ये क्या लगा रखी है असहिष्णुता, असहिष्णुता ? पुरस्कार पर पुरस्कार लौटाए जा रहे हैं । मैं पूछता हूँ आखिर क्यों ? मैं तो एक ही बात कहता हूँ कि अगर ये वाकई साहित्यकार हैं तो लिख कर क्यों नहीं प्रकट करते अपना क्रोध ? बताइये तो ज़रा । क्या कहा ? आजकल साहित्य पढ़ता ही कौन है ? अजी आजकल कौन नहीं पढता है ये कहिये आप तो । अब मेरा ही उदाहरण लीजिये । मैं फेसबुक की सारी शायरियां जो सुन्दर - सुन्दर महिलाओं द्वारा पोस्ट की जाती हैं, उन्हें लाइक करने में तनिक भी विलम्ब नहीं करता । कई बार पढता बाद में हूँ लेकिन लाइक पहले कर देता हूँ । सारे विवादस्पद लेख और उन पर आए हुए कमेन्ट्स को खंगाल - खंगाल कर पढता हूँ । इस तरह के लेखों में जब तक माँ - बहिन की गालियां नहीं आने लगती तब तक मैं बड़ी बैचैनी महसूस करता हूँ । मज़ाल है कि एक भी गाली मेरी नज़रों से गुज़रे बिना गुज़र जाए । अजी मेरे बराबर क्या पढ़ा होगा किसी ने ? पैदा होने के साथ ही साहित्य का दामन थाम लिया था । आँख खुलते ही लोट - पोट , मोटू - पतलू और मूंछें आने से पहले ही सत्यकथा, मनोहर कहानियां एक ही दिन में चट कर जाता था । मस्तराम तो आज भी कभी - कभार संदूक से निकाल कर पढ़ लेता हूँ । साहित्य से तो मेरा हमेशा ही चोली - दामन का साथ रहा है ।
साहित्य क्या होता है यह सवाल आप मुझसे कर रहे हैं मुझसे ? साहित्य के क्षेत्र में मेरा दखल इतना है साहब कि आप सुनेंगे तो चौंक जाएंगे ।
मैं रोज़ सुबह दो अखबार पढता हूँ । एक - एक खबर को बारीकी पढता हूँ । अपहरण, बलात्कार,छेड़छाड़ और हत्या की सारी ख़बरें मुझे मुंहजबानी याद रहती हैं ।
व्हाट्सप्प के सारे चुटकुले, सारे दर्शन मुझे एक ही बार में कंठस्थ हो जाते हैं । व्हाट्सप्प के विद्वतजन जितनी कवितायेँ भेजते हैं, मैं उन सबको पढता हूँ । कई बार तो ज़ोर - ज़ोर से सराहना करता हूँ '' क्या बात कही है बन्दे ने वाह भई वाह ! मैं केवल सराहना तक ही सीमित नहीं रहता जनाब । इस उत्कृष्तम साहित्य से कोई वंचित न रह जाए यह सोचकर मैं अपनी कॉन्टेक्ट लिस्ट के प्रत्येक कॉन्टेक्ट को तुरंत फॉरवर्ड कर देता हूँ । कतिपय मूढ़मतियों ने गाली देकर मुझे ब्लॉक तक कर दिया लेकिन मेरी साहित्य साधना में कोई फर्क नहीं आया । अजी साहब ! कोई कुछ भी कहे लेकिन साहित्य के प्रचार - प्रसार में मेरे योगदान को अनदेखा नहीं किया जा सकता |
इन तथाकथित साहित्यकारों को जानता ही कौन था आज से पहले ज़रा बताइये ? ईनाम वापिस करके प्रसिद्द होना चाहते हैं । सब जान गए हैं इनकी असलियत । दो कौड़ी के साहित्यकार । धिक्कार । कूड़ा - कचरा है इनका साहित्य । मैंने कई बार इनकी पुस्तकों को देखा है । मेरी तो हिम्मत ही नहीं हुई उन्हें खोलने की । एक पन्ना खोलने के बाद ही जी घबराने लगता है । पता नहीं इतनी मोटी - मोटी किताबें लिख कैसे लेते हैं ? मैंने कई बार लिखने का प्रयास किया लेकिन एक पंक्ति से आगे मामला बढ़ ही नहीं पाया । मैं तो कहता हूँ कि इस देश का दुर्भाग्य है यह कि मैं कुछ लिख नहीं पाया वरना ये साहित्य अकादमी वाले ईनाम लेकर पीछे दौड़ते । वैसे देखा जाए तो लिखना कौन सी बड़ी बात है ? बड़ी बात तो यह है कि आपके विचारों को दुनिया जाने । मुझे तो न जाने कहाँ - कहाँ से फोन आते हैं । लोग मेरे विचार जानने के लिए लालायित रहते हैं । मेरे विचार कभी लेखनी के मोहताज़ नहीं रहे । लिखते तो वे हैं जिन्हें खुद पर भरोसा नहीं रहता ।
क्या पूछा आपने ? हमें कोई ईनाम मिला है आज तक ?
