शनिवार, 26 सितंबर 2009

कुछ ख़बरों का पोस्टमार्टम ....

कुछ ख़बरों का पोस्टमार्टम ...
..
चाँद पर पानी ....................
 
आदमी की आँखों से जब मर जाएगा
अभी तो मिला है चाँद पर ,
कल सूरज पर भी नज़र आएगा ....
 
शाइनी को स्लीप डिस्क का अटेक 
 
डॉक्टरों का चेहरा 
पड़ गया सर्द  
जिसके पास रीढ़
की हड्डी ही नहीं
उसको भी हुआ
रीढ़ में  दर्द ....
 
 
 

अचार - ए - आडवानी के बहाने अचार बनाने का तरीका.....

 अचार - ए - आडवानी के बहाने अचार बनाने का तरीका.....
हमें कुछ साथियों ने बताया कि देश का सबसे टिकाऊ, मजबूत और सक्षम माना जाने वाला अचार -अचार-ए-अडवाणी सड़ गया। बहुत दुख की बात है। सड़े हुये को अब काम लायक नहीं बनाया जा सकता लेकिन आपको मैं अचार बनाने  का तरीका बता रही हूं जिससे कि अचार लम्बे समय तक खराब नहीं होगा।
 
तो साथियों अचार बनाने के कुछ ख़ास तरीके होते हैं , जिनका सही ढंग से पालन किया जाए तो अचार सौ साल तक भी खराब नहीं होता है . हमारे घर में एक नीबू का अचार है जो तकरीबन ४५ साल पुराना है , जिसका उपयोग अब हम औषधि के रूप में करते हैं .
 
सबसे पहले जिस मर्तबान में आचार  डालते हैं उसे कई साल तक धूप में सुखाते हैं ताकि उसमे किसी किस्म की नरमी सॉरी नमी बाकी ना रहे , दूसरी बात अचार सदा ही कांच के पारदर्शी मर्तबान में ही डालना चाहिए , जिसके आर - पार देखने की सुविधा हो ,इससे एक फायदा यह भी है कि बाहर से देखने पर ही यह पता चल जाता है कि अचार कहीं खराब होना शुरू तो नहीं हो गया ,
 ताकि समय रहते ही इसका उपचार किया जा सके .

सावधानी ....अचार को कभी भूले से भी  पुराने लौह मर्तबान में नहीं डालना चाहिए .....
 
अचार बनाने में कभी भी विदेशी मसलों सॉरी मसालों का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए ,हमेशा घरेलू ताजे पिसे हुए मसाले डालने चाहिए, हो सके तो खेतों से आए हुए खड़े मसालों को पीस कर डालना चाहिए , इनका रंग और गंध कभी खराब नहीं होती .

 
सावधानी ..... शहरों से आए हुए चमकीले रेपर में लिपटे  सूट - बूट धारी ,  ब्रांडेड मसालों पर ज्यादा भरोसा ना करें .कांधार की हींग भूले से भी इसमें ना डालें .
 
अचार को संरक्षित  के लिए कभी भी कृत्रिम संरक्षकों का सहारा नहीं लेना चाहिए , ये संरक्षक शुरू में तो लगता है कि काफ़ी साथ देंगे , लेकिन जब अचार का रंग फीका  होने लगता है ,या तेल सूख जाता है ,और जब  वह डाइनिंग टेबल से  भी गायब हो जाता है तो ये उसका  साथ छोड़ने में ज़रा भी देरी नहीं लगाते हैं .
 
सावधानी ...अन्य मर्तबानों से पाला बदल कर आए हुए अचार के टुकडों पर कतई भरोसा नहीं करना चाहिए .ना ही इन्हें ऊपर से रखना चाहिए .
 
अचार को समय - समय पर मर्तबान खोलकर देखते रहना चाहिए कि कहीं फफूंद इत्यादि लगना शुरू तो नहीं हो गया है , यह धीरे - धीरे सारा अचार चुटकियों में खराब कर देती है ,
 
सावधानी....फफूंद वाले हिस्से को जितना जल्दी हो सके निकाल कर फेंक देना चाहिए , इसके साथ ज़रा सी भी नरमी बरतने का मतलब होता है ,स्वयं की मौत को दावत देना .
 
समय - समय पर अचार को उल्टा - पुल्टा कर देखते रहना चाहिए , कभी बड़े -बड़े शक्तिशाली टुकडों को सबसे नीचे डाल देना चाहिए ,और सबसे छोटे टुकडों को  ऊपर कर देना चाहिए , इससे छोटे टुकडों को भी ऊपर आने का मौका मिलता है .छोटे टुकड़े देखने में भी सुन्दर लगते हैं और लम्बे समय तक मर्तबान में बने रहते हैं .
 
सावधानी .... अन्य मर्तबानों से छोटे टुकडों के आने पर  उनका विशेष स्वागत - सत्कार करना चाहिए ,
 
जिन बाहुबली  टुकडों को तेल - मसालों में लिपटे रहने की आदत हो गयी है , जो किसी भी प्रकार से बाहर नहीं आना चाहते, उन्हें तत्काल प्रभाव से तेलविहीन कर देना चाहिए .ऐसे टुकड़े किसी को पनपने नहीं देते हैं . जब बाहर से देखने वाला इन टुकडों को दादागिरी करते देखता है  तो उसका मन बिन अचार चखे ही खट्टा हो जाता है .
 
जो टुकड़े अचार का  रंग खराब हो जाने का कारण पाकिस्तानी हल्दी को शामिल ना किया जाना मानते हों , और अचार खराब होने के १०१ कारणों  पर किताब भी लिख मारते हों , उनको कई दिनों तक लाल मिर्च में डुबो देना चाहिए .इससे उनकी अक्ल ठिकाने आ जाती है .इसके बाद  उन टुकडों को पाकिस्तान एक्सपोर्ट कर दिया जाए .वहां इसे पसंद करने वाले बहुत होते हैं .
 
सावधानी .. अचार हमेशा मुफ्त दें. नोट के बदले अचार कभी भी किसी को ना दें , इससे अचार से प्राप्त होने वाले गुणों में कमी आ जाती है .बदहजमी होने की संभावना प्रबल हो जाती है .
 
अचार को सदा घर की  महिलाओं के संरक्षण में ही डालना चाहिए , उन्हें हर किस्म के मसालों का सही - सही अनुपात पता रहता है ,जो पुरुष अचार डालने के मसले पर महिलाओं की राय नहीं लेते , उनके हाथ से डाला गया अचार सबसे जल्दी खराब होता है .
 
सावधानी ...हो सके तो विदेशी मूल की महिला के हाथों से ही अचार डलवाएं , क्यूंकि  वे जानती हैं कि हलके  मसालों के साथ स्वादिष्ट अचार कैसे बनाया जाता है , लोगों का भरोसा भी उन पर बना रहता है और वे लगातार दस साल तक  उस हलके - फुल्के अचार को खा सकते हैं. 
 
कुछ और सावधानियां .....
 
अचार लम्बे समय तक खराब ना हो इसके लिए उसे गंदे हाथों से बचाना चाहिए , समय - समय पर धूप दिखानी चाहिए , अचार  के संघ पर ज्यादा निर्भर नहीं रहना  चाहिए .अचार सुखाने के मामले में  कुछ गिनी चुनी  छतों का ही प्रयोग ना करके अन्य छतों को भी मौका दिया जाना चाहिए,. इससे अचार की देखभाल भली प्रकार से हो सकती है  ,देखने में आया है कि कई बार जिन छतों पर ज्यादा भरोसा किया जाता है, वे ही चुपके चुपके उसका बेडा गर्क कर डालती  हैं . 
अगली बार जब भी अचार डालें तो इन सावधानियों को मद्देनज़र रखें , अचार कभी खराब नहीं होगा .
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 

 

गुरुवार, 24 सितंबर 2009

यह मेरा स्वीट होम है ....

