बुधवार, 28 अगस्त 2013

बता फिर … क्यूँ न हो उसका बलात्कार ? क्यूँ न हो उसकी इज्ज़त तार - तार ?




उसका बलात्कार होगा  ....

वह आकाश में उडती है । पानी में तैरती है | उसने पर्वतों पर जीत की पताकाएँ फहराईं हैं ।
अन्तरिक्ष ने उसके हौसलों की गाथाएं गाईं हैं । भीग गया पर फिर भी परवाज़ किया उसने । टूट गया दम फिर भी आगाज़ किया उसने ।

उसका भी होगा बलात्कार ….

वह कायदों पे चलती है । नियम - ओ - क़ानून - से रहती है ।  उसूलों पर कड़क रहती है । हिम्मत के इतिहास में नित नया अध्याय लिख रही है । सही को सही, गलत को गलत कह रही है । जब पडी ज़रुरत, रणचंडी सा रूप धरा उसने । किसी कीमत पर भी समझौता न किया उसने । आज उसके आगे सिर झुकाना मजबूरी है | घर हो या बाहर, उसकी उपस्थिति हर हाल ज़रूरी है ।

 उसका भी होगा बलात्कार ....

उसके हाथों में स्कूटर, मोटरसाइकिल, जहाज और कार है | ऊँचे से ऊँची नौकरी, बड़े से बड़ा व्यापार है  | बैंक बैलेंस तगड़ा है, घर है कोठी है, बँगला है । पुरुष के वह कंधे से कन्धा मिलाती है । उसका सहारा लेकर उससे भी आगे बढ़ जाती है । हर बड़े पद पर उसकी सूरत दिख जाती है । रात - दिन जी तोड़ काम करती है । मेहनत को उसकी सारी दुनिया सलाम करती है । 


उसका भी होगा बलात्कार ...


उसने अकेले बच्चों को पाला । माँ - बाप, भाई - बहिन को सम्भाला  | सास - ससुर को मान दिया । रिश्तेदारों को सम्मान दिया । सबके सुख - दुःख में काम आती है । सारे रिश्ते, सारे नाते अकेले निभा ले जाती है । अब उसका भी अपना एक नाम है । कहीं  - कहीं तो पत्नी का नाम ही पति की पहिचान है ।


उसका भी होगा बलात्कार ...

वह इतनी मगरूर है । पिट जाने पर भी बोलती ज़रूर है | उसके मुंह पर जुबां आ गयी है ।  समझने और सोचने की अक्ल आ गयी है | खुद पर उठते हाथों को रोक लेती है | गलत हो कोई तो भरी सभा में टोक देती है | अधिकार की बात करती है | काम के बदले पगार की बात करती है । हर बात पर तर्क करती है । अच्छे - बुरे पर खुद फर्क करती है ।

उसका भी होगा बलात्कार ....

वह लजाती, शर्माती, सकुचाती नहीं है | चूहे, कॉकरोच, छिपकली से भय खाती नहीं है | खाट की तरह अब बिछती नहीं है । दबी, कुचली, डरी, सहमी दिखती नहीं है | अपने शरीर पर अपना हक़ मांगती है । गंदी से गंदी नज़र को झेलती है । तेज़ाब से जब जल जाती है, शक्लो - ओ - सूरत तक गल जाती है, फिर भी जुल्मो - सितम की दास्ताँ दुनिया को बतलाने बाहर निकल जाती है । 


उसका भी होगा बलात्कार ....

पढ़ाई को शादी पर अब कुर्बान नहीं करती । नौकरी की कीमत पर समझौता नहीं करती ।  ना आए पसंद तो रिश्ता वापिस कर देती है | दहेज़ नहीं मिलेगा, पहिले ही साफ़ कर देती है । भरे मंडप से बारात को लौटा देती है । लोभियों को हथकड़ी पहना देती है । पैर किसी के अब पड़ती नहीं है । उठाकर सिर, बना कर राह अपनी, शान से निकल पड़ती है ।

उसका भी होगा बलात्कार ...

उसे समाज का डर नहीं रहा । अलगाव का भय नहीं रहा | अपने दम पर घर चलाती है । लेना हो तलाक ज़रा सा भी हिचकिचाती नहीं है । घुट - घुट कर जीना किसी हाल भी अब चाहती नहीं है । लोगों की नज़रों से लड़ना उसको आ गया । कितने भी कठिन हों ज़िंदगी के सवाल, अकेले हल करना आ गया ।


बता फिर … क्यूँ न हो उसका बलात्कार ? क्यूँ न हो उसकी इज्ज़त तार - तार ?
     

8 टिप्‍पणियां:

  1. कोई वजह , कोई कोना , कोई सवाल , कोई स्थिति , कुछ भी तो नहीं छोडा आपने माहटरनी । एकदम सीधा सीधा बेध डाला है ....ये अपराध तो अब भ्रष्टाचार सरीखा ही देश और समाज की नियति बनता जा रहा है । धार बनाए रखिए और झकझोरते रहिए यूं ही ........

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  2. सामाजिकता के सारे तार चीरती, व्यथा कथा। पता नहीं किस दिशा जा रहे हैं हम।

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  3. शायद मानवता ही रास्ता भटक चुकी है. सटीक.

    रामराम.

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