एक बात बता देता हूँ सब कान खोल कर सुन लो भाई । हम वो इंसान हैं जो कभी इनाम के मोहताज़ नहीं रहे । हम कर्म करते हैं सिर्फ कर्म । ईनाम लेने वाले तलुवे चाटते हैं सरकार के तलुए । हमने सदा कर्म में विश्वास रखा है । ईनाम मिले या न मिले हमें कोई परवाह नहीं । हम तो बस इतना याद रखते हैं '' कर्मण्यवाधिक्कारस्ते आम्र फलेषु कदाचनम् ''। बचपन से ही इसे अपना आदर्श माना है हमने । मैं जानता हूँ कई बार लोगों ने मुझे ईनाम देने की सोची होगी लेकिन उन्हें कहीं से पता चल गया होगा की इस दुनिया में एक ऐसा इंसान भी रहता है जिसे इनामों से कोई लेना - देना नहीं है । यही सोचकर उन्होंने मुझे कोई ईनाम नहीं दिया होगा । मैं तो दूसरे ही किस्म का आदमी हुआ । धन, यश कीर्ति की कोई परवाह नहीं मुझे । मैं तो जूते की नोक पर रखता हूँ इन दो कौड़ी के पुरस्कारों को ।
कहाँ है असहिष्णुता ? मैं कहता हूँ दिखाओ मुझे किधर है असहिष्णुता ? कहते - कहते उनकी आँखों में खून उत्तर आया । आवाज़ पंचम सुर में पहुँच गयी । सीट पर बैठना उनसे मुश्किल हो गया । हाथों से मेज़ को पटकने लगे । मेज़ में दरार आ गयी । उँगलियाँ उठा - उठा कर हवा में तानने लगे । आवाज़ फुंफकार में बदल गयी । मुंह से झाग निकलने लगा । आँखों में खून उत्तर आया । नथुनों से धुवाँ निकलने लगा । बैचैन होकर तेज़ी से कमरे में चहलकदमी करने लगे । ''सर आपका पीरियड है '' कहकर जो बच्चे उन्हें बुलाने आए उन्हें इतनी ज़ोर से डपटा कि उनमें से एक की तो पेंट में ही पेशाब निकल गयी । दूसरे की पीठ में इतनी ज़ोर से धौल जमाई कि वह थोड़ी देर तक सांस ही नहीं ले पाया । '' बड़े आए बुलाने वाले, आता जाता कुछ है नहीं और पढ़ने चले हैं , खबरदार जो आइन्दा से कभी बुलाने आये , हिम्मत कैसे पड़ जाती है ससुरों की ''?
इसे असहिष्णुता ठहरा रहे हैं आप ? अजी मैंने अभी - अभी सुना वह भी अपने इन्हीं दो कानों से । साफ़ - साफ़ कहा आपने मुझे असहिष्णु । यह तो वही वाली बात हो गई ' उलटा चोर कोतवाल को डांटे '। आपको इस बालक की असहिष्णुता दिखाई नहीं पड़ती ? शान्ति से बैठा रहता जैसे और बच्चे बैठे रहते हैं, लेकिन नहीं, यहीं चला आया मुझे बुलाने । इतनी सहिष्णुता नहीं है इसके अंदर । बड़ा होकर तो पता नहीं क्या - क्या करेगा यह ? गद्दार कहीं का । देशद्रोही । इसे दूसरे स्कूल भिजवाता हूँ । अभी टी.सी. काट कर इसको थमा देता हूँ । ऐसा बच्चा नहीं चाहिए मुझे अपने विद्यालय में । यहाँ मैं इतनी महत्वपूर्ण चर्चा में व्यस्त हूँ और इसे अपनी पढ़ाई की पड़ी है । बताइये ! हद हो गयी । असहिष्णुता की पराकाष्ठा है यह तो ।
बहुत उम्दा। जियो!
जवाब देंहटाएंसही कहा
जवाब देंहटाएंबहुत सही
जवाब देंहटाएंखूब रटन लगी असहिष्णुता की... कुछ दिन बात सब भूल जायेगें। .यही होता है। . बस चलना चाहिए कुछ न कुछ चर्चा में
जवाब देंहटाएंyour blog listed here Best Hindi literature Blogs
जवाब देंहटाएंबहुत देर से पढ़ा। माफ़ करियेगा। पर शेफाली जी बहुत बढ़िया व्यंग। गजब का कमेंट। बार-बार पढने का मन करता है।
जवाब देंहटाएंसही है
जवाब देंहटाएंवाह आभार रश्मि जी का । पता नहीं इतनी अच्छी पोस्ट छूट कैसे गई चलो कोई नहीं देर आयद दुरुस्त आयद और आपने ब्रेक्स क्यों लगा रखें हैं आजकल ? :)
जवाब देंहटाएंइतने लम्बे समय तक नहीं लिखती, दिखतीं आप और फिर सहिष्णुता की आशा करती हैं? :)
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