यह मेरी बेटी है
जीती जागती
सांस लेती
नोटों की पेटी है
इसने पिछले ही साल
चलना  सीखा है
सुबह तीन  बजे
उठ जाती है
चार बजे हैवी
पांच बजे लाइट म्युज़िक
सीखने जाती है
बचे समय में
कत्थक , भरतनाट्यम
और डिस्को  में पसीना बहाती  है
पिछले हफ्ते बुगी - बुगी में
फर्स्ट आई थी
अगले हफ्ते इसे लिटिल चैम्प्स में
जाकर जगमगाना है
पैसा और नाम दोनों
 साथ - साथ कमाना है
 
यह मेरा बेटा है
अभी बहुत छोटा है
 ठीक से बोल नहीं पाता है
लेकिन आढ़े- तिरछे मुँह बनाकर
फूहड़ चुटकुले  खूब सुनाता है
यह नींद में भी बल्ला घुमाता है
इसीलिए मुझे बहुत भाता है
नाम है इसका शहर में अब
बहुत ही जाना माना
क्रिकेट में चल गया तो ठीक
वर्ना लाफ्टर का है ज़माना
 
यह मेरी पत्नी है
एंटरटेनमेंट के लिए
कुछ भी कर सकती है
इसका ठुमका देख के
सारे चैनेल घबरा जाते हैं
बिना परफोरमेंस देखे
नोट थमा जाते हैं
आजकल सच बोलने की
प्रेक्टिस कर रही है
भूतकाल के प्रेमी
वर्तमान के संगी और
अश्लील प्रश्नों से भी
नहीं डर रही है
भरी सभा में भले ही
वस्त्र हीन हो जाए
कान्हा को नहीं बुलाएगी
यह आधुनिक द्रौपदी है
खुद की बिछाई चौपड़ में
साड़ी उतार के भी मुस्कुराएगी 
 
यह जो फोटो के अन्दर
हँस रहे हैं
ये मेरे माँ - बाप हैं
नहीं - नहीं ..ये अभी जिंदा हैं
कलेजे में लोट  रहे साँप हैं
हम रात दिन व्यस्त रहते हैं
इसीलिए ये वृद्धाश्रम में रहते हैं
इनको भी जल्दी ही
काम मिलने वाला है
क्यूंकि अगले महीने मरने का
एक लाइव शो आने वाला है
 
 मैं इस घर का बिग बॉस हूँ 
दिन - रात गंदी गालियों का
करता अभ्यास  हूँ
घने जंगल के बीचों - बीच
साँप , ,बिच्छू कीडों  के साथ
मीठी तान लेता हूँ   
शोहरत के लिए   जीता हूँ
 रुपयों के लिए जान देता हूँ  
 
 
यह मेरा स्वीट होम है
 इसके हर कमरे में
कई कैमरे  फिट हैं
यहाँ की हवा में नफरत और
कड़वाहट घुली रहती है
ज़िंदा हैं हम सब लेकिन
साँसें घुटीं घुटीं रहती हैं 
इस घर में कोई आता, जाता
 हँसता , मुस्कुराता नहीं है
ये ऐसी रियलिटी है जिसमे
सब कुछ है लेकिन अपनापा नहीं है ....  

सोमवार, 21 सितंबर 2009

है कोई ऐसा अनुवादक

बुकर पुरकार का ऐसा अनुवाद शायद ही कोई अनुवादक कर पाए ....हुआ यह कि कल हमारे क्षेत्र में   बी .एड यानी की भावी अध्यापकों के लिए  प्रवेश परीक्षा थी ...प्रश्नपत्र में यूँ तो अनेक गलतियां थी ...लेकिन सबसे बड़ी गलती जिस पर आप ही बताइए पेपर सेट करने वाले को क्या कहा जाए .....
पेपर में लिखा था 'पुस्तक यानि [बुकर] पुरस्कार किस क्षेत्र में दिया जाता है '
 

रविवार, 20 सितंबर 2009

शिक्षा मंत्री जी ....सी. बी.एस.सी.ये क्या कर रही है ?.

