सच
"यह मेरे साइन नहीं हैं, बोलो तुमने ही किए हैं ना मेरे साइन". सुमन ने कड़क कर पूछा. "नहीं मैडम". तथाकथित अंग्रेज़ी माध्यम में, कक्षा तीन में पढने वाली रेखा ने डरते हुए जवाब दिया. "झूठ बोलती हो, हाथ उल्टा करके मेज़ पर रखो". रेखा ने सहमते हुए हाथ आगे किए. 'तडाक', सुमन ने लकड़ी के डस्टर से उसके कोमल हाथों पर प्रहार किया. रेखा रोने लगी. "अगर तुम सच बोल दोगी तो मैं तुम्हें छोड़ दूंगी. "बोलो, कह रही किए हैं ना." "नहीं मैडम, मैं सच कह रही हूँ." सुमन गुस्से से पागल हो गई. 'तडाक, तडाक, तडाक, तडाक'. सुमन ने उन मासूम हाथों पर अनगिनत प्रहार कर डाले. रेखा से दर्द सहन नहीं हुआ तो उसने स्वीकार कर लिया कि वह साइन उसने ही किए थे. सुमन के चेहरे पर विजयी मुस्कराहट तैर गयी. 'आखिरकार, सच उगलवा ही लिया.'
शाम को घर पहुँच कर सुमन ने कॉपियों का बंडल जांचने के लिए बैग से निकाला ही था कि उसका नन्हा बेटा खेलता हुआ वहां आ गया, "मम्मी, मुझे तुम्हारी तरह कॉपी चेक करना बहुत अच्छा लगता है. प्लीज़, एक कॉपी मुझे भी दे दो." सुमन का माथा ठनका, "तूने कल भी यहाँ से कॉपी उठाई थी क्या?". "हाँ मम्मी, बहुत मज़ा आया. बिल्कुल तुम्हारी तरह कॉपी चेक करी मैंने." सुमन ने अपना माथा पकड़ लिया.
उधर, रेखा के माँ बाप उसका सूजा हुआ हाथ देख कर सन्न रह गए. दिन-रात खेतों मैं कड़ी मेहनत करने वाले उसके माता-पिता का एकमात्र उद्देश्य यही था कि उनकी बेटी कुछ पढ़-लिख जाए, "आग लगे ऐसे स्कूल को. कल से मेरे साथ खेत पर काम करने चलेगी, समझ गई. बड़ी आई स्कूल जाने वाली." माँ उसके नन्हे हाथों पर हल्दी लगाती जा रही थी और साथ ही साथ रोए भी जा रही थी.
संवेदनशील लघुकथा....
जवाब देंहटाएंसाभार
हमसफ़र यादों का.......
बिना गलती के इतनी सजा-भावुक हो गया मन!
जवाब देंहटाएंगलतफहमी में सुमन भी काँटे जैसा व्यवहार कर गयी।
जवाब देंहटाएंसादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
अच्छी लगी कहानी .
जवाब देंहटाएंकहा इस बारे मे समझ मे नही आ रहा है।ये तो सच है कि आजकल सज़ा के किस्से बहुत सुनने को मिलते हैं लेकिन क्या सज़ा मे पहले पिटाई नही होती थी। आपसे असहमति नही है फ़िर भी ये कह रहा हूं कि समय के साथ-साथ गुरुजणों का मान-सम्मान घटा है और कोचिंग या ट्यूशन के अलावा फ़ीस मे मोटी रकम वसूली के धंदे ने भी गुरूओं को वेतनभोगी कर्मचारी की श्रेणी मे ला खड़ा किया है और यंही से सारा मामला बिगड़ा है।फ़र्ज़ी दस्तखत वाले आवेदन मैने भी खूब लिखे है और शरारतो पर पिटाई भी जमकर हुई है।ये बात घर तक़ ना पंहुचे इसके लिये जोड़-तोड़ भी खूब की है।मुझे याद है कभी जब पालक स्कूल जाते थे तो खुद कहा करते थे कि मस्ती करे तो पीटना। अब हाथ लगाते ही अख़बारबाज़ी से लेकर धरना-प्रदर्शन तक़ हो जाता है।लगता है इस पर एक पूरी पोस्ट ही लिखनी पड़ेगी।वैसे आपने लिखा बहुत ही सटीक है और समाज मे फ़ैल रही एक गंभीर सम्मस्या को सहज ढंग से सामने रखा है। अच्छी और सच्ची पोस्ट के लिये आपको बधाई देता हूं।
जवाब देंहटाएंसुमन का व्यवहार निन्दनीय है।
जवाब देंहटाएंबच्चों के कोमब मन में शिक्षा के प्रति
अरुचि पैदा करने वाला भाव है।
एक बात, मैंने बहुत शरारत की थी स्कूल में लेकिन मेरे माता-पिता ने कभी भी स्कूल में जाकर ये नहीं कहा कि क्यों हाथ उठा दिया मेरे बच्चे पर। जबकि अपने स्कूल टाइम में मैं पढ़ाकू और बदमाश दोनों रहा। अनिल जी से पूरी तरह सहमत हूं। बहुत अच्छी कथा और साथ ही सटीक लिखा है आपने, फिर से अच्छा लगा। लेकिन इसके आगे भी आजकल के अध्यापक कई बार बढ़ जाते हैं।
जवाब देंहटाएंइस तरह से एक जबरदस्ती के सच के लिए राह बदलना ह्त्या ही तो है....
जवाब देंहटाएंबहुत ही भावुक प्रस्तुति है. थोड़े शब्दों में बिलकुल सटीक चित्रण किया है आपने.
जवाब देंहटाएंमैं इस बात से तो सहमत हूँ, की पहले भी सजा मिलती थी और पिटाई भी होती थी, पर मैं ये जानना चाहूँगा, की क्या आज के गुरु-शिष्य के रिश्ते को पुराने समय के रिश्ते के साथ जोड़ा जा सकता है? मैं नहीं समझता.
htto://dipak.org.in/
बहुत व्यथित कर देने वाला प्रसंग है।कई बार किसी दूसरे की भूल किसी की जिन्दगी को बर्बाद कर सकती है।
जवाब देंहटाएंइतनी संवेदना कहाँ से लाती है आप?
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