातेदार, रिश्तेदार और  पंडित बहुत प्रसन्न रहते हैं | बुजुर्ग मुक्त कंठ से उसकी प्रशंसा करते हैं और 'ऐसा श्रवण कुमार जैसा लड़का सबको दे' कहकर आशीर्वाद देते नहीं थकते  हैं |  कुछ लोग माता पिता का ना जीते जी श्राद्ध करते हैं ना उनके मर जाने के बाद | वे मानते हैं कि माता - पिता की जीते जी सेवा करनी चाहिए | मरने के बाद कौन कहाँ गया किसने देखा ? | ऐसी सोच रखने वाले लोगों को समाज में  अच्छी  नज़र से नहीं देखा जाता  | कंजूस, मक्खीचूस, नास्तिक,नरकगामी 'भगवान् ऐसा कपूत किसी को न दे '  जैसे  कई विशेषण उनके आगे स्वतः जुड़ते चले  जाते हैं |     
 
इधर  श्राद्ध पक्ष में पंडित ढूंढना उतना ही मुश्किल हो गया है जितना एक हिन्दी माध्यम के सरकारी स्कूल में पढ़ी हुई लडकी के लिए वर का मिलना | घर में बुजुर्ग लोग उन सुनहरे दिनों को याद करते हैं,  जब पंडित लोग घर - घर दान की पोटली लेकर घूमा करते थे और श्रद्धा से जजमान जो कुछ भी दे देता था उसे लेकर संतुष्ट होकर आशीर्वाद देकर चले जाते   थे  | वैसे सभी बुजुर्ग लोग पुराने दिनों को याद करने का काम बहुत शिद्दत से करते हैं | सिर्फ़ यही काम वे तन और मन लगाकर करते हैं | कभी - कभार पुरानी बातों को सुनने वाले के ऊपर चाय या समोसे खिलाकर  धन भी खर्च किया कर देते हैं |
 
इधर कुछ वर्षों  से यह होने लगा है कि श्राद्ध पक्ष आने से कई महीने पहले से  पंडित की खोज में   ऐढ़ी -  चोटी  में  का जोर  लगाना पड़ता है  | यहाँ तक की कभी कभी किसी बड़े नेता या मंत्री की सिफारिश भी लगानी पड़ती है | इतना प्रयत्न करने के बाद  वह जिस तरह  से आपके स्वर्गीय माता - पिता या पितरों का श्राद्ध  करवाता है उसे देख कर अक्सर यही महसूस होता है कि हो न हो  इसी  प्रकार की दिक्कतों  के मद्देनज़र  ही आदमी  अमर होने के लिए प्राचीन काल से लेकर आज तक प्रयासरत  है  |  त्रिशंकु भी शायद ऐसे ही किसी श्राद्ध पक्ष के पंडित का सताया हुआ होगा, तभी उसने सशरीर स्वर्ग जाने का निर्णय किया होगा | 
 
श्राद्ध पक्ष का पंडित आपसे कहता है कि '' आचमन कीजिये यजमान  '' आप  श्रद्धा पूर्वक आचमन ग्रहण करते हैं | इतने में उसका मोबाइल  बजने लगता है | वह फ़ोन में व्यस्त हो जाता है |   इसके बाद उसे जिस घर में जाना है वहाँ की लोकेशन समझने लगता है | आप इतनी देर में चार बार आचमन ग्रहण कर लेते हैं | पूरी ज़मीन गीली हो जाते है लेकिन पंडित जी का दिल नहीं पसीजता | जो मोबाइल कल तक आपको वरदान लगता था, जिसकी तारीफ करते नहीं अघाते थे | वही आज अचानक से अभिशाप लगने लगता है |
 
