मंगलवार, 1 दिसंबर 2015

ये क्या लगा रखी है असहिष्णुता, असहिष्णुता ?



ये क्या लगा रखी है असहिष्णुता, असहिष्णुता ? पुरस्कार पर पुरस्कार लौटाए जा रहे हैं । मैं पूछता हूँ आखिर क्यों ?  मैं तो एक ही बात कहता हूँ कि अगर ये वाकई साहित्यकार हैं तो लिख कर क्यों नहीं प्रकट करते अपना क्रोध ? बताइये तो ज़रा । क्या कहा ? आजकल साहित्य पढ़ता ही कौन है ? अजी आजकल कौन नहीं पढता है ये कहिये आप तो । अब मेरा ही उदाहरण लीजिये । मैं फेसबुक की सारी शायरियां जो सुन्दर - सुन्दर महिलाओं द्वारा पोस्ट की जाती हैं, उन्हें लाइक करने में तनिक भी विलम्ब नहीं करता । कई बार पढता बाद में हूँ लेकिन लाइक पहले कर देता हूँ । सारे विवादस्पद लेख और उन पर आए हुए कमेन्ट्स को खंगाल - खंगाल कर पढता हूँ । इस तरह के लेखों में जब तक माँ - बहिन की गालियां नहीं आने लगती तब तक मैं बड़ी बैचैनी महसूस करता हूँ । मज़ाल है कि एक भी गाली मेरी नज़रों से गुज़रे बिना गुज़र जाए । अजी मेरे बराबर क्या पढ़ा होगा किसी ने ? पैदा होने के साथ ही साहित्य का दामन थाम लिया था । आँख खुलते ही  लोट - पोट , मोटू - पतलू और मूंछें आने से पहले ही सत्यकथा, मनोहर कहानियां एक ही दिन में चट कर जाता था । मस्तराम तो आज भी कभी - कभार संदूक से निकाल कर पढ़ लेता हूँ । साहित्य से तो मेरा हमेशा ही  चोली - दामन का साथ रहा है । 


साहित्य क्या होता है यह सवाल आप मुझसे कर रहे हैं मुझसे ? साहित्य के क्षेत्र में मेरा दखल इतना है साहब कि आप सुनेंगे तो चौंक जाएंगे । 
मैं रोज़ सुबह दो अखबार पढता हूँ । एक - एक खबर को बारीकी पढता हूँ । अपहरण, बलात्कार,छेड़छाड़ और हत्या की सारी ख़बरें मुझे मुंहजबानी याद रहती हैं ।
व्हाट्सप्प के सारे चुटकुले, सारे दर्शन मुझे एक ही बार में कंठस्थ हो जाते हैं । व्हाट्सप्प के विद्वतजन जितनी कवितायेँ भेजते हैं, मैं उन सबको पढता हूँ । कई बार तो ज़ोर - ज़ोर से सराहना करता हूँ '' क्या बात कही है बन्दे ने वाह भई वाह ! मैं केवल सराहना तक ही सीमित नहीं रहता जनाब ।  इस उत्कृष्तम साहित्य से कोई वंचित न रह जाए यह सोचकर मैं अपनी कॉन्टेक्ट लिस्ट के प्रत्येक कॉन्टेक्ट को तुरंत फॉरवर्ड कर देता हूँ । कतिपय मूढ़मतियों ने गाली देकर मुझे ब्लॉक तक कर दिया लेकिन मेरी साहित्य साधना में कोई फर्क नहीं आया । अजी साहब ! कोई कुछ भी कहे लेकिन साहित्य के प्रचार - प्रसार में मेरे योगदान को अनदेखा नहीं किया जा सकता |

इन तथाकथित साहित्यकारों को जानता ही कौन था आज से पहले ज़रा बताइये ? ईनाम वापिस करके प्रसिद्द होना चाहते हैं । सब जान गए हैं इनकी असलियत । दो कौड़ी के साहित्यकार । धिक्कार । कूड़ा - कचरा है इनका साहित्य । मैंने कई बार इनकी पुस्तकों को देखा है । मेरी तो हिम्मत ही नहीं हुई उन्हें खोलने की । एक पन्ना खोलने के बाद ही जी घबराने लगता है । पता नहीं इतनी मोटी - मोटी किताबें लिख कैसे लेते हैं ? मैंने कई बार लिखने का प्रयास किया लेकिन एक पंक्ति से आगे मामला बढ़ ही नहीं पाया । मैं तो कहता हूँ कि इस देश का दुर्भाग्य है यह कि मैं कुछ लिख नहीं पाया वरना ये साहित्य अकादमी वाले ईनाम लेकर पीछे दौड़ते । वैसे देखा जाए तो लिखना कौन सी बड़ी बात है ? बड़ी बात तो यह है कि आपके विचारों को दुनिया जाने । मुझे तो न जाने कहाँ - कहाँ से फोन आते हैं । लोग मेरे विचार जानने के लिए लालायित रहते हैं । मेरे विचार कभी लेखनी के मोहताज़ नहीं रहे । लिखते तो वे हैं जिन्हें खुद पर भरोसा नहीं रहता । 

