बुधवार, 14 अक्तूबर 2009

इन्हें इंसान ही बने रहने दिया जाए

ग्रामीण इलाके में शिक्षण कार्य करने के कारण अक्सर मुझे वह देखने को मिलता है, जिसे देखकर यकीन करना मुश्किल होता है कि यह वही भारत देश है, जो दिन प्रतिदिन आधुनिक तकनीक से लेस होता जा रहा है,जिसकी  प्रतिभा और मेधा का लोहा सारा विश्व मान रहा है, जहाँ की स्त्री शक्ति दिन पर सशक्त होती जा रही है ,  लेकिन इसी  भारत के लाखों ग्रामीण इलाके अभी भी अंधविश्वास की गहरी चपेट में हैं, इन इलाकों से विद्यालय में आने वाली अधिसंख्य लडकियां कुपोषण, उपेक्षा, शारीरिक और मानसिक  प्रताड़ना का शिकार  होती  हैं, क्यूंकि ये एक अदद लड़के के इंतज़ार में जबरन पैदा हो जाती हैं, जिनके  इस दुनिया में आने पर कोई खुश नहीं हुआ था,  और यही  अनचाही लडकियां जब बड़ी हो जाती हैं, तो अक्सर खाली पेट स्कूल आने के कारण शारीरिक रूप   से कमजोरी के चलते   मामूली  सा  चक्कर आने पर यह समझ लेती हैं कि उनके शरीर में देवी आ गयी है, हाथ - पैरों के काँपने को वे अवतार आना समझ लेती हैं  , मैं बहुत प्रयास करती हूँ कि बच्चों की इस गलतफहमी को दूर करुँ, मैं उन्हें समझाती   हूँ कि ये देवी - देवता शहर के कॉन्वेंट या पब्लिक स्कूलों के बच्चों के शरीर में क्यूँ नहीं आते ? इन्हें सिर्फ ग्रामीण स्कूलों के  बच्चे ही क्यूँ याद आते हैं, लेकिन उन्हें समझाने का कोई फायदा नहीं होता क्यूंकि  उनके पास उन्हें  विरासत में मिले  हुए अकाट्य तर्क होते हैं, जिनसे पार पाना बहुत मुश्किल होता है. अपने इस विश्वास को सिद्ध करने के लिए उनके पास अनेकों झूठी अफवाहों  से उपजे उदाहरण,  माता - पिता की अज्ञानता  और  देवी माँ के द्वारे इंतज़ार करती हुई  भक्तों की भारी भीड़ के जयकारे होते हैं .
 
हमारे देश के लोगों की ख़ास आदत होती है कि किसी मुसीबत में फंसे हुए या  दुर्घटना
 में घायल , दम तोड़ते हुए  इंसान की मदद को आगे आने के बजाय आँखें मूँद कर  चुपचाप कन्नी काट लिया करते  हैं, लेकिन किसी इंसान के शरीर में देवता का अवतरण हुआ है , यह सुनते हीबिना आगा - पीछा सोचे , उस  घर की दिशा की ओर दौड़ पड़ते हैं, देखते ही देखते  देवी के चरणों पर चढ़ावे का ढेर लगा  देते हैं,  जिसे देखकर   इन लड़कियों के लिए  इस दैवीय  मकड़जाल से निकल पाना बहुत मुश्किल हो जाता है .
 
    पाठ्यक्रम निर्धारित करने वाले बड़े - बड़े शिक्षाविद पाठ्यक्रम का निर्धारण करते समय अधिसंख्य ग्रामीण इलाकों के बच्चों के विषय में नहीं सोचते हैं, उनकी नीतियाँ शहरी क्षेत्रों के चंद सुविधासंपन्न बच्चों को फायदा पहुँचती हैं , शिक्षाविद  यौन शिक्षा की जोर - शोर से वकालत करते हैं ,स्कूलों में कंडोम बांटने के बारे में विचार करते हैं , योग की कक्षाएं अनिवार्य कर देते हैं,  नैतिक शिक्षा की बात करते हैं, मिड डे मील का मेनू सेट करते हैं, नंबरों की जगह  ग्रेडिंग सिस्टम लागू कर देते हैं,  लेकिन देश को सदियों पीछे ले जाते इस अंधविश्वास के निर्मूलन की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता.यह जानने की कोशिश कोई नहीं करता कि  कितनी  लडकियां  देवी बनकर, पढ़ाई - लिखाई से दूर होकर अपने घर वालों के लिए सोने का अंडा देने वाली मुर्गियां बन गयी  हैं, जहाँ से वापस लौटना अब उनके लिए संभव नहीं  है .
इन्हें इंसान ही बने रहने दिया जाए  

