सोमवार, 21 अक्तूबर 2013

खोदो न उन्नाव का यह गाँव बन्धु !

महाकवि '' निराला '' से माफी सहित ……

खोदो न महानुभाव यह गाँव बन्धु !
हंसेगा सारा उन्नाव बन्धु !

यह स्वप्न वही जिसे बिस्तर पर
हम देखा करते थे अक्सर
संतन की बातों में फंसकर
झोंक दिए क्यूँ लश्कर - लाव बन्धु !

खोदो न महानुभाव यह गाँव बन्धु !
 
वह स्विस बैंक में लुक - छुप रहता है
फिर भी जग की  आँखों में चुभता है
जेवर में सजता है, ईंटों में रहता है
झेलता है सबकी कांव - कांव बन्धु !

खोदो न महानुभाव यह गाँव बन्धु !        [मास्टरनी ]



5 टिप्‍पणियां:

  1. क्रिएटिव....

    थोडा और होता काश
    "झोंक दिए क्यूँ लश्कर - लाव बन्धु ! "

    लाव लश्कर का सुन्दर प्रयोग.

    "झेलता है सबकी कांव - कांव बन्धु !" - यहाँ थोड़ी कमी रह गयी (तुकबंदी का शिकार हो गयी, साफ़ लगता है)

    क्रिएटिव.... सचमुच

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  2. सच लिखा है, अपनी क्षमताओं की संभावनायें खोजनी हैं।

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