जब भी वो मुझसे टकराती है मुझे याद दिलाना नहीं भूलती कि मैं कितने मज़े में हूँ. मैं ईश्वर के इस खेल को समझ नहीं पाती हूँ , मेरे लिए जो एक अमूर्त वस्तु है , उनके लिए वही मूर्त कैसे हो जाती है, ज़रूर ये सरकारी योजनाओं के सदृश्य हैं , जिनमें पैसा तो बहुत खर्च बहुत होता है, लेकिन किसी को दिखता नहीं. इसकी तुलना ओबामा के उन शाति प्रयासों से भी की जा सकती है , जो सिर्फ नोबेल देने वालों को दिखते हैं , दुनिया को नहीं . महिलाएं इसकी तुलना उस लडकी से कर सकती हैं जिसके इश्क के चर्चे सारे शहर में आम हों लेकिन, उसके घर वालों को लडकी के घर से भागने के बाद पता चले.
वह नौकरी नहीं करती, मैं करती हूँ , इस लिहाज़ से वह मुझे कुछ भी कहने की अधिकारिणी हो जाती है , मोहल्ले से हँसती - खिलखिलाती गुज़रती है , मुझे देखते ही उसे दुखों का नंगा तार छू जाता है . ''हाई ! तुम कितनी लक्की हो !तुम्हें देखकर जलन होती है'' का हथगोला मेरी ओर फेंककर, अपना कलेजा ठंडा करके वह आगे बढ़ लेती है.
वह कहती है कि उसे चाय पीते समय किसी का टोकना पसंद नहीं है, क्योंकि उसके साथ वह अखबार पढ़ती है ,फ़िल्मी अभिनेता और अभिनेत्रियों के लेटेस्ट अफेयर और फिल्मों की खबर के साथ - साथ सोने के हर दिन के भाव उसे मुँह ज़बानी याद रहते हैं. मेरी आधी चाय मेरे आँगन में लगा हुआ रबर प्लांट पीता है, जिस दिन स्वयं चाय की अंतिम बूँद का स्वाद लेने की सोचती हूँ उसी दिन बस छूट जाती है और मुझे अस्सी रूपये खर्चने पड़ते हैं, जिससे मुझे उसके व्यंग्य बाणों से भी ज्यादा तकलीफ होती है, लेकिन जब यह रबर प्लांट बड़ा हो जाएगा, तो मैं गर्व से कह सकूंगी कि ''बेटा'! तुझे मैंने अपनी चाय पिला कर बड़ा किया है''.बच्चों से नहीं कह पाउंगी , कभी कहने की कोशिश भी करूंगी तो पता है कि क्या ज़वाब मिलेगा ''कौन सा एहसान किया ? अपने माँ बाप का कर्जा ही तो चुकाया''
.
उसका कहना है कि वह , उसके पति और बच्चे सुबह का बना हुआ खाना रात को नहीं खा सकते, और खाने मैं उन्हें नित नई वेराइटी चाहिए, इसके लिए उसने भारत के पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण ,चाइनीज़ से लेकर, थाई ,मेक्सिकन तक सारे व्यंजन बनाने सीख लिए हैं, ऐसा वह सिर्फ कहती है कभी किसी ने इस बात की पुष्टि नहीं करी .उनके पति यह नहीं खाते, उनके बच्चे वह नहीं पसंद करते. मुझे सुबह के तीन बजे उठना होता है, मैं रात की बनाई हुई सब्जी के साथ रोटी बनाकर सबके टिफन भर देती हूँ , मेरे पति और बच्चों को फरमाइश करने की इज़ाज़त नहीं है.