क्या पूछा आपने ? हमें कोई ईनाम मिला है आज तक ? 
एक बात बता देता हूँ सब कान खोल कर सुन लो भाई । हम वो इंसान हैं जो कभी इनाम के मोहताज़ नहीं रहे । हम कर्म करते हैं सिर्फ कर्म । ईनाम लेने वाले तलुवे चाटते हैं सरकार के तलुए । हमने सदा कर्म में विश्वास रखा है । ईनाम मिले या न मिले हमें कोई परवाह नहीं । हम तो बस इतना याद रखते हैं '' कर्मण्यवाधिक्कारस्ते आम्र फलेषु कदाचनम् ''। बचपन से ही इसे अपना आदर्श माना है हमने । मैं जानता हूँ कई बार लोगों ने मुझे ईनाम देने की सोची होगी लेकिन उन्हें कहीं से पता चल गया होगा की इस दुनिया में एक ऐसा इंसान भी रहता है जिसे इनामों से कोई लेना - देना नहीं है । यही सोचकर उन्होंने मुझे कोई ईनाम नहीं दिया होगा । मैं तो दूसरे ही किस्म का आदमी हुआ । धन, यश कीर्ति की कोई परवाह नहीं मुझे । मैं तो जूते की नोक पर रखता हूँ इन दो कौड़ी के पुरस्कारों को । 

कहाँ है असहिष्णुता ? मैं कहता हूँ दिखाओ मुझे किधर है असहिष्णुता ? कहते - कहते उनकी आँखों में खून उत्तर आया । आवाज़ पंचम सुर में पहुँच गयी । सीट पर बैठना उनसे मुश्किल हो गया । हाथों से मेज़ को पटकने लगे । मेज़ में दरार आ गयी । उँगलियाँ उठा - उठा कर हवा में तानने लगे । आवाज़ फुंफकार में बदल गयी । मुंह से झाग निकलने लगा । आँखों में खून उत्तर आया । नथुनों से धुवाँ निकलने लगा । बैचैन होकर तेज़ी से कमरे में चहलकदमी करने लगे । ''सर आपका पीरियड है '' कहकर जो  बच्चे उन्हें बुलाने आए उन्हें इतनी ज़ोर से डपटा कि उनमें से एक की तो पेंट में ही पेशाब निकल गयी । दूसरे की पीठ में इतनी ज़ोर से धौल जमाई कि वह थोड़ी देर तक सांस ही नहीं ले पाया । '' बड़े आए बुलाने वाले, आता जाता कुछ है नहीं और पढ़ने चले हैं , खबरदार जो आइन्दा से कभी बुलाने आये , हिम्मत कैसे पड़ जाती है ससुरों की ''?

इसे असहिष्णुता ठहरा रहे हैं आप ? अजी मैंने अभी - अभी सुना वह भी अपने इन्हीं दो कानों से । साफ़ - साफ़ कहा आपने मुझे असहिष्णु । यह तो वही वाली बात हो गई ' उलटा चोर कोतवाल को डांटे '। आपको इस बालक की असहिष्णुता दिखाई नहीं पड़ती ? शान्ति से बैठा रहता जैसे और बच्चे बैठे रहते हैं, लेकिन नहीं, यहीं चला आया मुझे बुलाने । इतनी सहिष्णुता नहीं है इसके अंदर । बड़ा होकर तो पता नहीं क्या - क्या करेगा यह ? गद्दार कहीं का । देशद्रोही ।  इसे दूसरे स्कूल भिजवाता हूँ । अभी टी.सी. काट कर इसको थमा देता हूँ । ऐसा बच्चा नहीं चाहिए मुझे अपने विद्यालय में । यहाँ मैं इतनी महत्वपूर्ण चर्चा में व्यस्त हूँ और इसे अपनी पढ़ाई की पड़ी है । बताइये ! हद हो गयी । असहिष्णुता की पराकाष्ठा है यह तो । 

मंगलवार, 10 नवंबर 2015

सोहन लाल द्विवेदी से क्षमा प्रार्थना सहित

उठो  'शाह'  अब आँखें खोलो 
मात मिली है अब मुंह धो लो । 
 
कैसी बात 'कमल' सब भूले 
उसके ऊपर 'लालटेन' झूले । 

नैया डूब गयी लहरों पर 
किया भरोसा अति 'मांझी' पर। 

मिस्टर कुमार पर लाली छाई 
तीसरी बार जो कुर्सी पाई । 

घोर अनर्थ 'कुशासन ' फिर आया 
जन - मानस को बिहारी भाया । 

असली - नकली सब देत दिखाई  
चुनाव ख़त्म, जनता मुस्काई  

इस कदर नफरत न बोओ 
'साहेब' प्यारे अब मत सोओ।

सोमवार, 14 सितंबर 2015

हिन्दी, बिन्दी और भिन्डी ---

फिर आ गया ये बिन्दी  दिवस ------

हाय ! फिर आ पहुंचा यह मुआ चौदह सितम्बर । शहर के चंद माननीयों का प्यारा बिन्दी दिवस । अभी तो पिछले वर्ष के बिन्दी दिवस के घाव सूखे भी नहीं थे, कि इस वर्ष यह फिर आ पहुंचा । लगता है एक न एक दिन यह मेरे प्राण लेकर ही जाएगा । अजीब है इस दिन का आना भी । मेरे सारे बिरादर दिवस अपने अपने 'डेज़' की कितनी बेसब्री से प्रतीक्षा किया करते हैं और एक मैं हूँ जिसे 'अब फिर बिन्दी दिवस आने वाला है' सोच - सोचकर कई महीने पहले से ही कंपकंपी आनी शुरू हो जाती है, डरावने सपने आते हैं और जब यह मुआ बीत जाता है तो बजाय चैन की साँस आने के कई हफ़्तों तक तक मुझे बुखार आता रहता है । मेरी बड़ी इच्छा है कि काश ! कुछ ऐसा हो कि ये हर साल मेरे भाल या मस्तक पर विद्वान और गणमान्य लोगों के द्वारा बिन्दी चिपकाने का झंझट ख़त्म हो जाए और इसे हर पाँच या दस साल में और हो सके तो मनाया ही न जाए । 