30 टिप्‍पणियां:

  1. शेफाली जी ,आपकी बातों से पूरी तरह सहमत हूँ । यहाँ छत्तीसगढ़ के गाँवों से भी आये दिन यह समाचार सुनने को मिलते है । किसी किसी स्कूल में तो लगातार यह सिलसिला चलता रहता है । हम लोग भी जाकर समझाते है । डॉक्टर्स भी जाते है लेकिन बहुत मुश्किल से लोग समझ पाते हैं । इस क्षेत्र मे काफी काम चल रहा है एक न एक दिन यह वैज्ञानिक चेतना तो उत्पन्न होगी ही । इस विषय पर ब्लॉग जगत मे भी बहुत कुछ लिखा जा रहा है । आपसे अनुरोध है कृपया मेरा ब्लॉग " ना जादू ना टोना " अव्श्य देखे उसकी पिछली पोस्ट सहित . पता है http://wwwsharadkokas.blogaspot.com मुझे आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी ।

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  2. ज़रूर ....आजकल मेरी कक्षा में एक लडकी को गंगा मय्या आई हुई है , अच्छे खासी होशियार लडकी है और घरवालों ने देवी बना कर स्थापित करवा दिया है ....उसे देखकर बड़ा दुःख होता है

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  3. अन्धविश्वास की जडे बहुत गहरी है. गरीबो के अवचेतन मस्तिष्क मे इनकी जडे पनपती है.
    बहुत सही आलेख
    अन्धविश्वास को मिटाने के लिये मुहिम चलाने की आवश्यकता है.

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  4. मा साब आपका लेख आज बहुत ही गंभीर विषय को छू रहा है। मैं सोच रहा हूं कि क्या इसके बावजूद हमें ये हक बनता है कि कभी चांद पर पहुंचने का दम भरें या कि राष्ट्र मंडल खेल जैसा आयोजन करें..सार्थक लेख ।

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  5. शिक्षा के नाम पर बडी बडी बातें होती हैं, फुनगी देख कर पेड की हरियाली नापी जा रही है लेकिन जड में क्या रोग है, कोई नहीं जानना चाहता। यह एक तरह की सामाजिक बीमारी है जिसका इलाज करने वाले लोग खुद ही झाड फूंक में लगे हैं।

    अच्छी पोस्ट।

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  6. आपकी बातों से सहमत हूँ |

    आप अपना प्रयास जारी रखिये ... धीरे धीरे ही सही स्थिति बदलेगी ... पर लोगों को जागरूक करने की रफ़्तार निःसंकोच बढ़नी चाहिए |

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  7. वैसे बहुत गंभीर आलेख है..विचारणीय!

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  8. शैफाली जी,
    यही तो है इंडिया और भारत का फर्क...एक बचपन पांचसितारा स्कूलों में फलता-फू...फू...फूलता है और दूसरा बचपन ज़िंदगी की कड़वी हकीकतों को कम उम्र में ही झेलते हुए सीधे बुढापे में प्रवेश करता है...कपिल सिब्बल को पूरे देश में एक सिलेबस की बात करने से पहले इस फर्क को माइक्रोस्कोप से देखना चाहिए...

    दीवाली आपके और घर पर सभी के लिए मंगलमयी हो...

    जय हिंद...

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  9. खुशदीप सहगल जी की बातों से सहमत हूं .. दो दो भारत एक साथ चल रहे हैं .. ग्रामीण क्षेत्रों की दशा शोचनीय है !!

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  10. आपका ब्लाग पढऩे में ही नहीं आता है, कृपया ध्यान दें ताकि ज्यादा लोग इसे पढ़ सके। धनतेरस की बधाई के साथ दीप पर्व की अग्रिम शुभकामनाएं और बधाई

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  11. भारत और इंडिया के बीच यही तो दुविधा है...एक दुर्त गति से आगे बढ अपना यशगान पूरी दुनिया समेत चँद्रमा तक फैलाना चाहता है तो दूसरा अपनी ही कुरीतियों को खूबियाँ समझ...उन्हीं के भ्रम में उम्र भर जकड़ा हुआ.. जहाँ है...वहीं के वहीं धवस्त हो जाना चाहता है।

    इन सब विसंगतियों को दूर करने के लिए हमें..आपको ही पहल करनी होगी...कोशिश करें कि आपका ये लेख ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुँचे...बार-बार पहुँचे...हो सके तो इसका प्रिंट आउट निकाल कर उसे अपने विद्यालय में लगाएँ ...
    मैँ अपने सभी ब्लॉगज़ पर आपक्ला ये लेख छापना चाहूँगा(आपकी अनुमति के साथ)...अगर मिल जाए तो.. :-)