वह कहती है ''मैं अपने पति से हर महीने की पहली तारीख को एक नई साड़ी और एक नया सूट लेकर रहती हूँ , नौकरी नहीं करती हूँ तो क्या हुआ ?,आखिर मेरा भी कुछ हक़ बनता है'' हर करवाचौथ पर उसे व्रत करने की एवज़ में एक मुआवज़े के तौर पर सरप्राइज़ में सोने का बड़ा सा गहना ज़रूर मिलता है,
उसकी रात को पहनने वाली नाइटी पर भी प्रेस की क्रीज़ इधर से उधर नहीं होती, सुबह उठते ही उसके होंठों पर पुती हुई लिपस्टिक की लाली देर शाम तक बरकरार रहती है .वह हर हफ्ते कान के टॉप्स और मंगलसूत्र बदल देती है, एक हफ्ते से ज्यादा कोई गहना पहिनने पर उसे घबराहट होने लगती है, उसकी सास जब भी मुझे देखती है मुँह बिचकाकर कहती है ''छिः ! कैसी सुहागन हो तुम ? ना सिन्दूर, ना मंगलसूत्र'' लिहाज़ा एक दिन उसे देख कर मैंने भी अपने कान की बाली पहनी और इतराती हुई बस में बैठ गई, सुबह की उठी हुई थी, खिड़की से सर टिकाया और ठंडी हवा के झोंके लगते ही झपकी लग गई, और तब ही आँख खुली जब चोर कानों से बाली खींच ले गया, खून से लथपथ आँखों में आँसू लेकर लौटी और आकर सबकी डांट खाई सो अलग.
कई बार बस स्टॉप पर खड़ी होकर ही मुझे पता चलता है कि जल्दीबाजी में बाथरूम स्लीपर पहिन कर आ गई हूँ, वापिस जाना संभव नहीं होता क्यूंकि बस का समय निश्चित है ,इसीलिए ऐसे ही जाना पड़ता है और सबकी हँसती , मज़ाक उड़ाती नज़रों का सामना करने की शक्ति वह सर्वशक्तिमान ईश्वर मुझे प्रदान कर ही देता है.
कभी पति से किसी चीज़ की फरमाइश करने का मन करता है तो टका सा जवाब मिलता है, '' क्या आम औरतों की तरह नखरे करती हो ?खुद जाकर खरीद लाओ, अपने आप कमाती तो हो''
वह नियम से सुबह शाम दो घंटे योग करती है, उसका चेहरा पैंतालीस की उम्र में भी दमकता रहता है. मैं पैंतीस की उम्र में ही स्पोंडिलाइटिस, आर्थरआइटिस, माइग्रेन से ग्रसित हो गई हूँ , जाड़ों के दिनों में एक - एक सीढ़ी चढना भी दूभर हो जाता है.
वह अक्सर गुस्से में कहती है कि इस साल वह अपनी गृहस्थी अलग कर लेगी अन्यथा पति से तलाक ले लेगी, क्यूंकि उसकी सास कभी - कभी उससे सबके सामने ऊँची आवाज़ में बात करती है, जिससे उसे बहुत बेईज्ज़ती महसूस होती है.
मेरे ऑफिस में साहब तो एक तरफ , बड़ा बाबू तक मेरी खुलेआम बेईज्ज़ती करता है, कहता है, कि मुझे ठीक से इनकम टेक्स के कागज़ भरने भी नहीं आते . और सहकर्मियों के कागज़ स्वयं भरता है लेकिन मेरे लिए कोई मदद नहीं. पीठ फिरते ही सारा कार्यालय हंसने लगता है . कभी पानी को भी नहीं पूछने वाला, काम के समय दसियों बहाने बनाने वाला , आठवीं पास चपरासी तक कहने से ही चूकता '' बेकार है इन औरतों को नौकरी देना , ये बस घर का चूल्हा ही संभाल सकती हैं ''
उसका पति उसे अकेले बाहर नहीं जाने देता , कहते हुए वह शर्म से लाल हो जाती है, मेरे माथे पर आत्मनिर्भर का ठप्पा लगा हुआ है लिहाज़ा घर से लेकर बाहर तक सभी काम अकेले मेरे ही जिम्मे आ गए. चार - चार बैग अकेले कंधे पर लटकाए सोचना पड़ता है कि आत्मनिर्भरता क्या इसी दिन के लिए चुनी थी. मेरा अस्त व्यस्त घर देखकर उसके माथे पर शिकन आ जाती है,'' में तो ज़रा सी भी धूल बर्दाश्त नहीं कर सकती, घर फैला हुआ देखकर मुझे हार्ट अटैक होने लगता है,'' कहकर वह माथे पर आया हुआ पसीना पोछने लगती है.में डर जाती हूँ कि भगवान् ना करे कि कभी यह अचानक मेरे घर में बिना बताए घुस जाए , तो खामखाह ही मुझ पर इसकी मौत का इलज़ाम आ जाएगा.
