रविवार, 14 फ़रवरी 2010

वलेंटाइन पर विदाई

विदाई के दृश्य बड़े ही कारुणिक होते हैं, चाहे  घर में लडकी की विदाई हो या स्कूल में  बच्चों की. दोनों में ''बला  अगले के मत्थे टली'' वाली भावना की समानता  रहती है . ये और भी कारुणिक हो जाते हैं जब विदाई यानि  फेयरवेल वेलेंटाइन  डे से दो दिन पहले संपन्न  करा लिया जाए, जिस कारण कई प्रेम - कहानियाँ  शुरू होने से पहले  ही समाप्त हो जाती हैं.  
 
यह किसी अंग्रेज़ी  स्कूल का नहीं बल्कि एक सरकारी  विद्यालय का  विदाई का दृश्य है, स्कूल का  हिन्दी अनुवाद  भले ही विद्यालय हो लेकिन इन सरकारी विद्यालयों का अंग्रेज़ी मतलब स्कूल किसी हाल में नहीं हो सकता.
 
हर विदा लेने वाला बैच वर्तमान  सरकार की तरह होता है, हर साल इस वाक्य की पुनरावृत्ति अनिवार्य  होती है कि '' इतना ख़राब बैच पहली बार देखा'' .आने वाले बैच पर सबकी आशा भरी नज़रें टिकी होती हैं, जो  विदाई लेने वाले बैच के नक़्शे कदम पर चलने के लिए तैयार खड़ा होता है.
 
विदा की बेला में नाराज़ विद्यार्थियों ने कुर्सियों को इस तरह से लगाया था कि धूप सीधे मास्टरों के मुँह पर पड़े. साल भर धूप में मुर्गा बनाने का बदला ये इस तरह चुकाते हैं.
 
विदाई पर्व की शुरुआत वीणा वादिनी की वंदना '' वर दे वर दे वीणावादिनी वर दे'' से शुरू हुई. सदियों से चली आ रही एकमात्र वंदना को सुनकर देवी सरस्वती भी शायद खीज गई हैं, कि जब तक नई वंदना नहीं गई जाएगी मैं कृपा नहीं करूंगी. पहली लाइन में सबसे आगे खड़ी  को वर मिल ही जाता यदि उसके पिता ऐन फेरों के वक्त पुलिस को ना ले आए होते. दूसरी लाइन में तीसरे नंबर पर खड़ी अपने प्रिय अध्यापक को देख कर जोर जोर से गा रही है '' वर दे वर दे'', वीणावादिनी उसकी मदद चाह कर भी नहीं कर सकती क्यूंकि अध्यापक पहले से शादीशुदा एवं दो बच्चों का बाप है.
 
लड़कियों की आँखों से निरंतर गंगा - जमुना प्रवाहित हो रही है, इसका एक मुख्य कारण जो  दृष्टिगोचर था,  वह यह कि प्रधानाचार्य महोदय के सख्त निर्देशों की वजह से  स्कूल युनिफोर्म  में ही विदाई लेनी पड़ी  वह भी ऐन वेलेंटाइन से पहले, तो आँसू आने स्वाभाविक है.  सरकारी स्कूलों में घटती छात्रा संख्या का एक बहुत बड़ा कारण प्रधानाचार्यों के इस तरह के तुगलकी फरमान भी हो सकते हैं   जिन लोगों  ने प्राइवेट स्कूलों से शिक्षा प्राप्त की हो, और भव्य विदाई ली हो  वे लोग इनकी व्यथा को भली प्रकार समझ सकते हैं. रोने का दूसरा  कारण  जो  दृष्टिगोचर  नहीं  था वह  यह  कि   अब इन्हें घर से विद्यालय आने की अनुमति नहीं मिलेगी, कईयों के हाथ भी परीक्षोपरांत पीले हो जाएंगे. यह मुख्य  फर्क होता है ग्रामीण क्षेत्र की लड़कियों में और शहरी क्षेत्र की लड़कियों में, शहरी क्षेत्र की लड़कियां प्रेमियों से मुलाक़ात करने के लिए स्कूल को छोड़कर हर कहीं पाई जा सकती हैं , यथा क्लब, पब, शोपिंग माल, पार्क या मल्टीप्लेक्स, जबकि ग्रामीण क्षेत्र की लड़कियों को मन हो या न हो, मुलाक़ात  करने के लिए  स्कूल आना पड़ता है, शहरी लड़कियों की असल ज़िंदगी जहाँ स्कूल के पश्चात शुरू होती है वहीं  ग्रामीण क्षेत्र की लड़कियों की स्कूल के पश्चात ख़त्म 
 
