शनिवार, 30 जनवरी 2010

इतनी असंवेदनशीलता

कल  बस से उतरते समय मैं  अपने बाकी पैसे कंडक्टर से मांगने की जुर्रत कर बैठी, जिसकी एवज में वह मेरे साथ इतनी बदतमीजी से पेश  आया , कि  अपमानित महसूस करने के साथ - साथ  मैं एकबारगी  हैरत में पड़ गई, और सोच में डूब गई कि क्या  मैं अपने ही राज्य की बस में बैठी हूँ, उसी राज्य की,  जिसकी मैं भी एक  कर्मचारी हूँ, और वह कंडक्टर भी. 

 पिछले कई सालों से मैं यह देख रही हूँ कि  उत्तराखंड परिवहन की बसों के कतिपय ड्रायवर और कंडक्टर अपने यात्रिओं, खासतौर से  महिला यात्रिओं के प्रति बेहद अपमानजनक और असंवेदनशील रवैय्या अपनाते हैं, ये बसों को अपनी निजी संपत्ति समझते हैं , और विभाग को अपनी जागीर. ये इतने निरंकुश हो चुके है कि  इन्हें ना अधिकारियों का भय सताता  है, ना आम जन के गुस्से  का खौफ. ये स्टेशन  निर्धारित होने पर भी टिकट बनाने में आनाकानी करते हैं. मनचाही जगहों पर बसों को रोक देते हैं, और जहाँ रोकने को कहा जाए, वहां नहीं रोकते हैं. स्टेशन पर ना रोक कर एक या दो किलोमीटर आगे या पीछे रोकने में अपनी शान समझते हैं , जिससे यात्रिओं को असुविधा हो . प्रतिवाद करने पर व्यंग्यात्मक और अपमानजनक भाषा  का प्रयोग करते हैं, ताने मारते हैं, धौंस दिखाते हैं , खुलेआम चुनौती देते हैं, कि जो करना है कर लो, हम ऐसा ही करेंगे , और ऐसी ही  भाषा का प्रयोग करेंगे , गोया सारा विभाग इनके हाथों की कठपुतली हो . सर्वाधिक अफसोसजनक बात यह है कि, घर और बाहर दोनों का दायित्व संभालने वाली  कामकाजी महिलाएं इनके ऐसे कटु व्यवहार को खून के घूँट पीकर भी सहने को मजबूर हैं, क्यूंकि वे अपने रोज़गार के लिए पूर्ण रूप से इन्हीं बसों पर आश्रित हैं. ये बात - बात पर बस से उतारने की और आइन्दा से बस को ना रोकने धमकी देते हैं, इनके ऐसे शर्मनाक व्यवहार से रोजाना दूर - दराज की यात्रा करने वाली महिलाओं का मानसिक उत्पीडन होता है, जिसका असर कार्यक्षेत्र के साथ - साथ उनके घरेलू जीवन में भी पड़ता है. 

ये कंडक्टर आम जन के साथ जानवरों से भी बदतर सुलूक करते हैं, बिना मांगे टिकट  के बचे हुए पैसे वापिस नहीं करते , और मांगने पर गुस्से के कारण आपे से बाहर हो जाते हैं.  पूरी बस को खाली ले जाना उचित समझते हैं, लेकिन आम यात्री को इसकी सुविधाओं का फायदा मिले, इससे उन्हें कोई सरोकार नहीं है,
 
आम यात्री इनको रोकने के लिए यदि सड़क के बीचों बीच भी लेट जाए, तो ये महानुभाव एकबारगी उन्हें कुचलते हुए आगे बढ़ जाएंगे, लेकिन बस को रोकना गवारा  नहीं  करेंगे. 

  ऐसी शर्मनाक  परिस्थिति देखकर बार - बार ना चाहते हुए भी यह विचार मन में आ जाता है कि क्या इस प्रकार के  अपमानजनक दिनों को रोज़ झेलने के लिए  दिन के लिए उत्तराखंड की आम जनता ने पृथक  राज्य की स्थापना के लिए लड़ाई लड़ी थी?  लेकर  कुर्बानियां दी थीं? महिला शक्ति ने कंधे से कन्धा मिलाकर राज्य की परिकल्पना को साकार करने में अपना योगदान दिया था?  जिस राज्य में आम जनता को रोज़ खून के आँसू पीने पर मजबूर होना पड़े उस राज्य का  क्या फायदा ?क्या सरकार मात्र लाल बत्तियां बाँटने और कुर्सियां भेंट करने  का ही नाम होता है ? जिसे आम जनता की सुविधा - असुविधा से  कोई सरोकार नहीं हो, ऐसी सरकार कितनी ही ईमानदार यी पारदर्शी क्यूँ ना हो, जनता के किस काम की ?