वह हर मुलाक़ात में मेरी तनखाह पूछना नहीं भूलती, मेरे बहुत मज़े हैं, उसे याद रहता है, लेकिन तनखाह में लिपटी जिम्मेदारियां, मकान की किस्तें, पुराने उधार कई बार बताने पर भी उसकी मेमोरी से डिलीट हो जाते हैं. वह सबकी चहेती है , सामाजिक कार्यक्रमों में बढ़ -चढ़ कर भाग लेती है, शादी - ब्याह के अवसरों पर उसकी बहुत पूछ होती है, सब जगह से उसके लिए बढ़िया कपड़े बनते हैं, मुझसे कोई खुश नहीं रहता, अक्सर बगल के घर वाले भी मुझे निमंत्रण देना भूल जाते हैं. ससुराल से लेकर मायके तक सभी असंतुष्ट रहते हैं , कितने ही गिफ्ट ले जाओ फिर भी सुनना पड़ता है ''दो - दो कमाने वाले हैं और गिफ्ट सिर्फ एक, छाती पर रखकर कोई नहीं ले जाता , खाली हाथ दुनिया में आए थे, और खाली हाथ जाना है'', गीता का अमूल्य ज्ञान देने से छोटे - छोटे बच्चे भी नहीं चूकते .
कभी वह मेरे मामूली कपड़े देखकर परेशान रहती है, तो कभी चप्पल व पर्स देखकर, मेरी दुर्दशा देख कर उसने पिछले महीने शलवार - सूट का बिजनेस शुरू किया है, इस हफ्ते वह चप्पल और साड़ियों को पंजाब से मंगवाने वाली है, उसने मेरे लिए ख़ास सिल्क के सूट दक्षिण से मंगवाए हैं , उसने शपथ खाकर कहा है कि वह मुझे बिना कमीशन के बेचेगी, क्यूंकि मेरे स्टेंडर्ड को लेकर उसे बहुत टेंशन है.
उसका दृड़ विश्वास है कि नौकरीपेशा औरतों को सदा तरोताज़ा दिखना चाहिए . मैं मेंटेन रहूँ , मेरा स्वास्थ्य अच्छा रहे, इसके लिए वह ओरिफ्ल्म, एमवे की एजेंट बन गई है. जबरदस्ती मुझे महंगे केल्शियम और प्रोटीन के उत्पाद पकड़ा गई . मैंने पैसे नहीं होने की बात कही तो हिकारत भरी नज़रों से बोली ''छिः - छिः कैसी बात करती हो ? नौकरी वाली होकर भी पैसों को लेकर रोती हो, अरे, अगले महीने दे देना , पैसे कहाँ भागे जा रहे हैं ''
मेरी अनुपस्थिति में अक्सर वह किसी न किसी गृह उद्योग वाली महिला के साथ नाना प्रकार के अचार, पापड़, बड़ी के बड़े बड़े पेकेट लेकर आ जाती है, उसके अनुसार मुझ जैसों की निःस्वार्थ मदद करना उसकी होबी है.
