रविवार, 18 अप्रैल 2010

शून्य के साथ मेरे प्रयोग

 

 

आजकल मैं बहुत व्यस्त हूँ | ऐसा  ना भी कहूं तब भी कोई फर्क नहीं पड़ता | इसमें आश्चर्यजनक बात सिर्फ इतनी सी है कि सरकारी टीचर होते हुए भी व्यस्त हूँ | इससे यह तो साबित हो गया कि व्यस्त होने का अधिकार सिर्फ प्राइवेट नौकरी वालों को ही नहीं हुआ करता हम भी व्यस्त  दिखने की भरपूर कोशिश करते हैं | व्यस्त दिखना सरकारी कर्मचारियों की मजबूरी होती  है | अगर वे व्यस्त ना दिखें तो लोग उन्हें हरामखोर समझते हैं |इन दिनों   ना तो मैं सानिया मिर्ज़ा की शादी की तय्यारियों   में व्यस्त थी ना हरिद्वार में ख़त्म हो चुके कुम्भ के मेले में अपने पाप धोने में | मैं व्यस्त थी रिज़ल्ट  बनाने में
 

रिज़ल्ट बनाना बहुत दुष्कर कार्य है | यह  लगता बहुत आसान है | इसको बनाने में उतनी ही कमरतोड़ मेहनत और  जोड़ - तोड़ और दांव पेचों  की ज़रुरत पड़ती है जितनी किसी नेता को गद्दी  पाने के लिए करनी पड़ती है |  बच्चे तो परीक्षा देकर छुट्टी पा लेते हैं लेकिन हमारी असली परीक्षा की घड़ी अब  शुरू होती है | कक्षा के सारे बच्चे  पास होकर अगली कक्षा में चले जाएं, यही हमारे लिए कई कुम्भ स्नानों के बराबर होता है |

 

 इन दिनों मैंने शून्य के साथ विभिन्न प्रयोग किये | महात्मा गांधी ने सत्य के साथ प्रयोग किये | अगर वे सरकारी स्कूल के मास्टर होते तो कापियों  में मुंह चिढ़ा  रहे शून्य में ही खोए  रहते | देश को आजादी  की चिन्ता शून्य मे खो जाती |

  शून्य को कैसे अंकों में बदला जाए,  वे रात दिन  इसी चिंता में रहते | सत्य की ओर झाँकने की उन्हें फुर्सत ही नहीं मिलती, और ना ही वे अपने सत्य के प्रयोगों के कारण लोगों की आलोचनाओं के शिकार होते | गांधी जी को सत्य के प्रयोगों में उतनी मुश्किलें पेश नहीं आई होंगी जितनी हमें शून्य के प्रयोगों में आती है | उन्हें सत्य के प्रयोगों में नौकरी जाने का खतरा नहीं थाक्यूंकि वे सरकारी नौकरी नहीं करते थे | इसीलिए उन्होंने निडर होकर इसके प्रयोग किये जबकि शून्य के प्रयोगों में पकडे जाने पर कभी भी नौकरी जा सकती है |

 

 स्वामी विवेकानंद  सदैव मेधावी विद्यार्थी रहेइसीलिये उनके परीक्षाफल में मास्टर शून्य से सम्बंधित प्रयोग नहीं कर पाए  होंगे, अन्यथा   शिकागो में भाषण  के दौरान वे  शून्य की इस अद्भुत महिमा का  ज़िक्र ज़रूर करते |

 

शून्य का आविष्कार भारतीयों की देन थी | कहा भी गया है कि आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है | हमारे प्रमोशन, इन्क्रीमेंट, सी.आर., अफसरों की फटकार   इन सब की मिली जुली आवश्यकताओं ने शून्य से अंक निकालने की प्रणाली का आविष्कार किया | हम भारतीय लोग आदि काल से ही दूरदर्शी हुआ करते थे | भविष्य के गर्भ में क्या छिपा हुआ है, यह भी देख सकते थे शून्य का आविष्कार गणितज्ञों  ने  भविष्य  में हम मास्टरों पर  आने वाले परीक्षाफल सम्बंधित संकट से निपटने के लिए किया गया होगा | शून्य की खोज करने के लिए हम भारतीय अपनी पीठ भले ही ठोक लें, लेकिन शून्य में से अंक निकालने की कला सरकारी स्कूल के मास्टरों ने ही ईजाद की है, जिसके लिए दुनिया को हमारा एहसानमंद होना चाहिए | शून्य से बिना कोई सबूत छोड़े हुए आसानी से हम रिज़ल्ट  की आवश्यकतानुसार  6 , 8 , 9 बना ले जाते हैं शून्य का सदैव जोड़े के रूप में होना यही दर्शाता है कि अंकों को जोड़े के रूप में लिखने की इस प्रणाली प्रणाली का आविष्कार भी गणितज्ञों ने हम मास्टरों की सुविधा के लिए किया होगा  ताकि हम बिना सबूत छोड़े  शून्य से  88 से लेकर 99  तक  बना लें जाएं |

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हम सब शून्य से आए हैं, और एक दिन शून्य में ही चले जाएंगे, यह जानते हुए भी हम बच्चों की खाली कापियां देखकर संज्ञाशून्य हो जाते हैं. लोग यह शंका ज़ाहिर कर सकते हैं कि कापियों में शून्य क्यूँ आता है ? शून्य आने के दो ही कारण होते हैं- 

जब बच्चे पढना चाहते हैं तब हम शून्य में ताकते हैं और डी.ऐ., अथवा एरियर  की चिंता करते हैं | कभी कभार जब हमारा पढ़ाने का मूड होता है तो तब बच्चे शून्य में खो जाते हैं. जिसका नतीजा परीक्षा की कापियों में शून्य के दर्शन के रूप में सामने आता है |

 

 कई लोग यह पूछ सकते है कि सरकारी स्कूलो  के बच्चो  के  ही शून्य क्यूँ आते हैंजबकि पब्लिक स्कूलों  के बच्चे सौ प्रतिशत तक अंक ले आते हैं | इसका कारण यह है कि सरकारी स्कूल का बच्चा दो और दो कितना होता है यह भले ही स्कूली जीवन की समाप्ति तक ना सीख पाए, लेकिन यह पहले ही साल सीख जाता है कि दुनिया की कोई ताकत मुझे फेल नहीं कर सकती | सरकार का यही आदेश है | कई लोगों का यह भी मानना है की सारे  बच्चों को पास किया जाना गलत है | उनका कहना है कि जो बच्चा पहाड़ तोड़ने के लिए बना है उसे पहाड़े नहीं रटाने चाहिए |मेरा कहना है की हम बच्चों के डॉक्टर और इंजीनियर  बनने  के रास्ते में रोड़े अटकाने वाले कौन होते हैं? जब सब कुछ पूर्वनिर्धारित है तो हम क्यूँ बच्चों को फेल करने  का पाप करें?

 

 लोग प्रश्न उठाते हैं की जब जब मास्टरों की तनखाह बढ़ती है , तब तब शिक्षा का स्तर गिरता है | इस विषय के बारे में मेरा यही कहना है की तनखाह को आदत से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए | कक्षाओं में जाकर ना पढ़ाना हमारी आदत है, जिसका रूपये - पैसों से कोई लेना देना नहीं है |

 

शून्य में अभी बहुत संभावनाएं  हैं | कई तरह के आविष्कार शून्य के गर्भ में छिपे हैं  | अगर सरकारी स्कूल ना हों तो शून्य के प्रयोगों की सम्भावना ख़त्म हो जाएगी | इसीलिये मैं शिक्षा के निजी हाथों में जाने का विरोध  करती हूँ |