आप लोग सोच रहे होंगे कि यह बार- बार हिन्दी दिवस को बिन्दी दिवस क्यों कह रही है ? पर मैं भी क्या करूँ ? अब यह मेरा दिवस मेरा कहाँ रह गया ? बीते कई वर्षों से कई तरह के प्रकाण्ड, जिनके काण्डों को लिखा जाए तो एक नया महाकाव्य बन जाए, और कुछ हिन्दी के मूर्धन्य, असल में मूर्खधन्य विद्वान किस्म के लोग, जिनमे से कुछ ने विगत वर्ष हंस के संपादक राजेन्द्र यादव की याद में शोक सभा का आयोजन किया था । उसी सभा में एक हिंदी के एक प्राध्यापक ने अपनी संवेदना इन शब्दों में प्रकट करी ,'' बड़े दुःख की बात है कि राजपाल यादव हमारे बीच नहीं रहे ''। ऐसे विकट किस्म के विद्वान लोग हिन्दी दिवस के दिन हिन्दी के के इतिहास, भूगोल से शुरुआत करके तुरंत माथे की बिन्दी तक आ जाते हैं । कुछ तो इतने ज़्यादा विद्वान होते हैं कि इतिहास, भूगोल में जाने की भी आवश्यकता नहीं समझते । उन्हें बहुत जल्दी रहती है क्यूंकि उन्हें शहर के ओनों - कोनों में आयोजित समारोहों में हिन्दी के माथे पर बिन्दी चिपकाने जाना होता है । ये आते हैं, पांच मिनट बैठते हैं, बार - बार समय देखते हैं और जब रहा नहीं जाता तो संचालकों के कान में जाकर फुसफुसा आते है । संचालक बेचारा इनको मंच पर आमंत्रित करता है । ये हे- हे- हे करते हुए आते हैं, हाथ जोड़ते हैं, हिन्दी की बढ़ती ताकत, सोशल साइट, फेसबुक इत्यादि के विषय में चंद वाक्य बोलते हैं । इसके तुरंत बाद जेब से एक बिन्दी का पत्ता निकाल कर पूरी ताकत से मेरे माथे पर चिपका देते हैं और क्षमा मांगकर लगभग दौड़ते हुए अन्य हिन्दी - बिन्दी दिवस में हिन्दी का क़र्ज़ उतारने चले जाते हैं ।  
 
इस पूरे सप्ताह दौरान बिंदियों की इतनी ज़्यादा खपत होती है कि बाज़ारों से बिंदियों के पत्ते के पत्ते गायब हो जाते हैं और इनकी कालाबाज़ारी शुरू हो जाती है । हर कवि, कुकवि, नेता, नेता के चमचे, हिन्दी के अध्यापकों, प्राध्यापकों की और भी न जाने किन - किन अज्ञात हिन्दी सेवियों की जेबें इस दौरान बिंदियों के पत्तों से भरी रहती हैं । जसको जहाँ मौका मिलता है, मुझसे  बिना पूछे, जेब से पत्ता निकाल कर तपाक से शोभा, श्रृंगार, सम्मान, मातृभाषा जैसे कुछ शब्द कहकर माथे पर चिपकाता चला जाता है  

मैं तो कहती हूँ भगवान ! ज़िंदगी में कभी भी किसी की किसी के साथ इतनी अच्छी तुक न मिले जैसे मेरी बिन्दी के साथ मिलती है । मेरी हालत शौचालय के उस आईने के जैसी हो गयी है जिसके ऊपर इतनी बिंदियाँ चिपक गईं हैं, जिससे उसमे चेहरा दिखना बंद हो गया है ।

सच बात तो यह है कि बिन्दी शब्द सुनते ही मुझे बहुत घबराहट होने लगती है । बीते कुछ सालों से मेरे माथे पर इन बिंदियों के चिपकने से सफ़ेद - सफ़ेद दाग पड़ गए हैं । ये दाग धीरे - धीरे मेरे शरीर के अन्य हिस्सों में भी फैलते जा रहे हैं । मैं हाथ जोड़ - जोड़कर थक गयी लेकिन ये हिन्दी वाले मानते ही नहीं । इनको मैं अच्छी तरह से जानती हूँ, इनकी पत्नियों ने विवाह के दिन के बाद से ही माथे पर बिंदियाँ और सिन्दूर लगाना छोड़ दिया था । कारण कुछ भी हो सकता है - वे  समाज के सामने स्वयं को विवाहित नहीं दिखाना चाहती हों या हो सकता है मेरी तरह माथे पर सफ़ेद निशान पड़ने के डर से नहीं लगाती हों । अपने घर की स्त्रियों पर तो इनका ज़रा भी वश नहीं चलता और मेरे भाल पर सालों - साल बिन्दियों पर बिन्दियां चिपकाए चले जाते हैं । यूँ आजकल मैं देख रही हूँ कि आधुनिक महिला और बिन्दी वैसे ही एक दूसरे के शत्रु हो गए हैं जैसे ये हिन्दी वाले हिन्दी के ।
  