जब वह कहती है मेरे बहुत मज़े है क्यूंकि मैं रोज़ घर से बाहर निकलती हूँ ,नाना प्रकार के आदमियों के बीच मेरा उठना बैठना है, और उन्हें बस उनके पति का ही चेहरा सुबह - शाम देखने को मिलता है, तब मैं दफ्तर के बारे में सोचने लगती हूँ, जहाँ मेरे सहकर्मी बातों - बातों में तकरीबन रोज़ ही कहते हैं ''आपको क्या कमी है, दो - दो कमाने वाले हैं '' ये सहकर्मी ऑफिस में देरी से आते हैं, जल्दी चले जाते हैं, मनचाही छुट्टियाँ लेते हैं , नहीं मिलने पर महाभारत तक कर डालते हैं मैं बीमार भी पड़ जाऊं तो नाटक समझा जाता है, सबकी नज़र मेरी छुट्टियों पर लगी रहती हैं.
अक्सर बस में खड़ी - खड़ी जाती हूँ, कोई सीट नहीं देता, कंडक्टर तक कहता है ''आजकल की औरतों के बहुत मज़े हैं''
मेरे साथ काम करने वाले एक सहकर्मी के प्रति मेरी कुछ कोमल भावनाएं थीं , वह अक्सर काम - काज में मेरी मदद किया करता था .एक दिन उसकी मोटर साइकल में बैठकर बाज़ार गई तो वह उतरते समय निःसंकोच कहता है ''पांच रूपये खुले दे दीजियेगा .''
बरसात का वह दिन आज भी मेरी रूह कंपा देता है जब उफनते नाले के पास खड़ी होकर मैंने साहब से फोन पर पूछा था, ''सर, बरसाती नाले ने रास्ता रोक रखा है ,आना मुश्किल लग रहा है, आप केजुअल लीव लगा दीजिए. साहब फुंफ्कारे '''केजुअल स्वीकृत नहीं है, नहीं मिल सकती'' कहकर उन्होंने फोन रख दिया. मैंने गुस्से में आकर चप्पलों को हाथ में पकड़ा और दनदनाते हुए वह उफनता नाला पाल कर लिया, जिसमे दस मिनट पहले ही एक आदमी की बहकर मौत हो चुकी थी,
अक्सर रास्ते में हुए सड़क हादसों में मरे हुए लोगों के जहाँ तहां बिखरे हुए शरीर के टुकड़ों को देखती हूँ तो काँप उठती हूँ , और अपने भी इसी प्रकार के अंत की कल्पना मात्र से मेरे रौंगटे खड़े हो जाते हैं .
वह कहती है कि उनके पति को औरतों का नौकरी करना पसंद नहीं है, उनके पति गर्व से मेरे सामने कई बार यह उद्घोष कर चुके हैं ,''इसे क्या ज़रुरत है नौकरी करने की? इतना पैसा तो मैं इसे हर महीने दे सकता हूँ''
मैं भी एक दिन पूछ ही बैठी '' अरे वाह बहिन, तुम्हारे पति कितने अच्छे हैं ,तुम्हें यूँ ही हर महीने इतना पैसा दे दिया करते हैं, अब तक तो आपने लाखों रूपये जोड़ लिए होंगे , वह बगलें झाँकने लगी, और अपने पति का मुँह देखने लगी , पति सकपका गया ''अरे ! इसने तो कभी पैसा माँगा ही नहीं,वर्ना क्या में देता नहीं?,
वह भी सफाई देती है, ''हाँ, मुझे कभी ज़रुरत ही नहीं पड़ी, वर्ना ये क्या देते नहीं', क्यूँ जी"?
''हाँ हाँ क्यूँ नहीं, चलो बहुत देर हो गई'', कहकर पति उठ गया और वे दोनों चलते बने.
