गुरुवार, 17 दिसंबर 2009

मज़े का अर्थशास्त्र ....

 जब भी वो मुझसे टकराती है मुझे याद दिलाना नहीं भूलती कि मैं कितने मज़े में हूँ. मैं ईश्वर के इस खेल को समझ नहीं पाती हूँ , मेरे लिए जो एक अमूर्त वस्तु  है , उनके लिए वही  मूर्त कैसे हो जाती  है, ज़रूर  ये  सरकारी योजनाओं के सदृश्य  हैं , जिनमें  पैसा  तो बहुत खर्च बहुत   होता है, लेकिन किसी को  दिखता नहीं. इसकी तुलना ओबामा के  उन शाति प्रयासों से भी की जा सकती है , जो सिर्फ नोबेल देने वालों को दिखते  हैं , दुनिया को नहीं . महिलाएं इसकी तुलना उस लडकी  से कर सकती हैं जिसके  इश्क के  चर्चे सारे शहर में आम हों लेकिन, उसके घर वालों को लडकी के घर से भागने के बाद  पता चले.

 

 वह नौकरी नहीं करती, मैं करती हूँ , इस लिहाज़ से वह मुझे कुछ भी कहने की अधिकारिणी हो जाती है , मोहल्ले से हँसती - खिलखिलाती गुज़रती है , मुझे देखते ही उसे दुखों का नंगा तार छू जाता है . ''हाई ! तुम कितनी लक्की हो !तुम्हें देखकर जलन होती है''  का हथगोला मेरी ओर फेंककर, अपना कलेजा ठंडा करके वह आगे  बढ़ लेती है. 

 

 वह कहती है कि उसे चाय पीते समय किसी का टोकना पसंद नहीं हैक्योंकि  उसके साथ वह अखबार पढ़ती है ,फ़िल्मी अभिनेता और अभिनेत्रियों के लेटेस्ट अफेयर और फिल्मों की  खबर के साथ - साथ सोने के हर दिन के भाव उसे मुँह ज़बानी  याद रहते हैं.   मेरी आधी चाय मेरे आँगन में लगा हुआ रबर प्लांट पीता है, जिस दिन स्वयं चाय की अंतिम बूँद का स्वाद लेने की सोचती  हूँ उसी दिन बस छूट जाती है और मुझे अस्सी रूपये खर्चने पड़ते हैं, जिससे मुझे उसके व्यंग्य बाणों से भी ज्यादा तकलीफ होती है, लेकिन जब यह  रबर प्लांट बड़ा हो जाएगा, तो मैं गर्व से कह सकूंगी  कि  ''बेटा'! तुझे मैंने अपनी चाय पिला कर बड़ा किया है''.बच्चों से नहीं कह पाउंगी , कभी  कहने की कोशिश भी करूंगी तो पता है कि क्या ज़वाब  मिलेगा ''कौन सा एहसान किया ? अपने माँ बाप का कर्जा ही तो चुकाया'' 

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 उसका कहना है कि वह , उसके पति और  बच्चे सुबह का बना हुआ खाना रात को नहीं खा सकते, और खाने मैं उन्हें नित नई वेराइटी चाहिए, इसके लिए उसने भारत के पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण  ,चाइनीज़  से लेकर, थाई ,मेक्सिकन तक सारे व्यंजन बनाने सीख लिए हैं, ऐसा वह सिर्फ कहती है कभी किसी ने इस बात की पुष्टि नहीं करी .उनके पति यह नहीं खाते, उनके बच्चे वह नहीं पसंद करते. मुझे सुबह के  तीन बजे उठना होता है, मैं रात की बनाई हुई सब्जी के साथ रोटी बनाकर सबके टिफन भर देती  हूँ , मेरे पति और बच्चों  को फरमाइश करने की इज़ाज़त नहीं है.

 

वह कहती है ''मैं अपने पति से हर महीने की पहली तारीख को एक नई साड़ी और एक नया सूट लेकर रहती हूँ नौकरी नहीं करती हूँ तो क्या हुआ ?,आखिर मेरा  भी कुछ हक़ बनता है''  हर करवाचौथ   पर उसे व्रत करने की एवज़ में एक मुआवज़े के तौर पर सरप्राइज़ में  सोने का बड़ा सा  गहना ज़रूर मिलता है

 

उसकी रात को पहनने वाली नाइटी पर भी प्रेस की क्रीज़ इधर से उधर नहीं होती, सुबह उठते ही उसके होंठों पर पुती हुई लिपस्टिक की लाली  देर शाम तक बरकरार रहती है .वह हर हफ्ते कान के टॉप्स  और मंगलसूत्र बदल देती है, एक हफ्ते से ज्यादा कोई गहना पहिनने पर  उसे घबराहट होने लगती  है, उसकी सास जब भी मुझे देखती है मुँह बिचकाकर कहती है ''छिः ! कैसी सुहागन हो तुम ? ना सिन्दूर, ना मंगलसूत्र'' लिहाज़ा एक दिन उसे देख कर मैंने भी अपने कान की बाली पहनी और  इतराती हुई बस में बैठ गई, सुबह की उठी हुई थी, खिड़की से सर टिकाया और ठंडी हवा के झोंके  लगते ही झपकी लग गई, और तब ही आँख खुली जब चोर  कानों से बाली खींच ले गया, खून से लथपथ आँखों में आँसू लेकर लौटी और आकर  सबकी डांट खाई सो अलग.

 

कई बार बस स्टॉप पर खड़ी होकर ही मुझे पता चलता है कि जल्दीबाजी में बाथरूम स्लीपर पहिन कर आ गई हूँ, वापिस जाना संभव नहीं  होता क्यूंकि बस का समय निश्चित है ,इसीलिए ऐसे ही जाना पड़ता है और सबकी हँसती , मज़ाक उड़ाती नज़रों का सामना करने की शक्ति वह सर्वशक्तिमान ईश्वर मुझे प्रदान कर ही देता है.

 

कभी पति से  किसी चीज़ की फरमाइश करने का मन करता है तो टका सा जवाब मिलता है, '' क्या आम औरतों की तरह नखरे करती हो ?खुद जाकर खरीद लाओ, अपने आप कमाती तो हो''

 

वह नियम से सुबह शाम दो घंटे योग करती है, उसका चेहरा पैंतालीस की उम्र में भी दमकता रहता है. मैं पैंतीस की उम्र में ही स्पोंडिलाइटिस, आर्थरआइटिस, माइग्रेन से ग्रसित हो गई हूँ , जाड़ों के दिनों में एक - एक सीढ़ी चढना भी दूभर हो जाता है.

 

वह अक्सर गुस्से में कहती है कि इस साल वह अपनी गृहस्थी अलग कर लेगी अन्यथा पति से तलाक ले लेगी, क्यूंकि उसकी सास कभी - कभी उससे सबके सामने  ऊँची आवाज़ में बात करती है, जिससे उसे बहुत बेईज्ज़ती महसूस होती है.

 

मेरे ऑफिस में साहब तो एक तरफ , बड़ा बाबू   तक मेरी खुलेआम   बेईज्ज़ती करता है, कहता है, कि मुझे ठीक से इनकम टेक्स के कागज़ भरने भी नहीं आते . और सहकर्मियों के कागज़ स्वयं भरता है लेकिन मेरे लिए कोई मदद नहीं.  पीठ फिरते ही सारा कार्यालय हंसने लगता है . कभी पानी को भी नहीं पूछने वाला, काम के समय दसियों बहाने बनाने वाला आठवीं पास चपरासी तक कहने से ही चूकता '' बेकार है इन औरतों को नौकरी देना , ये बस घर का चूल्हा ही  संभाल सकती हैं '' 

 

उसका पति उसे अकेले बाहर नहीं जाने देता , कहते हुए वह शर्म से लाल हो जाती है, मेरे माथे पर आत्मनिर्भर का ठप्पा लगा हुआ है लिहाज़ा घर से लेकर बाहर तक सभी काम अकेले मेरे ही जिम्मे आ गए. चार - चार  बैग अकेले कंधे पर लटकाए सोचना पड़ता है कि आत्मनिर्भरता क्या इसी दिन के लिए चुनी थी. मेरा अस्त व्यस्त घर देखकर उसके माथे पर शिकन आ जाती है,'' में तो ज़रा सी  भी धूल बर्दाश्त नहीं कर सकतीघर फैला हुआ देखकर मुझे हार्ट अटैक  होने लगता है,'' कहकर वह माथे पर  आया हुआ पसीना पोछने लगती है.में डर जाती हूँ कि भगवान् ना करे कि कभी यह अचानक मेरे घर  में बिना बताए घुस जाए , तो  खामखाह ही  मुझ पर इसकी मौत का इलज़ाम  जाएगा.  