तीसरी पंक्ति में पहले नंबर पर बैठी लडकी अबकी बार रोने से परहेज़ कर रही है, पिछली बार उसने  विदाई से एक हफ्ते पहले से रोना शुरू कर दिया था, लेकिन  परीक्षा में फ़ेल हो गई थी.
 
ऐसा  नहीं है कि अध्यापक बच्चों के जाने से दुखी नहीं होता, लेकिन ध्यान देने वाली  बात यह है कि कोई भी जब अध्यापक नया - नया आता है तब ज्यादा दुखी होता है, लेकिन जैसे - जैसे बच्चों को  जानता जाता  है, उसका दुःख कम होता चला  जाता हैं.
 
भाषणों का दौर होता ही ऐसा मनमोहक होता है कि नेता हो या अध्यापक कोई इस मौके को नहीं छोड़ना  चाहता. अध्यापक अपने साथियों के बीच अपनी विद्वता दिखाने का मौका कभी नहीं छोड़ता . अंग्रेज़ी के शिक्षक अपने भाषण में तुलसी  के दोहे, शेक्सपीयर के सोनेट, ग़ालिब का शेर, और ऋग्वेद  का श्लोक समान रूप से  शामिल करते हैं, ऐसा लगता है कि अगर  इनसे कोई भाषा बोलने से छूट गई तो भाषा पर नया संकट आ सकता है.
 
जीव विज्ञान के शिक्षक ने बच्चों को परीक्षा के कुछ टिप्स दिए. उन्होंने कहा कि आजकल आप अपने  खान - पान का ध्यान  रखें. खाने में बादाम, दालें, दूध, दही, हरी सब्जियां अवश्य शामिल करें.मजदूर और किसानों की अभागी संतानें   उसी प्रकार उनका मुँह देख रही  थीं, जिस प्रकार मेरी अंतोनियो का मुँह उसकी प्रजा देख रही होगी  जब उसने उनसे कहा होगा  '' खाने के लिए ब्रेड  नहीं है तो केक क्यूँ नहीं खाते हैं ये लोग''  उन्होंने बाद में यह भी जोड़ा  कि अगर बच्चों को समय नहीं मिल  पाता तो वे उनसे रेडीमेड फ़ूड सप्लीमेंट भी ले सकते हैं, जिसकी उन्होंने एजेंसी ले रखी है. और बच्चे भली प्रकार  जानते हैं कि इनके हाथ में   प्रेक्टिकल के कितने नंबर हैं. 
 
संस्कृत  के अध्यापक पर भरी ज़िम्मेदारी आ गई थी, श्लोक सारी अंग्रेज़ी के अध्यापक ने उवाच दिए, उनके हिस्से कुछ नीति कथाएँ ही रह गई थीं, जो वे हर साल घुमा - फिर कर सुनाते  थे, जिसमे  से एक भारवि की कथा थी, हर बार की तरह इस बार भी उसी प्रसंग पर बच्चों ने खूब तालियाँ पीटीं, उनके सुपुत्र ने पांच मिनट अतिरिक्त ताली पीटी, जिस प्रसंग में भारवि अपने पिता को मारने जाता है.  पश्चाताप,  वाले हिस्से को सुनने से पहले अधिकतर विद्यार्थी पानी पीने चले गए थे,
 
समय के गुजरने के साथ - साथ अध्यापकों के मध्य असंतोष के स्वर मुखर हो गए, यह तीसरी बस थी जो होर्न देकर  निकल गई थी.
''कौन सी नई बात कह रहे हैं, हर साल वही लकीर पीटी जाती है'' ऐसे स्वर उन्हीं  थे  जिन्हें बोलने का मौका नहीं मिल पाया, मौका मिलता तो वे भी लकीर पीटते और यकीनन बहुत जोर से पीटते.
 
