गुरुवार, 15 मई 2014

अलविदा चुनाव २०१४ .... बहुत भारी मन से अलविदा ।

यूँ लग रहा है जैसे शरीर से प्राण अलग हो गए हों जैसे किसी की मेहनत से बसी - बसाई दुनिया अचानक से उजड़ गयी हो जैसे आसमान मे एकाएक घटाटोप अँधेरा छा गया हो, जैसे बसंत के खत्म होने से पहले ही पतझड़ आ गया हो । हर तरफ सूनापन दिखाई दे रहा है । और हो भी क्यों न ?  देशवासियों को लोकतंत्र के इन तमाशों और तमाशबीनों के लिये अब फिर से पांच साल का इंतज़ार जो करना होगा । 

इन दिनों सोशल साइट्स की छटा सबसे निराली रही । विद्वजनों का यह भी मानना था कि यह चुनाव अगर फेसबुक पर लड़ा जाता तो कबका निपट गया होता । पता नहीं क्यों इस चुनाव पर इतना धन - बल लुटाया गया । उन दिनों उनके समर्थकों का एक गिरोह हर समय सक्रिय रहता था । दिन हो या रात, यह गिरोह हर समय जागता रहता था । किसी ने कोई स्टेटस पोस्ट किया नहीं, बिना एक भी सेकेण्ड गंवाए ये जांबाज़ गुरिल्ले अपना खोटी जी के समर्थन वाला लेख पेस्ट कर देते थे । ये इतने हिम्मती थे कि किसी के भी मेसेज बॉक्स में भी घुस जाया करते थे । कविता पोस्ट करो या कहानी, एक भी टिप्पणी नहीं मिले तब भी इनकी टिप्पणी हमेशा तैयार रहती थी, जिसमे ये खोटी जी को वोट देने की अपील करते थे । रोज़ाना हज़ारों नए फेसबुक अकाउंट खुल रहे थे । एक दिन में सैकड़ों फ्रेंड रिक्वेस्ट आतीं थीँ । इनमें से आधों के चेहरों पर खोटी ज़ी की शक्ल दिखतीं थीं और आधे रिक्वैस्ट के स्वीकार करते ही फ़ौरन मैसेज बॉक्स में कमल का फूल लिये प्रकट हो जाते थे । कुछ मित्र लोग चैट पर मिलते , हम पूछते 'कैसे हो यार' ? वे कहते 'अबकी बार खोटी सरकार '। हम सिर धुन लिया करते । फेसबुक विचारों की अभिव्यक्ति का माध्यम न रहकर इन बेचारो की अंधभक्ति का माध्यम बन चुका था । 

इन दिनों अच्छा - खासा सामान्य इन्सान भी असामान्य किस्म का व्यवहार करते हुए पाए जा रहा था । हर चर्चा में वह चुनावी चर्चा को कहीं न कहीं से ले आता था । शादी - ब्याह, जन्म -मृत्यु , नामकरण, सगाई हो या अन्य कोई अवसर हो, चाहे कहीँ सफ़र कर रहे हों, या किसी प्रकार की लाइन मे लगे हों, सब जगह एक ही चर्चा चला करती थी ,' वे पी एम बनेंगे या नहीं '। उनसे ज़्यादा तनावग्रस्त उनके समर्थक रहा करते थे । उनके ये अंध भक्त कहीं भी, किसी भी दिशा से प्रकट हो जाते थे । गली, कुञ्ज, सड़क, पान की दुकान, चाट के ठेलें, उत्तर, दक्षिण, पूरब, पश्चिम, आकाश, पाताल कहीं से भी प्रकट हो जाते थे । अक्सर वे बहुत घबराए हुए रहते थे । तनाव के कारण बीड़ियों पर बीड़ियाँ फूंक दिया करते थे । गुटखों के पैकेट एक बार मे ही मुंह मे उड़ेल देते थे । उनके सहकर्मी और मित्र जो दूसरी पार्टी के समर्थक थे, उनके साथ पान मसाला और सुर्ती से लेकर तम्बाखू तक शेयर करना उन्होंने छोड़ दिया था । बरसों का दोस्ताना एक झटके में तोड़ने मे उन्हेँ ज़रा भी तकलीफ महसूस नहीं हुई । उनके द्वारा उंगलियां चटखाने की आवाज़ें एकाएक ज़्यादा सुनाई पड़ने लगीं । बार - बार पहलू बदलते रहते फ़िर भी उनका चित्त शान्त नहीं हो पाता था । रात को नींद की गोलियां लिये बगैर सोना उनके लिये बेहद मुश्किल हो गया था । अगर भूल से भी उनके सामने दूसरी पार्टी का नाम लिया जाता था तो वे भयानक क्रोधित हो जाते थे । मन ही मन श्राप दिया करते थे । दूसरी पार्टी का हर नामलेवा को उन्होंने अपना परम शत्रु मान लिया था । मुस्कुराना तो दूर की बात, उनसे हाथ मिलाने से भी वे कतराने लगे थे । 