 

वह हर मुलाक़ात में मेरी तनखाह पूछना नहीं भूलती, मेरे बहुत मज़े हैं, उसे याद रहता है, लेकिन तनखाह  में लिपटी जिम्मेदारियां, मकान की किस्तें, पुराने उधार  कई बार बताने पर भी उसकी मेमोरी से  डिलीट हो जाते हैं.  वह सबकी चहेती है , सामाजिक कार्यक्रमों में बढ़ -चढ़ कर भाग लेती है, शादी - ब्याह के अवसरों पर उसकी बहुत पूछ होती है, सब जगह से उसके लिए बढ़िया कपड़े बनते हैं, मुझसे कोई खुश नहीं रहता, अक्सर बगल के घर वाले भी मुझे निमंत्रण  देना भूल जाते हैं.  ससुराल से लेकर मायके तक सभी असंतुष्ट रहते हैं कितने ही गिफ्ट ले जाओ फिर  भी सुनना पड़ता है ''दो - दो कमाने वाले हैं और गिफ्ट सिर्फ एक, छाती पर रखकर कोई नहीं ले जाता , खाली हाथ  दुनिया में आए थे,  और खाली हाथ जाना है'', गीता का  अमूल्य ज्ञान देने से छोटे - छोटे बच्चे भी नहीं चूकते . 

 

  कभी वह  मेरे  मामूली कपड़े देखकर परेशान रहती है, तो कभी चप्पल व  पर्स देखकरमेरी दुर्दशा देख कर उसने पिछले महीने शलवार - सूट का बिजनेस शुरू किया है, इस हफ्ते वह चप्पल और साड़ियों को पंजाब से मंगवाने वाली हैउसने मेरे लिए ख़ास सिल्क  के सूट दक्षिण से मंगवाए हैं , उसने शपथ खाकर कहा है कि वह मुझे बिना कमीशन के बेचेगी, क्यूंकि मेरे स्टेंडर्ड को लेकर उसे बहुत टेंशन है.

 

 उसका दृड़  विश्वास है कि नौकरीपेशा औरतों को सदा तरोताज़ा दिखना  चाहिए .  मैं मेंटेन रहूँ , मेरा स्वास्थ्य अच्छा रहे, इसके लिए वह ओरिफ्ल्म, एमवे की एजेंट बन गई है. जबरदस्ती मुझे महंगे केल्शियम और प्रोटीन के उत्पाद पकड़ा गई . मैंने पैसे नहीं होने की बात कही तो हिकारत भरी  नज़रों से बोली ''छिः - छिः कैसी बात करती हो ? नौकरी वाली होकर भी पैसों को लेकर रोती हो, अरे, अगले महीने दे देना , पैसे कहाँ  भागे जा रहे हैं ''

  मेरी अनुपस्थिति में अक्सर वह किसी न किसी गृह उद्योग वाली  महिला के साथ नाना प्रकार के अचार, पापड़बड़ी के बड़े बड़े पेकेट लेकर आ जाती है, उसके अनुसार  मुझ जैसों की निःस्वार्थ मदद करना उसकी होबी  है.

 

  जब वह कहती है मेरे बहुत मज़े है क्यूंकि मैं रोज़ घर से बाहर निकलती हूँ ,नाना प्रकार के आदमियों के बीच मेरा उठना बैठना है, और उन्हें बस उनके पति का ही चेहरा सुबह - शाम देखने को मिलता है, तब  मैं दफ्तर के बारे में सोचने लगती हूँ, जहाँ मेरे सहकर्मी बातों - बातों में तकरीबन रोज़ ही कहते हैं ''आपको क्या कमी है, दो - दो कमाने वाले हैं '' ये सहकर्मी ऑफिस में देरी से आते हैं, जल्दी चले  जाते हैंमनचाही छुट्टियाँ लेते हैं , नहीं मिलने पर महाभारत तक कर डालते  हैं मैं बीमार भी पड़ जाऊं तो नाटक समझा जाता है, सबकी नज़र मेरी छुट्टियों पर लगी रहती हैं.

 

अक्सर बस में खड़ी - खड़ी जाती हूँ, कोई सीट नहीं देता, कंडक्टर तक कहता है ''आजकल की औरतों के बहुत मज़े  हैं''

 

 मेरे साथ काम करने वाले एक सहकर्मी के प्रति मेरी कुछ कोमल भावनाएं थीं , वह अक्सर काम - काज में मेरी मदद किया करता था .एक दिन उसकी मोटर साइकल में बैठकर बाज़ार गई तो वह उतरते समय निःसंकोच  कहता है ''पांच रूपये खुले दे दीजियेगा .'' 

 

  बरसात का वह दिन आज भी मेरी रूह कंपा देता है जब उफनते नाले के पास खड़ी होकर मैंने साहब से फोन पर पूछा था, ''सर, बरसाती नाले ने रास्ता रोक रखा है ,आना मुश्किल लग रहा है, आप केजुअल लीव लगा दीजिए. साहब फुंफ्कारे  '''केजुअल स्वीकृत नहीं है, नहीं मिल सकती'' कहकर उन्होंने फोन रख दिया. मैंने गुस्से में आकर चप्पलों को हाथ में पकड़ा और  दनदनाते हुए  वह उफनता नाला पाल कर लियाजिसमे  दस मिनट पहले  ही एक आदमी की बहकर मौत हो चुकी थी,

 

अक्सर रास्ते में हुए सड़क हादसों में मरे हुए लोगों के जहाँ तहां बिखरे हुए  शरीर के टुकड़ों को  देखती हूँ तो काँप उठती हूँ , और अपने भी इसी प्रकार के अंत की कल्पना मात्र से मेरे रौंगटे खड़े हो जाते हैं .

 

वह कहती  है कि उनके  पति को औरतों का नौकरी करना पसंद नहीं हैउनके पति  गर्व से मेरे सामने   कई बार यह उद्घोष कर चुके हैं ,''इसे क्या ज़रुरत है नौकरी करने  की? इतना पैसा तो मैं इसे हर महीने दे सकता हूँ''

 

 मैं भी एक दिन पूछ ही बैठी '' अरे वाह बहिन, तुम्हारे पति कितने अच्छे हैं ,तुम्हें यूँ ही हर महीने  इतना पैसा दे दिया करते हैं, अब तक तो आपने लाखों रूपये जोड़ लिए होंगे , वह बगलें झाँकने लगी, और अपने पति का मुँह देखने लगी , पति सकपका गया ''अरेइसने तो  कभी  पैसा माँगा ही नहीं,वर्ना क्या में देता नहीं?,

वह भी सफाई देती है, ''हाँ, मुझे कभी ज़रुरत ही नहीं पड़ी, वर्ना ये क्या देते नहीं', क्यूँ जी"?

''हाँ हाँ क्यूँ नहीं, चलो बहुत  देर हो गई'', कहकर पति उठ गया और  वे दोनों चलते बने.

 

शुक्रवार, 27 नवंबर 2009

उससे फर्क ही क्या पड़ता है ?

२६/११ की दुखद याद के संदभ में उस इस्राइली मासूम को देखकर लिखी गई कविता,
जब सारे अखबारों में वही रोता हुआ बच्चा छाया हुआ था, मेरे छोटे से मोहल्ले में रहने वाली महिलाएं भी उस बच्चे को देखकर रो पड़ी थीं, और मैंने उससे कुछ दिन पहले ही उस बच्चे की तस्वीर देखी थी, जिसके खींचने वाले  पत्रकार को शायद पुलित्ज़र पुरस्कार मिला था, जिसके एक ही हफ्ते बाद उसने आत्महत्या कर ली थी. कविता लिखने के बाद अफ़सोस भी हुआ, क्यूंकि बच्चे तो बच्चे ही होते हैं .....काले और गोरे नहीं ....
 