प्रधानाचार्य भाव विह्वल थे, क्यूंकि बच्चों द्वारा पुर्ची निकालने का जो खेल खेला गया,था उसमे  तकरीबन अस्सी प्रतिशत पुर्चियों में एक ही प्रश्न  घुमा फिर कर बच्चों से पूछा  गया  था  कि '' प्रधानाचार्य जी की कौन सी बात आपको सबसे अच्छी  लगती है'' , कोई और विकल्प  रखा ही नहीं गया था.  कई अध्यापकों का यह भी मानना था, कि ये पर्चियां उन्होंने बच्चों को शानदार पार्टी का प्रलोभन देकर स्वयं सेट करवाई हैं.
 
इतिहास के अध्यापक को सुनकर बच्चे स्तब्ध रह गए थे क्यूंकि जितना वे इस सभा में बोले उतना  साल भर में कक्षाओं जाकर भी नहीं बोले होंगे, यह अविस्मरणीय  क्षण उनके छात्र जीवन के इतिहास में हमेशा हमेशा के लिए दर्ज हो गया.
 
'' निश्चित रूप से'' का प्रयोग लगभग सभी अध्यापकों ने अपने भाषण में निश्चिन्त होकर किया, और यह बताना भी कोई नहीं भूला कि ''ज़िंदगी में कई परीक्षाओं का सामना करना पड़ता है, ये तो कुछ भी नहीं है''. इस वाक्य पर बच्चे वाकई हैरान थे, मानो कहना चाह रहे हों, कि ज़िंदगी की परीक्षाओं से तो हम जैसे - तैसे निपट ही  लेंगे आप तो स्कूल की परीक्षा पास करने का कोई जुगाड़ बताओ.
 
किसी तरह से विदाई समारोह संपन्न हुआ. एक समोसा और एक पेस्ट्री उदरस्थ करके अंतिम  बस ना छूट जाए, इस भय से भीषण  वक्ताओं को कोसते हुए बचे हुए सभी  अध्यापकों ने  सड़क की ओर दौड़ लगा दी, चलते - चलते यह निर्णय भी सर्वसम्मति से ले लिया गया कि साल भर तक अध्यापकों को दिन में तारे दिखाने वाले विद्यार्थियों के लिए, अगले साल  विदाई के नाम पर ऐसा कोई ढकोसला नहीं किया जाएगा, और इस निर्णय की सूचना प्रधानाचार्य को पहले से दे दी जाएगी, यदि वे नहीं मानेंगे तो ऐसे कार्यक्रमों  का बहिष्कार किया जाएगा. इस कार्यक्रम के कारण  जिनकी रोज़ की बस छूट गई थी उन अध्यापक का  स्वर सबसे तेज था. 
 
 
 
 
 
  
 

20 टिप्‍पणियां:

  1. शेफाली जी ! यार कहाँ से इतनी सटीक शब्दावली लाती हो ........पढ़ पढ़ कर लोटपोट होने के साथ सोचने को भी बाध्य हो जाते हैं . प्रेम दिवस की हार्दिक बधाई .

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  2. बधाई सुंदर शब्द-अलंकृत पोस्ट एवं आज के दिवस की.

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  3. बहुत सुन्दर और सटीक लिखा है आपने!
    प्रेम दिवस की हार्दिक बधाई!

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  4. बेहतरीन और सटीक व्याख्या..मजा आया पढ़ कर.

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  5. गजब की धार है आपके लेखन में. एकदम सटीक और तराशी हुई पोस्ट. बहुत शुभकामनाएं.

    रामराम.

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  6. बहुत पैनी नज़र है आपकी और उससे भी ज्यादा पैनी है कलम।मां सरस्वती की कृपा आप पर सदा बनी रहे।शानदार लिखा व्यंग की धार में एक बहुत बड़ी बात भी कह दी आपने शहरी लड़कियों की असली ज़िंदगी स्कूल के बाद शुरू होती है और ग्रामीण लड़कियों की स्कूल के बाद खतम्।नमन करता हूं आपकी कलम को।

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  7. सुंदर बहुत सुंदर. महीन से महीन भाव भी नहीं छूटे हैं.

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  8. विदाई समारोह पर अच्छा व्यंग और सटीक लेखन..