बुधवार, 27 जनवरी 2010

शुक्रगुज़ार हूँ मैं

अरी जनवरी ! मैं जानती हूँ कि बड़े  लोगों पर तेरा बस नहीं चलता है,  इसीलिए तू  हर बार की तरह इस बार भी  मुझे कंपकंपाने के लिए आ  ही गई.
 
 लेकिन इस बार तो तुम्हारा आना सबको वरी कर गया, तुम्हारे आगे बसंत की  तक  दाल नहीं गली .  लेकिन जनवरी ! मैं तो  बिना जाड़े के  यूँ ही  कांपती रहती हूँ,  क्यूंकि आजकल जिस दुकान मैं जाती हूँ वहीं बड़े - बड़े अक्षरों में लिखा हुआ ''उधार प्रेम की केंची है '' टंगा रहता है,,इस  अगाध  प्रेम पर केंची चलाने की हिम्मत आज तक नहीं बटोर नहीं पायी . फिर यह सोचकर   कांपने लगती हूँ  कि आज माननीय शरद पवार जब  मुँह खोलेंगे तो क्या बोलेंगे? और उनके मुखारबिंद से निकले वचनों  को सुनकर आटा, दाल और चीनी  जाने किस ऊँचाई  पर जाकर रुकेंगे. बिना डाइबीटीज़ के दाल, चावल और चीनी  तो छोड़ ही चुकी हूँ, अब निकट भविष्य में और क्या क्या छूटने वाला है, यह ज्योतिषी ना होते हुए भी मैं बता सकती हूँ.
 

ठण्ड ज्यादा लगने लगती है तो ध्यान हटाने के लिए टी. वी. खोल कर बैठ जाती हूँ, लेकिन वहां भी निजात नहीं मिलती. डी. एल. एफ. क्रिकेट के धुआंधार विज्ञापनों ने फिर से  सिहरन पैदा  कर दी. स्कूल , कोलिज, दफ्तर , शहर , क़स्बा और गाँव , कोई इससे नहीं बच पाता है.   सुना है  स्वाइन  फ्लू का टीका ईजाद हो गया  है,.जिस  कोई वैज्ञानिक  क्रिकेट फ्लू  का टीका ईजाद कर लेगा वह दिन स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा.

 

 सोचा अखबार ही खोल कर देख लिया जाए, जैसे ही पहला पन्ना खोला मैं पश्चाताप से कांपने लगीफ्रंट  पेज पर बड़े बड़े अक्षरों में छापा हुआ था, धूप सेंकनी है तो पहाड़ आइये, उन्हीं पहाड़ों पर, जिन्हें वर्षों पहले ठन्डे, बंजर और पिछड़े कहकर औने पौने दामों में बेच आये  थे, और मैदानों में बड़े - बड़े बंगले बना लिए थे, अब वहां रेसोर्ट बने हुए हैं और धूप हमें मानो मुँह चिढ़ा   रही हो, ''और जाओ मुझे छोड़ कर, अब गर्मियों में ठंडक के लिए और जाड़ों में धूप सेंकने के लिए पैसे खर्च  करके आओ''

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सोचा पिक्चर  देख ली  जाए, आजकल थ्री   ईडियट   का बहुत  नाम  सुनने  में आ रहा  है, पिक्चर देखती जा रही थी और   भविष्य की आशंका  से कांपती जा रही थी . क्यूंकि  मुझे याद  रहा था , जब तारे ज़मीन पर रिलीज़ ,हुई थी ,तब क्या स्कूल क्या घर , ज़रा सा ऊँचा बोलने  पर छोटे से छोटा  बच्चा भी दहाड़ उठता था ''तारे ज़मीन पर नहीं देखी क्या ?''   अब इसे देखकर जाने

 वीरू सस्त्रबुद्धे जैसों का क्या हाल करेंगे ये भविष्य के कर्णधार ?    और अगर बच्चे ऐसे पैदा होने लगे ,जैसे पिक्चर में पैदा हुआ था, तो उन डॉक्टर्स का क्या होगा जिनकी महंगी - महंगी  दुकानों का खर्चा   ऑपरेशन द्वारा बच्चे पैदा करने की बदौलत  ही चलता है ?