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  12. अंधविश्वास देखना हो तो छत्तीसगढ आईये,वैसे आपसे पूरी तरह सहमत हूं।

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  13. अंधविश्वास जैसी कुरीतियाँ सिर्फ ग्रामीण समाज मे ही नहीं है, ये सहरी समाज मे भी बहुत गहराई से व्याप्त है ! इसीलिये तो कई ठग (संत महात्मा ) अपने प्रवचन देने आते है और पूरे शहर भर की दीवारें उनके पोस्टरों और होर्डिंग्स से पट जाती है और कहों की भीड़ उनको सुनने पहुँच जाती है ! वैसे देवता (jesus) आने के कई किस्से मे हल्द्वानी के प्रतिष्ठित कॉन्वेंट स्कूल (निर्मला, और सैंट पॉल ) के भी सुन चूका हूँ !

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  14. सदियों से यूं ही निरन्तर चले आ रहे किसी भी अन्धविश्वास से मुक्ति पा जाना इतना सहज भी नहीं हैं....वातानुकूलित कमरों में बैठ कर नीतियाँ निर्धारित करने वालों के भरोसे तो बिल्कुल भी नहीं ।
    बहरहाल इस विषय में आपके विचारों से सहमति है ।

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  15. शेफाली जी के इस लेख पर पहली टिप्पणी कर मै चला गया था अभी लौटकर आया तो बहुत से लोगो के विचार यहाँ देखने को मिले । @दीपक यह सही नही है कि सिर्फ वैज्ञानिक दृष्टि के लोग यहाँ पढ़ते हैं ,अभी कुरेदोगे तो लोगों के अन्धविश्वास नज़र आने लगेंगे । लेकिन यह तो है कि यहाँ चेतना सम्पन्न लोग हैं । मेरा कहना है कि हमे फील्ड मे भी काम करना होगा जैसे कि मैं करता हूँ हाँलाकि इसमे संघर्ष तो है ।
    @ अनिल भाई अब यह छत्तीसगढ़ तो पूरा भारत है । अन्धश्रद्धा निर्मूलन समिति नागपुर के अपने मित्रों को मै पिछले 15 साल से छत्तीसगढ़ बुलाने का प्रयास कर रहा हूँ लेकिन उनका कहना है हमे महाराष्ट्र के लोगों के अन्धविश्वास दूर करने से ही फुर्सत नहीं मिलती । बहरहाल मैं तो स्कूलों में जाता हूँ और अपना दो घंटे का "मस्तिष्क की सत्ता " का सेशन लेता हूँ ताकि कुछ तो बच्चों के दिमाग मे परिवर्तन हो । ( और बड़ों के भी )

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  16. सुंदर व्यंजनाएं।
    दीपपर्व की अशेष शुभकामनाएँ।
    आप ब्लॉग जगत में महादेवी सा यश पाएं।

    -------------------------
    आइए हम पर्यावरण और ब्लॉगिंग को भी सुरक्षित बनाएं।

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  17. दैनिक जनसत्‍ता में समांतर स्‍तंभ में यह पोस्‍ट मकड़जाल शीर्षक से 23 अक्‍टूबर 2009 को संपादकीय पेज पर प्रकाशित हुई है। मास्‍टरनी जी को बधाई। शेफाली जी को भी बधाई।

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  18. शेफाली पाण्डेय जी!
    अच्छे लेखन के लिए आपको शुभकामनाएँ!

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  19. शेफ़ाली जी,

    आपकी बात से सहमत नहीं हूं.आप किस गांव की बातें कर रही हैं,हमनें तो नहीं देखा.(हमे चांद नहीं देखा है, इसलिये वह है ही नही!)

    हम आई ए एस लोग तो एयरकंडिशन केबिन में बैठ कर ही महत्वपूर्ण निर्णय लेते आ रहे है. हम ही सच्चे भारत भाग्य विधाता हैं, क्योंकि हमारे खुदा लोग याने नेता गण तो अधिकतर बेवकूफ़ ही हैं, और अपने लिये माल इकठ्ठा करने से फ़ुरसत नहीं पाते हैं कूऊ हो नृप हमें का... हम तो कभी नहीं सुधरेंगे.

    एक आत्ममुग्ध अफ़सर..

    Very Very good post, timely explained.

    Keep posting!!

