रविवार, 20 जुलाई 2014

कज़िन के बहाने ……

इन दिनों अजीबो - गरीब घटनाएं हो रही हैं। समझ में नहीं आ रहा है कि ये क्या घाल - मेल चल रहा है ? होना कुछ चाहिए और हो कुछ और रहा है। देश में चोरी की एक अजीबो - गरीब घटना हुई। इससे पुलिस और चोर दोनों के चरित्र  संदेह के घेरे में आ गए। चोरी की रिपोर्ट लिखवाने वाले के चरित्र का विश्लेषण अभी जारी है।  

यह बात ही कुछ ख़ास है। देश में एक आदमी हैं। पहले वे आम आदमी होते थे, अब वे ख़ास हो गए हैं। उनके घर चोरी हुई। उन्होंने पचास हज़ार चोरी की रिपोर्ट लिखवाई। पुलिस ने बरामद किये डेढ़ करोड़। देशवासी समझ नहीं पा रहे कि उन पुलिस वालों को सजा मिलनी चाहिए या ईनाम। चोरों को भी पता नहीं था कि वे अब आम नहीं रहे, अन्यथा वे उनके घर चोरी करने का रिस्क नहीं लेते। 

वे कहते हैं बरामद रुपया उनका नहीं, उनके 'कज़िन' का है। उन्होंने गलती से भी 'भाई' नहीं कहा। भाई कहने में खतरा ही खतरा  है। भाई शब्द बड़ा भारी होता है इसका वजन संभाल पाना हर किसी के बस की बात नहीं होती। अगर उन्होंने बरामद रुपया 'भाई का है' कहा होता तो भाई मीडिया के चैनलों से भी तेज गति से आता और तुरंत उन बरामद हुए रुपयों पर अपना हक़ जताने लगता। इंकार करने पर केस दर्ज करवा देता और भाई की बाकी जायदाद पर भी अपना दावा पेश कर देता। 

वह तो शुक्र है कि ऐन मौके पर कज़िन ने बात संभाल ली। ऐसे ही होते हैं कज़िन। रक्षक, संकटमोचक, विघ्नहर्ता जैसे। अँग्रेज़ों ने  कितने सुन्दर, संक्षिप्त और अत्यंत सुविधाजनक शब्द 'सॉरी' और 'कज़िन' हमारे शब्दकोष को प्रदान किये। इन दो सुन्दर शब्दों के लिए हम अंग्रेज़ों का एहसान कभी नहीं चुका पाएंगे। हिन्दी के सौ शब्द मिलकर भी इन दो शब्दों की महत्ता का मुकाबला नहीं कर सकते।

आम आदमी के घर में चोरी होती है। अव्वल तो वह रिपोर्ट लिखवाता ही नहीं है। अगर लिखवाता भी है तो डेढ़ छदाम तक पाने की उम्मीद नहीं रखता। चोरी का शोक मनाने के लिए आने वाले ज्ञानी लोग सांत्वना के रूप में मुंह से पहला शब्द ही यही निकालते हैं, ''कोई फायदा नहीं रिपोर्ट लिखवाने का, आज तक किसी का कुछ वापिस नहीं मिला।'' तमाम लोगों के चोरी और उसके उपरान्त होने वाली पुलिसिया कार्यवाही से सम्बंधित एक से बढ़कर एक अनुभवों का लाभ उठाते हुए वह रिपोर्ट लिखवाने को मात्र एक रस्म की तरह लेता है और चोरी होने के दो दिन बाद थाने जाकर इस रस्म का निर्वाह करता है।      
    
इतनी बड़ी दुनिया है। अरबों लोग इस दुनिया में निवास करते हैं। इस दुनिया में कोई न कोई कहीं न कहीं किसी न किसी का कज़िन है। मुझे याद है अपना ज़माना। अब मेरी इतनी उम्र चुकी है कि मैं ''हमारे ज़माने में'' नामक मन्त्र का दिन में कई बार पाठ कर सकती हूँ। उस ज़माने में मेरी कई दोस्तों के कज़िन हुए करते थे। कुछ एक दोस्तों के एक - आध ही कज़िन हुआ करते थे। कुछ के कई - कई कज़िन होते थे। किसी का हर हफ्ते एक नया कज़िन बनता था। ऐसा नहीं था कि उनके अपने भाई नहीं होते थे। भाई भी होते थे और कई होते थे। भाइयों के होने के बावजूद भी उनके कज़िन होते थे। जिनके सगे भाई नहीं होते थे, उन्हें कज़िन बनाने का परमिट खुद - ब - खुद मिल जाता था। वे जिसको चाहें, खुलेआम कज़िन बना सकती थीें।      