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  9. शिक्षक अपने भाषण में तुलसी के दोहे, शेक्सपीयर के सोनेट, ग़ालिब का शेर, और ऋग्वेद का श्लोक समान रूप से शामिल करते हैं, ऐसा लगता है कि अगर इनसे कोई भाषा बोलने से छूट गई तो भाषा पर नया संकट आ सकता है.

    घोर सत्य...

    ब्लॉग पर व्यंग कम ही दीखते है (स्तरीय) लेकिन यहाँ की फिजा कुछ क्या सबसे अलग है... इतने संतुलित तरीके से लिखती है आप की लगता है अखबार या आपकी कोई किताब पढ़ रहा हूँ... मुझे ऐसा लगता है आपको जरूर कहीं छपने के लिए इन सबको भेजना चाहिए... क्योंकि यह सही मायने में व्यंग लगा... बात भी कह दी आपने बड़े सलीके से... शुक्रिया.

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  10. किसी तरह से विदाई समारोह संपन्न हुआ. एक समोसा और एक पेस्ट्री उदरस्थ करके अंतिम बस ना छूट जाए, इस भय से भीषण वक्ताओं को कोसते हुए बचे हुए सभी अध्यापकों ने सड़क की ओर दौड़ लगा दी, चलते - चलते यह निर्णय भी सर्वसम्मति से ले लिया गया कि साल भर तक अध्यापकों को दिन में तारे दिखाने "वाले विद्यार्थियों के लिए, अगले साल विदाई के नाम पर ऐसा कोई ढकोसला नहीं किया जाएगा, और इस निर्णय की सूचना प्रधानाचार्य को पहले से दे दी जाएगी, यदि वे नहीं मानेंगे तो ऐसे कार्यक्रमों का बहिष्कार किया जाएगा. इस कार्यक्रम के कारण जिनकी रोज़ की बस छूट गई थी उन अध्यापक का स्वर सबसे तेज था."
    हाहाहा.....जानती हैं शेफाली जी, मुझे पूरा स्टाफ़ सडक पर दौडता दिखाई देने लगा है...और दिन में तारे दिखाने वाले विद्यार्थी..हाहाहा...धूप की तरफ़ कुर्सियां...उफ़्फ़्फ़्फ़्फ़...पेट में दर्द हो गया...गजब का बिम्ब. बधाई.

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  11. स्कूल से विदाई समारोह की बात जब भी मैं सोचता हूँ तो एक बात मन में आती है कि बच्चों के लिये यह पहला और अंतिम अवसर होता है ( जो एक बार में पास हो जाते हैं उनके लिये ) लेकिन शिक्षकों के लिये तो यह हर साल दोहराई जाने वाली एक प्रक्रिया है , हर साल एक ही भाषण काम मे आ जाता है ।

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  12. सागर सही कह रहा है स्तरीय व्यंग्य की अपनी खुराक के लिए ही मैं आज आपके ब्लॉग पर आया हूँ.. वैसे मैं कारुणिक व्यंग्य कहूँगा.. ग्रामीण क्षेत्रो और शहरी क्षेत्रो की लडकियों में जो अंतर आपने बताया है वो वाकई सोचनीय है..

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  13. दूसरा कारण जो दृष्टिगोचर नहीं था वह यह कि अब इन्हें घर से विद्यालय आने की अनुमति नहीं मिलेगी, कईयों के हाथ भी परीक्षोपरांत पीले हो जाएंगे. यह मुख्य फर्क होता है ग्रामीण क्षेत्र की लड़कियों में और शहरी क्षेत्र की लड़कियों में, शहरी क्षेत्र की लड़कियां प्रेमियों से मुलाक़ात करने के लिए स्कूल को छोड़कर हर कहीं पाई जा सकती हैं , यथा क्लब, पब, शोपिंग माल, पार्क या मल्टीप्लेक्स, जबकि ग्रामीण क्षेत्र की लड़कियों को मन हो या न हो, मुलाक़ात करने के लिए स्कूल आना पड़ता है, शहरी लड़कियों की असल ज़िंदगी जहाँ स्कूल के पश्चात शुरू होती है वहीं ग्रामीण क्षेत्र की लड़कियों की स्कूल के पश्चात ख़त्म .
    -----what to say Madam- this reflects the real image of the rural Himalaya-------by reading this I am back to my village with all the friends of up to Inter mediate class and the real story of that time ------Great lines with the real feelings on this Valentine Day.........

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