ये लोग खूब महिमा गाते हैं बिन्दी क्षमा कीजिये हिन्दी दिवस की । सच्चाई यह है कि ये हिन्दी की पैरवी करने वाले सिर से लेकर पैर तक अंग्रेजियत में रंगे होते हैं । इनके जो विद्यालय माफ़ कीजिये स्कूल होते हैं, उनमे बच्चे छोटे हों या बड़े, हिन्दी का एक भी शब्द बोलने पर सजा मिलती है  और पांच से लेकर पचास तक, जो भी स्कूल के मैनेजर की इच्छा हो, आर्थिक दंड देना पड़ता है। हिन्दी बोलने से वसूल की गयी इनकी इतनी कमाई है जिससे इन्होंने इस खटारा से स्कूल को दो मंजिला बना दिया है । यह इमारत तमाचा है उन लोगों पर जो यह कहते हैं कि हिन्दी कमाई नहीं करवा सकती । 

अभी जो माननीय मेरे भाल पर हिन्दी की बिंदी चिपका कर गए हैं, इनकी बात बताती हूँ । इनका शहर में एक नामी - गिरामी स्कूल है । सौ प्रतिशत अँगरेज़ी माध्यम । हिन्दी बोलने पर किसी बच्चे को को थप्पड़ पड़ता है तो कोई हाथ ऊपर करके खड़ा रहता है तो किसी की हथेलियों की तगड़ी सिंकाई होती है । शहर के अधिकाांश प्रतिष्ठित लोगों के बच्चे इसी स्कूल में पढ़ते हैं । कल इनके इसी बड़े स्कूल में हिन्दी टीचर के लिए इंटरव्यू था । यह एक हिन्दी की अध्यापिका का साक्षात्कार नहीं था । लड़की के पास हिन्दी का स्वर्ण पदक था । उसके लेख कविताएँ और कहानियां कई पत्र - पत्रिकाओं में छप चुके थे ।  हिन्दी साहित्य के क्षेत्र  का वह उभरता हुआ सितारा थी । उसके प्रमाणपत्र और उपलब्धियां देख कर इसने उस लड़की से जानते हैं क्या कहा ----सुनिए -----

'' आपका रिकॉर्ड तो बहुत अच्छा है, लगता है हिन्दी विषय में आपको काफी ज्ञान है ।  हिन्दी साहित्य में आपका काफी नाम भी देख रहा हूँ । बहुत खुशी की बात है लेकिन हम आपको नहीं रख सकते ''।

''ऐसा क्यों''? लड़की के लिए जवाब नया नहीं था ।

''आपका बैक ग्राउंड हिन्दी मीडियम का है''। 

लेकिन मैंने हिन्दी अध्यापिका के पद के लिए आवेदन किया है ''। लड़की के  स्वर में न अफ़सोस था , न दुःख था ।

''वह तो ठीक है लेकिन हमें ऐसी टीचर चाहिए जो बस पाठ को पढ़ाते समय हिन्दी में बोले, बाकी के सारे समय वह बच्चों से अंग्रेज़ी में बात करे । हमारी मज़बूरी है कि हमारे स्कूल में हिन्दी अभी हिन्दी में ही पढ़ानी पड़ती है । हम तो ऐसी टीचर देख रहे हैं जो हिन्दी को अंग्रेज़ी में पढ़ाना जानती हो । यह देखो आवेदनों का ढेर । ये सारे लोग हिन्दी को अंग्रेज़ी में पढ़ाने की काबिलियत रखते हैं "। 

''हिन्दी को अंग्रेज़ी में पढ़ाना ? यह तो बड़ी अजीब बात है''। लड़की ने इन्हें शहर में कई हिन्दी के समारोहों की अध्यक्षता करते देखा था । 

क्या करें ? हमारे हाथ भी बंधे हुए हैं । हमें पेरेंट्स को जवाब देना पड़ता है । वे लोग यही चाहते हैं कि उनका बच्चा हिन्दी भी बोले तो लगे कि इंग्लिश बोल रहा है ''। उसने अपने दोनों हाथों की मुट्ठी बनाई और मुझे लगा कि उसने मुझे अपनी हथेलियों के बीच पीस दिया । 

''विचित्र ''। लड़की के मुँह से निकला । 

''किन्तु सत्य '' हिन्दी के इस अनन्य सेवक ने मजबूरी में सिर हिलाकर वाक्य पूरा किया । 

'' तब तो उम्मीद रखना बेकार है ''। लड़की ने अपनी फ़ाइल उठाई तो मुझे लगा कि वह रो पड़ेगी  । 

''निराश होने की ज़रूरत नहीं है आप योग्य हैं आपको कहीं भी नौकरी मिल जाएगी ''। वह लड़की को बाहर तक छोड़ने आया ।

'' जी ! मैं जानती हूँ ''। कहकर वह उसके दुर्ग से बाहर चली गयी ।

यह यह पांचवा स्कूल है जहाँ के दरवाज़े उसके लिए बंद हो चुके हैं । 

अब भी आप कहेंगे कि मैं क्यों हिन्दी दिवस के आने पर खुश नहीं होती हूँ ?  


