शुक्रवार, 27 नवंबर 2009

उससे फर्क ही क्या पड़ता है ?

२६/११ की दुखद याद के संदभ में उस इस्राइली मासूम को देखकर लिखी गई कविता,
जब सारे अखबारों में वही रोता हुआ बच्चा छाया हुआ था, मेरे छोटे से मोहल्ले में रहने वाली महिलाएं भी उस बच्चे को देखकर रो पड़ी थीं, और मैंने उससे कुछ दिन पहले ही उस बच्चे की तस्वीर देखी थी, जिसके खींचने वाले  पत्रकार को शायद पुलित्ज़र पुरस्कार मिला था, जिसके एक ही हफ्ते बाद उसने आत्महत्या कर ली थी. कविता लिखने के बाद अफ़सोस भी हुआ, क्यूंकि बच्चे तो बच्चे ही होते हैं .....काले और गोरे नहीं ....
 
रो  पड़ा मीडिया
सुबक उठी नवप्रसूताएं 
एक गोरा बच्चा अनाथ हो गया 
ऐसा नहीं होना चाहिए था 
कितना प्यारा था वो 
गोल - मटोल, मोटी से दाँत 
रंग गोरा, गुलाबी गाल 
ऐसा बच्चा रोए तो 
अच्छा नहीं लगता है 
उसका हर आँसू 
मोती सा लगता है 
उसके साथ सारा देश 
रो पड़ता है 
काश! इसके बदले
कुछ काले बच्चे
अनाथ हो जाते
धरती का बोझ
हल्का कर जाते
वो, जिनके काले चेहरों पर
सिर्फ आँखें दीखती हैं
जिनकी हड्डियां
खाल चीरकर चीखती हैं
जिनको देखकर गिद्ध
लार टपकाते हैं
जिनकी आँखों से आप
पीले के कई शेड
समझा पाते हैं
जो माँ बाप के होते हुए भी
अनाथ लगते हैं
सुबह से जिनके पैरों में
रस्सी बाँध दी जाती है
हाथों में रात की रोटी
थमा दी जाती है
जो रंग बिरंगे
चार्ट पर बने
रिकेट्स, बेरी - बेरी
पोलियो और रतौंधी
के लक्षण है
कुपोषण का
उत्तम उदाहरण हैं
हे भगवान् ! तू कितना निर्दयी है
रो पड़ी महिलाएं
निः संतानों  की छाती से 
फूट पड़ा दूध 
हज़ारों हाथ उसे 
गोद लेने को 
बेकरार हो उठे 
उसे इस्राइल जाता देख 
भारत पे शर्मसार हो गए 
अभी के अभी युद्ध करो 
दुश्मन को मटियामेट करो 
जो होगा देखा जाएगा 
हाँ कुछ बच्चे अनाथ हो जाएंगे 
उससे क्या फर्क पड़ता है ?
उससे फर्क ही क्या पड़ता है ?