इस ड़र से कि कहीं विरोध का कोई बिन्दु छूट न जाए, अक्सर छुट्टियों पर रहने वाले महानुभाव भी इन दिनों छुट्टियां भी नहीं ले रहे थे । फ्रेंच लीव मारने वाले और सदा देर से आने वाले भी रोज़ कार्यालयों मे समय से पहले उपस्थिति दे रहे थे । चुनावी चर्चा में उनका योगदान कहीं कम न हो जाए, इसका तनाव उन पर बुऱी तरह से हावी होने लगा था । सरकारी दफ्तरों में काम - काज तेजी से निपटाए जा रहे थे ताकि उनके लिये सीटों का गणित लगाने के लिये ज़्यादा से ज्यादा समय मिल सके । उन्हें घर जाने की भी जल्दी नहीं रह गयी थी । वे हर समय इस डर से घिरे रहते थे कि एक वोट भी इधर से उधर हो गया तो जाने क्या हो जाएगा । उन्हें इतना बौखलाया हुआ देखकर ऐसा लगता था जैसे आने वाले समय में भारत वर्ष में चुनाव बैन होने वाले हैं । 'आपका मत अमूल्य है' ऐसा पहले भी लोग कहा करते थे ',  लेकिन ज़िंदगी में पहली बार मुझे अपना मत इतना अमूल्य महसूस हुआ। शुक्रिया उनका और उनके भक्तों का । 

इन दिनों सबसे प्रसन्न कोई देश था तो वह था पाकिस्तान । भारत से अलग हो जाने के बाद शायद यह उसकी पहली खुशी थी । वैसे सामान्य दिनों मे लोग भारत - पाकिस्तान के बंटवारे को लेकर के नेहरू और गाँधी जी की नीतियों को दोषी ठहराया करते थे। परन्तु इन दिनों पाकिस्तान के अलग राष्ट्र होने से सभी पार्टियों को बहुत सुविधा हुई थी । भारत से ज़्यादा इन दिनों पाकिस्तान जैसे हमारे दिल में बस गया था । 
उनको वोट नहीं देने वाले को पाकिस्तान चले जाने को कहा जाता था । जो उनको टक्कर देने की सोचे वह पाकिस्तान का एजेँट कहलाता था । उनके खिलाफ बोलने वालों के लिये कह जाता था कि उन्हेँ पाकिस्तान पैसा दे रहा है । पाकिस्तान जब - जब यह सुनता, इन चुनावों को धन्यवाद देता कि ' धन्य भाग मेरे, जो मुझ पर भारत वाले इतना भरोसा कर रहे हैं,  इतना भरोसा मेरे देश वाले मुझ पर करते होते तो कितना अच्छा होता' । 
इस  चुनाव मे ऐसी हवा बह रही थी कि हर कोई अपने विरोधियों को देशद्रोही ठहराने को बेकरार हुआ जा रहा था । देशभक्ति का एक ही पैमाना बचा रह गया था । देशद्रोही का ठप्पा न लग जाए इसीलिये आम इन्सान उनकी पार्टी का समर्थन करने पर मजबूर हो गया था ।  

इन दिनों बस एक ही शहर चर्चा मे था । वह भाग्यशाली शहर था बनारस । भारत इतनी जनसंख्या शायद इसीलिये झेल जाता है क्यूंकि उसके चार नाम हैं । बनारस के भी तीन नाम इसीलिये पड़े होंगे जिससे कि वह वर्ष २०१४ में होने वाले चुनावों के दौरान देश - विदेश से आने आने वाली भारी भीड़ को झेल जाए । शहर में पत्रकार, नेता, समर्थक, पर्यटक तो थे ही, सबसे ज़्यादा भीड़ तमाशाइयों की थी । बनारस के नाम से ऐसा रस टपकता था कि जिसका स्वाद लेने के लिये देश - विदेश से लोग टूटे पड़ रहे थे । महीनों तक गाड़ियों में रिज़र्वेशन नहीं मिल रहा था । चारों धाम बनारस से रश्क खाने लगे थे । इतनी भीड़ किसी तीर्थ नगरी मे नहीं उमड़ रही थी जितनी कि बनारस में । इस भीड़ - भाड़ से बचने के लिये शहर के अधिकांश वोटर शहर से बाहर घूमने या अपने रिशतेदारों के घर चले गये थे । जो शहर में रह गए थे वे वोटर नहीं थे लेकिन दुनिया को वोटर होने का आभास दे रहे थे । पलक झपकते ही हर पार्टी के समर्थन मे उतनी ही भीड़ जुट जाती थी । आदमी अब आदमी नहीं बल्कि भीड़ या कहेँ कि भेङ में बदल चुका था जिसे हरा पत्ता दिखा कर जहाँ चाहे हांका जा सकता था । 