सिर्फ एक सांस में
जवाब देंहटाएंवो भी वही जो
पढ़ना शुरू करते वक्त ली थी
उसी में पढ़ा गया
इतनी बेहतर
व्यापक
पर कम पात्रों वाली
घनघोर सच्चाई
पाठक इसे व्यंग्य कहेंगे
जबकि इसमें वे अंग ही नहीं हैं
दूसरों के दुख में
सबको व्यंग्य ही दिखलाई देता है।
बहुत खूब प्रस्तुति एक मुक्तभोगी
या एक सकुशल रचनाकार ही कर सकता है।
अपने आसपास के चित्र और चरित्र बड़ी खूबसूरती से सजाये। बेहतरीन। अपनी भरपूर लम्बाई के बावजूद एक बार में ही पढ़ गये। बहुत अच्छा लगा। आज के दिन की एक उपलब्धि लगी इसे पढ़ना। बधाई।
जवाब देंहटाएंपोस्ट ने पिछली सारी कसर पूरी कर दी और बची हुई खुराक भी ...क्या कहूं कि आज स्वाद अलग था ....सच था वो भी इतना तीखा ..मगर जलन नहीं हुई ..मन शांत हो रहा था कहीं ...आपने बहुत सी बातें कह डाली हैं ..दोबारा पढने के बाद फ़िर जो भी आएगा मन में वो कहने दोबारा आऊंगा ...अभी इतना ही .....
जवाब देंहटाएंशैफाली ! सिक्के के दोनों पहलू बहुत ही सहजता से दिखा दिए आपने.....और सारी बात कह दी...वाकई इतने दिनों की सारी कसर पूरी हो गई..गहन अध्धयन और सटीक और गहरी बात.बहुत बढ़िया.
जवाब देंहटाएंजो लिखा गया है, वो हमने अपनी कामकाजी मांओं और बहनों को जीते देखा है या कहूं भोगते देखा है। सौ फ़ीसदी सच। पढ़ते-पढ़ते लगा कि जाने-अनजाने हम इन बेहद ज़हीन महिलाओं को शायद उतनी तवज्जो, उतनी इज़्ज़त नहीं देते जितना उनका हक़ है।
जवाब देंहटाएंअविनाश जी की टिप्पणी को मेरी भी टिप्पणी माना जाए
जवाब देंहटाएंबी एस पाबला
कामकाजी स्त्रियों के बारे में बहुत बढ़िया लिखा है। मुझे याद आ गया कि एक ही कारखाने में भाई व भाभी काम करते थे। जब भतीजा बीमार होता तो भाभी को छुट्टी देने से पहले घर ही क्यों नहीं बैठ जातीं का ताना अवश्य मिलता था और भाई को एक बार माँगने से आराम से छुट्टी मिल जाती थी। जबकि दोनो ही इन्जीनियर थे। स्त्री को कामकाजी होने की भी बहुत अधिक कीमत चुकानी पड़ती है। शायद कुछ बदलाव आ रहा है या आने की संभावना है।
जवाब देंहटाएंघुघूती बासूती
पाबला जी कि टिप्पणी को भी मेरी टिप्पणी माना जाए.....
जवाब देंहटाएंपाबला जी की टिप्पणी को मेरी भी टिप्पणी माना जाए.....
जवाब देंहटाएंमहफूज़ की टिपण्णी को मेरी टिपण्णी मानी जाय....:):)
जवाब देंहटाएंहा हा हा हा...
शेफाली जी...ये तो मज़ाक था...लेकिन क्या बात कह दी....
सच...सच..और सच....
बहुत खूब...
जब तक पढ़ रहे है तब तक के लिए टेम्पररेली अदा जी की टिप्पणी को मेरी माना जाये.
जवाब देंहटाएंपढ़ते ही फिर करते हैं. :)
इस ब्लाग पर अक्सर आता हूँ , पढ़ता हूँ और चला जाता हूँ किन्तु आज यह कहना जरूरी और बहुत जरूरी समझता हूँ कि आपने बहुत अच्छा लिखा है। यह एक उम्दा आलेख है - अच्छा गद्य.आज का स्त्री स्वर.इसे किसी पत्र - पत्रिका में अवश्य छपवायें , अगर छपा नहीं है तो >>
जवाब देंहटाएंकमाल का फ्लो था..शिखा जी की ही तरह मुझे भी लगा कि सिक्के के दोनों पहलु बखूबी दिखाए आपने.. जहाँ तहां कसावट ली हुई पंक्तियों ने मन ही मोह लिया.. कलम की धार वाकई बहुत पैनी है आपकी.. अपना तो सलाम है..