अब सी .बी .एस .सी .हमें यह बताएगी कि विज्ञान और गणित को खेल खेल में कैसे पढ़ाया जाता है .माननीय शिक्षा मंत्री जी ,हमने इतने साल घास नहीं खोदी है ,खेल - खेल में कैसे पढ़ाया जाता है यह हमें ना सिखलाएँ . हम सदियों से बच्चों को खेल खेल में ही पढाते आए हैं .
हमने कक्षा में ताश के ५२  पत्तों द्बारा बच्चों को जोड़ - घटाने, गुणा, भाग सिखाए ,केरम बोर्ड द्बारा आयत और वर्ग के मध्य  भेद स्पष्ट किया ,उसकी गोटियों के माध्यम से वृत्त की जानकारी दी .गिल्ली डंडा से लेकर लूडो और जूडो भी सिखाए. बच्चों के बीच   कुश्ती करवाकर  गुरुत्वाकर्षण के नियम की पुष्टि करी,कि चाहे कितना भी उंचा उछाल लो अंत में बन्दा ज़मीन पर ही आएगा .बच्चों को कंचों के द्बारा यह बतलाया कि प्रकाश का परावर्तन कैसे होता है . 
प्रकाश संश्लेषण  वाला पाठ हमने सदा जाड़ों के दिनों के लिए सुरक्षित रखा .घंटों तक धूप में बैठकर इसे दिखाया ,इसके अलावा जब बीज के उगने की क्रिया दिखानी होती है तब हम कई दिन तक उसके उगने का इंतज़ार किया करते हैं ,कई बार बीज के इनकार करने पर भी हम वहां से नहीं हटे ,हमारा इतना समर्पण भाव देखकर बीज भी शर्मा गया .पुष्प की संरचना को सजीव रूप में  दिखाने के लिए हम बच्चों को बड़े - बड़े खेतों में ले गए ,होशियार बच्चों को संरचना दिखाए एवं बाकियों को खेत से मटर, मूली, चना ,टमाटर लाने का काम सौंपा .
न्यूटन  का नियम सिखाने के लिए बच्चों से सेब मंगवाया और उसे  ऊपर उछाल कर दिखाया, फिर उसे खाकर यह भी बताया कि यह एक आभासी फल होता है ,और इसके बीज की संरचना इस प्रकार की  होती है  
विज्ञान के नाम पर जो कक्ष बने होते हैं उनमें  बैठकर जुआ खेला , साथ के विरोधी मास्टरों के विरुद्ध खेल - खेल में रणनीतियां बनाईं. एक विज्ञान क्लब का  नाम भी  स्कूल के रजिस्टर में दर्ज होता है ,जिसका बस रजिस्टर ही रजिस्टर पाया जाता है , इसमें सरकार हर साल कुछ रूपये डालती है ,जिसका सदुपयोग हमने  जाडों में चाय और गर्म पकोड़े ,और गर्मियों में कोल्ड ड्रिंक के साथ   बहुत ही वैज्ञानिक रीति से किया ,
एक गणित किट भी किसी कोने में दाँत किटकिटाती हुई पड़ी रहती है , इसमें कुछ गणित की तरह के ही आड़े- तिरछे उपकरण पड़े रहते हैं ... इसे खोल कर दिखाने में बहुत किट - किट होती है इसीलिए इसे हम घर ले जाते हैं जिससे हमारे बच्चे भांति - भांति के गेम खेलते हैं  
कतिपय अध्यापक और उनकी शिष्याओं के मध्य गणित और विज्ञान जैसे नीरस विषयों में ही प्रेम की सरस धार बहने लगती है , रेखागणित पढ़ते- और पढ़ाते हाथों की रेखा का मिलान शुरू हो जाता है ,विज्ञान के वादन में दिलों में रासायनिक क्रियाएं होने लगती हैं . मुझे याद है कि हमारे स्कूल में एक बार एक जवान और खूबसूरत गणित का अध्यापक आया ,उसका दिल एक रेखा नामक कन्या पर आ गया ,जब वह सारी कक्षा से कहता था कि अपनी अपनी कापियों में इस सवाल को हल करो , तब सभी लड़किया उसे सुलझाने में उलझ जाती थी , और ठीक इसी दौरान वह रेखा नाम्नी कन्या अपने सिर ऊपर उठाती थी ,और दोनों एक दूसरे को तरह - तरह के कोण जैसे - समकोण -और नियूनकोण बनाकर निहारने लगते थे. साल ख़त्म होते होते रेखा के दिमाग में बीजगणित तो नहीं घुसी लेकिन  पेट में  प्यार का बीज पनपने लगा .जिसे द्विगुणित होते देखकर वह मास्टर गृहस्थी के गुणा - भाग से घबरा कर नौ दो ग्यारह हो गया.  रेखा उस बीज को अंक से लगे हुए अंकगणित को आज भी कोसती है ,जिसकी वजह से उसकी जिन्दगी के सारे समीकरण बिगड़ गए थे ,जिन्दगी सम में आते -आते विषम संख्या हो गयी क्यूंकि  उसे अपने से दोगुनी उम्र के गुणनफल से शादी करनी पड़ी ,और   सदा के लिए कोष्ठक में बंद हो जाना पड़ा. 
प्रायमरी में शिक्षण के दौरान हमने यह जाना कि वास्तव में खेल खेल में पढ़ाई क्या होती है ,एक अध्यापिका के तीन   बच्चे  हुए जो  बारी - बारी से स्कूल के सभी बच्चों की गोद में खेलते थे जो बच्चा जितना अच्छा बच्चा खिलाता था , हाथी -घोडा बन जाने से तक परहेज़ नहीं करता था ,उसे ही प्रथम स्थान मिलता था. जो बच्चे पढाई में गधे होते थे ,लेकिन अपने घर से गाय का शुद्ध दूध बच्चों के लिए लाया करते थे ,उन्हें पास कर दिया जाता था  जो बच्चे किसी काम के नहीं होते थे ,उनका हश्र आप स्वयं समझ सकते हैं . इस प्रकार उन्होंने विद्या के मंदिर में अपनी संतानों को पाल पोस कर बड़ा किया ,और बड़ा हो जाने पर उन्हें पब्लिक स्कूल की गोदी में सौंप दिया. उनके द्बारा स्वेटर बुनने से ही बच्चों ने फंदों के द्बारा जोड़ - घटाने की जटिल  प्रक्रिया को आत्मसात किया.
गणित को खेल में हमसे ज्यादा किसने पढ़ाया होगा ? छठा वेतनमान के निर्धारण हेतु देश में एक समिति बनी ,लेकिन हमने साहित्य और कोमर्स वाले टीचरों से मतभिन्नता होने के कारण एक ही दिन में कई बार कमेटियां बैठायीं.
बच्चों से हमने कहा कि इतने शोर - गुल में भी कभी पढ़ाई हुई है कभी ,इसीलिए घर में आया करो ,वहां पढ़ाई और क्रिकेट दोनों साथ -साथ होंगे , जितने ज्यादा बच्चे होंगे, मैच में उतना मज़ा आएगा .और ज्यादा बच्चों को लाने वाले को बोनस अंक दिए जाएंगे .
एक और खेल हम अक्सर स्कूलों में खेलते हैं वह भी गणित और विज्ञान के घंटे में ..वह है छुप्पन - छुपाई  का . बच्चे पूरे पीरियड के दौरान हमें ढूंढते रह जाते हैं ,लेकिन हम हाथ नहीं आते ,क्यूंकि कभी हम चाय पीने, कभी रजिस्टर भरने , कभी कार्यालय में और अक्सर ट्रांसफर और प्रमोशन के लिए जुगत भिडाने के लिए मुख्यालय में पाए जाते हैं 
कभी किसी अधिकारी ने विद्यालय में छापा मारा तो हमने चपरासी को मास्टर तक बताने का खेल खेला है   बच्चे स्कूल में रहते रहते इस गणित से भली प्रकार परिचित हो जाते हैं कि किस - किस मास्टर के बीच छत्तीस का आंकडा है और कौन दो दुनी चार करता है किसके मध्य समीकरण ठीक बैठती है और किसके मध्य नहीं .
तो माननीय  सिब्बल जी ,हम मात्र गणित और विज्ञान ही नहीं सारे विषयों को खेल - खेल में ही पढ़ाते  हैं ..... .   
 

शुक्रवार, 18 सितंबर 2009

हम कैटल होते हैं तभी तो आप वेल सेटेल होते हैं .

