गुरुवार, 14 मई 2009

इस तरह एक मजिस्ट्रेट की मौत हो गयी ...

आज मतदान ख़त्म हो गया, इसी के साथ मास्साब की पीठासीन की कुर्सी भी छिन गयी, एक दिन जो मिली थी वो मजिस्ट्रेटी पॉवर क्या चली गयी, मानो उनके शरीर का सारा रक्त निचोड़ ले गयी, चेहरा सफ़ेद पड़ गया, इतने दिनों से तनी हुई गर्दन और कमर फिर से झुक गयी.
कई रातों तक जाग जाग कर पीठासीन की डायरी का अध्ययन किया करते थे, उसके मुख्य बिन्दुओं को बाय हार्ट याद कर लिया था, विद्यालय में भी कई बार  साथियों से मतदान से सम्बंधित बिन्दुओं पर  जब तक वे बहस नहीं कर लेते थे, उन्हें मिड डे मील का मुफ्त का  खाना हजम नहीं होता था.
रात भर डायरी को सिरहाने रखकर सोते थे, नींद में भी कई बार टटोल कर देखते थे, कभी कभी उसे सीने पर रखकर सो भी जाते थे. जिन्दगी में कभी भी अपने बच्चों के लिए वे रात में नहीं जागे, लेकिन आज इस डायरी पर इतना प्यार बरसा रहे हैं मानो इसने उनकी कोख से जन्म लिया हो.
पत्नी को भी इतने दिनों तक बिलकुल अपने जूतों की नोक पर रखा. "देखती नहीं, मैं पीठासीन अधिकारी हूँ "
पत्नी अधिकारी शब्द सुनकर ही थर थर काँपने लगती, मन ही मन सोचती 'कल तक तो ये मास्टर थे, आज सरकार ने इन्हें अधिकारी बना दिया है तो ज़रूर इनके अन्दर कोई ऐसी बात होगी जो सरकार ने देख ली और मैंने इतने सालों  में नहीं देखी, लानत है मुझ पर'
इतने दिनों तक ना सिर्फ उनहोंने पत्नी से अपनी पसंद का खाना बनवाया वरन रात को पैर भी दबवाए.
बच्चों की नज़रों में भी वे सहसा ऊँचे उठ गए थे, कल तक जो बच्चे उनके आदेश की अवज्ञा करना अपना परम कर्त्तव्य समझते थे, जुबान चलाते थे, आज अचानक श्रवण कुमार सरीखे बन गए. मोहल्ले  में उनहोंने तेजी से ये खबर फैला दी कि हमारे पापा को सरकार ने पीठासीन अधिकारी बनाया है, और वो पूरे एक दिन तक डी.एम्. बने रहेंगे, वे चाहे तो किसी पर भी गोली चलवा सकते हैं. मोहल्ले में उनके परिवार का रुतबा अचानक बढ़ गया. कल तक जो उन्हें टीचर, फटीचर कहकर पानी को भी नहीं पूछते थे , आज बुला बुला  कर चाय पिला रहे हैं.
हाँ तो अब समय आ गया था ड्यूटी की जगह मिलने का, जब मतदान स्थल का पात्र उनको थमाया गया, तो उनके पैरों तले ज़मीन खिसक गयी. मतदान केंद्र सड़क से पंद्रह किमी. की खड़ी चढ़ाई चढ़ने के बाद आता था. अधिकारी बनने की आधी हवा तो नियुक्ति पत्र मिलते ही खिसक गयी, रही सही कसर रास्ते भर जोंकों ने पैरों में चिपक चिपक कर पूरी कर दी.बारी बारी से सभी मतदान कर्मियों को अपनी पीठ पर ई. वी. एम्. मशीन को  आसीन करके ले जाना  पडा . इस तरह सभी पीठासीन बन गए.
बेचारे मास्साब की किस्मत वाकई खराब है. पिछले साल विधान सभा के चुनावों में उन्होंने बड़ी मुश्किल से जुगाड़ लगाकर अपना उस अति दुर्गम मतदान स्थल के लिए लिस्ट में चढवा दिया था, जहाँ तक पहुँचने के लिए हेलिकोप्टर ही एकमात्र साधन होता है. वे फूले नहीं समां रहे थे कि जिन्दगी में पहली और आख़िरी बार हवाई यात्रा का मुफ्त में आनंद ले सकेंगे. लेकिन हाय रे किस्मत! जैसे ही रवाना होने की घड़ी आई, आंधी पानी और बर्फपात की वजह से हवाई यात्रा केंसिल हो गयी. और फिर शुरू हुई अति दुर्गम पैदल यात्रा, जान हथेली में रखकर  गिरते पड़ते किसी तरह मतदान स्थल पहुंचे, और गिनती के पांच लोगों को मतदान करवाया, आज भी वो दिन याद करके मास्साब के तन बदन में झुरझुरी दौड़ जाती है.
इधर १५ किमी की चढाई करने के बाद उनके थके हुए बाकी साथियों ने अपने साथ लाई हुई बोतलें निकली और  टुन्न होकर लुड़क गए. मास्साब ने  कुढ़ते हुए अकेले रात भर जाग कर लिफाफे तैयार किये.और मतदान की बाकी तयारियाँ पूरी  करीं. 
तो मास्साब की बची हुई अकड़ सुबह  मतदाताओं ने निकाल दी. एक मतदाता को जब उन्होंने बूथ के अन्दर मोबाइल पर बात करने के लिए पूरे रूआब के साथ मन किया तो उसने तमंचा निकाल कर कनपटी पर लगा दिया.
"ज्यादा अफसरी मत झाड़, पिछले बूथ में तेरे जैसे एक मजिस्ट्रेट को ढेर करके आ रहा हूँ ज्यादा बोलेगा तो तेरेको भी यहीं पर धराशाही कर दूंगा"
उन्होंने कातर भाव से डंडा पकडे हुए पुलिसवालों को देखा तो उन दोनों ने उससे भी ज्यादा कातर भाव से पहले अपने डंडे को फिर  उस तमंचे वाले को देखा.
किसी तरह डरते डरते मतदान संपन्न करवाया.
कितने ही लोग एक ही राशनकार्ड लेकर वोट डालने आ गए. एक लडकी तो मात्र १० या बारह साल की होगी, माथे पर बिंदी लगाकर वाह सूट पहिनकर वोट डालने आ गयी, उस लडकी की खुर्राट माँ उसके पीछे ही खड़ी थी, जब उन्होंने लडकी की उम्र पूछी तो वह दहाड़ उठी "लडकी की उम्र पूछता है कार्ड में दिखता नहीं २१ साल है"
"लग नहीं रही है इसीलिए पूछा" उन्होंने डरते डरते कहा.
"लो कर लो बात, अब इसे लडकी की उम्र दिखनी भी चाहिए, अरे लडकी की उम्र का अनुमान तो फ़रिश्ते भी नहीं लगा सकते.पता नहीं कैसे कैसों को सरकार भेज देती है ज़रूर मास्टर होगा, स्कूल में तो ठीक से पढाई करवाते नहीं है यहाँ क्या ठीक से काम करेंग" वह जोर जोर से बोलती रही और लाइन में लगे हुए लोग उन्हें देख कर हंसते  रहे.  वे उसका मुँह देखते रहे और वो लडकी के साथ बूथ में  ही घुस गयी.वे मन ही मन उस घड़ी को कोसने लगे जब उन्हें नियुक्ति पत्र मिला था
तो इस प्रकार उनके पीठासीन अधिकारी बनने की इच्छा अब हमेशा हमेशा के लिए ख़त्म हो गयी थी.
 