जवाब देंहटाएंआज एक अंतराल के बाद आ पाया अपनी फेवरिट टीचर के द्वारे। नुकसान मेरा ही था। ये इतनी लंबी पोस्ट कैसे लिख लेती हो आप और वो भी पाठक को लगातार बाँधे हुये? सुबह-सुबह हँसी के इस डोज के लिये शुक्रिया...
जवाब देंहटाएं....और हाँ, प्रो० कुंवर पाल साब का देहांत हम सब पाठकों के लिये एक गहरा सदमा था।
शेफाली बहना,
जवाब देंहटाएंउड़न तश्तरी वाले गुरुदेव की टिप्पणी को मेरी टिप्पणी माना जाए...
वैसे आपकी पड़ोसन ही नहीं हमारी सरकार भी यही समझती है कि हम नौकरी करने वाले बड़े मज़े में है...भगवान करे ऐसा मज़ा सरकार चलाने वालों को भी मिले...
जय हिंद...
हे प्रभु..! ये मेरी रामकहानी कैसे लिख दी आपने..!
जवाब देंहटाएंबाप रे मैं तो इस बात से बुरी तरह परेशान हो गई थी कि मेरी पड़ोसन बस मुझे बाहर निकलते देखती और कह उठती " आपका तो अच्छा है।"
सुबह आफिस जाते समय "आफिस जा रही हैं आपका ही अच्छा है।"
शाम को दीदी के घर जा रही हूँ भांजा बीमार है " जाइये आपका ही अच्छा है।"
और यहाँ मैं सोचती कि इस अच्छे में वो घड़ी कब आयेगी जब मैं लोगो के अच्छे का विश्लेषण कर सकूँ।
आपको जो दो दो लोगों के कमाने पर सुनना होता है उसमें मुझे सुनना होता है " अरे करने ही क्या है, अकेली है, बस कमाना खाना है।" लोगो की तरह चार लोगो का परिवार तो मेरा भी है, मगर उनमे से कोई भी मेरा पति बेटा या बेटी नही है तो मैं अकेली। १२ भतीजे भतीजों में सब का मेरे ऊपर उतना हक जितना अपने माता पिता पर..लेकिन मेरे पास खर्च नही...! आफिस में किसी व्यक्तिगत खुशी पर उत्साह से पैसा खर्च कर दिया तो " अरे उनकी क्या बात है।" किसी की शादी में जब सब की जेब से ५१ रू निकल रहे हैं और खुद ने ५०१ दे दिये तो " अब सब की और उनकी क्या बराबरी" अगर यही सोच कर सब के साथ हो गई तो "मैडम को तो ये शोभा नही देता"
बस समझिये शेफाली जी पके फोड़े पर हाथ रख दिया और वो फूट पड़ा
हा हा हा... मस्त लेख..!
वह हर मुलाक़ात में मेरी तनखाह पूछना नहीं भूलती, मेरे बहुत मज़े हैं, उसे याद रहता है, लेकिन तनखाह में लिपटी जिम्मेदारियां, मकान की किस्तें, पुराने उधार कई बार बताने पर भी उसकी मेमोरी से डिलीट हो जाते हैं......
जवाब देंहटाएंLajawaab likha hai aapne lajawaab.....
dono pahluon ko itni achchi tarah aapne dikhaya hai ki bas kya kahun.....Waah !!!
great
जवाब देंहटाएंआपको नए साल (हिजरी 1431) की मुबारकबाद !!!