पहले वह स्वयं मन्त्र पढ़ता है [ अगर वाकई पढ़ता है तो, और अगर पढ़ता  है तो सही पढ़ता है या नहीं, आपको नहीं पता   ] फिर आपसे उसी  मन्त्र का जाप करने के लिए कहता है | आप ज्यूँ ही जाप करने लगते हैं वह आपसे अपना दुखड़ा रोने लगता है | उसे दुःख व आश्चर्य दोनों साथ - साथ है कि कल रात  जिस पंडित से उसकी बात हुई उसने एक ही दिन में चौबीस श्राद्ध करवा दिए, वह भी सुबह के छः बजे से शुरू करके रात के आठ बजे तक  |  वह स्वयं सुबह के तीन बजे से उठकर श्राद्ध करवा रहा है फिर भी उनकी आधी संख्या के बराबर भी नहीं पहुँच पाया | आप मन्त्र भूल कर उसके ग़मगीन मुखड़े, और उसके पास रखे हुए बड़े - बड़े थैलों की ओर  देखने लग जाते हैं, और मन ही मन हिसाब लगाने लग जाते  हैं कि सुबह से इसने  कितनी दक्षिणा कमा ली होगी | इस दौरान आपके मन से माता - पिता के लिए उमड़ने वाली श्रद्धा गायब हो जाती है और आप अपनी थोक के भाव ली गई डिग्रियों, एक आध स्वर्ण पदक, जो कि माता पिता की इच्छा के चलते कभी आपके गले में लटके थे, और उन को हजारों जगह दिखा कर बहुत मुश्किल से एक जगह  प्राप्त हुई अदना सी नौकरी  को धिक्कारने लगते हैं |  आपको याद आते हैं अपने हाई स्कूल के दिन, जब संस्कृत पढ़ने में नानी याद आ जाया करती  थी | आप भगवान् से मनाते  थे कि कोई चमत्कार हो जाए और आपको लकार याद हो जाएं | सारे भगवानों की भक्ति के बावजूद आपको विभक्ति याद नहीं होती थी | पुरुष कंठस्त नहीं करने में  जब हथेलियों में मोटे - मोटे डंडे पड़ते थे, तब आपको संस्कृत पढ़ाने वाले उस पुरुष अध्यापक से ही घृणा  हो गई थी | आपने अंग्रेज़ी  के कालों और डायरेक्ट - इनडायरेक्ट, एक्टिव - पेसिव   को याद करना बेहतर समझा और अंग्रेज़ी की कक्षा में जाकर बैठ गए | जिसकी वजह से आप  आज   डायरेक्टली यह महसूस करते हैं  कि जबसे नौकरी लगी है 'यस  सर'', ''नो सर'', ''सौरी सर'' के आलावा आपने अंग्रेज़ी का कहीं और कोई प्रयोग  नहीं किया है  | आपको ऑफिस में बॉस की छोटी - छोटी  सी बात में मिलने वाली बड़ी - बड़ी  फटकार और पिए गए सारे अपमान के घूँट याद आने लगते  है | आपके गले में कुछ फंसने लगता है, जिसे आप पानी पी कर निगल लेते हैं |
 
श्राद्ध पक्ष का पंडित वह होता है जिसकी ज़ुबान पर मन्त्र और निगाह में वह थैला  होता  है जिस पर आपने दान देने वाली  सामग्री रखी होती है | वह चावलों की किस्म और कपड़े की क्वालिटी का बारीकी से निरीक्षण करता है | वह मन्त्रों के बीच - बीच में आपको हिंट भी देता रहता है कि '' आजकल लोग अपने वस्त्रों और भोजन के ऊपर चाहे हजारों खर्च कर दें लेकिन अपने मात - पिता के निमित्त पंडित को देने के लिए वही थोक वाला मोटा चावल और मारकीन का पतला कपडा लाते हैं | जबकि यह सामान सीधा पितरों तक पहुँचता है, जिनकी वजह से आज सब कुछ आपके पास है |  जाने  क्या करेंगे इतना पैसा जमा करके ? जाना सबको खाली हाथ ही होता है " |  आप डर जाते हैं और जैसे ही पंडित अगला फ़ोन अटेंड  करने के लिए बाहर जाता है आप थोक वाले चावल की जगह  वह बासमती चावल, जो आपने बॉस की दावत के लिए मंगाया था,  थैले में रख देते हैं |
 
 जितनी दक्षिणा आपने लिफाफे में रखी है, उससे दोगुनी वह रेजगारी के रूप में  विभिन्न कार्यों के निमित्त   रखवा लेता है | आप पिछले एक महीने से एक - एक रूपये के सिक्के जमा करके रखते है, वह कहता है पाँच का सिक्का रखिये | अपनी नाक बचे रखने के लिए मजबूरन आपको सब जगह पाँच -  पाँच के सिक्के  रखने पड़ते हैं | आपका  श्राद्ध के लिए बनाया  हुआ बजट सरकारी  बजट की तरह घाटे में चला जाता है |
 
श्राद्ध पक्ष के धुरंधर पंडित वे होते हैं जो यजमान  के कम से कम बीस बार फ़ोन करने  पर  आते हैं | उन्हें लाने ले जाने के लिए आपको गाड़ी भेजनी पड़ती है | खुद की हुई तो ठीक वर्ना किसी से भी मांग कर आपको उन्हें ससम्मान लाना पड़ता है | आपने अपने किसी भी कार्य  के लिए चाहे पड़ोसी से गाड़ी ना मांगी हो लेकिन इस कार्य के लिए आपको उनके आगे हाथ फैलाना पड़ता है | आपके स्वाभिमान की धज्जियां उड़ जाती हैं | इस किस्म के पंडित  किसी यजमान के घर खाना नहीं खाते हैं | वे लंच को पैक करवा के ले जाते हैं |
 