12 टिप्‍पणियां:

  1. बेचारों की दुर्दशा पर दुख हुआ। खैर घर परिवार पर रौब तो पड़ ही गया।
    घुघूती बासूती

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  2. मास्‍टर तो पहले ही
    दुर्दशित हो रहे थे
    अपने छात्रों को
    न मार पाने की वजह से
    अब यहां पर तो
    जब बोलना चाह रहे हैं
    और जमाना चाह रहे हैं रूआब
    तो टर्र टर्र टर्राने की आ रही है आवाज
    ऐसे ही बजता है दुर्दशा का साज
    मास्‍टर जी सोच रहे हैं कि
    अगले जन्‍म में भी न मिले
    ऐसा राज काज
    जिसे बतलाने में भी आएगी लाज।

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  3. हमेशा की तरह,
    आनंद आ गया

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  4. वाह शेफाली जी
    मैं भी मतदान अधिकारी के रूप में था,
    आपके लेख को पढ़ कर ऐसा लगा जैसे मैंने उन अविस्मर णीय दिनों की पीडा फिर से भोग ली हो .
    प्रशासन ने सहूलियतों के प्रया तो किये हैं लेकिन उतने संतोषप्रद अभी भी नहीं हैं.
    इसका अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हो की यदि लोगों से चुनाव ड्यूटी पर जाने की बात की जाए तो ९० % लोग जाने में आनाकानी करेंगे
    - विजय

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  5. वाह! क्या बात है!बहुत बढिया।

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  6. शेफाली जी।
    इस पीठासीन अधिकारी की तुलना यदि दूल्हे से की जाए तो अतिश्योक्ति न होगी। क्योंकि वह भी एक दिन का बादशाह होता है और ये भी एक दिन के ही पीठासीन अधिकारी थे।
    लेख रोचक रहा।
    बधाई।

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  7. एक अध्यापक ही दूसरे अध्यापक कि व्यथा समझ सकता है, अन्य तो दर्शक है जैसे सर्कस के जोकर कि देख के सब हंसते है पर उसकी व्यथा तो वोह और उसके सहयोगी ही जानते है, वैस आप तो समझ हि गयी होंगी उनकी व्यथा |

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  8. पीठ पर मशीन लादकर वो पीठासीन बन गए। वाह बहुत खूब। बेचारे मास्साब।

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  9. ठीक कहा. हमारे देश में लोकतंत्र ऐसे ही चल रहा है.

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