मंगलवार, 12 मार्च 2013

राम सिंह ! आराम से तो हो ?

राम सिंह ! आराम से तो हो ?

था
तेरे पास
कानून, अदालत
तर्क - वितर्क
न्याय, माफ़ी
सहानुभूति
पश्चाताप
तुझे सजा मिलती भी तो पता नहीं कब और कितनी ?

था
हमारे पास
दुःख का दरिया 
बद्दुआओं का सागर 
आंसुओं की नदी 
दर्द का सैलाब
तू बचता भी तो पता नहीं कब और कितना ?

8 टिप्‍पणियां:

  1. सामयिक हालात का सटीक चिंतन.

    रामराम.

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  2. पीड़ा की अवधि कम हो गयी बस..निष्कर्ष तो वही रहे।

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  3. दुःख तो अपनी जगह है ही हाँ सरकारी पैसे की बचत हो गयी

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  4. यह बद्दुआओं का ही असर है. चलो उसे भी शांति मिल गयी. सुंदर कविता के माध्यम से आपने सच को आगे रखा है.

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