रविवार, 30 अगस्त 2015

क्या जायज़ है क्या नाजायज़ ? हमको कुच्छ नहीं पता ।

----उफ़्फ़ ! दर्दनाक । डरावना । मर्मान्तक । पीड़ादायी । भयानक ! बाप रे बाप !
-----क्यों ? क्या हो गया ? इतने सारे विशेषण एक साथ किसके लिए ? 

----औरत है, चुड़ैल है या कोई डायन है ?
-----अरे बताओ तो, हुआ क्या है आखिर ?

-----कल वीडिओ नहीं देखा न्यूज़ में ? 
------कौन सा वीडियो ? 

------वही जिसमे बहू सास को पीट रही थी । 
------अच्छा वह ! हाँ देखा तो था । तो ?

------अरे तो क्या ? ऐसे मार रही थी बूढ़ी बीमार सास को कि कलेजा दहल गया । बताइये कोई औरत होकर ऐसा कर सकती है क्या ? मुझे तो शक है कि वह औरत के भेस में कोई चुड़ैल थी । ऐसा तो कोई पत्थर दिल ही   ऐसा  कर सकता है  
------क्यों नहीं हो सकती वह औरत ? शत प्रतिशत औरत है वह । औरतों को भी अधिकार है पत्थर दिल होने का । वैसे भी चुड़ैलों के घरों में ऐसे सास - बहू के झगड़ों का कोई सबूत आज तक नहीं प्राप्त हुआ है ।
 
------देखा नहीं जा रहा था वह दृश्य । बार - बार आँखों के आगे आ रहा है । 
------तब भी आपने देखा होगा । बार - बार हर चैनल पर देखा होगा । चैनल तो नहीं बदल पाईं होंगी आप ? और मुझे तो यहाँ तक पता है कि न्यूज़ के बाद अपने फोन पर देखा होगा । सही कह रही हूँ ना ?

------हां । बुरा लग रहा था इसीलिये बार - बार देख रही थी । 
------जब इतना देखा आपने तो यह भी देखा होगा कि वह कितनी शालीन और  संस्कारी बहू थी । 

-------क्या कह रही हैं आप ? इस मारने - पीटने को संस्कार कहती हैं आप ? धन्य हैं । तभी तो कहते हैं घोर कलयुग आ गया । 
-------आपने शायद गौर से नहीं देखा । पीटते समय भी बहू के सिर पर पल्ला जस का तस धरा हुआ था । इतनी पिटाई करने के बाद भी मज़ाल है जो ्पल्लू  ज़रा भी  इधर का उधर हुआ हो । 

--------ज़रा भी डर नहीं रह गया किसी को । न भगवान का न इंसान का । 
------तब तो -इतना देख कर भी तुमने ठीक से नहीं देखा । वह बार - बार खिड़की से बाहर झाँक भी तो रही थी । समाज से डरती थी । वरना उसे किसकी डर पडी थी ? वह उसकी सास, वह उसकी बहू । पूरा अधिकार   था उसके पास  । जैसे पति अपनी पत्नी को पीटता है वह भी पूरे अधिकार के साथ कि मेरी अपनी है, मैं चाहे जैसे भी रखूँ, मेरी मर्ज़ी,कोई बीच में पड़ने वाला कौन होता है ?

-------मेरा तो कलेजा अभी तक काँप रहा है । 
--------आपको उसके दर्द से कोई दर्द नहीं हो रहा । आपका कलेजा स्वयं के लिए काँप रहा है । आप, अपने - आप को उस बिस्तर पर देख कर दुखी हो रही हैं । 

-------मेरे साथ ऐसा क्यों होगा ? मेरा बेटा ऐसा नहीं है । उसके अंदर मेरे संस्कार हैं । 
--------हर बेटे के अंदर अपनी ही माँ के संस्कार होते हैं । लेकिन बहू के अंदर भी तो उसकी माँ  और बाप के संस्कार होते होंगे  । इसके अंदर शायद अपने बाप के संस्कार ज़्यादा मात्रा में पड़ गए होंगे । 
 
-------अगर उसकी बहू भी कल को उसके साथ ऐसा ही करे तो ? 
---------क्या पता जो इस समय निरीह, बीमार, बिस्तर से लगी हुई दिख रही है, जिसके लिए आप दुबली हुई जा रहीं हैं, जिसमे आपको अपना भी भविष्य दिख रहा है, -हमने उस सास का ज़माना तो देखा ही नहीं । हो सकता है कि वह भी अपनी जवानी में बहू को ऐसे ही पीटती हो । या हो सकता है इससे भी ज़्यादा पीटती हो । तब घरों में सी सी टी वी कैमरे लगाने की  सुविधा नहीं होती थी इसीलिये सासों  की दबंगई सामने नहीं आ पाती थी । 