इन अति व्यस्त दिनों में हम लोग सपरिवार सारे पार्टियों की रैलियों में जाते थे । रैलियों में जाने के पैसे मिलती थे और खाना भी मिलता था । ये कान के सोने के टॉप्स मैने इन्हीं रैलियों मे जाकर जोड़ें हैं ।  कभी - कभी एक ही दिन मे चार - चार रैलियां हो जाती थीं, तब खासी मुश्किल का सामना करना पड़ता था । लेकिन हम भागते - दौड़ते सभी जगह पहुँच ही जाते थे । हम ही क्यों, हमारे सारे पङोसी, रिश्तेदार और जान  - पहचान वाले ऐसा ही किया करते थे । नेता भीड़ देखकर खुश हो जाते थे । सभी यह सोचते थे कि हमारा वोट उन्हेँ ही पड़ रहा है । किसी - किसी साल हम लोग उन रैलियों से मिले पैसों को इकट्ठा करके मतदान वाले दिन पिकनिक मनाने भीड़ - भाड़ से बोर होकर कहीं दूर चले जाया करते थे और वापिस आकर अपनी - अपनी उँगलियों पर नील से निशान बनाकर फेसबुक़ पर फोटो अपलोड कर देते थे । 


यह  समय गहन राज़ों के फ़ाश होने का भी था । माननीयों के नित नए रूप सामने आ रहे थे । लोग टी. वी. के सीरियलों बजाय मनोरंजन के लिये समाचार चैनलों का सहारा ले रहे थे । बालिका वधू हो या कपिल का कॉमेडी शो, सबकी टी आर पी समाचार चैनलों के मुकाबले औंधे मुंह गिर गयी थी । हम रोज़ उनके मुंह से हज़ारों करोड़ की बातें सुन रहे थे । आज से पहले इन आंकड़ों को हम इन्हीं सीरियलों में सुनते आए थे । टेलीविज़न के नकली मेकअप से पुते हुए कलाकारों के स्थान पर असल ज़िंदगी के कलाकारों की पूछ बढ़ गयी थी । लोगों की दिलचस्पी अठासी साल की उम्र मे पिता फिर दूल्हा बन रहे तिवारी जी, अढ़सठ की उम्र मे शादी का ऐलान करते दिलविजय सिँह, बचपन के रिश्ते को स्वीकार करते गोदी दी जी पर केन्द्रित हो गयी थी । उन दिनों उम्र मानो थम सी ग़ई हो । जिसकी जितनी ज़्यादा उम्र होतीं थीं उसका उतना ही बड़ा खुलासा सामने आ रहा था । 

दिन क्या थे, बिल्कुल सोने के से थे । पिछले दिनों हमें स्कूल से घर आने के लिये आसानी से लिफ्ट मिल जाया करती थी । हर लिफ्ट देने वाला गाड़ी मे बैठाने के पाँच मिनट के अन्दर अन्दर यह सुनिश्चित कर लेता था कि हमारा वोट सिर्फ़ गोदी ज़ी को जाना चाहिए।  दिनों सर्वत्र यह प्रचारित किया जा रहा था कि उनकी लहर है, उनका कहर है । उस लहर पर सवार होकर हम भी अक्सर समय से घर पहुँच जाते थे । इस चुनाव से पहले ऐसा नहीं होता था । तब लिफ्ट देने वाला जैसे ही यह जान जाता था कि हम सरकारी टीचर हैँ वैसे ही बात का रुख हमारी तनखाह और हमारे सरकारी नौकरी के मज़े पर मोड़ देता था और रोज़ के किराये से ज़्यादा पैसा वसूल किया करता था । लेकिन आहा वे दिन ! बहुत याद आते हैं । ''गोदी जी'' ही जीत रहे हैं सुन कर वे हमारे लिये गाड़ी का ए. सी. चालू कर देते थे । पैसे देने पर हाथ जोड़ कर कहते थे, '' बहन ! एक ही प्रार्थना है आपसे, अबकी बार खोटी सरकार '' । 

