सोमवार, 16 नवंबर 2009

आजकल ज़रा बीमार हूँ

इधर बहुत दिनों बाद बाज़ार जाना हुआ| जब से लौट कर आई हूँ, सांस लेने में बहुत तकलीफ  हो रही है| सीने में भारीपन सा महसूस होता  है, हर समय किसी अनहोनी की आशंका से दिल धड़कता रहता है, माथे पर ठंडक के दिनों में भी पसीना चुहचुहा जाता है| सोच रही हूँ कुछ दिन अस्पताल में भर्ती हो आऊं| मेरी हालत भी कुछ - कुछ  भाजपा सी हो गई है|
न मैं चीन और भारत के बीच तिब्बत और अरुणाचल को लेकर बढ़ते तनाव से चिंतित हूँ,  न ही पकिस्तान और भारत के बीच कौन सी नई समस्या खड़ी होने वाली है इसको लेकर परेशान हूँ| इनको सुलझाने के लिए  लिए मैंने घंटों लाइन में खड़े होकर जिनको वोट दिया है, वे ही काफ़ी हैं| मैं सोने के सत्रह हज़ारी होने की बात से भी कभी पीली नहीं पड़ी| इसके लिए मेरी स्वर्ण-प्रेमी बहिनों ने बाज़ार पर कब्ज़ा कर रखा  है, जो सोने के पांच रूपये सस्ता होते ही नाना प्रकार के गहने बनवाने के लिए  सुनारों के पास दौड़ पड़ती हैं| मुझे भारत के आई पी एल से बाहर हो जाने पर   कतई अफ़सोस नहीं है| हो भी क्यों? इसके लिए जब देश की सवा सौ  करोड़  जनता भी कम पड़ जाती है तो मेरी क्या बिसात?  बॉलीवुड के नए लवर बॉय  को लेकर भी में तनाव में नहीं हूँ| इसके लिए  मेरे घर का सबसे होशियार प्राणी, यानि बुद्धू बक्सा, ही पर्याप्त है|  मैं दुनिया के सन् दो हज़ार बारह में समाप्त हो जाने  की भविष्यवाणियों  को लेकर ज़रा सी भी  दुखी  नहीं  हूँ क्योंकि इसकी चिंता करने के लिए अरबों - खरबों की संपत्ति  वाले लोग मौजूद हैं| मैंने तो  जब से होश संभाला है तभी से कोई न कोई दुनिया के ख़तम होने की भविष्यवाणी  करता ही रहता है, इसलिए इस तरह की आशंकाओं के बीच जीने की आदत सी हो गई है| अब तो हाल ये है कि जब कोई भविष्यवाणी नहीं करता तब दुनिया के ख़त्म होने की टेंशन  हो जाती है| मेरे बीमार होने की बात से कहीं आप  यह तो नहीं समझ रहे हैं कि मैंने कई करोड़ की संपत्ति जमा कर ली है और अब मैं गिरफ्तार होने के भय से अस्पताल जाकर आराम फ़रमाने की सोच रही हूँ? या कहीं आप यह अंदाज़ तो नहीं लगाने लग गए   कि मैं महंगाई के डर से अस्पताल की रोटी तोड़ने की सोच रही हूँ? नहीं ऐसा कतई नहीं है| 
असल बात यह है कि  जब मैं कल  बाज़ार गई थी तो अपनी आदत के अनुसार एकमात्र  सस्ती, यानि चने की दाल  के पास जाकर खड़ी हो गई थी| चने के पास जाने की नौबत अचानक ही नहीं आ गई| जिस तरह भाजपा के नताओं ने मुसीबत के समय अपनी पार्टी का साथ छोड़ दिया, उसी तरह मेरे रसोईघर की दालों ने भी ज़माने का चलन देखकर दल बदल लिया| अभी कल ही की बात लगती है जब मैं अपने रसोई घर में विभिन्न प्रकार की दालों को पारदर्शी  डिब्बों में कैद करके रखा करती थी, ताकि आने जाने वालों की नज़र उन पर पड़ जाए और समाज में मेरा मान - सम्मान बरकरार रहे| पारदर्शी होते हुए भी उन के बाहर उनके नाम की चिपकी लगाकर उनका सम्मान बढ़ाया| कितने सुहाने दिन थे जब भाजपाइयों की तरह सभी सहयोगी यथा तेल , मसाले और अनाज मिलकर के एक स्वस्थ और स्वादिष्ट थाली