 

 

मेरे पास तो कांपने के लिए आये दिन के शिक्षा व्यवस्था को सुधारने संबंधी  सरकारी फरमान ही काफ़ी थे , कि खराब रिज़ल्ट देने वालों  मास्टरों पर शिकंजा कसा जाएगा ,उनका  इन्क्रीमेंट रोक कर उनको दूर किसी गाँव में पटक दिया जाएगा .आजकल  अखबार देखकर पता नहीं चलता है सरकार अपराधियों के बारे में बयान दे रही है या अध्यापकों के बारे  में.     

 

  इतना सब होने पर भी  हे जनवरी ! मैं तेरी शुक्रगुज़ार हूँ क्यूंकि ........

 

  कल को गर्मी सारे  रिकोर्ड तोड़ दे तो मुझ पर ग्लोबल  वार्मिंग बढाने का इलज़ाम ना आ जायेइसलिए जब मैंने घर में आग सेंकने के लिए डरते - डरते अलाव जलाया तो पहली बार घर के सभी लोग  अपने अपने कमरों से बाहर निकल कर आग सेंकने के लिए इकठ्ठा हुए, उस अलाव की गर्मी से दिलों  जमी हुई  अलगाव  की बर्फ और कड़वाहट  पिघल  गईं . उसी में  खाना भी बन गया , और तेरे ही कारण पहली बार मेहमानों ने पूरे  महीने  मेरे घर का रूख नहीं किया ,  घर का बजट  घाटे में नहीं गया, और मैं पहली बार ऋण लेने से बची रह गई .

 

 ठण्ड के कारण  पहली बार हथेलियाँ एक दूसरे के नज़दीक आईं, बिना घूस खाए हथेलियों को  गरम होने का मौक़ा मिला  . कई अवसरों पर हथेलियों को आपस में रगड़ने के कारण लोगों को  नमस्कार का भ्रम हो  गया , अनजाने लोगों से राह चलती जान पहचान हो गई, और नए नए रिश्ते बन गए.

 

कान को  गरम रखने  के उपकरण यानी ''एयर वार्मर'' लगे होने के कारण  स्कूल में बच्चों के कानों को अभयदान मिल गया और हमें घर में बच्चों की फरमाइशों को अनसुना करने का बहाना मिल गया. 

 

 तेरे कारण ही तीन लोगों की सीट जिस  पर पहले से ही पांच बैठे होंउस बस मेंबिना मुँह बनाए  जगह मिल जाती है

 

 मैं धन्यवाद देती हूँ जनवरी, कि धूप के कारण ही सही, मुझे  भूले - बिसरे पहाड़ की याद तो आयी.

 

स्कूल बंद हो जाने के कारण मासूम दुधमुंहे कड़कती ठण्ड में घर से बाहर जाने से बच गए. उन्हें  अपनी - अपनी माओं के समीप रहने का सुनहरा  मौका इस ठण्ड के ही कारण मिल पाया .

 

 कोहरे के कारण ही सही, बस, कार, ट्रेन समेत समस्त वाहनों की  गति  कम तो हुई,  सबसे बढ़कर आदमी की रफ़्तार  थोड़े समय के लिए ही सही ,रुक तो गई. 
 

 

 

रविवार, 24 जनवरी 2010

परिवर्तन की सुखद बयार

 कई सालों के बाद कानपुर जाना हुआ तो स्टेशन पर उतरते ही सुखद अनुभूति हुईसबसे  पहले नज़र पड़ी  जगह -जगह रखे हुए  बड़े-बड़े कूड़ेदानों पर  जिन पर 'परिवर्तन' लिखा हुआ था|  जानने की  उत्सुकता बढ़ी कि यह कौन सी संस्था है जो सरकारी प्रयासों से इतर शहर व स्टेशन को साफ़-सुथरा रखने में अपना सहयोग प्रदान कर रही है?  जैसे-जैसे शहर  की ओर बढ़ते गए कई और परिवर्तन दिखाई  दिए, मसलन साफ़-सुथरी सड़कें, सड़कों  के किनारे  रखे  हुए कूड़ेदान, डिवाइडरों पर जगह-जगह करीने से लगे हुए पेड़-पौधे और हरियाली, पैदल चलने वालों  के लिए  चौड़ा  सा फुटपाथ और आश्चर्यजनक रूप से सही सलामत स्ट्रीट-लाइटें, जो कई साल पहले स्वप्न सदृश्य हुआ करतीं थीं