कभी - कभी धोखा भी हो जाया करता था । एक बार ऐसे ही लिफ्ट मांगने पर उनके द्वारा यह पूछे जाने पर कि ' किसकी हवा चल रही है आपके उधर ?' के जवाब में जब मैने पहले उनकी थाह जानने की गरज से कहना चाहा कि ' आप किसको वोट दे रहे हैं ?' लेकिन मैंने जैसे ही 'आप' कहा, उन्हें सैंकड़ों ततैयाएँ मानो एक साथ डंक मार गईं । उन्होंने हमें कार से नीचे उतार दिया । उस दिन हमें तपती दोपहरी मे बीच रास्ते मे घंटो तक ख़ड़े होकर बस का इंतज़ार करना पड़ा था । उस सुलगते हुए दिन मुझे पार्टी का नाम 'आप' होने पर क्रोध और क्षोभ साथ - साथ हुआ था ।

इन दिनों बीमार लोगों ने भी अपनी अपनी बीमारियों की चर्चा वोटिंग काल तक स्थगित कर दी थी ।किसी  बीमार का हाल पूछने जाओ तो वह भी यही कहता था ' किसकी सरकार बनाने जा रहे हो '? मानो सरकार बनाना आम आदमी के हाथ मे जैसे । हांलाकि कहा यही जाता है लेकिन असल में ऐसा होता नहीं है । सरकार बनाते समय जो कुछ होता है उसमे जनता की इच्छा के अलावा सब कुछ होता है । बीमार अपने ब्लडप्रेशर, शुगर और दवाइयों की चिन्ता के बजाय सरक़ार के गठन की चिन्ता मे घिरे हुए पाए गए । इस काल में बीमारों ने स्वयं को काफी बेहतर महसूस किया, और डॉकटरों के क्लीनिकों मे मंदी क़ी मार छाई रही । घरवाले शुक्र मनाते और प्रार्थना करते ' काश, कुछ दिन और गुज़ारते ये चुनाव मे '।   

वे जो इन सबके केंद्र बिंदु थे, उनकी कथा उनकी और उनके समर्थकों की तरह ही अनन्त थी । 'भाइयों और भैनों' से बात शुरु करना इनकी आदत थी । ये देश के जिस कोने मे भाषण देने जाते थे, एक बात कहना कभी नहीं भूलते थे 'मेरा इस जगह से पुराना रिश्ता रहा है', या ' मैं आया नहीं हूँ, मुझे बुलाया गया है'। वे सच ही कहते थे । उन्हें वाक़ई ऊनके समर्थक बुलाया करते थे 'कि साहेब, एक बार आकर रोड शो कर जाइये, आपकी हालत जरा पतली लग रही है' । 

एक लड़की के लिए पूरी सरकारी मशीनरी को दौड़ाने वाले और हर चुनावी क्षेत्र से अपना पुराना रिश्ता जोड़ने वाले को सिर्फ अपनी पत्नी से ही रिश्ता स्वीकारने मे लगभग चाळीस दशक लग गए । इससे इस विचार को बल मिलता है कि सच्चा नेता वही होता है जो ' विश्व बंधुत्व का मतलब अच्छी तरह से जाने और अपने भाई के अलावा सारी दुनिया को भाई माने '। 

बीते कुछ महीनों को निश्चित रूप से भारत के स्वर्णकाल की संज्ञा दी जा सकती है ।  यूँ लगता था जैसे इस विशाल देश मे अब कोई समस्या हीं नहीं रही । अगर कोई समस्या है तो बस खोटी जी के जीतने की । जनता अपने समस्त दुःख - दर्द भूल चुकी थी । हर जगह चुनाव, चुनावी गणित, जातियों के समीकरण, सीटों के पूर्वानुमान, मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण, हिन्दुओं के वोटों का बंटवारा, निर्दलीयों का रुख, आम आदमी का रूझान, आप पार्टी को गालियाँ, बस यही सुनायी पड़ता थीँ ।    

इन चुनावों के दौरान अम्बानी को अडानी साथ मिला । अभी तक भारत के लोगों को टाटा के साथ बिरला कहने मे सुविधा होती थी लेकिन उनके साथ अम्बानी कहने में अच्छा तुक नहीं बैठता था । अब अम्बानी के साथ अडानी बोलने मे जनता को बडी सुविधा हो गई । वे हमारे सामान्य ज्ञान मे अभूतपूर्व बढ़ोत्तरी कर रहे थे । रामायण में रोज़ एक नया अध्याय जुड़ रहा था । किसने किसको कितने रूपये फुट के हिसाब से कहाँ कहाँ ज़मीन बेची है, हमेँ उनके द्वारा पता चल रहा था । अगर ये चुनाव नहीं होते तो हम जानकारी के लिहाज़ से कितने पिछड़े रह जाते । किस - किसके रिश्तों की ड़ोर कहां कहां उलझीं हुई है, जैसी राष्ट्रहित के लिए अति महत्वपूर्ण जानकारियां हमें इसी दौरान प्राप्त हुईं । 

