रविवार, 24 जनवरी 2010

परिवर्तन की सुखद बयार

 कई सालों के बाद कानपुर जाना हुआ तो स्टेशन पर उतरते ही सुखद अनुभूति हुईसबसे  पहले नज़र पड़ी  जगह -जगह रखे हुए  बड़े-बड़े कूड़ेदानों पर  जिन पर 'परिवर्तन' लिखा हुआ था|  जानने की  उत्सुकता बढ़ी कि यह कौन सी संस्था है जो सरकारी प्रयासों से इतर शहर व स्टेशन को साफ़-सुथरा रखने में अपना सहयोग प्रदान कर रही है?  जैसे-जैसे शहर  की ओर बढ़ते गए कई और परिवर्तन दिखाई  दिए, मसलन साफ़-सुथरी सड़कें, सड़कों  के किनारे  रखे  हुए कूड़ेदान, डिवाइडरों पर जगह-जगह करीने से लगे हुए पेड़-पौधे और हरियाली, पैदल चलने वालों  के लिए  चौड़ा  सा फुटपाथ और आश्चर्यजनक रूप से सही सलामत स्ट्रीट-लाइटें, जो कई साल पहले स्वप्न सदृश्य हुआ करतीं थीं

जो शहर कुछ साल पहले देश के सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में से एक था; जिसमें  जगह - जगह गन्दगी का साम्राज्य हुआ करता था; जहाँ-तहाँ डोलते हुए सुअर न केवल गन्दगी फैलाते थे अपितु जन-सामान्य का जीना  भी दुश्वार किये रहते थे; जहाँ सड़कों में गड्ढे हैं कि गड्ढों  में सड़कें, पता लगाना मुश्किल होता थाशाम होते ही जो शहर अँधेरे में डूब जाया करता था, आज उसकी बदली हुई  सूरत देखकर हैरानी के साथ-साथ ख़ुशी भी हुई

सुबह-सुबह ज़ोर की सीटी की आवाज़ से नींद  खुली| बाहर आने पर देखा तो परिवर्तन  का कर्मचारी कूड़ा-गाड़ी लिए हुए खड़ा है और कूड़ा मांग रहा है| पूछने पर पता चला कि संस्था लोगों के घरों से कूड़ा इकठ्ठा करवा कर, उसका उपयुक्त जगह पर निस्तारण करने की व्यवस्था करती है| बदले में आपसे वे मात्र तीस या पचास रूपए लेती है, जो आप  और आपके घर के आस-पास को साफ़-सुथरा रखने की एवज में बहुत मामूली सी रकम हैसंस्था के सदस्य अगर आपको सड़क पर कूड़ा या कागज़  का छोटा सा टुकड़ा भी  फेंकते हुए देख लेंगे तो निश्चित रूप से आप कितनी ही बड़ी गाड़ी में बैठे हों या कितने ही बड़े पद पर आसीन होंउनकी फटकार खाने से नहीं बच पाएंगे.

एलन फॉरेस्ट के विस्तृत क्षेत्र  में बनाये  हुए  चिड़ियाघर में घूमने गए तो वहां भी संस्था के प्रयासों को देखने का अवसर प्राप्त हुआ| अब वहां कोई पॉलिथीन के थैले लेकर नहीं जा सकता| ये रंग-बिरंगे थैले कुछ वर्ष पूर्व  बंदरों  को अपनी ओर  आकर्षित  करने का माध्यम हुआ करते थे| परिणामस्वरूपकई लोग  बंदरों  के हमलों  से चोटिल  हो जाया  करते थे| लेकिन अब परिवर्तन के कर्मचारी कपड़े का एक बड़ा सा  बैग देते हैंजिसमें  आपको अपने समस्त पैकेट-बंद खाद्य पदार्थों को खाली करना होता हैइतना सब करने पर ही आप अन्दर जा सकते हैं|