जो शहर कुछ साल पहले देश के सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में से एक था; जिसमें  जगह - जगह गन्दगी का साम्राज्य हुआ करता था; जहाँ-तहाँ डोलते हुए सुअर न केवल गन्दगी फैलाते थे अपितु जन-सामान्य का जीना  भी दुश्वार किये रहते थे; जहाँ सड़कों में गड्ढे हैं कि गड्ढों  में सड़कें, पता लगाना मुश्किल होता थाशाम होते ही जो शहर अँधेरे में डूब जाया करता था, आज उसकी बदली हुई  सूरत देखकर हैरानी के साथ-साथ ख़ुशी भी हुई

सुबह-सुबह ज़ोर की सीटी की आवाज़ से नींद  खुली| बाहर आने पर देखा तो परिवर्तन  का कर्मचारी कूड़ा-गाड़ी लिए हुए खड़ा है और कूड़ा मांग रहा है| पूछने पर पता चला कि संस्था लोगों के घरों से कूड़ा इकठ्ठा करवा कर, उसका उपयुक्त जगह पर निस्तारण करने की व्यवस्था करती है| बदले में आपसे वे मात्र तीस या पचास रूपए लेती है, जो आप  और आपके घर के आस-पास को साफ़-सुथरा रखने की एवज में बहुत मामूली सी रकम हैसंस्था के सदस्य अगर आपको सड़क पर कूड़ा या कागज़  का छोटा सा टुकड़ा भी  फेंकते हुए देख लेंगे तो निश्चित रूप से आप कितनी ही बड़ी गाड़ी में बैठे हों या कितने ही बड़े पद पर आसीन होंउनकी फटकार खाने से नहीं बच पाएंगे.

एलन फॉरेस्ट के विस्तृत क्षेत्र  में बनाये  हुए  चिड़ियाघर में घूमने गए तो वहां भी संस्था के प्रयासों को देखने का अवसर प्राप्त हुआ| अब वहां कोई पॉलिथीन के थैले लेकर नहीं जा सकता| ये रंग-बिरंगे थैले कुछ वर्ष पूर्व  बंदरों  को अपनी ओर  आकर्षित  करने का माध्यम हुआ करते थे| परिणामस्वरूपकई लोग  बंदरों  के हमलों  से चोटिल  हो जाया  करते थे| लेकिन अब परिवर्तन के कर्मचारी कपड़े का एक बड़ा सा  बैग देते हैंजिसमें  आपको अपने समस्त पैकेट-बंद खाद्य पदार्थों को खाली करना होता हैइतना सब करने पर ही आप अन्दर जा सकते हैं|

संस्था के विषय में और जानने की उत्सुकता बढ़ती गई| आपसी बातचीत में पता चला कि इस संस्था का निर्माण इसी उद्देश्य से किया गया है कि कानपुर वाले कनपुरिये कहलाने पर गर्व महसूस कर सकेंइस अभियान में आई. आई. टी. के इंजीनियर, बड़े-बड़े व्यवसाई, लब्ध प्रतिष्ठित डॉक्टर्स और कतिपय नेतागणयहाँ  तक कि जन-सामान्य भी अपना पूरा सहयोग प्रदान कर रहा है| संस्था,   समय - समय पर   सरकारी कर्मचारियों और जन प्रतिनिधियों से जवाब-तलब करती है, और  सरकारी पैसों का बराबर हिसाब मांगती है

संस्था के कुछ समर्पित सदस्य विभिन्न अवसरों पर शहर के विभिन्न विद्यालयों में जाते हैं और बच्चों के  अन्दर, जो आने वाले कल को देश और शहर की बागडोर संभालेंगे, ज़िम्मेदारी का भाव भरने का प्रयास करते हैं| वे प्रयास करते हैं कि भावी पीढ़ी देश   दुनिया  के महापुरुषों एवं  उनके अविस्मरणीय योगदानों के विषय में जाने और उनसे प्रेरणा लेकर देश व समाज को नई दिशा देने की सोच अपने दिलो-दिमाग में विकसित करें| कोई भी शहर उसमें  निवास करने  वालों से बनता हैऐसी कोई भी समस्या नहीं होती जिसे आपसी सहयोग से हल न किया जा सके| बस ज़रुरत अपने अधिकारों के साथ-साथ कर्तव्यों को पहचानने की होती है| इस जज़्बे को  अपनी कानपुर यात्रा के दौरान मैंने परिवर्तन और उसके सजग कार्यकर्ताओं के अन्दर देखा|