---------क्या मिलता होगा उसे बीमार सास को मार कर ?
-------इसका मतलब आपने देख कर भी कुछ नहीं देखा । असल में वह आनंद ले रही थी । पीटने का आनंद । उसे सास से छुटकारा नहीं चाहिए था । छुटकारा चाहती तो एक ही बार में गला दबा कर मार ही डालती ।          उस पर कोई शक भी नहीं करता क्यूंकि एक तो वह सुशील, साड़ी पहिनने और सिर पर पल्ला धरने वाली बहू थी और दूसरे सास बिस्तर से लगी हुई थी । लोग बीमार के लम्बे समय तक ज़िंदा रहने पर शक              करते हैं, और उस अमरबूटी का नाम पूछने लगते हैं, जिसके कारण बीमार के प्राणों को निकलने का मार्ग नहीं मिल पाता । बेचारी बहू  छह महीने से वह रोज़ थोड़ा - थोड़ा पीटने का आनंद ले रही  थी । इसमें भी            कोई शक नहीं कि वह सास की लम्बी उम्र के लिए रोज़ भगवान से प्रार्थना करती हो ताकि सास को पीटने का सुअवसर उसे लम्बे समय तक मिलता रहे । उसके लिए सास एक खिलौने से ज़्यादा कुछ नहीं थी  मैं तो कहूँगी कि जब भी उसकी सास मरेगी तब वह सबसे ज़्यादा रोएगी और उसके दुःख दिखावटी भी नहीं होगा । 
 
-------- बीमार थी बुढ़िया । बीमार को कोई ऐसे मारता है क्या ?
--------आपका कहने का मतलब है कि अगर वह स्वस्थ होती तब मारती ? या अब उसके स्वस्थ होने का इंतज़ार करती, जो कि लगभग नामुमकिन सी बात है, और स्वस्थ होने पर सास क्या खुद को ऐसे पिटने                 देती ?

 ---------उसे डर नहीं लगा होगा क्या एक पल को भी ? अगर उसके साथ भी बुढ़ापे में ऐसा हो तब उसे कैसा लगेगा ?
-----------इसकी क्या गारंटी है कि अगर वह वर्तमान में अपनी बीमार सास की सेवा करती तो भविष्य में उसकी बहू उसकी पिटाई नहीं करेगी ? हो सकता है कि इस बीमार सास ने अपनी सास की भूतकाल में बहुत                सेवा करी हो, लेकिन वर्तमान में तो वह अपनी बहू से पिट ही रही है ना ? यह तो कोई बात नहीं हुई कि बहू अपने बुढ़ापे की या अगले जन्म की चिंता करने में अपने वर्तमान के पिटाई करने के मज़े की तिलांजलि दे दे । 


-------------मैं कहती हूँ कि कितने दिन ज़िंदा रहती बुढ़िया ? थोड़ा सब्र कर लेती । मारने - पीटने की ज़रूरत ही नहीं रहती । 
--------------वाह ! क्या खूब कही आपने । मौत का क्या भरोसा ? कई बार बहुएं बूढ़ी हो जाती हैं सास के मरने का इंतज़ार करते - करते । कई बहुएं तो सास से पाहिले ही स्वर्गवासी हो जाती हैं और सास की पिटाई                      करने की अपने दिल की हसरत दिल में लिए हुए ही संसार से कूच करना कितना तकलीफदेह होता है, यह आप किसी बहू की अतृप्त आत्मा को प्लेनचिट या किसी अन्य तरीके से बुलवा कर पूछें तब                      पता चलेगा । 

--------------जो भी हो, आप कितना ही कुतर्क कर लें, मारना और पीटना नाजायज़ हरकत है इसे जायज़ ठहराने की कोशिश मत कीजिये । 
--------------आप जो अपनी कक्षा के बच्चों को रोज़ाना डंडे से पिटाई करती हैं, पहले पीरियड से लेकर आख़िरी तक लगातार आपका डंडा किसी न किसी के हाथ या पीठ या पैरों पर बरसता रहता है वह क्या जायज़ है ?

--------------वे लातों के भूत हैं।नंबर एक के उपद्रवी हैं और अभी बच्चे हैं । कितना ही मारो अगले दिन भूल जाते हैं। उनको पीटने और बुजुर्गों को पीटने में फर्क होता है । 
--------------क्या खूब कही आपने ! जवान पिटे तो जायज़, बुजुर्ग पिटे तो नाजायज़ । बहू पिटे तो जायज़, सास पिटे तो नाजायज़ । आदमी पिटे तो जायज़, औरत पिटे तो नाजायज़ । स्वस्थ पिटे तो जायज़, बीमार ---पिटे  तो ना जायज़ । ,बच्चे पिटें तो जायज़  बुजुर्ग पिटे तो नाजायज़ । 
 
----------आपसे तो बात करना ही बेकार है । सोचा था किसी के आगे गुबार निकाल कर मन हल्का हो जाएगा , पर यह तो और भारी हो गया । निहायत ही इतना समय बर्बाद किया । 

ैंमैं समझ  नहीं पा रहीहूँ  कि मैंने ऐसा क्या कह दिया जिससे वह इस कदर नाराज़ होकर चली गयी ? 