रो  पड़ा मीडिया
सुबक उठी नवप्रसूताएं 
एक गोरा बच्चा अनाथ हो गया 
ऐसा नहीं होना चाहिए था 
कितना प्यारा था वो 
गोल - मटोल, मोटी से दाँत 
रंग गोरा, गुलाबी गाल 
ऐसा बच्चा रोए तो 
अच्छा नहीं लगता है 
उसका हर आँसू 
मोती सा लगता है 
उसके साथ सारा देश 
रो पड़ता है 
काश! इसके बदले
कुछ काले बच्चे
अनाथ हो जाते
धरती का बोझ
हल्का कर जाते
वो, जिनके काले चेहरों पर
सिर्फ आँखें दीखती हैं
जिनकी हड्डियां
खाल चीरकर चीखती हैं
जिनको देखकर गिद्ध
लार टपकाते हैं
जिनकी आँखों से आप
पीले के कई शेड
समझा पाते हैं
जो माँ बाप के होते हुए भी
अनाथ लगते हैं
सुबह से जिनके पैरों में
रस्सी बाँध दी जाती है
हाथों में रात की रोटी
थमा दी जाती है
जो रंग बिरंगे
चार्ट पर बने
रिकेट्स, बेरी - बेरी
पोलियो और रतौंधी
के लक्षण है
कुपोषण का
उत्तम उदाहरण हैं
हे भगवान् ! तू कितना निर्दयी है
रो पड़ी महिलाएं
निः संतानों  की छाती से 
फूट पड़ा दूध 
हज़ारों हाथ उसे 
गोद लेने को 
बेकरार हो उठे 
उसे इस्राइल जाता देख 
भारत पे शर्मसार हो गए 
अभी के अभी युद्ध करो 
दुश्मन को मटियामेट करो 
जो होगा देखा जाएगा 
हाँ कुछ बच्चे अनाथ हो जाएंगे 
उससे क्या फर्क पड़ता है ?
उससे फर्क ही क्या पड़ता है ? 

गुरुवार, 26 नवंबर 2009

उस लापता का पता चल गया ...

उस सात वर्षीय बच्ची की माँ जब अपनी बेटी  को पड़ोस की  शादी में ले जाने के लिए तैयार कर रही होगी, तो उसने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि उसे वह आख़िरी बार सजा  रही होगी. घटना कोई नयी  नहीं है, शादी के मंडप में खेलती -  कूदती बच्ची अगवा कर के ले गए ,कौन और कहाँ , कुछ पता नहीं चल सका .यह यह शहर , हर गली, हर मोहल्ले में होने वाली एक सामान्य  सी घटना है, आज रामनगर में हुई है, कल कहीं और होगी . फर्क इतना है कि हर बार लडकियां बदल जाती हैं और  उनको  गायब करने वाले हाथ बदल जाते हैं.
 
लड़कियों  को मारने वाले हाथ हर जगह मिल जाएंगे, पहले तो पेट में ही उसका खात्मा कर देने की सोची जाती है , किसी तरह से बच गई तो बाहर इंसानी शक्ल में घूमते भेड़िये तो निश्चित ही उसे नोच खाएंगे,  अपनी फूल सी लडकी का यह अंजाम देखकर  कौन सी माँ  बेटी की ख्वाहिश  करेगी?  प्रसव पूर्व लिंग की जांच करवाना अपराध है, यह तो जगह - जगह लिखा हुआ मिल ही जाता है, प्रसव के पांच - सात वर्ष बाद ही बलात्कार करने वालों के लिए क्या ?
 
 बाद   पांच दिन तक पुलिस सुराग लगाती ही रह गई ,पूछताछ करती रह गई और पाचवे दिन बच्ची की लाश को कुत्ते  मिट्टी के ढेर के अन्दर से खींच कर बाहर  ले आये , बच्ची एक माध्यम वर्गीय परिवार की थी, किसी मंत्री, नेता या कंपनी के सी . ई. ओ की होती ,अव्वल तो उनकी बच्चियों को उठाने की कोई हिम्मत ही नहीं करता,अगर कोई करता भी तो   शायद पुलिस उसे पाताल से भी खींच कर ले आती.
 
ना उस बच्ची ने भड़काऊ कपडे पहने होंगे,  ना किसी को व्यभिचार उकसाया होगा, एक साथ साल की बच्ची निश्चित रूप से सेक्स का मतलब भी नहीं जानती होगी ,ना उसका शरीर ही इसे झेलने के लायक होगा. फिर  क्या मिला होगा उस  बच्ची से बलात्कार करके जिसने
 शायद ''बचाओ'' कहना भी ना सीखा हो . दरिदों ने ना केवल बलात्कार किया वरन  बलात्कार  के बाद हत्या कर दी, और तेज़ाब डालकर चेहरा बिगाड़ दिया,  डर होगा कि शायद बच्ची उन्हें  पहचान जाए और वे पकडे जाएंगे.
 
इस घटना  से यह स्पष्ट है कि उत्तराखंड  के चुनिन्दा लोगों के ह्रदय में  कानून  का ज़रा भी डर  नहीं रहा , और रहेगा भी क्यूँ ? उन्होंने अपने आस - पास ऐसे  सेकड़ों लोगों को घूमते हुए देखा होगा जो बिना किसी सुबूत के, बिना किसी गवाह के  अभाव में छूट जाते है,  जिनके आगे क़ानून ने भी अपने हाथ बाँध रखे हैं,  ऐसे लोगों का पुलिस भी कुछ नहीं बिगाड़ पाती है. इनकी
 पहुँच बहुत ऊपर तक हुआ करती है, ये लोग  कभी भी ,कुछ भी कर सकते हैं.
 
 . मासूम बच्चियों के साथ बलात्कार होता रहेगा ,बच्चियां मारी जाती रहेंगी , क्यूंकि इस देश
  एक आम इंसान  की लडकी होना, मतलब पैदा होने के साथ ही हर कदम पर संघर्ष हर कदम पर बलात्कार और इससे भी जी ना भरे तो मौत के लिए तैयार रहना है . 

सोमवार, 23 नवंबर 2009

इत्ती दूर से आये हैं, कुछ तो ख्याल कीजिए

निर्णायक  बनना कभी भी मेरा प्रिय विषय नहीं रहा . मेरा बचपन से यही मानना  है कि किसी के बारे में अच्छे -  बुरे या प्रथम और द्वितीय का निर्णय देने वाले हम होते ही कौन हैं ? इसी अवधारणा के चलते कक्षा में प्रथम आने वाली छात्रा और उसे प्रथम स्थान देने वाली  अध्यापिका  से मेरे सम्बन्ध कभी भी सामान्य नहीं रहते थे. वे मुझे तिरछी नज़र से देखती थीं और मैं उन्हें भवें  तरेर कर .
 
आज सहसा इतने सालों बाद जब मुझे बच्चों के अन्ताक्षरी प्रतियोगिता का जज बनाया गया तो यूँ लगा कि जैसे भारत से बिना पूछे ही उसे ओलम्पिक की मेजबानी सौंप दी हो .कोलेज के ज़माने में टूर में जाना और बस में अन्ताक्षरी खेलने के मध्य  जन्मजन्मान्तर का सम्बन्ध तो
 समझ में आता है, इससे ज्यादा  अन्ताक्षरी को मैं और किसी परिपेक्ष्य में देख नहीं पाती . वैसे अन्ताक्षरी मेरे लिए हमेशा पूजनीय  रही है क्यूंकि  इसे शुरू करने वाली पंक्तियों में सदियों से जिस  लाइन मान्यताप्राप्त है उसमे मेरे पूज्य पिता का नाम आता है इसे मैं यूँ कहती थी ''  समय बिताने के लिए करना है कुछ काम ,शुरू करो अन्ताक्षरी , लेकर पापा [हरि]  का नाम''.  जवानी के उन  दिनों में टाइम ही टाइम हुआ करता था, जिसे इसी प्रकार  नाच गाकर बिताना पड़ता था. कुछ एक फिल्मों में दिखाई गई अन्ताक्षरियाँ आज भी मानस पटल में  अंकित हैं, क्या पता फिर कभी टूर में जाने का मौका लग जाए, और यह वर्षों से संचित धन काम आ जाये, हांलाकि यह भी तय है कि अगर ऐसा मौका आया भी तो  मन ही मन में गाने गुनगुनाती रह जाउंगी, लेकिन गा नहीं पाउंगी .
 
इधर जिस प्रतियोगिता में मुझे जज बनाया गया था, उसमे मात्र देशभक्ति की कवितायेँ और पाठ्यपुस्तक के दोहों के आलावा कुछ भी गाना वर्जित था, इस नियम से मेरे माथे पर परेशानी की चिंताएं दृष्टिगोचर  हो गईं, मैं सोच में पड़ गई कि क्या बच्चे इस बाधा दौड़ को पार कर पाएंगे , क्या देशभक्ति की कविताएँ, या दोहे जिन्हें मैंने मृत समझ  कर अपने सेलेबस से बाहर कर दिया था, क्या अभी तक बच्चों की किताबों में उससे भी बढ़कर क्या उनकी  ज़ुबानों में ज़िन्दा हैं?
 
आखिरकार अन्ताक्षरी की प्रतियोगिता शुरू हुई, पांच बिन्दुओं के आधार पर नंबर देने थे ...शुद्धता, तत्परता, प्रस्तुतीकरण, समय सीमा और विषय - वस्तु .
 