मैं भविष्य  के प्रति  आशा  से भर  जाती  हूँ, और कल्पना  करती हूँ  उस  दिन  की जब  देश का हर नागरिक अपनी  समस्याओं के लिए किसी को भी कोसने के बजाय अपने शहर और देश के प्रति  अपनी ज़िम्मेदारी को समझेगा और आने वाली  पीढ़ी  को एक  स्वस्थ और स्वच्छ सन्देश देगा| 

 

रविवार, 10 जनवरी 2010

दिसंबर माह की महिमा

साथियों, दिसंबर का महीना बीत चुका है ,इस महीने की बीतने से मेरा मन उसी प्रकार  दुखी है जिस तरह देश भर के शिक्षक अपने  स्वर्णकाल के समाप्त होने से ज्यादा  , सिब्बल युग के अविर्भाव के कारण दुखी हैं. मेरे पास इस माह का गुणगान  करने के लिए उसी प्रकार शब्द नहीं हैंजिस प्रकार स्टिंग ऑपरेशन में पकड़े जाने पर माननीय आँध्रप्रदेश के भूतपूर्व राज्यपाल के पास अपनी सफाई में कुछ भी कहने के लिए शब्दों का टोटा पड़ गया था

 

इस महीने से मेरा जुड़ाव अकस्मात् ही नहीं हुआजबसे मैंने सरकारी नौकरी का दामन थामा है, तभी से मेरे ज्ञान चक्षुओं ने विस्तार पाया और इस महीने के प्रति मेरे मन में अनुराग उत्पन्न हुआ . प्राइवेट  नौकरी वाले इस महीने के महत्त्व को उसी प्रकार नहीं समझ सकते .

 

साथियोंकवियों  और लेखकों की नज़रों में बसंत के अलावा और कोई मौसम, मौसम कहलाने योग्य ही नहीं है, उन्होंने  इस माह की उपेक्षा वैसे ही की जैसे आटा -  दाल और चीनी के  बढ़ते हुए दामों से हलकान  जनता की टूटी कमर  की  वर्तमान  सरकार  ने.

 

साथियो, यही वह महीना है जब जाड़े की  ऋतु  अपने पंख फैला चुकी  होती  है ,और हमारे जैसे सरकारी कर्मचारियों को बची - खुची छुट्टियों   की उसी प्रकार  याद आ जाती है जिस प्रकार चुनावों के  समीप आते ही नेता  को  यकायक जनता की सेवा करने की याद आ जाती  है.

     

दफ्तर और स्कूलों से कर्मचारियों की उपस्थिति उसी प्रकार कम हो जाती है जिस प्रकार कोपेनहेगेन  में हुए  जलवायु परिवर्तन के  सम्मलेन से विकसित देशों की. स्कूलों में बच्चे जाड़े के कारण  पत्ते की तरह कांपते हैं, और  हम मास्टर लोग घरों में ठाठ से  आग तापते हैं. दफ्तरों में जाने पर आम जनता उसी प्रकार अपना सिर धुनती है जिस प्रकार कसाब के नित नए बयानों को सुनकर उसे पकड़ने  वाली पुलिस, कि किस कुघड़ी में इस पर नज़र पड़ी थी. काश!  इसके बदले किसी आम आदमी को पकड़ लाए होते तो कबके अपराध क़ुबूल  कर चुका होता,और फांसी पर झूल चुका होता.

 

 

साथियों, यही वह महीना होता है जब कर्मचारियों की छुट्टियों का अक्षय पात्र ,  मंत्रियों के  विवेकाधीन कोष   की तरह खुल जाता हैपिछली सारी छुट्टियों  पर  लीपापोती करने के लिए सब उसी प्रकार से एकजुट हो जाते हैं जिस प्रकार   विवेकाधीन कोष  के दुरुपयोग का भांडा फूट जाने समस्त मंत्रीगण, मंत्रीमंडल को बचाने  के लिए कंधे से कन्धा मिला लेते हैं.