जवाब देंहटाएंसलीम ख़ान
सच मे यह है मजे का अर्थशास्त्र, हर्र लगे न फिटकरी रंग चोखा का चोखा :)
जवाब देंहटाएंनौकरीपेशा महिलाओं की परेशानियों को बहुत अच्छी तरह बयाँ किया है.और उसका दर्द भी नहीं समझ पाते लोग...या तो उपहास उड़ाते हैं या सिहा कर व्यंग कर डालते हैं....अन्दर तक डूबकर बहुत बारीकी से उकेरा है,उनकी मजबूरियों को.
जवाब देंहटाएं(पोस्ट की लम्बाई से मुझे कोई परेशानी नहीं हुई,मैं भी लम्बी पोस्ट ही लिखती हूँ,और जब सबलोग कहते हैं,एक सांस में पढ़ गए तो फिर क्यूँ ना लिखें हम :))
आज पढी हुई एक बेहतरीन पोस्ट । नौकरीपेशा महिलाओं के लिए संघर्ष बहुतरफा हो जाता है । और उनका सुकून घर से मिले सहयोग पर निभर्र करता है । यह एक हकीकत बयानी है । पढना शुरू करने वाले को अंत पर लाकर ही छोडना लेखन शैली की विशेषता ।
जवाब देंहटाएंऐसे लेखन के लिए बधाई ।
बहुत ही सधे एवं रोचक शब्दों में आपने एक ही लेख में कामकाजी महिला की व्यथा... धर्य एवं शक्ति को वर्णित किया है...इसके लिए बधाई...
जवाब देंहटाएंआपका ये लेख अपना सन्देश देने में पूर्णत्या सफल रहा है इसलिए एक बार फिर से आपको बहुत-बहुत बधाई
बहुत पहले कहीं एक वाक्य पढा था कि हम वो हैं जो तमाचे मारकर गाल को लाल कर लेते हैं और लोग समझते हैं कि हम बदाम खाते हैं । यथार्थ का यह चित्रण व्यंग्य के शिल्प में बहुत अच्छा लगा ।
जवाब देंहटाएंऔर यह.. ....की टिप्पणी को मेरी टिप्पणी माना जाये ब्लॉग जगत का नया फैशन है क्या भाई ?
बहुत खूबसूरती से लिखा यह व्यंग बिल्कुल सटीक है. बहुत शुभकामनाएं.
जवाब देंहटाएंरामराम.
अफ़सोस इसी का है कि जिनके लिए है यह,
जवाब देंहटाएंउनके नसीब में नहीं कि इसे पढ़/ समझ पाएं.
बाप रे,
क्या भिगो-भिगो के दिया है भई.
कोई क़सर नहीं छोड़ी...
aapke lekhan ke bare mein kuch bhi kahna ..oont ke muh mein jeere vali baat hi hoti hai hamesha ..
जवाब देंहटाएंbandhai swikaren
सहेज लिया है। फुरसत में पढ़ी जाएगी।
जवाब देंहटाएंकई बार बस स्टॉप पर खड़ी होकर ही मुझे पता चलता है कि जल्दीबाजी में बाथरूम स्लीपर पहिन कर आ गई हूँ, वापिस जाना संभव नहीं होता क्यूंकि बस का समय निश्चित है ,इसीलिए ऐसे ही जाना पड़ता है और सबकी हँसती , मज़ाक उड़ाती नज़रों का सामना करने की शक्ति वह सर्वशक्तिमान ईश्वर मुझे प्रदान कर ही देता है.
जवाब देंहटाएंYahi yatharth hai. jamini sachai hai.....
Bhuktbhogi hi janata hai.....
Badhai
मेरी कहानी है, एक सांस में पढ़ गये, ह्र्दयस्पर्शी
जवाब देंहटाएंबहुत सटीक व्यंग!
जवाब देंहटाएंनव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ.
रचना में बहाव है। एक सॉंस में ही पढ़ गया। कोई ने समझना भी चाहे तो समझ जायेगा कि आप क्या कह रही है। क्या बढि़या 'सिसूण' लगाया है। बधाई।
जवाब देंहटाएंएक सटीक व्यंग्य, शुक्रिया
जवाब देंहटाएंसुशील शिवहरे