संस्था के विषय में और जानने की उत्सुकता बढ़ती गई| आपसी बातचीत में पता चला कि इस संस्था का निर्माण इसी उद्देश्य से किया गया है कि कानपुर वाले कनपुरिये कहलाने पर गर्व महसूस कर सकेंइस अभियान में आई. आई. टी. के इंजीनियर, बड़े-बड़े व्यवसाई, लब्ध प्रतिष्ठित डॉक्टर्स और कतिपय नेतागणयहाँ  तक कि जन-सामान्य भी अपना पूरा सहयोग प्रदान कर रहा है| संस्था,   समय - समय पर   सरकारी कर्मचारियों और जन प्रतिनिधियों से जवाब-तलब करती है, और  सरकारी पैसों का बराबर हिसाब मांगती है

संस्था के कुछ समर्पित सदस्य विभिन्न अवसरों पर शहर के विभिन्न विद्यालयों में जाते हैं और बच्चों के  अन्दर, जो आने वाले कल को देश और शहर की बागडोर संभालेंगे, ज़िम्मेदारी का भाव भरने का प्रयास करते हैं| वे प्रयास करते हैं कि भावी पीढ़ी देश   दुनिया  के महापुरुषों एवं  उनके अविस्मरणीय योगदानों के विषय में जाने और उनसे प्रेरणा लेकर देश व समाज को नई दिशा देने की सोच अपने दिलो-दिमाग में विकसित करें| कोई भी शहर उसमें  निवास करने  वालों से बनता हैऐसी कोई भी समस्या नहीं होती जिसे आपसी सहयोग से हल न किया जा सके| बस ज़रुरत अपने अधिकारों के साथ-साथ कर्तव्यों को पहचानने की होती है| इस जज़्बे को  अपनी कानपुर यात्रा के दौरान मैंने परिवर्तन और उसके सजग कार्यकर्ताओं के अन्दर देखा|

मैं भविष्य  के प्रति  आशा  से भर  जाती  हूँ, और कल्पना  करती हूँ  उस  दिन  की जब  देश का हर नागरिक अपनी  समस्याओं के लिए किसी को भी कोसने के बजाय अपने शहर और देश के प्रति  अपनी ज़िम्मेदारी को समझेगा और आने वाली  पीढ़ी  को एक  स्वस्थ और स्वच्छ सन्देश देगा| 

 

12 टिप्‍पणियां:

  1. मैं भविष्य के प्रति आशा से भर जाती हूँ, और कल्पना करती हूँ उस दिन की जब देश का हर नागरिक अपनी समस्याओं के लिए किसी को भी कोसने के बजाय अपने शहर और देश के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी को समझेगा और आने वाली पीढ़ी को एक स्वस्थ और स्वच्छ सन्देश देगा|
    "काश ऐसे हो" शिक्षाप्रद और सन्देश युक्त आलेख के लिए आभार और धन्यवाद्.

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  2. हां...... हर नागरिक को अपनी ज़िम्मेदारी खुद समझनी चैहिये.... बहुत अच्छी लगी आपकी पोस्ट....

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  3. अच्छा लगा पढ़ कर!काश ऐसा ही परिवर्तन अन्य शहरों में भी आये!इस संस्था के बारे में कुछ और जानकारी देने का प्रयास करें..

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  4. मास्टरनी जी, अति उत्तम लेख। लोग मिल बैठ कर चाह लें तो क्या नहीं हो सकता !

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  5. अच्छा लेख ।। मजबूरी यह होती है कि बहुत सी जिम्मेदारियाँ उठाने की आजादी आम आदमी को नहीं है, इसलिए सामूहिकता का जबरदस्त हास होता जा रहा है, जिम्मेदारी का भाव लगातार कम होता जा रहा है। फिर इसलिए सामाजिक कामों को कानपुर और परिवर्तन के लोग बधाई के पात्र हैं।

    प्रमोद ताम्बट
    भोपाल
    www.vyangya.blog.co.in

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  6. बड़ी अच्छी बात पता चली और एक अच्छी शुरुआत है ये .

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  7. bahut badhiyaa likhaa hain aapne.
    kaash aisaa saare desh bhar main saare shahero main ho.
    thanks.
    www.chanderksoni.blogspot.com

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  8. बहुत अच्छा लगा परिवर्तन संस्था के बारे में जानकर. बहुत सार्थक कार्य.