माननीय शशि थरूर जी , ,आप माननीय हैं , इसीलिए आपकी बात मान लेने में ही सबका भला है, आप बिलकुल सच कहते हैं ,कि हम भारतीय मवेशी हैं ,इसमें बुरा क्या मानना ? आपने संयुक्त राष्ट्र में हमारा मान बढ़ाया है ,आप इतने साल विदेश रहकर आए हैं ,आपसे बेहतर जानवर और इंसान का फर्क भला कौन जान सकता है ?
हम लोगों की क्या ...हम तो पिछडे हुए लोग हैं , सभी को इंसान ही समझते हैं ...
आपको जो लगा आपने बेबाकी से कह दिया ,वर्ना लगता तो यह आप जैसे सभी लोगों  को है , लेकिन कहता कोई नहीं है ,और आपने तो लिख भी दिया .तभी तो कहते हैं कि तकनीक कभी कभी बड़ी तकलीफदेह साबित होती है , बहरहाल आपके इस बयान से यह साबित हो गया कि आप हिप्पोक्रेट नहीं हैं .लेकिन आप राजनीति में उतर तो आए हैं लेकिन अभी नौसिखिये हैं ,आपने पहले इस देश के धुरंधर राजनेताओं से प्राइवेट टयूशन  लेने चाहिए थे ,जो सदियों से यही सोचते हैं ,लेकिन कहते नहीं हैं ....वसीम बरेलवी के शब्दों को तोड़ा - मरोड़ा जाए तो ...."बेवफा कहा जाता है , लेकिन समझा नहीं जाता '...'जानवर समझा जाता है ,लेकिन कहा नहीं जाता '
वैसे आपने गलत कुछ भी नहीं कहा , हम भारत की आम जनता यानी केटल क्लास यह खुले दिल से स्वीकार करते हैं कि जिन हालातों में जानवर तक दम तोड़ देते हैं, हम उससे भी बदतर  हालात में जिंदा रह जाते हैं. आप जैसे लोग जब  बड़ी - बड़ी गाड़ियों में सड़कों पर ड्राइव करने निकलते हैं ,और आपको  रोमांच की ज़रुरत होती है तो हम कुत्ता बन के आपके पहियों तले बिछ जाते हैं ,और आप लोगों  के बच्चे ,  ब्लड का कलर रियली में  रेड  होता है यह हमारी बदौलत ही जान पाते हैं
जब देश में कोई भी प्राकृतिक आपदा आती है जैसे वही .....बाढ़ , भूकंप ,सूखा आदि ,और आप लोग अपने हवाई जहाजों से च च्च च्च ...कहकर भोजन के पेकेट गिराते  हैं  तो हम उसे लपकने के लिए चील ,गिद्ध ,और बाज बन जाते हैं
जब किसी महामारी का मन भारत में आने के लिए तड़पता है तो हम चूहा बनकर उसका स्वागत करने के लिए तैयार रहते हैं
जब आप लोगों को अपनी चुनावी सभाओं में भीड़ बढ़ानी होती है तो हम बिना कोई देरी किये भेड़- बकरी बन जाते हैं  
जब आप लोगों की शान में नारे लगाने होते हैं तो सब एक सुर से  सियार की तरह हुआ - हुआ करते हैं ,कव्वे की तरह कांव कांव करके आसमान गुंजा   देते हैं ,तोते की तरह आपकी जै  - जैकार के नारों को रट लेते हैं .
आप लोग चुनाव जीत पाएं इसके लिए हम रात भर उल्लू की तरह जागकर आपका प्रचार करते हैं ,लोमडी की तरह आपके जीतने की तिकड़में भिडाते रहते हैं ,केकड़े,और बिच्छू  की तरह आपके विरोधियों को डंक मारते हैं , साँप की तरह बनकर  विपक्षी नेताओं  के विरुद्ध  ज़हर उगलते हैं ,
आपके फेंके चारे को खाने के लिए हम मछलियाँ बन जाते हैं .
आप लोग आराम से लाखों के होटलों में रह सकें इसीलिए हम जिन्दगी भर गधा बनकर नौकरियां करते हैं ,बैल बनकर कोल्हू में जुते रहते हैं अपना पेट काटकर भी आयकर  भरते हैं
आप भारतीय  लोग विदेशों में ऊँचे पदों पर जब सुशोभित हो जाते हैं तो ,इस खुशी में हम मोर की तरह नाच करने लगते हैं ,बन्दर की तरह उछल - कूद करते हैं ,अपने दाँत दिखाते हैं ,जब आप जैसे नीली आँखों वाले लोगों का मन विदेशी ज़मीन से उकता जाता है ,और आप के अन्दर जनसेवा की भावना जोर मारती है ,और आप  वोट मांगने के लिए हमारे  द्वार आते हैं तो हम लंगूर की तरह पेड़ पर लटककर ,चमकादडों   की तरह पेड़ों पे लटककर आप लोगों के जुलूस को  को निहारते हैं ,मकडी की तरह सुनहरे सपने बुनने लगते हैं ,कि  आप आए हैं ,शायद अब हमारा कुछ उद्धार होगा .
आप खरगोश की तरह दौड़ सकें इसके लिए हम कछुआ बन जाते हैं ...
अजी जानवर  छोडिये ,ये आपकी सहृदयता है कि आप हमें जानवर कह रहे हैं ,अरे !हम तो जानवरों से भी बदतर हैं ...कभी कचरे के ढेर पर कूड़ा बीनते हुए बच्चे को देख लीजिए ,जिसके लिए ,भारत एक खोज ,खाने की खोज तक सीमित है ,उसके  और कुत्ते के बीच  की लड़ाई देख लीजिए ...अक्सर उसमे बच्चा हार जाता है ...
वैसे जानवर तो आप लोग भी होते हैं , लेकिन यहाँ भी क्लास का फर्क है ...हम कैटल  होते हैं तभी तो आप वेल सेटेल होते हैं .
आप की क्लास के जानवर भी अलग होते हैं ....आप लोग गद्दी मिलने से पहले बिल्ली की तरह ,जीतने के बाद  शेर की  तरह दहाड़ते हैं ,आपकी चाल हाथी की तरह मस्त होती है ,आप लोगों की तकलीफों पर घडियाली आँसू बहाते हैं ,मुसीबत आने पर गीदड़ की तरह दुम दबा कर भाग सकते हैं , केटल लोग आपको अपनी आस्तीनों पर पालते हैं ,आपकी गर्दन घमंड के मामले  में जिराफ को भी मात दे देती है .
वैसे शशि जी, शायद आपको पता नहीं होगा कभी - कभी   हम सब्जियाँ भी होते हैं , आप लोग शशि बनकर राजनीति के आकाश में चमकते रहें  इसके लिए हम एक दूसरे को गाजर - मूली की तरह काट डालने से भी परहेज नहीं करते हैं ..
   
 

मंगलवार, 15 सितंबर 2009

कुछ छिपे चेहरे .....

इक्यासी वर्ष के तारा राम 'कवि' उत्तराखंड के नैनीताल जनपद के एक सुदूरवर्ती ब्लाक 'ओखलकांडा' में रहते हैं . वे राष्ट्रीय कुष्ठ निवारण कार्यक्रम से जुड़े हुए हैं .उनका काम विद्यालयों में जाकर सांस्कृतिक कार्यक्रमों के माध्यम से समाज में व्याप्त विभिन्न सामजिक बुराइयों एवं बीमारियों के विषय में जागरूकता पैदा करना है. इस के लिए उनकी एक आठ सदस्यीय टीम है ,जिसमे दो लडकियां भी शामिल हैं.
ये सभी पारंपरिक कुमांउनी वेशभूषा में मनोरंजन के माध्यम से अपनी बात को प्रस्तुत करते हैं . वे हास्य नाटक प्रस्तुत करते हैं तो उसमे भी कुछ ना कुछ सन्देश छिपा रहता है , उनके पास वाद्य यंत्रों की अनावश्यक भीड़ नहीं है ,बल्कि एक ढोलक , एक हारमोनियम एवं एक हुड़का है ,जिसे बजा कर वे वातावरण को संगीतमय बनाने की भरपूर  कोशिश करते हैं.
तारा राम जी समस्त कार्यक्रम की कमान स्वयं संभालते हैं , वे बीच - बीच में स्वरचित तुकबन्दियाँ व हँसी - मज़ाक वाली  शेरो - शायरी  करके बच्चों के चेहरों पर मुस्कान बिखेरते हैं , इससे मनोरंजन और ज्ञान में संतुलन बना रहता है , बच्चों का मन भी कार्यक्रम में  लगा रहता है .
वे पोलियो ,ऐड्स,  और टी. बी .के  कारण और दुष्प्रभाव बताते हैं ,कुष्ठ रोगों के विषय में फ़ैली भ्रांतियों को दूर करते हैं, उनके इलाज के लिए लोगों को  जागरूक करने का प्रयास करते हैं , शराबखोरी से होने वाले  नुकसानों के विषय में  बताते हैं .वे बातों बातों में बच्चों को यह ज़रूर बताते हैं कि अध्यापक का सम्मान करके ही विद्या को हासिल किया जा सकता है .
उनकी टीम तिरंगे की शान में  गाती है , देश - भक्ति के गीत गुनगुनाती  है , जिसमें  भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास तो आता ही है ,साथ में खुदीराम बोस , टैगोर , आजाद ,गालिब ,मंगल पांडे ,काकोरी संग्राम , जलियावाला बाग़ ,जनरल डायर, उधम सिंह, स्वतंत्रता प्राप्ति , संविधान का निर्माण ,राजेंद्र प्रसाद , जवाहरलाल नेहरु ,राजगोपालाचारी का भी नाम आता है .इन समस्त गीतों को तारा राम जी स्वयं  लिखते एवं संगीतबद्ध करते हैं .
कार्यक्रम के बीच में जितनी श्रद्धा से भगवान् के भजन होते हैं ,उतनी ही अकीदत से खुदा को समर्पित कव्वाली भी होती है.
सहजता ,सादगी और वाणी में इस उम्र में भी ओज तारा राम जी की विशेषता है ,उनकी कड़कती हुई प्रभावशाली आवाज़  बच्चों में एक नई ऊर्जा एवं उत्साह का संचार करती है. उनके एक हाथ में बंधा प्लास्टर उनके इस अभियान में कोई रुकावट नहीं डाल सका है .चेहरा झुर्रियों  से भरा ज़रूर है लेकिन उत्साह में कहीं से कोई कमी नहीं है .
पिछले पैंतालीस साल से वे इस जन जागरूकता अभियान से  जुड़े हैं ,एक दिन में कई विद्यालयों में प्रस्तुति देने के बावजूद भी उनके चेहरे पर थकान का नामो - निशान  ढूढे से भी नहीं मिलता है . उत्तराखंड की इस विभूति को मेरा नमन है .
 