हमने यह भी घर बैठे - बैठे ही जाना कि किसके शासनकाल में कहाँ - कहाँ और कितने दंगे हुए और उन दंगों के पीछे प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से किसका हाथ था । हमें यह भी पता चला कि कई विदेशी मुल्क, जिन्हें हम अपना जानी दुश्मन समझते हैं, वे भारत से बेहद प्यार करते हैं । कई विदेशी फाउंडेशन भी भारत के चुनावों में बहुत रूचि लेते हैं और इस महापर्व में अपना पैसा लगा कर पुण्य बटोरते हैं । किस समाचार चैनल में किस उद्योगपति का कितना पैसा लगा है, यह बताने वाले हमें इसी चुनाव के दौरान मिले । 

इन  दिनों जो नारे लगते थे, उनके भी एक अलग ही सुर था, अलग ही ताल थी । हमें दिन में कई बार कहा जाता था ' अच्छे दिन आने वाले हैं' । हमने कई दिनों तक इंतज़ार किया अच्छे दिनों का । लेकिन अच्छे दिन जब कहीं थे ही नहीँ तो आते कहां से ? अलबत्ता उनके अच्छे दिन ज़रूर आ गए । वैसे भी उन्होंने ये थोड़े ही कहा था कि जनता के अच्छे दिन आने वाले हैं । यह तो जनता खुद ही गलतफहमी पाल बैठी थी । दूसरी पार्टी वालों का नारा था ' कट्टर सोच नहीं, युवा जोश '। इसमें मुश्किल यह थी की जिस चेहरे को बार - बार दिखाया जाता था, अंत तक उसे जनता किसी भी हालत में युवा मानने को तैयार ही नहीं हुई । 

बहुत याद आएंगी वो चाय की चौपालें, जिनमें आने वालों को सुबह से शाम तक वही चायपत्ती उबाल - उबाल कर ही सही, चाय पिलाई तो जाती थी । 

याद आएँगे वे अंडे, टमाटर, स्याही, जो उछाले जाते थे खास पार्टी वालों पर जो मन ही मन खुश हो रहे थे कि इतनी जल्दी यह नौबत आ गयी, वरना तो सालों साल लग जाते हैं ढंग के विरोधी बनने और बनाने में ।  

इस चुनाव की बहुत याद आएगी । इसकी ज़ुबानी जंग की, आरोपों, प्रत्यारोपों की , वार, पलटवारों की । एक दूसरे को बस माँ - बहिन की गालियां ही सरेआम नहीं दी जा रहीं थीं, बाकी सारे अपशब्दों का प्रयोग धड़ल्ले से हो रहा था ।  

यह चुनाव कभी भुलाया नहीं जा सकेगा मीडिया की रोचक रिपोर्टिंग के लिए जिसके कारण मुझे अपने कॉलेज के दिनों के चुनावों की याद ताज़ा हो आई । हमारे कॉलेज में छात्रसंघ के लिए मतदान वाले दिन, जब मतदान शुरू हुए पाँच भी नहीं बीते होते थे, नेताओं के समर्थक झुण्ड बनाकर हर बूथ  ज़ोर - ज़ोर से चिल्लाते थे ' फलाने - फलाने दस हज़ार वोटों से आगे '। तब कॉलेज में पांच हज़ार विद्यार्थी भी नहीं होते थे ।

अलविदा चुनाव २०१४ .... बहुत भारी मन से अलविदा । 

7 टिप्‍पणियां:

  1. आज की ब्लॉग बुलेटिन लोकतंत्र, सुखदेव, गांधी और हम... मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ...

    सादर आभार !

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  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
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    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज शुक्रवार (16-05-2014) को "मित्र वही जो बने सहायक"(चर्चा मंच-1614) में अद्यतन लिंक पर भी है!
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    मातृदिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. वाह बहुत बड़िया
    अबकी बार खोटी जी की सरकार :)

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  4. वाह ! क्या जोरदार लेखा-जोखा प्रस्तुत किया है आपने चुनावों का..बहुत बहुत बधाई !

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  5. shaifaliji bahut hi badhiya vyng likha hai aapne .sare phluo ko bahut achhe se chitrit kiya hai
    abhar

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