    बताने के लिए आपका आभार!!

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  9. शेफाली बहना,
    परिवर्तन जैसी मुहिम की देश के हर शहर को सख्त ज़रूरत है...खास तौर पर कॉमनवेल्थ गेम्स से पहले दिल्ली को...
    इस तरह के परिवर्तन होते हैं तो हर कोई बदलता है...और ये बदलाव ही जीवन है...

    जय हिंद...

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  10. लेख प्रेरक जरूर है मगर कहीं न कहीं ये सवाल खुला छोड़ के जाता है कि आखिरकार समाधान क्या है ! क्योंकि मैं भी कुछ ऐसे कार्य में पिछले ३ वर्षों से लगा हुआ हूँ जहां छोटा सा सामाजिक परिवर्तन लाने कि जद्दोजहद चल रही है !खैर एक शब्द प्रयोग करना चाहूँगा वह है "individual social responsibility " यानी "व्यक्तिगत सामाजिक जवाबदेही" . बहुत आसान है किसी के कार्य की प्रशंसा करना मगर कितना मुश्किल है इस जिम्मेदारी को खुद के कन्धों पर उठाना ?

    मैं जानता हूँ हर एक माध्यम वर्गीय गृहस्थ का सपना होता ही है कि अपनी कार हो ,कार खरीद कर अब आप अपने सपनों को साकार तो कर लेते हैं मगर पर्यावरण के साथ गैर जिम्मेदारी कर डालते हैं .."सार्वजनिक परिवहन " का उपयोग करने वाले ६० लोग जितना पर्यावरण को दूषित करते हैं कार वाले भाई साहब उसका ४५ गुना ज्यादा ! किन्ही भाई साहब ने कोमोंवेअल्थ गेम्स का नाम लिया ! मैं बता दूं कि दिल्ली में सड़को को जितनी जल्दी चौड़ा किया जाता है उससे ३ गुने तेजी से गाड़ियां यानी कार बढ़ जाते हैं सडकों पर ! १० किमी का रास्ता तय करने में कम से डेड़ घंटा लगना आसान सी बात है और उस डेड़ घंटे में डेड़ सौ गालियाँ सरकार को देना भी मुनासिब समझा जाता है !किसी लाल बत्ती पर अगर जाम है तो ३०० कर और उसमे बैठे ५०० लोग होंगे और १५ गाड़ियां और उसमे बैठे ९०० लोग ! कुछ अखरती सी है ये बात ,क्यों, कौन जिम्मेदार है अब ? एक उधाहरण देखिये ..
    http://www.rideforclimate.com/journals/?p=92
    http://archive.wri.org/page.cfm?id=880&z=

    मेरा बस ये कहना है कि ये पानी ,हवा ,पेड़ ,ईधन ,पैट्रोल,सड़कें,परिवहन ,बिजली ये सब संसाधन व्यक्तिगत नहीं हैं सामाजिक और राष्ट्रीय सम्पति हैं इनका उपयोग और दुरूपयोग हमारे ऊपर निर्भर है !

    http://pulzinponderland.wordpress.com/2009/03/22/tips-for-an-envrionment-friendly-living/

    "परिवर्तन" नाम से एक और संस्था दिल्ली में भी कार्यरत है ,मैग्सेसे विजेता, RTI activist और पूर्व सिविल सर्विस अधिकारी ,प्रख्यात श्री अरविन्द केजरीवाल के नेतृत्व में ! कई लोग लगे हुए हैं इस दुनिया को बेहतर बनाने में मगर जब तक हर इंसान "individual social responsibility " को नहीं समझेगा ये मोर्चा सागर में एक बूँद सामान होगा !

    इस लेख द्वारा जानकारी देने के लिए शुक्रिया !!

    Darshan Mehra
    "Happiness is a Decision !! "
    http://darshanmehra.blogspot.com

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  11. अच्छी शुरुआत है .... कितना अच्छा हो युवा वर्ग या कोई भी वर्ग, संस्था ......हर शहर में ऐसी शुरुआत करे .......

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