सोमवार, 21 अक्तूबर 2013

खोदो न उन्नाव का यह गाँव बन्धु !

महाकवि '' निराला '' से माफी सहित ……

खोदो न महानुभाव यह गाँव बन्धु !
हंसेगा सारा उन्नाव बन्धु !

यह स्वप्न वही जिसे बिस्तर पर
हम देखा करते थे अक्सर
संतन की बातों में फंसकर
झोंक दिए क्यूँ लश्कर - लाव बन्धु !

खोदो न महानुभाव यह गाँव बन्धु !
 
वह स्विस बैंक में लुक - छुप रहता है
फिर भी जग की  आँखों में चुभता है
जेवर में सजता है, ईंटों में रहता है
झेलता है सबकी कांव - कांव बन्धु !

खोदो न महानुभाव यह गाँव बन्धु !        [मास्टरनी ]