संकट का असली समय अब आया था, मात्र दो मिनट की समय सीमा में इतने सारे पहलुओं को समेटना ऐसा लगा कि जैसे लडकी देखने जा रहे हों और एक नज़र में ही उसकी खूबसूरती , चरित्र, व्यवहार, गृहकार्य की दक्षता सबकी जांच परख कर लेनी है, और मैं इस एक बात पर अक्सर आश्चर्यचकित रह जाती हूँ कि  मोहल्ले में जब भी कोई नववधू आती है और  उसे देखकर लौटती हुई महिलाओं से पूछ बैठो कि ''बहू कैसी है''?  वे मुझे बतलाती जाती हैं ''बहुत अच्छी  है'' दूसरी समर्थन करती है ''स्वभाव तो मत पूछो ,सिर पर पल्ला रखकर  सबके पैर छू रही है'' तीसरी बताती है ''घर के काम में भी चट -  पट है'' चौथी बताती है ''कुछ मत पूछ, भाग खुल गए उनके, ऐसी बढ़िया बहू चिराग  लेकर ढूँढने से भी नहीं मिलेगी'' काश ऐसी नज़रें भगवान् सभी को प्रदान करे.    साथियों ये संवाद लगभग हर बहू के आने के बाद हर मोहल्ले में समान रूप से सुने जाते हैं,  कहना ना होगा कि साल भर बीतते बीतते संवाद में से सं निकल कर मात्र   वाद - विवाद रह जाता हैं.
 
 महिलाओं के डायलोग कुछ इस प्रकार परिवर्तित हो जाते हैं '' मुझे तो पहले ही दिन ठीक नहीं लग रही थी '' ,दूसरी समर्थन करती है, ''हाँ ! ओवर स्मार्ट बन रही थी, ना शर्म न लिहाज़ '', तीसरी क्यूँ चुप रहती ''ऐसी बहू भगवान् दुश्मनों को भी ना दे ''
 
बच्चों को देखकर  मेरे सामने यह स्पष्ट हो चुका था  कि प्रतिभाएं  हम मास्टर या मास्टरनियों के कक्षा में जाकार जानकारी उलट देने की मोहताज नहीं होतीं, वे कहीं न कहीं से प्रकट हो ही जाती हैं, किसी पिछड़े हुए  बिजली ,पानी विहीन  गाँव से, अनपढ़, निरक्षर वातावरण के बीच से या  आधे -भरे  पेट वाले किसानों की झोपड़ियों से  धुंए की तरह बाहर निकल ही आती हैं.
 
बीच में एक दौर चाय पीने का भी आया. चाय की मात्रा देखकर लगा ही नहीं कि इस देश की आँखें किसी दिल को झिंझोड़ देने वाली क्रूर घटना के स्थान पर  सुबह - सुबह चाय की प्यालियों के साथ खुलती हैं, और क्या कहें , विश्वप्रतिष्ठित नारा ''जागो  इंडिया जागो'' इस चाय देश की ही देन है.
 
इस समय स्कूल के छोटे - छोटे बच्चे बहुत या आ रहे थे,  इस एक ग्लास के माध्यम से उन्हें एक चौथाई को समझाना कितना आसान हो जाता.
खाली चाय पीनी पड़ी तो समझ में आ गया कि जज की कुर्सी काँटों भारी क्यूँ कही जाता है.
क्यूँ  इस पर बैठने से पहले दिल को पक्का कर लेना पड़ता है?
 
प्रतियोगिता  की समाप्ति पर जब सबके नंबरों को जोड़ने की बारी आई तो यह साफ़ हो चुका था कि स्कूलों में बच्चों के  फ़ेल होने का प्रमुख कारण क्या है , और पुरुष अध्यापक  स्कूलों में क्यूँ पसंद नहीं किये जाते...हम दो महिला जजों ने नंबर का खज़ाना, सरकारी खजाने की तरह दोनों हाथों से लुटाया हुआ था, और पुरुष अध्यापकों  ने बचत करने के कोंग्रेसी आदेश को हर जगह आत्मसात किया हुआ था. 
 
परिणाम घोषित होने के बाद की स्थिति तो  हमारी जनसँख्या वृद्धि की तरह  विस्फोटक हो गई थी, कुछ मास्टरनुमा  लोग जो फ़ौज में भर्ती होने गए थे, परन्तु उंचाई कम होने की वजह से रिजेक्ट हो गए,थे  और अंत में मास्टर बन गए, कहा भी तो  गया है , कुछ नहीं तो टीचर तो बन ही जाएंगे'',  इन असफल रणबांकुरों ने  मिलकर पूरा संसद के शून्यकाल के जैसा दृश्य उपस्थित कर दिया था,  ये परिणाम घोषित होने का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे थे, इन्हें बच्चों की प्रस्तुतीकरण से कोई मतलब नहीं था, प्रतियोगिता के दौरान ये  समोसे खाने चले गए थे , लेकिन परिणामों के घोषित होते ही एकाएक करवाचौथ के चाँद की तरह उपस्थित हो गए. बार - बार अपने बहुत दूर से आने की बात को रटे जा रहे थे, मानो दूर से आने का मतलब प्रथम स्थान पर उनका अधिकार हो जाना है. मन ही मन भविष्य की आशंका से दिल काँप उठा कि खुदा ना खास्ता कभी चाँद के निवासी धरती पर विसिट करने के लिए आएं और कहें कि हम इत्ती दूर से आये हैं, अतः हमें अपनी दो चार नदियाँ दे दो, या आठ - दस पहाड़ और  पर्वत दे दो, तब हम क्या करेंगे ?
   मैंने मन ही मन सोचा असंतुष्टों की इतनी बड़ी फ़ौज तो किसी भी पार्टी में नहीं हो सकती, साथ ही  यहां कुर्सी - मेज ना होने पर शुक्र  भी मनाया, जिस पर  कुछ देर पहले मैं सरकार को कोस रही थी, कभी - कभी असुविधाओं में भी सुविधा छिपी होती है, यह धारणा आज सच साबित हुई.
बहरहाल बड़ी मुश्किल से प्रधानाचार्य और उन असंतुष्टों के मध्य एक उच्च स्तर की वार्ता हुई जिसमे सर्वसम्मति से , सर्व से आशय स्वयंभू प्रधानाचार्य और उनके सबसे बड़े जवान  से है, के  बीच  यह फैसला हुआ  कि प्रतियोगिता दुबारा कराई जायेगी इस बार  पिछले जज   यानि, हम लोग नहीं होने चाहिए ,  और इस बार उनके इतनी दूर से आने का विशेष  ख्याल रखा जाएगा,   तभी वे भी अगले वर्ष इस  प्रतियोगिता में ,जो कि उनके क्षेत्र में होनी प्रस्तावित है ,में वे हमारे इत्ती दूर से आने का ख्याल कर पाएंगे.  