रविवार, 24 मई 2015

गाय पर निबंध -------


''हे  हे  हे  हे पढ़ा तुमने'' ? 
''क्या ''?
''आज का अखबार'' 
''हाँ क्यों ? कोई ख़ास खबर ?''
''एक टीचर को गाय पर निबंध लिखना नहीं आया ''
''हाँ पढ़ा मैंने । काफी बड़ा - बड़ा छाप रखा था'' । 
एक टीचर को ही जब इतना साधारण निबंध नहीं आएगा तो बच्चे क्या पढ़ेंगे ? 
पड़ोस के दुकानदार ने ब्रेड का पैकेट पकड़ाते हुए पूछा तो मैंने बचाव की मुद्रा अख्तियार करने में तनिक भी देरी नहीं लगाई । 
''देखिये हर विभाग में कुछ ऐसे लोग आ ही जाते हैं । क्या किया जाए इस फर्ज़ीवाड़े का'' ?
''कमाल की बात तो यह है कि नौकरी भी पूरी कर ले जाते हैं'' । 
''हाँ ये तो है, लेकिन अब गाय पर निबंध लिखना इतना आसान भी तो नहीं रह गया''। मैंने अफ़सोस ज़ाहिर किया साथ ही यह भी जोड़ दिया । 
 मैं किसी भी टीचर की गरिमा बचाने के लिए किसी भी हद तक बहस करने के लिए कटिबद्ध थी, टीचर चाहे कश्मीर का हो या कन्याकुमारी का ।
''शर्मनाक है यह .... इतना सरल नहीं आया … गाय पर निबंध जैसी चीज़.…हमें तो बचपन से आज तक रटा हुआ है'' । 
वह भी टीचर को नीचा दिखाने के लिए,कटिबद्ध था, चाहे वह त्रिपुरा का हो या हरियाणा का । 
जहाँ दो कटिबद्ध लोग लोग मिल जाते हैं वहां का माहौल बड़ा ही रोचक हो जाता है। 
''चलिए सुनाइए आप बचपन से रटा हुआ गाय पर निबंध''। मैं अपने सारे तर्कों - कुतर्कों से लैस होकर बहस के मैदान में कूद पड़ी। 

''गाय एक पालतू जानवर है'' वह पहला सनातन वाक्य बोले । 

''लेकिन यह अच्छे - खासे इंसान को जंगली बना देती है'' । मैंने नया वाक्य बोला । 

''यह कई रंगों की होती है - काली, सफ़ेद, भूरी, चितकबरी आदि आदि''। 

''लेकिन इसका साम्प्रदायिक रंग सबसे लुभावना होता है । इसको लेकर जब इंसान एक - दूसरे का खून बहाते हैं, वही लाल रंग सबके मन को भाता है''। 

''इसके दो सींग होते हैं'' । 

''अपने दो सींगों से यह किसी को नुकसान नहीं पहुंचाती । जिनके सींग नहीं दिखाई देते, ऐसे प्राणी इस सींग वाले प्राणी के लिए एक - दूसरे का पेट फाड़ डालने तक में संकोच नहीं करते हैं''। 

''इसके दो आँखें, दो कान, चार पैर, चार थन और एक बड़ा सा शरीर होता है''।   

''इसके अंगों के टुकड़ों को अक्सर उस जगह डाला जाता है जहाँ इसकी पूजा की जाती है । इसके टुकड़े बाद में एक दूसरे के टुकड़े करने के काम आते हैं'' । 

''इसके रहने की जगह को गौशाला कहा जाता है'' । 

''आजकल यह विभिन्न सोशल साइट्स यथा वट्सअप और फेसबुक पर रहती है जहाँ कई तस्वीरों में इसका सिर अलग और धड़ अलग दिखाई देता है, ताकि लोगों में उत्तेजना फैले फिर, उस फ़ैली हुई उत्तेजना से दंगे फैलें।    

''यह घास खाती है'' । 

''आजकल यह आम लोगों के द्वारा फेंके हुए घरेलू कचरे से भरे हुए रंग - बिरंगे प्लास्टिक के थैलों को चबाती हुई या कूड़े के ढेर के पास देखी जाती है'' । 
 
''अंग्रेज़ी में इसे काव कहते हैं''। 

''इसी काव पर आजकल बहुत काँव - काँव मची रहती है''। 

''हिन्दू इसे गौ माता कहते हैं'' 

''कुछ हिन्दू इसका मांस बहुत चाव से खाते हैं और ट्वीट करके गर्व से इसकी सूचना भी देते हैं''। 

''गाय के दूध से दही, मक्खन, घी और मिठाइयां बनती हैं''। 

''इन मिठाइयों को खाकर हम एक दूसरे के धर्मों के खिलाफ ज़हर उगलते हैं । इसके माँस के माध्यम से राजनीतिज्ञ अपनी रोटियां सेंकते हैं और उनका चूल्हा लम्बे समय तक जलता रहता है'' । 

''इसका बछड़ा बड़ा होकर खेतों को जोतने के काम आता है'' । 

''इसके बछड़े की खाल सांप्रदायिक सद्भावना लाने के काम आती है । इसके चमड़े से बने हुए पर्स, बेल्ट और अन्य आइटम सभी धर्मों के लोगों के बीच समान रूप से लोकप्रिय हैं''। 

''वाकई गाय पर निबंध लिखना आसान नहीं रह गया ''। कहकर दुकानदार बगलें झाँकने लगा । 

''तभी तो मैंने कहा था, कुछ चीज़ें जो हमें जैसी बतलाई जाती हैं, वह कई बार वैसी होती नहीं'' । मै भी इतनी बहस के बाद हांफने लगी थी । 