              

   साथियों, यही वह माह - ए - कलह होता है, जिसमे अधिकारियों और कर्मचारियों के बीच की खाईअमीर  और गरीब के बीच सदियों से चली आ रही खाई से भी ज्यादा गहरी हो जाती है, साल भर वह कर्मचारियों के साथ उसी प्रकार घुला मिला रहता है जिस प्रकार  भारत के नक़्शे में दिल्लीलेकिन इस महीने के आते ही अंडमान - निकोबार बनकर अपनी कुर्सी दूर कर लेता है, और छुट्टी  की अर्जियों  के अम्बार को फटी - फटी आँखों से  ऐसे देखता है, जैसे गरीब आदमी आजकल दुकानों पर टंगी हुई राशन के दामों की  लिस्ट को देखता  हैअर्जियों पर  हस्ताक्षर करते हुए  वह इस प्रकार डरता है  ,जैसे परमाणु अप्रसार संधि पर उससे जबरदस्ती हस्ताक्षर करवाए  जा रहे हों. 

 

कुत्ते के काटने से लेकर यात्रवाकाश तक .नाना प्रकार की छुट्टियाँ वातावरण में दिखाई पड़ती हैं,  कर्मचारी   गण छुट्टियों से सम्बंधित सरकारी आदेशों की प्रतियों को लाने में  एक ऑफिस से दूसरे ऑफिस यात्रा करने में व्यस्त रहते हैं. यात्रवाकाश नामक छुट्टी  अधिकतर अपने घर में एक कमरे से दूसरे कमरे तक यात्रा करके बिताई जाती है, लेकिन वर्णन ऐसे किया जाता है जैसे कि बिलकुल अभी - अभी शहर पहुंचे हैं, और  कर्तव्यनिष्ठ  इतने हैं कि बिना हाथ - मुँह धोए  सीधे दफ्तर चले  आ रहे  हैं, प्रमाण के तौर पर थका हुआ चेहरा, अस्त - व्यस्त , तुड़े -  मुड़े कपड़े,  एक आध बैग और पड़ोसी से मांग कर लाया हुआ टिकट  भी  सुबूत के तौर पर कईयों के  हाथ में  दिखलाई देता  हैऔर हर कर्मचारी को उसके दर्शन करवाए जाते हैं.,    घर पर आग सेंकते - सेंकते चिंगारी से जल जाने की घटना को रास्ते पर हुए एक्सिडेंट से जोड़ कर जीवंत बनाने  की भरपूर कोशिश की जाती है. 

 

इस  माह  कर्मचारियों  के दाँत ठण्ड से किटकिटाते हैं ,और  अधिकारियों के  क्रोध से. अधिकारीयों को ठण्ड लगते ना कभी देखा गया और ना कभी सुना गया , कुर्सी से निकलने वाली गर्मी किसी भी तरह की ठण्ड को काटने की सामर्थ्य रखती है . वह तरह तरह के आदेश निकलवा कर कर्मचारियों के साल भर तक लगाए हुए  छुट्टियों के गुणा भाग के गणित को काटता चला जाता है, शुक्र, शनिचर और इतवारों की गणना  के  बीच वह राहू - केतु  बनकर कुण्डली मार कर बैठ जाता है,  लेकिन कर्मचारी भी  पुराने इतिहास के आधार पर नए - नए तोड़ निकाल कर उसके  आदेश की उसी तरह  धज्जियां उड़ाते हैं जिस तरह सपाई  आजकल  सपा की धज्जी उड़ा रहे हैं  .जो कर्मचारी साल - भर तक नियमपूर्वक सुबह - शाम अधिकारी के ऑफिस में सलाम बजाते हैं, उनकी अर्जियों पर  बिना देखे ही  उसी प्रकार  दस्तखत  हो जाते हैं   जिस प्रकार संसद में सांसदों, विधायकों की वेतन - वृद्धि और नाना प्रकार के भत्तों का बिल बिना किसी बहस के पास हो जाता है,

 

सरकारी नौकरी में आकर ही मैंने जाना कि छुट्टियों  को स्वीकृत ना  करना भी मानवाधिकार के हनन के  दायरे में आता है''छुटियाँ मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और में इसे लेकर  रहूँगा'' यह तो हर किसी की ज़ुबान पर जोर -शोर के साथ रहता  हैलेकिन  इस जन्मसिद्ध अधिकार को पाने में सफल वही होता है, जो सीधे अधिकारी के पास जाकर  सीना तान कर कहता है  ''तुम मुझे फ्रेंच लीव दो में तुम्हें अद्धा दूंगा ''