रविवार, 13 सितंबर 2009

हिन्दी - अंग्रेजी का वाक् युद्ध

हिन्दी - अंग्रेजी का वाक् युद्ध
 
अंग्रेजी ................................
तू हो गयी है आउट ऑफ़ डेट
मार्केट में नहीं तेरा कोई रेट
तू जो मुँह से निकल जाए
लडकी भी नहीं होती सेट
 
तेरी डिग्री को गले से लगाए
नौजवान रोते रहते हैं
तुझे लिखने , बोलने वाले
फटेहाल ही  रहते हैं
 
जिस पल से तू बन जाती है
किसी कवि या लेखक की आत्मा
उसे बचा नहीं सकता फाकों से
ईसा, खुदा या परमात्मा
 
मैं जब मुँह से झड़ती हूँ
बड़े - बड़े चुप हो जाते हैं
थर - थर कांपती है पुलिस भी
सारे काम चुटकी में हो जाते हैं
 
तुझे बोलने वाले लोग
समाज के लिए बेकवर्ड हैं
मैं लाख दुखों की एक दवा
तू हर दिल में बसा हुआ दर्द है
 
मैं नई दुनिया की अभिलाषा
तू गरीब , गंवार की भाषा
मैं नई संस्कृति का सपना
तू जीवन की घोर निराशा
 
ओ  गरीब की औरत हिन्दी !
तू चमकीली ओढ़नी पर घटिया सा पैबंद है
तेरे स्कूलों के बच्चे माँ - बाप को भी नापसंद हैं
मैं नई - नई बह रही बयार हूँ
नौजवानों का पहला -पहला प्यार हूँ
 
मुझ पर कभी चालान नहीं होता
मुझे बोलने वाला भूखा नहीं सोता
मुझमे बसी लडकियां कभी कुंवारी नहीं रहतीं
शादी के बाद भी किसी का रौब नहीं सह्तीं
मुझको लिखने वाले बुकर और नोबेल पाते हैं
तुझे रचने वाले भुखमरी से मर जाते हैं
 
हिन्दी .........................................
मेरे बच्चे तेरी रोती भले ही खा लें
तेरी सभ्यता को गले से लगा लें
सांस लेने को उन्हें मेरी ही हवा चाहिए
सोने से पहले मेरी ही गोद चाहिए
 
बेशक सारे संसार में आज
तेरी ही तूती बोलती है
मार्ग प्रगति के चहुँ ओर
तू ही खोलती है
पर इतना समझ ले नादाँ
माँ फिर भी  माँ ही होती है

बुधवार, 9 सितंबर 2009

सोचिये कैसा लगेगा आपको

 
 
सोचिये कैसा लगेगा आपको जब आप रोज़ सुबह किसी रिज़र्व फॉरेस्ट क्षेत्र से होकर के अपने काम पर जाते हों और सारे रास्ते आपको मासूम जानवरों के कुचले हुए क्षत विक्षत शरीर दिखाई पड़ते हों । हल्द्वानी -हरिद्वार  राष्ट्रीय राजमार्ग में कोर्बेट का रिज़र्व फॉरेस्ट क्षेत्र पड़ता है ,जहाँ से होकर रोजाना कई मंत्री , विधायक , नेता ,अफसर ,एवं नौकरशाह गुज़रते हैं .इसके अतिरिक्त सैकडों पर्यटक विश्वविख्यात जिम कोर्बेट पार्क की सैर करने के लिए एवं वाइल्ड लाइफ का आनंद लेने के लिए यहाँ आते हैं , पता नही उन्हें दिखाई देता है या नहीं ,लेकिन मुझे रोज़ सुबह कम से कम पाँच या छः बेजुबान जानवर सड़क के किनारे या बीचों -बीच कुचले हुए दिख जाते हैं , जिनमें कुत्ते व बिल्ली तो रोज़ होते ही हैं ,कभी -कभार सांप , नेवले ,बकरी भी दिखाई दे जाते हैं  हैं , मैं देख नहीं सकती क्यूंकि उनकी आंखों में तैरते सवालों के जवाब मेरे पास नहीं होते हैं  उनकी मुर्दा ,खुली हुई बेजान आँखें हर आने -जाने वाले से चीख -चीख कर  एक ही  सवाल करती हैं  कि 'हम तो अपने ही क्षेत्र में सुरक्षित नहीं हैं  ,हमने तो किसी  का कुछ नहीं बिगाड़ा,  हमारा कुसूर क्या था ? हमारे लिए कोई रोने वाला नहीं ,कोई तोड़ - फोड़ करने वाला नहीं ,कोई धरना -प्रदर्शन करने वाला नहीं और ना ही कोई मुकदमा करने वाला हैं  क्या सिर्फ इसीलिए हमें इतनी बेदर्दी से कुचल दिया गया '?
 
आज हम मनुष्यों ने अपनी जिन्दगी की  रफ़्तार इतनी बढ़ा ली हैं कि  हम इस पर ज़रा सा भी अंकुश नही लगाना चाहते हैं , चाहे इस रफ़्तार के तले किसी की जान ही क्यूँ ना चली जाए , हम अपनी  महँगी   -महँगी गाड़ियों को किसी भी किस्म की खरोंच एवं  निशान  से बचाने के लिए को सड़क पर पड़े हुए छोटे -छोटे  गड्ढों से तक तो बचा ले जाते हैं ,लेकिन हमारी रफ़्तार के बीच में आए हुए जानवरों को कुचलते हुए चले जाते हैं , हमारे एक -एक मिनट की  कीमत तो हमें पता हैं लेकिन जानवरों की जान की कीमत हमें नहीं पता ।लेकिन  हमें यह सदैव  याद रखना चाहिए की प्रकृति के इस चक्र में हर प्राणी चाहे वह छोटा हो या बड़ा ,उसकी जान की कीमत होती हैं , आज हम शक्ति के मद में चूर होकर इन बेजुबानों को कुचल रहे हैं , तो क्या कल प्रकृति हमें इस अपराध के लिए माफ़ कर पाएगी ? प्रकृति के साथ खिलवाड़ की कीमत हम आए दिन किसी ना किसी नई महामारी या आकस्मिक आने वाली  प्राकृतिक आपदाओं  के रूप में चुका ही रहे हैं , इतने पर भी हमारी आँखें नहीं खुलती हैं , या यूँ कहिये की खुलना ही नहीं चाहतीं हैं ।
 
 मैं रोज़ सोचती हूँ कि हे ईश्वर !  क्या कभी ऐसा दिन भी आएगा जब सड़क से गुज़रते हुए किसी निरीह प्राणी को आधुनिकता की रफ़्तार के आगे अपनी जान की बलि ना चढानी पड़े ?