इन कज़िन्स के साथ वे दुनिया भर सारे लुत्फ़ उठाया करतीं थीं। वे बेधड़क होकर शान से बाइक में उस कज़िन की कमर को कस कर पकड़ कर शहर भर में घूमा करतीं थीं। महंगे से महंगे होटलों में खाना खाया करतीं थीं। कीमती तोहफे लिया करतीं थीं। फिल्म देखतीं थीं। अगर किसी परिचित ने देख लिया तो बड़ी शान से कहती थीं, 'मेरा कज़िन है'। तब ज़माना लाज का था, शर्म का था, शिष्टाचार का था, संकोच का था। खुलकर 'बॉयफ्रेंड' या 'लवर' कहने का रिवाज़ नहीं था। 'कज़िन है' कह देने भर से काम बन जाया करता था और घर तक एक लड़के के साथ घूमने - फ़िरने की सनसनीखेज ख़बर नहीं पहुँच पाती थी। कोई नहीं पूछता था, 'कैसा कज़िन है' या 'किसका बेटा है, चाचा का, मामा का, मौसी का, ताऊ का या बुआ का'?।लड़कियों के मन में भी किसी क़िस्म का संकोच नहीं होता था। भाई, भाई होता है और कज़िन, कज़िन होता है। दोनों शब्द एक जैसे भी हैं और अलग - अलग भी। अगर भविष्य में सब कुछ ठीक - ठाक रहता था तो इन्हीं कज़िन्स से शादी भी हो जाया करती थी। मुझे बाद में ऐसे कई कज़िन्स की शादी में जाने का सुअवसर भी प्राप्त हुआ। 

एक तरफ ऐसे सुविधाजनक कज़िन होते हैं और एक तरफ सगा भाई होता है। यह सगा भाई अगर ज़्यादा ही सगा निकल जाए तो कज़िन होने की संभावनाऐं ख़त्म हो जाती हैं। सगा भाई नाम का यह प्राणी ज़रा दूसरे ही किस्म का हुआ करता है। वह एक साथ कई - कई विशेषताएं लिए होता है। अपनी बहनों को वह छोटे और स्मार्ट कपड़े पहनने से मना कर देता है। वह नहीं चाहता कि उसकी बहन स्मार्ट दिखे या आधुनिक कहलाए। स्टाइलिश और लेटेस्ट फैशन के बालों की कटिंग देखकर उसका खून खौल जाता है। चोरी - छिपे फोन की कॉल डिटेल और मैसेज चेक करता है। हर हफ़्ते फेसबुक का पासवर्ड तोड़ने का प्रयास करता है। फ़र्ज़ी आई. डी. बनाकर अपनी ही बहन से चैटिंग करता है। पक्की सहेली की शादी में भी रात को में नहीं जाने देता। 'बॉय फ्रेंड' शब्द सुनते ही उसे बिजली का नंगा तार छू जाता है। स्कूल, कॉलेज से आने में एक मिनट की देर हो जाए तो खुद ही क्लास देखने चला आता है।  

यह सगा भाई जासूस, शक्की, गुस्सैल, खूसट होने साथ - साथ अपने दोस्तों की एक गुप्तचर संस्था का सदस्य होता है। यह संस्था एक -  दूसरे की बहनों की निगरानी में चौबीसों घंटे मुस्तैद रहती है। संस्था के ये समर्पित सदस्य छोटी से छोटी जानकारी भी साझा करते हैं। आज 'क' की बहन उस लड़के के साथ कॉलेज जा रही थी या आज 'ख' की बहन फ़ोन पर न जाने किससे घंटों बातें कर रही थी। देश में आज जितनी भी बची - खुची अरेंज मैरिज हो रही हैं, सब इस तरह के सगे भाइयों की वजह से संभव हो रहीं हैं।    

इसे दुर्भाग्य मानूं या सौभाग्य कि ऊपर की पंक्तियों में वर्णित कज़िन्स के बारे में हमारे भाई का सामान्य ज्ञान काफी उत्तम प्रकार का था। इसके अलावा किसी लड़की का कज़िन बनने की खासियत उसके अंदर बचपन से ही नहीं थी। यही कारण था कि उसने हमें भी किसी की कज़िन बनने का सुअवसर नहीं  दिया। बदले की इस भावना से न उसका भला हुआ न हमारा। माता - पिता के कई साल हम बहनों के लिए ढंग का लड़का और उसके लिए ढंग की लड़की ढूंढने में बर्बाद हो गए। इतने प्रयास करने और जूते चटखाने के बाद भी यह 'ढंग का' शब्द हमारे माता - पिता की डिक्शनरी में दर्ज़ नहीं हो पाया।