सोमवार, 16 नवंबर 2009

आजकल ज़रा बीमार हूँ

इधर बहुत दिनों बाद बाज़ार जाना हुआ| जब से लौट कर आई हूँ, सांस लेने में बहुत तकलीफ  हो रही है| सीने में भारीपन सा महसूस होता  है, हर समय किसी अनहोनी की आशंका से दिल धड़कता रहता है, माथे पर ठंडक के दिनों में भी पसीना चुहचुहा जाता है| सोच रही हूँ कुछ दिन अस्पताल में भर्ती हो आऊं| मेरी हालत भी कुछ - कुछ  भाजपा सी हो गई है|
न मैं चीन और भारत के बीच तिब्बत और अरुणाचल को लेकर बढ़ते तनाव से चिंतित हूँ,  न ही पकिस्तान और भारत के बीच कौन सी नई समस्या खड़ी होने वाली है इसको लेकर परेशान हूँ| इनको सुलझाने के लिए  लिए मैंने घंटों लाइन में खड़े होकर जिनको वोट दिया है, वे ही काफ़ी हैं| मैं सोने के सत्रह हज़ारी होने की बात से भी कभी पीली नहीं पड़ी| इसके लिए मेरी स्वर्ण-प्रेमी बहिनों ने बाज़ार पर कब्ज़ा कर रखा  है, जो सोने के पांच रूपये सस्ता होते ही नाना प्रकार के गहने बनवाने के लिए  सुनारों के पास दौड़ पड़ती हैं| मुझे भारत के आई पी एल से बाहर हो जाने पर   कतई अफ़सोस नहीं है| हो भी क्यों? इसके लिए जब देश की सवा सौ  करोड़  जनता भी कम पड़ जाती है तो मेरी क्या बिसात?  बॉलीवुड के नए लवर बॉय  को लेकर भी में तनाव में नहीं हूँ| इसके लिए  मेरे घर का सबसे होशियार प्राणी, यानि बुद्धू बक्सा, ही पर्याप्त है|  मैं दुनिया के सन् दो हज़ार बारह में समाप्त हो जाने  की भविष्यवाणियों  को लेकर ज़रा सी भी  दुखी  नहीं  हूँ क्योंकि इसकी चिंता करने के लिए अरबों - खरबों की संपत्ति  वाले लोग मौजूद हैं| मैंने तो  जब से होश संभाला है तभी से कोई न कोई दुनिया के ख़तम होने की भविष्यवाणी  करता ही रहता है, इसलिए इस तरह की आशंकाओं के बीच जीने की आदत सी हो गई है| अब तो हाल ये है कि जब कोई भविष्यवाणी नहीं करता तब दुनिया के ख़त्म होने की टेंशन  हो जाती है| मेरे बीमार होने की बात से कहीं आप  यह तो नहीं समझ रहे हैं कि मैंने कई करोड़ की संपत्ति जमा कर ली है और अब मैं गिरफ्तार होने के भय से अस्पताल जाकर आराम फ़रमाने की सोच रही हूँ? या कहीं आप यह अंदाज़ तो नहीं लगाने लग गए   कि मैं महंगाई के डर से अस्पताल की रोटी तोड़ने की सोच रही हूँ? नहीं ऐसा कतई नहीं है| 
असल बात यह है कि  जब मैं कल  बाज़ार गई थी तो अपनी आदत के अनुसार एकमात्र  सस्ती, यानि चने की दाल  के पास जाकर खड़ी हो गई थी| चने के पास जाने की नौबत अचानक ही नहीं आ गई| जिस तरह भाजपा के नताओं ने मुसीबत के समय अपनी पार्टी का साथ छोड़ दिया, उसी तरह मेरे रसोईघर की दालों ने भी ज़माने का चलन देखकर दल बदल लिया| अभी कल ही की बात लगती है जब मैं अपने रसोई घर में विभिन्न प्रकार की दालों को पारदर्शी  डिब्बों में कैद करके रखा करती थी, ताकि आने जाने वालों की नज़र उन पर पड़ जाए और समाज में मेरा मान - सम्मान बरकरार रहे| पारदर्शी होते हुए भी उन के बाहर उनके नाम की चिपकी लगाकर उनका सम्मान बढ़ाया| कितने सुहाने दिन थे जब भाजपाइयों की तरह सभी सहयोगी यथा तेल , मसाले और अनाज मिलकर के एक स्वस्थ और स्वादिष्ट थाली का निर्माण किया करते थे , जिसे देखकर अच्छे - अच्छे पक्ष में बैठे हुए लोगों के मुँह में पानी आ जाया करता था , देखते ही देखते पासा ऐसे पलटा कि थाली ने पानी भी नहीं माँगा . उन्होंने मेरी इज्ज़त का ज़रा भी ख़याल नहीं किया और फ़ौरन पाला बदल लिया| तब मैंने  लपक कर  चने का दामन जो थामा तो अभी तक मजबूती से उसे थामे रखा है| बाज़ार में  न चाहते हुए भी मैं अपनी औरत होने की आदत से बाज नहीं आयी  और अरहर आदि अन्य दालों के साथ  उसका वार्तालाप सुनने लगी| हमेशा चुप रहने वाली चने की दाल भी आज गरज रही थी और चिल्ला-चिल्ला कर कह रही थी, ''बस, अब बहुत हो गया मेरा अपमान| मैं इसे और बर्दाश्त नहीं कर सकती| जिसको देखो वही मुँह उठाये चला आता है और मुझे डिब्बे मैं बंद करके रसोई में रख  देता है| बहिन अरहर को देखो| उसे जो भी ले जाता है सीधे ड्राइंग रूम में सजा देता है| आने जाने वालों पर रौब  मारता है| सारी दुनिया उसकी मुरीद हो चुकी है| व्यंग्यकारों ने उस पर बेहतरीन व्यंग्य लिख दिए हैं| ग़ज़ल भी अब प्रेम-प्यार इत्यादि फ़ालतू की चीज़ों से निकल कर, लहराती हुई अरहर के बहर में आ गई है| कविताओं में उसके गुणगान गाये  जा  रहे हैं| वह कवि सम्मेलनों की शोभा बन गई है|  वह भी पीली, मैं भी पीली और हमारी किस्मत देखो कितनी अलग-अलग है| बिलकुल ऐसा लग रहा है जैसे एक अम्बानी को सत्ता मिल गई हो और दूसरे अम्बानी का पत्ता कट गया हो| एक को गैस मिल गई हो और दूसरे को चूल्हा जलाना  पड़ गया हो| आखिर कहाँ तक मैं ये नाइन्सफ़ी बर्दाश्त करुँ? अब तो मसूर बहिन ने भी सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं और अब कौन यह कहने की हिम्मत करेगा', 'छाती पर मूंग दल दिया'| बल्कि अब तो मूंग ने सबकी छातियाँ   दल दी हैं| सारी दाल बहिनें मुहावरों से गायब हो चुकी हैं, एक मैं ही अभी तक ज़िन्दा  हूँ| लोग हैं कि नाकों चने चबाकर भी मुझे खाए जा  रहे हैं| आखिर मेरा भी तो एक स्टैण्डर्ड है| सालों तक मुझे गुड़ के साथ  खाकर गरीबों ने अपना पेट भरा है| कभी  मेरा सत्तू बनाकर खाया तो कभी बेसन बनाकर भांति - भांति के पकवान बनाए| मुझे कबाब तक बनाया गया और आज मुझे ही हड्डी करार दे दिया गया| मुझे ही लड्डू के रूप में बनाकर मुँह को मीठा किया गया, हर तरह से मेरा शोषण किया गया और जब सम्मान देने की बारी आई तो अरहर बहिन को चुन लिया| आज मुझे ही कबाब की हड्डी बना दिया गया| मेरी ही बहिन के हाथों हर कदम पर मेरा अपमान हुआ| एक सा रंग-रूप और भाग्य का खेल देखो| एक करोड़ों  में खेल रही है और एक सबकी कटोरियों में पड़ी है| अब फैसला हो ही जाना चाहिए| आज के बाद मैं बाज़ार से गायब हो जाउंगी| तब मेरी अहमियत दुनिया को समझ में आएगी.'
इस प्रकार चने की दाल मेरी समस्त आशाओं पर तुषारापात करते हुए शान से मटकती हुई  चली गई| अन्य बची-खुची दालें भी गुस्से में  खदबदाने लगीं| गेहूं  के बोरे में से भी चीखने चिल्लाने की आवाजें आने लगीं| तभी से मैं खुद को बीमार महसूस कर रही हूँ और यही कारण है कि अस्पताल जाकर भर्ती होने का विचार मेरे मन में आया|

शुक्रवार, 6 नवंबर 2009

समझदार होते अस्पताल ...

कभी कभी मन करता है कि इन अस्पतालों की समझदारी पर बलिहारी जाऊं , इनकी प्रशंसा में स्तुतियाँ लिखूं , आरती गाऊं. इनकी समझदारी तो देखिये, जैसे ही किसी शातिर ...प्रकार अपनी { सुविधानुसार या हिम्मातानुसार} जोड़ सकते हैं, के ऊपर कोई गंभीर आरोप लगने वाला होता है, , उसे ये बीमार घोषित कर देते हैं, गोया कह रहे हों "बन्धु ! चिंता मत करो, हमारे होते हुए तुम्हारा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता , वहां अदालत में बड़का भाई कानून तुम्हारी रक्षा करने के लिए  है, यहाँ हम तुम्हारी देखभाल करने के लिए चौबीसों  घंटे तैनात  हैं''.
 
भविष्य में इन माननीयों को किसी किस्म की  कोई दिक्कत न हो इसके लिए सरकार को कुछ सुझाव .....
 
एम्स और अपोलो की तर्ज़ पर देश में एक ऐसा अत्याधुनिक सुविधाओं से लेस अस्पताल का निर्माण  करवाया जाए ,जहाँ सिर्फ मुक़दमे की संभावना वाले गणमान्य ? लोग ही प्रवेश पा सकें , जैसे ही हवा में इनके बारे में तरह - तरह की अफवाहें तैरने लगें, वैसे ही इन्हें आदर सहित एम्बुलेंस पर डालकर अस्पताल में भर्ती कर लिया  जाए.
 
