रविवार, 29 मार्च 2009

जीना मेरा हुआ हराम .....जबसे आया ये वेतनमान ...

कब हो जाती है सुबह

बीत जाती है कैसे शाम

जीना मेरा हुआ हराम

आया जबसे वेतनमान

 

हर कुर्सी, हर टेबल पर

एक ही टेबल रोज़ है होती

हर पेड़ के पीछे, हर डाली के नीचे  

एक समिति रोज़ है बनती

 

टीचर जोड़ तोड़ में व्यस्त हैं

बच्चे भूले सारा हिसाब

इस गुणा भाग के चक्कर में

कबसे खुली नहीं किताब

 

शिक्षा की तो उतर गयी है

देखो यारों कैसे पटरी

हर टीचर का चेहरा जैसे

बन गया है रुपये की गठरी 

 

वो देखो आए मिस्टर पैंतीस

है इनका मुखड़ा तीस हज़ारी

और इनकी  देखो चाल मस्त  

इनके आगे हर कोई पस्त 

पति - पत्नी दोनों के सत्तर

पड़ जाते हैं सब पर भारी

 

याद भी नहीं मुझको अब तो  

कितनी बार हुआ फिक्सेशन

सपने में भी नोट घूमते

दिमाग के टूटे सारे कनेक्शन  

 

हाय रे फूटी मेरी किस्मत !

 

जोर -शोर से आया था

दबे पाँव यह निकल गया

खड़ी थी सुरसा मुंह को फाड़े  

हनुमान बनके निकल गया  

हाथ में खाली बटुआ ले  

में बैठी हूँ ढोल बजा