पूर्व में बुक किया हुआ पंडित अगर अत्यंत व्यस्तता के कारण  ना आ पाए  तो आप जिस पंडित को  अर्जेंट श्राद्ध करने के लिए बुलाते हैं वह बहुत स्पष्टवादी होता है | वह हँसते हुए कहता देता है  ''वैसे तो अर्जेंट काम की दक्षिणा दोगुनी होती है, आगे जैसी आपकी मर्जी '' | यहां पर आपकी मर्जी चाह कर भी नहीं चल पाती है, और आपको दोगुनी दक्षिणा देनी पड़ती है |
 
श्राद्ध पक्ष का असली  पंडित वह होता है जो आपको सुबह आठ बजे का समय दे और रात के आठ बजे आए | जिस माँ ने आपको बचपन से लेकर जवानी  तक एक भी पल भूखा न रखा हो, उसी माँ के श्राद्ध में आपको पूरे दिन भूखा रहना पड़ता है | आप बार बार फ़ोन मिलाते हैं, वह बार बार यही कहता है '' अभी पाँच मिनट में आ रहा हूँ '' | बाद में तो वह फ़ोन उठाने की जहमत भी नहीं उठाता |
 
जैसा कि हर वर्ग में होता है कुछ लोग समय से आगे निकल जाते हैं और कुछ लोग पिछड़ जाते हैं | श्राद्ध पक्ष के पिछड़े पंडित वे होते हैं जो पूरी श्रद्धा से श्राद्ध कर्म करवाते हैं जिसमे तीन घंटे  लगें या चार, उनके स्थाई यजमान  उनके बदले किसी और की सेवाएं ले लें , उन्हें कोई चिंता नहीं होती | ऐसे पंडितों से यजमान  प्रसन्न रहते हैं, लेकिन उनके  घर में सदा कलह का वातावरण रहता है, बीबी - बच्चे चौबीसों घंटे मुँह फुलाए रहते हैं, माता - पिता हर घड़ी कोसते हैं  |  ऐसा पंडित घरों से खाना खाकर ही जाता है | सिर्फ़  श्राद्ध के लिए ज़रा सा भोजन बनाने वालों के लिए यह कठिन संकट का समय होता है | ऐसा पंडित अगले दो घंटे तक खाना बनने तक  इंतज़ार कर लेता है, लेकिन भूखा नहीं जाता | इधर काफ़ी वर्षों  से उसके अन्दर भी परिवर्तन आने लगा है | वह यजमानों  की नस पहचानने लगा है | उसने  लिफाफों के अन्दर  रखी हुई दक्षिणा का अनुमान लगाना सीख लिया  है | जिस दौरान वह आपसे पिंड बंधवाता है, आपको बातों - बातों में कह देता है कि '' जब लोग दक्षिणा कम देते हैं तो मैं उनसे कुछ नहीं कहता, बस मन ही मन भगवान् से शिकायत करता हूँ कि मैंने तो पूरी श्रद्धा से  श्राद्ध करवाया फिर भी यजमान ने मात्र सौ के नोट में टरका दिया |  भगवान् कहीं ना कहीं हिसाब बराबर कर देता है, इसीलिये यजमान ! मैं  कम दक्षिणा की  शिकायत किसी से  नहीं करता'' |  यजमान  से इतना कह देना ही काफ़ी होता है | आप पंडित की इतनी ऊँची पहुँच से घबराकर चुपके से एक सौ का नोट और जेब से निकालकर  लिफाफे में डाल देते  हैं |
 
इधर समाज के धनाढ्य वर्ग के प्रेमियों के अन्दर अपनी  प्रेमिकाओं  के जन्मदिन या ऐसे  ही कोई दिन क्यूंकि  प्रेमिकाओं  का हर दिन प्रेमी के लिए ख़ास होता है, के लिए पूरा मल्टीप्लेक्स होटल या रेस्टोरेंट  बुक करने की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ रही है | ये लोग श्राद्ध के दिनों में  पंडित का पूरा दिन बुक करा लेते हैं | ऐसे श्राद्ध में दक्षिणा कितनी होती है यह पूछना भी फ़िज़ूल है | हमारे ज्ञान चक्षुओं  के खुलने के लिए बस इतना समझ लेना काफ़ी  है कि  श्राद्ध पक्ष ही वह पक्ष होता है जब आपको देवभाषा के महत्त्व का पता चलता है, और पंडित ही वह माध्यम है जिसके द्वारा हम इसके  महत्त्व को जान पाते हैं  |