 
 बीमारी को डाईग्नोस करने के लिए डॉक्टरों को बीमारी की एक लिस्ट थमा दी जाए , जिसकी ज़ुबान  पब्लिक में शहद - शहद और और काम नीम - नीम हो उसे डाईबिटीज़ का रोगी घोषित कर दिया जाए, जिसका नाम भर सुन लेने से पब्लिक की ऊपर की सांस ऊपर,  नीचे की सांस नीचे रह जाए, उस मान्यवर को सांस लेने में तकलीफ का प्रमाणपत्र,  जिसने आम जनता की खून - पसीने की कमी को हाई - हाई जगहों में जाकर उडाने में तनिक भी हिचकिचाहट ना दिखाई हो उसे हाई ब्लड - प्रेशर का मरीज़ का सम्मान पत्र दे दिया जाए . मानव अंगों का कारोबार करने वालों को बेहिचक  किडनी की बीमारी दिखाई जा सकती है
 
बलात्कार के आरोपियों  के लिए बिस्तर का विशेष ख्याल किया जाए, उनके आस पास  लेडी डॉक्टर्स और नर्सों की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए .
 
पकिस्तान से अपनी जान को जोखिम में डालकर आए हुए अपराधियों ? की खातिरदारी में कोई कोर - कसर ना छोडी जाए, इन भाइयों के लिए  विशेष डाइट चार्ट का निर्माण किया जाए , उन्हें चिकन, मटन, कबाब की निर्बाध आपूर्ति होती रहे. जितना ज्यादा जोखिम उतनी तगडी खुराक, इस सिद्धांत का पूर्णतः पालन हो, उनके लिए अस्पताल में  एक विशेष मोबाइल टावर भी बनवाना चाहिए जिससे सीमा पार की खबरें उन तक बिना व्यवधान के  बराबर पहुँचती रहें.
 
हिन्दुस्तानी भाइयों  के लिए बाबा रामदेव से मेनू सेट करवाकर सुबह से शाम तक लौकी के व्यंजन बनवाए जाएं .
 
घूस खाने के शौकीनों के लिए भविष्य में कब, कैसे और कितनी मात्रा में घूस खानी चाहिए इस विषय से सम्बंधित सेमिनारों की व्यवस्था अस्पताल के परिसर के अन्दर ही करवाई जाए , इसमें देश - विदेश के नामी - गिरामी घूसखोरों , जो आज तक किसी की पकड़ में नहीं आ पाए, ऐसे शूरवीरों को ससम्मान बुलवाया  जाए, , उनसे परामर्श लिया जाए, अकेले घूस खाने वाले मनोरोगियों के लिए समुचित काउंसिलिग की व्यवस्था हो, ताकि भविष्य में अकेले खाने की वजह से उनका और उन्हें अकेले खाता देखकर और किसी
 का हाजमा खराब न होने पाए.   
 
अस्पताल में समय बिताने की वजह से इनके दिमाग में कोई  मानसिक आघात ना पहुंचे और इनका सुनहरा भविष्य बर्बाद ना होने पाए, इसके लिए मनोवैज्ञानिकों को नियुक्त किया जाए, प्रवचन बेचने वाले बाबाओं के द्वारा आध्यात्मिक काउंसिलिंग की व्यवस्था करवाना भी इस दिशा में कारगर सिद्ध हो सकता है .

शनिवार, 31 अक्तूबर 2009

परीक्षाओं का मौसम

आजकल परीक्षाओं का मौसम है| हमारे विद्यालय में गृह परीक्षाएं चल रही हैं| 
गृह परीक्षा में  ड्यूटी करने पर पैसा नहीं मिलता इसलिए इसे कटवाने के लिए हम अपनी सारी ताकत झोंक दिया करते हैं, हाँ अगर पैसा मिलता होता तो स्थिति इसके बिलकुल उलट होती. गृह परीक्षा और गृह युद्ध में ज्यादा फर्क नहीं होता है| बच्चों को जब पेपर दिया जाता है तो उनके चेहरे पर वैसा ही कौतुहल होता है जैसे पहली बार किसी आतंकवादी ने बन्दूक पकडी हो .समस्त काले अक्षर यकायक भैंस बराबर हो जाते हैं.
पेपर बाँटने के पश्चात हम उन्हें पहले नक़ल करने अर्थात आतंकवाद को पसारने का भरपूर मौका देते हैं, हम उन्हें नज़रंदाज़ करके पड़ोसी मुल्क यानी बगल की कक्षा के मास्टर से गप्प मारने चले जाते हैं , जैसे ही वे निश्चित होकर नक़ल करने लगते हैं हम चुपके से आकर उनकी कापियों का  अधिग्रहण कर लेते हैं .
कभी - कभी गुस्से में अमेरिका की तरह मुँह से निकल जाता है " छिः ! किस स्कूल से पढ़कर आए हो ? किसने तुम्हें पास कर दिया ?इस पर  वह बस अंगुली ही नहीं दिखाता है , उसकी हँसती हुई आँखें अचानक अल - कायदा की तरह पलटवार करती हैं "आप जैसों  ने ही '''
कई बार अपने साथी अध्यापकों के रिश्तेदारों या टयूशन वाले यहाँ तक कि उनके चेलों तक की संदेहास्पद  गतिविधियों  को उसी तरह से नज़रंदाज़ करना पड़ जाता है जिस तरह भारत अपने मित्र राष्ट्र नेपाल की माओवादी गतिविधियों को करता है.
 कई बार फर्जी एनकाउन्टर, यानी कि बात कोई और करे  झापड़ किसी और को लगाकर अपने पक्ष में  हवा बनानी  पड़ती है.  बच्चे सोचते हैं कि कब ये मास्टर रूपी फौज  की नज़र पलटे और हम अपने साथ लाए हुए गोला बारूद यानी नक़ल सामग्री का प्रयोग करें, इनके गोला - बारूद रखने के गुप्त स्थानों का पता चल जाए तो देश - विदेश की सर्वोच्च  जासूसी संस्थाएं चुल्लू भर पानी में डूब मरेंगी . हर संभावित जगह पर दबिश दिए जाने के बावजूद  नकल में  अक्ल  वाला बाजी मार लेता है जो जितना प्रशिक्षित आतंकवादी होगा उसके गुप्त ठिकाने उतने ही खुफिया होंगे . बेवकूफ लोग मोजों में से गोला बारूद निकालते हैं और धर लिए जाते हैं . अक्लमंद शरीर के विभिन्न अंगों पर असलहे लपेट कर यानी प्रश्नों के उत्तर लिखकर लाते हैं और कभी पानी पीने, कभी टॉयलेट जाने के बहाने से उन्हें उतारते यानी धोते चले जाते हैं , पर्ची पकडी जाए तो अक्लमंद साइनाइड की तरह बिना देरी किये  चबा लिया करता है. अन्य कोई विद्रोह होता तो ये भी बराबर का पलटवार करते परन्तु परीक्षा के दिनों में आपातकाल लगाकर इनके सारे अधिकार छीन लिए जाते हैं , इसका बदला ये बाद में घात लगाकर हमला बोलकर चुकाते हैं
कभी - कभी हम  मास्टर लोग  झपकी ले लिया करते हैं, वह भी इस अंदाज़ में कि सामने बैठा बच्चा तक यह समझता है कि मास्साब कोई गहन चिंतन में डूबे हैं.
   लडकियां  भी कम आतंकवादी नहीं होतीं ,हाँ लेकिन एक बात गौर करने वाली होती है , परीक्षा के दौरान इनके चेहरों की रौनक उसी तरह से गायब हो जाती है जैसे गूगल के मानचित्र में  भारत से काश्मीर ,  नाक से लेकर लाल टीका माथे तक का सफ़र बिना किसी  रोक टोक के वाघा - सीमा  पार  करता हुआ प्रतीत होता  है , कपडे बिना प्रेस किये हुए, बिखरे - सूखे बाल , हाथ में लाल धागा, गले में काला  ताबीज़ लटका हुआ होता है , डिब्बे में लाल फूल और उसकी हर पत्ती  पर गणित का एक सूत्र, मानो ईश्वर स्वयं सामीकरण  बनकर फूल पर उतर आए हों, मुझे पता होता है कि इस ताबीज़ में भी अवश्य ही  भगवान् की कोई ऐसी  कृपा बरसी होगी, लेकिन कभी उसे खोलने की हिम्मत नहीं हुई .भगवान् पर इतना अविश्वास  करना ठीक नहीं होता.
  अंतिम  के पंद्रह मिनटों  में हमारे थक जाने की वजह से उनके लिए मौसम अनुकूल हो जाता है , चेतावनी   देने और  लाख मुस्तैदी रखने के बावजूद में कुर्सी - मेजों की  सीमा रेखा का अतिक्रमण बहुत तेज हो जाता है  . कभी - कभी  जिस तरह सीमा पर तैनात फोर्स घुसपैठ को  चुपचाप खड़ी - खड़ी देखती रहती है उसी तरह से हमारी भी हालत हो जाती है , और हम पोखरण विस्फोट की तर्ज पर  मेज पर डंडा पटककर बच्चों  धमकाने की असफल कोशिश करते हैं .
उसके बाद कापियां जांचने की बारी आती है तब प्रश्नों के उत्तर कापियों में से ढूंढ़ना उतना ही दुष्कर कार्य होता है जितना कि पकडे गए उपद्रवियों में से एक निर्दोष को छांटना.
पता नहीं कि यह किसका दुर्भाग्य है कि लिखते तो ये भी शायद एक रूपया ही हों , लेकिन हम तक आज भी सिर्फ दस पैसे ही पहुँच पाते हैं .