शनिवार, 5 सितंबर 2009

हास्य व्यंग्य लिखने वाले हाथों को ये क्यूँ लिखना पड़ा ?


 
मैं शिक्षा के क्षेत्र से जुडी हूँ ,मुझे गर्व है कि मेरे खानदान में शिक्षा को एक पवित्र  कर्म माना जाता है .मेरे पिता डिग्री कॉलेज से अंग्रेजी के प्रोफेसर के पद सेवानिवृत्त हुए ,और माँ अभी भी एक स्कूल में पढ़ाती  है ,बहिन भी कॉलेज  में है, भाभी भी शिक्षिका है ,दोनों ननदें भी युनिवेर्सिटी  में हैं ,नंदोई भी शिक्षा से जुड़े हैं ,पति एक तकनीकी कोलेज  में पढाते हैं ,मैं स्वयं एक इंटर कॉलेज में अंग्रेजी पढ़ाती हूँ .
 
मैं अपनी पारिवारिक इतिहास को बताना नहीं चाहती थी ,लेकिन आज ब्लोग्वानी में  कुछ पोस्टों को  देखकर मन खिन्न हो गया ,जिसको देखो वही टीचरों को गाली दे रहा है ,गोया किसी के पास और कोई काम ही नहीं बचा ,वे लिखने वाले ये क्यूँ भूल जाते हैं कि आज जिस कलम से वे इतनी आग उगल रहे हैं , उन्हें शब्दों को पहचानना , कलम थामना ,सही सही बोलना भी किसी टीचर ने ही सिखाया होगा,  अनुशासन सिखाया होगा ,अच्छे बातें सिखाई होंगी ,जब पहली बार माँ की गोद से उतर कर स्कूल गए होंगे तो किसी ने अपनी गोद में बिठा कर प्यार करा होगा ,आँसू पोछे होंगे .... उन हाथों को भी याद कीजिए ,उस गोद को भी याद कर लीजिए .
 
और याद कीजिए उन हाथों को जिन्होंने आपका भविष्य बनाने के लिए आपको मारा भी होगा ,लेकिन यह भी सच है कि मारने के बाद जितना आप रोते हैं उससे ज्यादा आपका टीचर रोता होगा. आपको टीचर का मारना याद रहता है ,लेकिन इतना मत भूलिए ,जिस दिन  टीचर विद्यार्थियों को मारना छोड़ देता है ,उसी दिन से वह उनके भविष्य की  परवाह करना भी करना बंद देता है .
 
मैं ये नहीं कहूंगी कि मैं बहुत अच्छा काम करती हूँ ,लेकिन कुछ  निर्धन छात्रों की फीस भरती हूँ ,किताबें देती हूँ ,और भी कई तरीकों से मदद करने की कोशिश करती हूँ ,ताकि सिर्फ पैसे की कमी के कारण किसी की पढाई ना छूटे.आप सिर्फ दो चार भ्रष्ट टीचरों का उदाहरण देकर समस्त शिक्षकों पर उंगली नहीं उठा सकते ,
 
ऐसे सैकडों  टीचरों  को मैं व्यक्तिगत रूप से जानती हूँ ,जो बच्चों की आर्थिक सहायता किया करते हैं ,उनकी पढ़ाई का पूरा खर्चा उठाते  हैं .अतिरिक्त कक्षाएं लगाकर पढ़ाई करते हैं .क्या और किसी व्यवसाय में ये संभव है ?
 
जहाँ तक यौन  शोषण की बात है एक बात और कहूंगी , मैं एक सह -शिक्षा वाले कोलेज में हूँ मैं छात्राओं को रोज़ देखती हूँ कि वे अपने फेवरेट टीचर्स के पीछे हाथ धोकर पड़ जाती हैं ,रोज़ एस .एम् .एस .करती हैं ,प्रेम पत्र लिखती हैं ,और जो अकेले रहते हैं ,उनसे मिलने उनके कमरों में तक चली जाती हैं ,उन्हें उनके साथ बिस्तर तक चले जाने में भी कोई आपत्ति नहीं होतीहै , वे उन्हें पटाने के  हर संभव उपाय करती हैं ,कोई अगर कुंवारा हुआ तो उनके प्रयास दोगुने हो जाते हैं ,किसी काम से पास भी जाती हैं तो बिलकुल सट कर खड़ी हो जाती हैं ,कक्षा में सारा समय उन्हें घूरती रहती हैं ,और उन्हें देख देख कर मुस्कुराती रहती हैं .
 
क्या अब भी आप सारा दोष अध्यापकों को ही देंगे ?
 

शुक्रवार, 4 सितंबर 2009

जाना एक सरकारी ऑफिस में ....