का निर्माण किया करते थे , जिसे देखकर अच्छे - अच्छे पक्ष में बैठे हुए लोगों के मुँह में पानी आ जाया करता था , देखते ही देखते पासा ऐसे पलटा कि थाली ने पानी भी नहीं माँगा . उन्होंने मेरी इज्ज़त का ज़रा भी ख़याल नहीं किया और फ़ौरन पाला बदल लिया| तब मैंने  लपक कर  चने का दामन जो थामा तो अभी तक मजबूती से उसे थामे रखा है| बाज़ार में  न चाहते हुए भी मैं अपनी औरत होने की आदत से बाज नहीं आयी  और अरहर आदि अन्य दालों के साथ  उसका वार्तालाप सुनने लगी| हमेशा चुप रहने वाली चने की दाल भी आज गरज रही थी और चिल्ला-चिल्ला कर कह रही थी, ''बस, अब बहुत हो गया मेरा अपमान| मैं इसे और बर्दाश्त नहीं कर सकती| जिसको देखो वही मुँह उठाये चला आता है और मुझे डिब्बे मैं बंद करके रसोई में रख  देता है| बहिन अरहर को देखो| उसे जो भी ले जाता है सीधे ड्राइंग रूम में सजा देता है| आने जाने वालों पर रौब  मारता है| सारी दुनिया उसकी मुरीद हो चुकी है| व्यंग्यकारों ने उस पर बेहतरीन व्यंग्य लिख दिए हैं| ग़ज़ल भी अब प्रेम-प्यार इत्यादि फ़ालतू की चीज़ों से निकल कर, लहराती हुई अरहर के बहर में आ गई है| कविताओं में उसके गुणगान गाये  जा  रहे हैं| वह कवि सम्मेलनों की शोभा बन गई है|  वह भी पीली, मैं भी पीली और हमारी किस्मत देखो कितनी अलग-अलग है| बिलकुल ऐसा लग रहा है जैसे एक अम्बानी को सत्ता मिल गई हो और दूसरे अम्बानी का पत्ता कट गया हो| एक को गैस मिल गई हो और दूसरे को चूल्हा जलाना  पड़ गया हो| आखिर कहाँ तक मैं ये नाइन्सफ़ी बर्दाश्त करुँ? अब तो मसूर बहिन ने भी सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं और अब कौन यह कहने की हिम्मत करेगा', 'छाती पर मूंग दल दिया'| बल्कि अब तो मूंग ने सबकी छातियाँ   दल दी हैं| सारी दाल बहिनें मुहावरों से गायब हो चुकी हैं, एक मैं ही अभी तक ज़िन्दा  हूँ| लोग हैं कि नाकों चने चबाकर भी मुझे खाए जा  रहे हैं| आखिर मेरा भी तो एक स्टैण्डर्ड है| सालों तक मुझे गुड़ के साथ  खाकर गरीबों ने अपना पेट भरा है| कभी  मेरा सत्तू बनाकर खाया तो कभी बेसन बनाकर भांति - भांति के पकवान बनाए| मुझे कबाब तक बनाया गया और आज मुझे ही हड्डी करार दे दिया गया| मुझे ही लड्डू के रूप में बनाकर मुँह को मीठा किया गया, हर तरह से मेरा शोषण किया गया और जब सम्मान देने की बारी आई तो अरहर बहिन को चुन लिया| आज मुझे ही कबाब की हड्डी बना दिया गया| मेरी ही बहिन के हाथों हर कदम पर मेरा अपमान हुआ| एक सा रंग-रूप और भाग्य का खेल देखो| एक करोड़ों  में खेल रही है और एक सबकी कटोरियों में पड़ी है| अब फैसला हो ही जाना चाहिए| आज के बाद मैं बाज़ार से गायब हो जाउंगी| तब मेरी अहमियत दुनिया को समझ में आएगी.'
इस प्रकार चने की दाल मेरी समस्त आशाओं पर तुषारापात करते हुए शान से मटकती हुई  चली गई| अन्य बची-खुची दालें भी गुस्से में  खदबदाने लगीं| गेहूं  के बोरे में से भी चीखने चिल्लाने की आवाजें आने लगीं| तभी से मैं खुद को बीमार महसूस कर रही हूँ और यही कारण है कि अस्पताल जाकर भर्ती होने का विचार मेरे मन में आया|