सोमवार, 26 अक्तूबर 2009

त्यौहार का दिन और गैस चोरी हो गई

साथियों , कैसा लगेगा आपको जब घर में दो - दो आयोजन हों और पता चले कि आपकी गैस चोरी हो गयी हो..कल जब इस नाचीज़ ने चिट्ठा - चर्चा पर नज़र डाली तो पाया कि किन्हीं आकांक्षा  की कृपादृष्टि मेरे ब्लॉग पर पड़ चुकी है , और उन्होंने बिना मुझसे पूछे मेरी रसोई से गैस निकली और अपनी रसोई में फिट कर ली , मैंने कई दिनों तक धूप में ,लम्बी लाइन में खड़ी होकर दो भाइयों के झगड़े के बावजूद गैस भरवाई , ताकि मेरे ब्लॉग का चूल्हा जलता रहे ,और महोदया उसे एक झटके में खोल कर ले गयी , आपके पास रोटी पकाने के लिए गैस नहीं थी तो मुझसे मांग लेतीं , मुझे भी सुकून होता कि मेरे ब्लॉग की रोटी से कोई और भी अपना पेट भर रहा है ,आपने तो चार - पांच रोटी रूपी टिप्पणी तक सेंक ली ,कोई और बहिन होती तो आपसे अवश्य ही पचास रूपये झटक लेती ..लिंक
 मैं हिन्दुस्तानी स्त्री हूँ उससे भी बढकर एक  ब्लोगर हूँ ,, मेरी किसी पडोसन को या सहेली को मेरी कोई साड़ी या जेवर पसंद आ जाती है तो मैं उसे उदारता पूर्वक पहिनने के लिए दे दिया करती हूँ , हांलाकि बिना टयूशन वाली मास्टरनी के पास ऐसी कोई साड़ी या जेवर नहीं है यह तो मैं अपने को खुश रखने के लिए कह रही हूँ , जब बात गैस की हो जाती है, वह भी बिना पूछे लगी गई, तो गुस्सा आना स्वाभाविक है .http://shefalipande.blogspot.com/2009/08/blog-post.html
,  स्टोव में तेल नहीं है क्यूंकि इस साल स्कूल में पढाना पड़ गया सो मैं बी . पी . एल .कार्ड नहीं बनवा पाई , और मिट्टी का तेल लेने की योजना मिट्टी में मिल गई ., वैसे अगर स्टोव पर खाना बनाना पड़ता तो गुस्से में पम्प जोर से मारती और ऐसे में स्टोव के फटने का भी खतरा था, पांडे जी को खामखाह ही जेल हो जाती , हांलांकि इससे उनके बार बार  यह कहने की परीक्षा हो जाती कि मेरे हाथ का खाना खाने से जेल का खाना ज्यादा अच्छा होता होगा.
 
 थक हार के चूल्हा सुलगाना पड़ता ,इस प्रक्रिया में , मैं ही ज्यादा सुलगती और कुछ शोले पांडे जी पर भी ज़रूर  गिरते.
 .तो बात थी दो - दो आयोजनों की .....एक तो पाबला जी बता ही चुके हैं ....आज से आठ साल हमारा  निहार रंजन पांडे जी के साथ गठबंधन हुआ था ,आठ साल कहने से ही ''आठ - आठ आँसू'' 'जाने क्यूँ याद आ जा रहे हैं , ये वही साल २००१ था ,जब विवाह से ठीक एक माह पूर्व न्यूयार्क का ट्विन टावर जीरो ग्राउंड में बदल गया था, ,सेंसेक्स पांच हज़ार की उच्चतम सीमा को लाँघ गया था ,जो कि मंदी के आने का पूर्वाभास था ,भाजपा के बंगारू लक्ष्मण को घूस के आरोप  में  बिना राम के वनवास  मिल चुका  था ,,उसी साल हमारा आज ही के दिन पाणिग्रहण हुआ था ,बीस - पच्चीस बाराती, बिना बैंड - बाजे के गोधूली के समय {चक्का जाम के कारण बारात सुबह पांच बजे की जगह शाम पांच बजे पहुँच पाई , हर कोई अपने - अपने स्तर से पांडे जी को बचाने के प्रयास में जुटा हुआ था }  हमारे द्वारे पहुंचे , फटाफट ट्वेंटी - ट्वेंटी की तर्ज़ पर विवाह संपन्न हुआ, एक कपडों की अटैची और एक किताबों से भरा हुआ संदूक { पांडे जी की इच्छानुसार }लेकर हम खाली हाथ बारातियों के टीका पानी न मिलने के कारण  मुरझाए हुए चेहरों के साथ  कानपुर आ गए .
 
दूसरे, कल यानी सत्ताईस अक्टूबर के दिन हमारा इस धरा पर पदार्पण हुआ था. इसीलिए ये दो हमारे लिए  दिन बहुत ही ख़ास हैं , और हमारी गैस चोरी हो गई , बनाएं तो क्या बनाएं ? 
 
अभी - अभी जाकर उनके ब्लॉग में देखा तो पता चला  कि वहां हमारी गैस नहीं है , और ना गैस को चुरा कर लगाने का कोई निशान ....काश कि हम भी टेक्नोलोजी के मास्टर होते तो  उसी समय कौपी  करके या स्नेप लेके अभी मय सबूत के पेश कर रहे होते ....
 
स्लोग ओवर खुशदीप भाई से उधार लेकर.....
विदाई के
 समय माँ अपनी बेटी को रोता देखकर ....
''चुप हो जा बेटी , भगवान् ने चाहा तो तुझे ले जाने वाला खुद रोएगा ''..
 
 दावत के लिए  हमने मेहनत  ब्लोगर साथियों के लिए मीट का इंतजाम किया है , हम घनघोर शाकाहारी हैं .मीटिंग में अलाहाबाद तो ना जा सके लेकिन  तथापि आज मीट अवश्य पकाएंगे ...क्यूंकि गैस वापिस आ गई है  
 
चाय कम  , खर्चे ज्यादा
 बहस कम , चर्चे ज्यादा 
प्रश्न कम , पर्चे ज्यादा
सोए कम, रोए ज्यादा
 पाए कम , खोए ज्यादा 
 
पोस्ट कम मार्टम ज्यादा 
दुःख कम, मातम ज्यादा 
औरत कम , मर्द ज्यादा 
मलहम कम, दर्द ज्यादा
 
 मक्खी कम , मच्छर ज्यादा 
शगुन कम  फ़च्चड़ ज्यादा             
विचार कम आचार ज्यादा
सम्मलेन कम प्रचार ज्यादा
 
 पटाखा कम धमाका ज्यादा
संगम कम मंथन ज्यादा
बेनामी कम सूनामी ज्यादा
परेशानी कम हैरानी ज्यादा
 
 श्रोता कम कुर्सी ज्यादा 
पानी कम बिसलेरी ज्यादा   
दुल्हन कम  स्वयंवर ज्यादा 
ब्लोगर कम नामवर ज्यादा 
 
माइक कम  फाइट ज्यादा 
अतिथी कम   संचालक ज्यादा 
 समीक्षक कम आलोचक ज्यादा 
स्माइल कम , मोबाइल ज्यादा
 
 
टांग कम खिंचाई ज्यादा 
लगाई कम बुझाई ज्यादा
 हाँ हाँ कम, हाहाकार ज्यादा 
कार कम ,पत्रकार ज्यादा
 
 चाट कम ठेला ज्यादा 
मेल कम, मेला ज्यादा 
समय कम, भड़ास ज्यादा
लिखा कम छपास ज्यादा      
 
इस पोस्ट को लगाने से  पहले आकांक्षा जी का माफी का फोन आ चुका है,नई - नई ब्लोगर हैं , जानकारी के
 अभाव में अपनी मित्र द्वारा भेजी गई मेल को अपने ब्लॉग में लगा बैठीं , और इस नाचीज़ का नाम देना भूल गईं ....चलिए जो हुआ सो हुआ ....आप इस मीट  और हमारे विवाह की दो मजेदार फोटुओं का आनंद उठाइए .           