जाना एक सरकारी ऑफिस में ....
साथियों , कल दुर्भाग्य से  एक सरकारी दफ्तर में हमारा जाना हुआ ,दरअसल मामला पापा की पेंशन का था ,दस सालों से उनका एक मसला बाबुओं की  हथेली गर्म ना करने की वजह से लटका हुआ था , कई लोगों ने कह दिया था कि बिना पैसा खर्च करे ये काम भगवान् भी नहीं करा सकता ,कुछ ऐसे भी निकले जिन्होंने साफ़ लफ्जों में कह दिया था कि काम तो आपका हो जाएगा लेकिन आधा पैसा उन्हें देना पड़ेगा ,लेकिन एक टीचर की रगों में ना जाने कैसा खून दौड़ता है ,उन्होंने जवाब दिया 'चाहे मेरा पैसा मिले न मिले ,लेकिन घूस के नाम पर एक पैसा नहीं दूंगा .इस प्रकार चिट्ठी -पत्री करते -करते १० साल निकल गए .फिर किसी ने पापा को यह बताया कि वे सूचना के  अधिकार के अर्न्तगत इस  मामले को ले जाएं ,पापा की बेटी होने के नाते मैंने उनसे कहा कि यह काम मैं कर दूंगी ,आप इस उम्र में परेशान हो जाएँगे ,तो जब  पहले दिन कार्यालय गए तो पता चला कि जो इस मामले को देखती हैं ,वे आज नहीं आई हैं ,पहले दिन बैरंग वापसी के बाद जब हम दूसरे दिन वहां गए ,तो हमें पता चला कि सरकारी बाबू क्या होते हैं ,जब हम उन महिला के पास पहुंचे तो वे बिलकुल ही अनजान बन गईं .क्या ,कैसे ,कब वाले भाव उनके चेहरे पर आ गए ,फिर हमने जब उन्हें बताया कि आपके पास हमारे पिताजी दो दिन पहले आए थे और आपने उन्हें एक प्रार्थना पत्र लाने के लिए कहा था ,तो कुछ -कुछ उनकी स्मृति लौट आई ,फिर उन्हों हमें हाथों के इशारे से कमरे के दाहिनी तरफ जाने के लिए कहा ,कि वहां एक बाबू हरीश नाम के बैठते हैं ,वही इसे लेंगे ,तो उनकी बताई हुई दिशा की ओर जब हम गए ,और वहां जाकर अमुक नाम के सज्जन के बारे में पूछताछ की ,तो पता चला कि वह उसकी उल्टी दिशा में बैठते हैं ,मतलब जहाँ से हम आए थे ,उसी के बगल वाले कमरे में ,हमने फिर वहां की दौड़ लगाई और ,उनकी  पूछताछ करी ,मालूम हुआ कि वह यह मामला नहीं देखते ,हमारे यह पूछने पर कि इस मामले को कौन देखता है ,वह सज्जन एक दम से क्रोधित हो गए ,'हमें नहीं मालूम ,आप आगे ऑफिस से पता कीजिए ,देखते नहीं हम   काम कर रहे  हैं ' अंतिम वाक्य उन्होंने बहुत जोर देकर कहा ,तब हमें एहसास हुआ कि हमने कितना बड़ा गुनाह कर दिया ,वहां मौजूद सारे कर्मचारी बेहद गुस्से में दिख रहे थे ,पता नहीं उन्हें गुस्सा किस पर था ,लेकिन इतना समझ में आ गया था कि यह गुस्सा  सरकारी कर्मचारी होने पर भी काम करने का था ,फिर हम काफ़ी देर तक मेरी गो राउण्ड खेलते रहे ,मतलब एक टेबल से दूसरी टेबल तक हमारा अनवरत आवागमन जारी रहा ,पैर टूट कर बेजान हो गए ,हमें इतना समझ में आ गया था कि जब हम ये हमें इतना नचा सकते हैं तो हमारे वृद्ध पिताजी को कितना नचाते ,हर कर्मचारी ये समझ रहा था कि  शायद हमारा जन्म इस तहसील के आँगन  में  हुआ हो , हम इसी के बरामदे में खेलते कूदते बड़े हुए हों ,और  यहाँ के कर्मचारियों के साथ हमारा दिन रात उठना बैठना हो .यहाँ आकर ये लग रहा था कि शायद इंसान को अभी दिशा बोध नहीं हुआ है , एक कर्मचारी ने तो हवा में इशारा किया कि ये इस नाम के सज्जन यहाँ मिलेंगे .उस महिला कर्मचारी  ने हमें जब उत्तर की ओर इशारा किया तब उसका आशय दक्षिण दिशा से था , वे सारे कर्मचारी यूँ बात कर रहे थे  जैसे कि हमें उनके इशारों को समझ जाना चाहिए था , ऐसे मौकों पर स्वयं पर कोफ्त होती है कि भगवान् ने हमें अन्तर्यामी क्यूँ नहीं बनाया , एक ही परिसर में घूमते घूमते हमें घंटों हो गए ,उस पर तुर्रा ये कि बार बार पूछा भी जा रहा है कि 'काम हुआ कि नहीं , या फलाना सज्जन मिले या नहीं 'मन हुआ कि एक बार कह दें कि आप लोग साल में एक बार जनता को ट्रेनिंग देने के लिए यहाँ पर अवश्य बुलाएं ,उन्हें हर कर्मचारी और उसके काम के बारे में जानकारी दें  ताकि हमारी तरह वे चहुँ दिशाओं में भ्रमण करने से बच जाएं . अंत में दो घंटे के अथक प्रयास के बाद जिस वह शख्स पकड़ में आ गए ,जो पापा का कागज़ लेने वाले थे ,मिल तो ये हमें  एक घंटे पहले ही गए थे ,लेकिन तब इन्होंने कहा था कि ये मामला अमुक नाम की मैडम देखती हैं ,जो आज नहीं आई हैं ,तो जब हमने उन्हें कागज़ थमाए   तो बोले  ..'ये तो यहाँ का मामला ही नहीं है ,इसे आपको इलाहबाद  भेजना पड़ेगा ,कहने का मन तो बहुत हुआ कि 'ये बात आप पहले नहीं बता सकते थे ',लेकिन इतने चक्कर लगाते लगाते हलक इतना सूख चुका था कि लग रहा था कि बेहोश होकर अब गिरे तब  गिरे .किसी तरह से घर पहुंचे और पापा को यह खुशखबरी दी कि आपका यह काम यहाँ से नहीं होगा ,एक बार फिर से आप अपने प्रिय  चिट्ठी पत्री के  क्रम को जारी रख सकते हैं .
 

गुरुवार, 3 सितंबर 2009

अब सूखे के पीछे हाथ धोकर पड़ गए ...

ईश्वर ने जबसे भारतवर्ष से आती हुई यह आवाज़ सूनी कि ' सूखा राज्य सरकार का विषय है ' और 'पी .एम् .सूखे की चिंता करें ',उनकी भवें क्रोध से तन गईं ,उनहोंने तुंरत सम्मन जारी करके प्रकृती को बुलवा भेजा ,जो भांति - भांति के  बनाव - श्रृंगार करने में व्यस्त थी , क्यूंकि इन दिनों उसके पास काम की बहुत कमी थी , तनखाह भी उसे अब आधी ही मिला करती है ,इस आधी तनखाह को भी वह जस्टिफाई नहीं कर पा रही थी.
 
ईश्वर .....यह मैं क्या सुन रहा हूँ प्रकृति ? जम्बू द्वीप से यह कैसी आवाजें सुनाईं दे रही हैं ?
प्रकृति [ अनजान बनते हुए ] ....कैसी आवाजें महाराज ?
 
ईश्वर ....ज़रा अपने कानों से ये बालों की लटें हटाओ ..तब कुछ सुन पाओगी .ये शरद पवार नामक नेता क्या कह रहा है ?और कोई राजनाथ सिंह भी सूखे को लेकर बहुत चिंताग्रस्त है ?क्या तुमने इस डिपार्टमेंट  का काम देखना भी बंद कर दिया है ?लगता है तुम्हारी तनखाह में और कटौती करनी पड़ेगी ..
 
प्रकृति .....क्षमा महाराज ...लेकिन जितनी आप मुझे तनखाह देते हैं उससे मेरे ब्यूटी पार्लर का खर्चा ही पूरा नहीं पड़ता .
 
ईश्वर ....हम देख रहे हैं आजकल तुम्हारा काम में ज़रा भी मन नहीं लगता, याद करो प्राचीन काल में तुम कितनी कर्तव्यनिष्ठ हुआ करती थीं ,सुबह से शाम तक धरती लोक में घूम - घूम कर हाहाकार मचाया करतीं थी ,तुम्हें बाल तक बनाने की फुर्सत नहीं मिलती थी ,और आज तुम कितनी बदल गयी हो ,लगता है मनुष्य ने तुम्हारे मुँह में भी रिश्वत रूपी खून लगा दिया है .
 
प्रकृति ....महाराज , मैं ही क्यूँ सबके श्रापों की भागीदार बनूँ ? पहले के ज़माने की आप बात क्यूँ करते हैं ?उस ज़माने मैं मैंने अपनी ज़रा भी केयर नहीं करी , हर समय काम में जुटी रहती थी ,कहीं बाढ़ लानी है , कहीं महामारी फैलानी है , कहीं सूखा लाना है ,और उधर अन्य देवियाँ तरह - तरह के बनाव श्रृंगार किया करती थीं , सज -धज के कभी इस लोक तो कभी उस लोक भ्रमण किया करती थीं ,सारे के सारे देवताओं को रम्भा ,उर्वशी ,मेनका नृत्य दिखा -दिखा कर पटाये रखतीं थीं और उनसे  उपहार ,स्वर्णाभूषण प्राप्त किया करतीं थी ,नख से शिख तक अपने को खूबसूरत बनाया करती थी ,लोग उनकी पूजा किया करते थे ,और  आपने लोगों से गाली खाने वाले खराब काम मुझे पकड़ा दिए , ....मैंने काम भी किया और लोगों के श्राप भी झेले ..क्या मिला मुझे इसके बदले ? आये दिन तनखाह में कटौती ?
 
ईश्वर ....लगता है इस  कलयुगी मनुष्य ने तुम्हारी आँखों पर रिश्वत रूपी पट्टी बहुत टाइट बाँध दी है ?
 