रविवार, 17 मई 2015

दुःख भरे दिन बीते रे भैया

दुःख भरे दिन बीते रे भैया  
नाचो, गाओ, ता ता थैया । 

दुनिया भर का टूर लगायो 
भाषण देकर जी बहलायो 
हर लाइन पर ताली बजवायो 
यदा - कदा जब देश में आयो 
वायदों की जब याद दिलायो 
'जुमला' कह दिया दैया रे दैया ।   

दुःख भरे दिन बीते रे भैया  
नाचो, गाओ, ता ता थैया । 

जगमग - जगमग फोटो खिंचायो 
चमचम - चमचम सेल्फ़ी लगायो 
ढोल पीटो, वंशी बजायो  
झूला झूलो, पींग बढ़ायो 
क्यों न करो तुम गलबहियां 
जब कोतवाल भये सैयां । 

दुःख भरे दिन बीते रे भैया  
नाचो, गाओ, ता ता थैया । 

विदेशों में जलवा ढायो 
फ्रंट पर 'टाइम' के छायो 
ट्विटर, फेसबुक पर लाइक पायो 
हर चैनल तुमरे ही गुन गायो  
पाठ्येत्तर में पूरे नंबर, पर 
पाठ्यक्रम में शून्य आयो । 

अच्छे दिन से तौबा रे तौबा 
दिन बुरे ही भले थे भैया । 

दुःख भरे दिन बीते रे भैया  
नाचो, गाओ, ता ता थैया । 

 
  

रविवार, 8 मार्च 2015

मज़े का अर्थशास्त्र

मित्रों,


जैसा कि मैं आपको हाल में सूचित कर चुकी हूँ, 'मज़े का अर्थशास्त्र' नामक मेरे व्यंग्य-लेखों का पहला संग्रह, जिसकी पृष्ठ-संख्या 200 है, हाल ही में प्रकाशित हुआ है। हार्ड-बाउंड (पुस्तकालय संस्करण) का मूल्य Rs. 250/- एवं पेपरबैक संस्करण का मूल्य Rs. 150/- (डाक-खर्च सहित) है। आप में से जो लोग इसे प्राप्त करना चाहते हैं, कृपया निम्न तरीके से निर्धारित राशि प्रेषित करें।


[I] हल्द्वानी से बाहर के पाठकों हेतु:

1) NEFT (नेटबैंकिंग अथवा आपकी बैंक-शाखा के माध्यम से):

भारतीय स्टेट बैंक की 'कुसुमखेड़ा, हल्द्वानी' शाखा (IFSC: SBIN0005100) में Nihar Ranjan Pande के बचत-बैंक खाता संख्या 32549779039 में निर्धारित राशि प्रेषित कर मुझे फेसबुक अथवा ईमेल (pande.shefali@gmail.com) द्वारा सूचित करें। अपनी सूचना में, जिस खाते से आपने धन प्रेषित किया है उसके खाताधारक का नाम अवश्य लिखें।

2) भारतीय स्टेट बैंक की किसी भी शाखा के माध्यम से नक़द भुगतान:

[इस माध्यम का प्रयोग करने पर बैंक शुल्क के मद में Rs. 50/- की अतिरिक्त राशि  प्रेषित करें ]

भारतीय स्टेट बैंक की 'कुसुमखेड़ा, हल्द्वानी' शाखा (IFSC: SBIN0005100) में Nihar Ranjan Pande के बचत-बैंक खाता संख्या 32549779039 में निर्धारित राशि प्रेषित कर मुझे फेसबुक अथवा ईमेल (pande.shefali@gmail.com) द्वारा सूचित करें।

3) चेक अथवा बैंक-ड्राफ्ट के माध्यम से):

निर्धारित राशि का चेक/बैंक-ड्राफ्ट निम्नलिखित पते पर भेजें:

शेफाली पाण्डे

'दीपालय', पुराने सिंथिया स्कूल के सामने

छोटी मुखानी, हल्द्वानी - 263139

ज़िला नैनीताल

उत्तराखंड


[II] हल्द्वानी के पाठकों हेतु:

किताब निम्न दो दुकानों पर उपलब्ध है, जहां से आप उसे प्राप्त कर सकते हैं:

1. Today's Book House: बरेली रोड, मंगलपड़ाव, हल्द्वानी

दूरभाष (05946)253454, 9927700934, 9927700933

2. Thoughts बुक स्टोर: तल्ली बमौरी, मुखानी चौराहे से ऊपर की ओर, हल्द्वानी

दूरभाष 9634108449


शुभम्


शेफाली पाण्डे

बुधवार, 4 मार्च 2015

स्मार्ट होली



ट्विटर पर खेली 
जी भर के होली 
मला फेसबुक पर 
अबीर गुलाल 
चिप्स और गुजिया 
वट्सअप पर खाई 
लाइक,कमेंट, स्माइली 
दे दी सबको बधाई 
रंग - बिरंगी सेल्फियां 
प्रोफ़ाइल पर चिपकाई 
मिलावट का रोना नहीं 
ना कमरतोड़ महंगाई 
दुनिया आभासी 
खुशियां आभासी 
आभासी हैं रंग 
संगी नहीं, साथी नहीं 
होली खेल रहे नर - नारी 
अब स्मार्ट फोन के संग ।