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  20. शेफाली जी, बहुत जरूरी और उम्दा पोस्ट! जैसा कि कुछ टिप्पणीकारों का कहना है, मामला शहरी और ग्रामीण क्षेत्र के अंधविश्वासों की तुलना का नहीं है, मूल बात यह है कि अंधविश्वास का हर क्षेत्र से समूल नाश होना चाहिए. आपका यह आलेख एक सार्थक हस्तक्षेप है. बधाई!

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  21. शेफाली जी
    अंधविश्‍वास की जड़ें ब‍हुत गहरी और खूब पक्‍की हैं। दूर दराज के स्‍कूलों की क्‍या कहें,मुंबइ के सबसे पॉश इलाके में सबसे उंची, महंगी और आलीशान इमारत विश्‍व व्‍यापार केन्‍द्र में तेरहवीं मंजिल नहीं है और किसी भी एयरलांइस में तेरहवीं संख्‍या की सीटें नहीं होतीं। आपकी जानकारी के लिए विश्‍व व्‍रूापार केन्‍द्र महान वैज्ञानिक विश्‍वेश्‍वरैया की पहल पर बनाया गया है।
    सूरज

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  22. पता नही यह सब कब ख़त्म होगा आज के आधुनिक भारत के स्वरूप पर प्रहार करता एक नमूना जिससे निजात पाना नितांत आवश्यक है....बढ़िया और सच्ची प्रस्तुति..धन्यवाद

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  23. चुप न बैठो
    धुआँ उगलते रहो अलाव
    चिंगारी तलाशने वाले
    खत्म नहीं होंगे
    कभी भी दुनिया से,
    आएँगे।

    आपका श्रम निरर्थक नहीं जा रहा है, बस यह समझ लीजिए।

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  24. बात तो आपकी सही है पर सवाल यह है कि किया क्या जाये?

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  25. शेफाली जी,आप ने एक टीचर के रूप में जो अंध विश्वास देखा वह दुर्भाग्य वश भारत में विखरा पड़ा है.पीडा सबको नहीं होती,जिन्हें होती भी है वे संवाद के दायरे में नहीं ला पाते.जो अभावों में पिस रहे हैं और अज्ञान के अँधेरे में जी रहे हैं अन्धविश्वास उनकी नियति है क्योंकि शिक्षा और विज्ञानं हम उन तक पहुंचा नहीं सके हैं.दूसरी तरफ बिना पसीना बहाए सुविधा संपन्न हुए शिक्षित लोग भी करोडों में हैं जो अंध विश्वास को इतना प्रचारित ,प्रसारित करते हैं की विवेक और सत्य की रोशनी दूर तक दिखाई न दे जाय .आप ने इस बात को उठाया इस के लिए धन्यवाद.

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  26. आदरणीय प्रताप सहगल जी,आप से यहाँ मिलाना बहुत अच्छा लगा.आप ने जो चिंता व्यक्त की है यही निवारण का रास्ता है .चिंता के लिए स्थान हमारे समाज में कम है.अंध विश्वास के पक्ष में समाज का बहुत बड़ा हिस्सा है.यह अपने आप में चिंता का विषय है.आप की चिंता का स्वागत है.m-09818032913

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  27. हमारे देश में आज भी अन्धविश्वास फैला है इतने साक्षरता अभियानों के बाद भी वही के वही!!!!!!
    आपका प्रयास सराहनीय है जब तक इसके लिए आन्दोलन नही होगा तब तक इससे निजात नही पाए जा सकती

    कितने भी अभियान चलालो, इनसे कुछ नही होगा
    जिस दिन खड़े हो गए हम सब उस दिन ही कुछ होगा

    जनम दिन की बधाई !!!!!!

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  28. आपने सही लिखा....!सर्कार के अधिकारी ऐ सी रूम में बात कर नयी नयी योजनाये बनाते है और मंत्रियों के सामने इतना अच्छा डेमो करते है की वो ओ के हो जाती है !लेकिन कोई भी ये नहीं सोचता की हर जगह की अलग परिस्थिति होती है !उदहारण के लिए पाठ्यक्रम ही देखिये...!शहर और ग्रामीण बच्चों के लिए एक सा कैसे हो सकता है !हैप्पी बर्थडे पाठ को ग्रामीण स्कूल में कैसे पढाया जाये ,उन्हें केक के बारे क्या समझाएं?कितना अच्छा हो यदि उन्हें उनके परिवेश से जुडी जानकारी दी जाए!और फिर शिक्षा जैसे महत्वपूरण विषय का अलग मंत्रालय तक नहीं है!ये आज भी मानव संसाधन का एक छोटा सा हिस्सा भर है....

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  29. Great ! I can realize that. I did my primary education from such a village school of Kumaon. Thanks for these kinds of thoughts.

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