प्रकृति .....महाराज ...आप ही बताइए में क्या करती ?ले देकर मेरे पास दो ही डिपार्टमेन्ट बचे थे ..एक बाढ़ और एक सूखा ..उस पर भी अब मेरा नियंत्रण नहीं रहा ,वह जो नेता ऐसा बयान दे रहा है वह भारत सरकार का कृषी मंत्री है ,उसका नाम 'शरद पवार' है उसके पास बहुत पावर है ,दूसरे का नाम 'राजनाथ सिंह' है , जिसके राज में उसकी पार्टी 'आगे नाथ न पीछे पगहा ' वाली हो गयी है जो कल तक गीदड़ भी नहीं थे ,आज सिंह हो गए हैं .
 
और महाराज ! अब सूखा और बरसात हमारे क्रेडिट में नहीं आता है ,अतः इस घमंड को त्याग दे ,अब सूखा कहीं पड़ा होता है ,और प्रभावित दूसरा क्षेत्र दिखा दिया जाता है ,कई लोग इस सूखे की बदौलत सुखी हो जाते हैं ,यही हाल बाढ़ का भी है ,बहती हुई बाढ़ में हाथ धोकर कईयों के छप्पर फट जाते हैं .वह तो भला इस  हो कलयुगी मानव का जिसने मेरी आँखों पर बंधी हुई पट्टी खोल कर मुझे ज्ञान का प्रकाश  दिखाया ..
 
ईश्वर ......और महामारी के बारे में क्या कहती हो ?स्वाइन फ्लू फैलाने का काम तुम्हे सौंपा था ..वह भी नहीं हो पाया तुमसे .
..
प्रकृति ......महाराज ..में क्या करुँ ? मीडिया वालों ने मेरी रोजी -रोटी पर  लात मार दी है .अमेरिका में स्वाइन फ्लू से कोई मरता है तो सारी दुनिया अपने चेहरे पर मास्क लगा लेती है ,'.प्रकृति रोते रोते अपने गालों पर फैल आये आई लाइनर को साफ़ करने लगती है
ईश्वर अपने गालों पर हाथ रखकर गहन चिंतन में डूब जाते है .

आप सबकी आभारी हूँ .

शिक्षक दिवस के उपलक्ष्य में ....आप सभी लोगों ने मेरे नए ब्लॉग 'मास्टरनी - नामा' के प्रति अपना प्रेम प्रर्दशित किया ,उसके लिए मैं आप सबकी आभारी हूँ .
 
आजकल वे लोग भी शिक्षा व्यवस्था को कोसने लगे हैं जिन्हें शिक्षा के असल मायने तक पता नहीं होते . जो स्वयं किसी नैतिकता का पालन नहीं करते ,  वे शिक्षकों के लिए  आचार - संहिता का निर्धारण करने लग गए हैं ,शिक्षकों के लिए  नैतिक मापदंडों का निर्धारण करने वाले ये क्यूँ भूल जाते हैं कि शिक्षक भी उन्हीं के बीच से आया हुआ एक प्राणी है .उसके अन्दर भी एक आम आदमी सांस लेता है . किस क्षेत्र में बुराइयां नहीं हैं ? आज समाज का हर क्षेत्र ,हर तबका जब सांस्कृतिक ,सामाजिक एवं नैतिक अवमूल्यन से गुजर रहा है ,तब  ऐसे में शिक्षकों से आदर्श के प्रतिमान स्थापित करने की अपेक्षा करना कितना उचित है ,यह बात सच है कि बच्चा अपने अध्यापक से बहुत कुछ सीखता है , वह उसका रोल मोडल होता है ,लेकिन यह भी सच है कि शिक्षक के पास बच्चा सिर्फ ५ - ६ घंटे व्यतीत करता है , बाकी  का समय वह अपने माँ -बाप और  परिवार के बीच में  बिताता है ,और उस अवधि में माँ - बाप  बच्चे के अन्दर कौन से संस्कार भरते हैं ,यह भी विचारणीय प्रश्न है और आज के व्यस्त माता -पिता अपने बच्चे को कितना समय देते हैं ? इस बात का भी इमानदारी से जवाब देना होगा, कितने माता पिता ऐसे हैं जो बच्चों को यह सिखाते हैं कि अपने टीचर्स की इज्जत करनी चाहिए, उनकी बात माननी  चाहिए ? इसके उलट हम उनके सामने उनके  टीचर्स के प्रति ज़हर उगलते रहते हैं ,हम बच्चों की कापियों में जान - बूझ कर गलतियां ढूंढते हैं, ताकि किसी ना किसी प्रकार से टीचर को  बेईज्ज़त किया जा सके ,हम ये जानने की कोशिश नहीं करते कि टीचर एक साथ इतने बच्चों को कैसे संभालते होंगे,  हमारी पूरी कोशिश सिर्फ यह जानने की होती है कि हमारे जिगर के टुकड़े को टीचर डांटती  तो नहीं है ,या कभी गलती से भी उसने कभी  हमारे लाडले  मारने की कोशिश तो नहीं की, बच्चे की एक झूठी  शिकायत पर स्कूल और सारे स्टाफ की कर्तव्यनिष्ठा पर प्रश्नचिंह लगाने लग जाते हैं  बच्चे का स्कूल तक बदल दिया जाता है .ऐसे माता - पिताओं की भी कमी नहीं है जो खुद अपने बच्चों को घर पर एक पल के लिए भी संभाल नहीं सकते ,जिनके घरों में  चौबीस में से दस  घंटे टी.वी. पर  कार्टून चैनल  चलता है , कई घरों में तो  बच्चों के लिए एक अलग टी . वी . की भी व्यवस्था है, भांति - भांति के विडियो गेम हैं, क्यूंकि उनके पास एक अकाट्य तर्क है   'क्या करें ,कहना ही नहीं मानता '   लेकिन स्कूल वालों से उनकी ये अपेक्षा रहती है कि वे कोई  ऐसी जादू की झड़ी घुमा  दें कि वह एकदम से अच्छा बच्चा बन जाए ,टॉप करने लग जाए..
शिक्षकों के हाथ से समस्त अधिकार छीन कर, उनके हाथों को बाँध कर उनसे यह भी अपेक्षा की जाती है कि वे बच्चों के प्रति समर्पित रहें , उन्हें अपने बच्चे की तरह समझें , स्नेह दें ,यह कैसे संभव है ? अपने बच्चे को तो इंसान डांटता भी है ,फटकारता भी है  ,और कभी कभार मारता भी  है ,लेकिन टीचर का जोर से बोलना तक  सभी को नागवार गुज़रता है .  ज़रा  सी  गलती पर उसे जेल भिजवाने तक से गुरेज़ नहीं किया जाता है, रात - दिन ऐसी  असुरक्षा के हालात में रहने वाला  शिक्षक किस - किस की अपेक्षाओं को पूर्ण करे ?
इस बात पर चिंतन और मनन करने आवश्यकता है ..
 

बुधवार, 2 सितंबर 2009

मेरे सपने ....

हर आवाज़ पे मचल जाते हैं

हर आहट पे सिमट जाते हैं

मेरे सपने भी फुटपाथ के बच्चों से हैं

कोई प्यार का टुकडा फेंके तो

क़दमों से लिपट जाते हैं

मंगलवार, 1 सितंबर 2009

वो पल

कुछ पल के लिए चमका था
मेरी आँखों में जुगनू बनकर
उजाले से उसके आज तक
रोशन है पैरहन मेरा ........