शुक्रवार, 13 सितंबर 2013

नहीं जज साहब नहीं …।

…. ऐसा नहीं होना चाहिए था । 

काला कोट धारी वकील चीख - चीख कर कह रहा है, अदालत ने पक्षपात किया । अदालत ने सबूत नहीं देखे, साक्ष्य नहीं देखे, उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि नहीं देखी, उनका पश्चात्ताप वाला चेहरा नहीं देखा, बस फैसला सुना दिया । ऐसी भी क्या जल्दी थी ? कम से उनके आंसुओं का निरीक्षण किया होता, चेहरे के भावों का अध्ययन किया होता । बहुत नाइंसाफी है ये । ऐसे कानून का क्या करें जो चारों के आंसुओं के पीछे छिपी हुई पीड़ा को नहीं देख सकता । इस कानून में संशोधन की सख्त आवश्यकता है ।  

कानून को ऐसा होना चाहिए कि वह अपराधियों के अपराध को न देखे बल्कि अपराध करने के बाद उनके आंसुओ को देखे । वे कितना पछता रहे हैं, मात्र इस पर ध्यान केन्द्रित करे ।
अगर हाथों में मुंह छिपा कर रो रहे हैं तो समझा जाए जाए कि वे वास्तव में ह्रदय से दुखी महसूस कर रहे हैं इसीलिये अपना चेहरा नहीं दिखा पा रहे हैं । फूट - फूट कर रोने वालों को तुरंत रिहा कर दिया जाना चाहिए । उनका फूट - फूट कर रोना ही उनकी बेगुनाही का प्रमाण होना चाहिए । फफक - फफक कर रोने वालों को ससम्मान और बाइज्जत बरी कर देना चाहिए । वकील साहब का कहना है कि चारों बेचारे निरपराध हैं इसीलिये रो रहे हैं । अपराध करने वाला सदा हँसता हुआ पाया जाता है । निर्दोष इंसानों को अदालत के ऐसे पक्षपात के कारण रोना पड़ रहा है । ये कैसा कानून है ? कानून की धाराओं को ऐसा होना चाहिए जो अभियुक्तों की आंसुओं की धाराओं के अनुसार बहने में सक्षम हो ।   


दुखी वकील साहब कह रहे हैं  ''क्या इसके बाद अपराध रुक जाएंगे ? क्या महिलाएं बलात्कार का शिकार नहीं होंगी ''। मुझसे उनका दुःख देखा नहीं जाता । फिर वकील साहब इस कानून से नाराज़ होकर जनता से प्रश्न करने लगते हैं । वे चुनौती देते प्रतीत हो रहे हैं । उनके स्वर में ललकार सुनाई देती है । मानो आह्वान करना चाह रहे हो '' कहाँ हो देश के नौजवानों ? आज इस देश को तुम्हारे गर्म खून की सख्त आवश्यकता है । छोडो सारे काम - धाम । आज से बस एक ही काम करो । जाओ और जा करके लड़कियों का बलात्कार करो, ताकि मैं कल के दिन अदालत में यह कह सकूं की मात्र फांसी की सजा सुनाने से अपराध रुक नहीं जाते । इस दलील के आधार पर अपने मुवक्किलों को बचा सकूँ ''। 

वे इस समय पीडिता के माता - पिता से ज्यादा दुखी लग रहे हैं । उनका दुःख से भरा हुआ चेहरा देखकर भी देश की पत्थरदिल जनता दुखी नहीं हो रही है । बल्कि खुश हो रही है मिठाई बाँट रही है । संवेदना नाम की चीज़ किसी के अन्दर नहीं रह गयी है । उनके दुःख में दुखी होना छोड़ कर लोग खुशियाँ मनाएं, ये ठीक नहीं है ।

जिसने सबसे जघन्य अपराध किया वह तीन साल में छूट जाएगा और ये बेचारे फांसी के फंदे में झूलेंगे । कानून क्या वाकई अँधा हो गया है । क्या कोई धारा नहीं थी जिसमे इनके लिए राहत होती । क्या फायदा ऐसी बड़ी - बड़ी कानून की किताबों का ?   [ मास्टरनी ]