शनिवार, 24 अक्तूबर 2009

सच कहते हैं बड़े - बुजुर्ग ज़माना बदल गया ...

ज़माना बहुत बदल गया है ,पहले यदि कोई विद्यार्थी  दीवाली के दौरान स्कूल में गलती से भी फुलझडी या हैण्ड बम  चलाता था तो फुलझडी से ज्यादा चिंगारियां मास्साबों की आँखों से बरसती थीं, और यह भेद करना मुश्किल हो जाता था कि किसकी आवाज़ ज्यादा तेज है ,पटाखे की या पिटाई की .
आज बच्चे पंद्रह दिन पहले से बम फोड़ना शुरू कर देते हैं , यह बच्चों की कृपादृष्टि और स्वयं मास्साब की लोकप्रियता पर निर्भर करता है कि बम फोड़ने की जगह कौन सी होगी  ,मास्साब की मेज़ के ऊपर या उनकी कुर्सी के नीचे.   निकट भविष्य में बम की जगह आर,डी.एक्स.
  आने वाला है .  पहले माता पिता रोशनी को ज्यादा महत्त्व देते थे , शुद्ध लोग थे, सो घरों में शुद्ध घी खाया भी जाता था और दीयों में जलाया भी जाता था ,अब मनुष्य रिफाइंड आदमी बन गया है गरीब  आदमी कोल्हू में बैल की तरह  रात - दिन पिसता है, अमीर लोग उससे निकले हुए  तेल को रिफाइंड करके दिए में डाल कर जलाते हैं.  कई जगह  दियों में मोमबत्तियां सुशोभित रहती हैं ,ताकि दूर से  देखने वाले को देसी घी के दिए का भ्रम बना रहे .
आजकल माता पिता आवाज़ को ज्यादा महत्त्व देते हैं , क्यूंकि अब घरों में आवाजें नहीं होतीं , ना किसी के आने की आहट, ना बच्चों के हंसने , खेलने ,खिलखिलाने ,दौड़ने ,और भागने की. इसीलिए इन आवाजों को  पटाखों और बमों  के रूप में  बाहर से एक्सपोर्ट करना पड़ता है ,घरों में दो ही चीज़ बोलतीं हैं एक टी. वी. दूसरा मोबाइल.
पहले के लोग हँसी मज़ाक की फुलझडीयाँ  छोड़ते थे ,आजकल के लोग अन्दर ही अन्दर सुलगते रहते हैं फटते नहीं ,मामूली बातों पर विस्फोट कर डालते हैं   ज़रूरी मसलों पर फुस्स बम हो जाते हैं . पहले एक बच्चा अनार जलाता था और सौ लोग  उस बच्चे को देखते थे ,आज एक बच्चा सौ अनार अकेले जला लेता है ,उसे देखने वाला एक भी नहीं होता.
पहले घर की महिलाएं महीनों पहले से घर की साफ़ - सफाई करने लग जाती थीं ,कोना - कोना जगमगाता था ,आज घर को नहीं स्वयं को चमकाने में ज्यादा रूचि लेती हैं . घरों में हाथों से बनी कंदीलों के बजाय   दीवाली के बम्पर ऑफर की खरीदारी रूपी झालरें जगह - जगह लटकी रहती हैं  
 हफ्तों पहले से  पत्र और कार्ड्स में लिपटे, स्नेह से भीगे हुए ,रंग - बिरंगे शुभकामना सन्देश घर के दरवाजे पर दस्तक देते थे, जिन्हें बड़े प्यार से घर की  बैठक में सजाया जाता था, अब हमारे ही द्वारा भेजा गया  एस .एम् .एस .या ई .मेल .कई  जगहों से फोरवर्ड हो कर  लौट के बुद्धू घर को आवे के तर्ज़ पर हमारे पास  वापिस आ जाता है, कहा जा सकता है कि यह हमसे भी ज्यादा फॉरवर्ड हो गया है 
पहले महालक्ष्मी का इंतज़ार जोश -खरोश से होता था , दिल में हर्ष - उल्लास भरा होता था , आजकल अगर यह महीने के आखिर में हो तो   कई महीने पहले से दीवाली का फंड अलग से बनाना पड़ता  है कई बार उधार भी करना पड़ जाता है ..
पहले स्नेह बहता था अब शराब बहती है ,पहले हम मीठे होते थे तो मिठाइयों की विविधताएं नहीं हुआ करती थीं ,अब हम कड़वे हो गए हैं, और मिठाइयों की वेराइटी का कोई अंत नहीं मिलता . 
सच कहते हैं बड़े - बुजुर्ग ज़माना बदल गया

मंगलवार, 20 अक्तूबर 2009

''ये त्यौहार ही हमारी मुनसिपेलिटी हैं''

बचपन में हिन्दी की किताब में भारतेंदु हरिश्चंद्र जी का एक पाठ हुआ करता था जिसमे एक बहुत ही बढ़िया पंच लाइन हुआ करती थी ''ये त्यौहार ही हमारी मुनसिपेलिटी हैं'' टीचर बताया करती थी कि इसका मतलब यह हुआ कि हमारे घरों में साफ़ - सफाई अक्सर तीज - त्योहारों के अवसर पर ही हुआ करती है, इसीलिए ये हमारे लिए  मुनसिपेलिटी का काम करते हैं, वैसे आजकल इसे यूँ भी समझा  जा सकता है कि जब लाख बुलाने पर मुनसिपेलिटी वाले नहीं आएं , और जब हम उम्मीद छोड़ दें तो ये अचानक प्रकट हो जाते हैं, तब समझ लेना चाहिए कि ज़रूर कोई त्यौहार निकट होगा ,तभी इन्होने सशरीर प्रकटीकरण की आवश्यकता समझी, और इस दिन को ही त्यौहार का दर्जा दे- देना चाहिए .
वैसे पोस्ट का विषय ये नहीं था, ये तो बस यूँ ही इन दिनों घर की सफाई करते समय दिमाग में आ गया. विषय तो उड़न परी पी . टी.उषा के आँसू और क्रिकेट के आंसुओं का तुलनात्मक अध्ययन से  सम्बंधित था,जो इन दिनों घर की सफाई की भेंट चढ़ गया था, 
 क्रिकेट से सिर्फ उषा की आँखों में ही आँसू नहीं आते बल्कि ऐसे कई लोग हैं जिनके आगे क्रिकेट का नाम  भर ले लो तो गंगा जमुना बहने लगती है ,मैच के दौरान   ऑफिसों में जाने पर आम आदमी की आँख से , स्कूलों में बच्चों की , घरों में पत्नियों की , करोड़ों की बोली हारने पर शाहरुख़, प्रिटी और शिल्पाओं की आँख के  अनमोल  आँसू क्या कोई भूला होगा ?
लोगों ने इस मौके पर आव देखा ना ताव, बस क्रिकेट के पीछे पड़ गए, भला क्रिकेट से किसी खेल की तुलना कैसे की जा सकती है
वैसे क्रिकेट की बराबरी कोई और गेम कर ही नहीं सकता, दौड़ तो कतई नहीं , भला यह भी कोई खेल हुआ कि जूते पहनो, ट्रेक सूट पहनो और दौड़ पडो , ना कोई गलब्ज़, ना हैट, ना पैड,  ना कोई रोमांच ना रोमांस.
क्रिकेट खेलना एक तरह से संयुक्त परिवार में रहने जैसा होता है , सारे सदस्यों को एक साथ  रखना कित्ती मुश्किल बात है ,ये दौड़ जैसा एकल परिवार वाला खेल क्या समझेगा ?
 
बौल  फेंकते समय जो एकाग्रता चाहिए वह किसी और खेल में कहाँ ? हर पल बौल पर गर्ल फ्रेंड की तरह पैनी  नज़र रखनी होती है ,इधर बौल  से नज़र हटी  उधर टीम से बाहर. कूटनीतिक  चालें  अपनानी होती है , देखना दाईं तरफ, और फेंकना बाएँ तरफ . फेंकते - फेंकते अचानक रुक जाना ,गुस्सा आ जाए तो बौल पर  थूक का लेप लगा देना  ,१८० की स्पीड से दौड़ते हुए आना और अचानक  घुर्रा फेंकना.
 
और दौड़ में क्या है बस नाक की सीध में दौड़ते जाना ,  ना कोई तिकड़म, न कोई लात घूंसा ना  गाली गलौज ..ना चीअर ना चीयर गर्ल्स .
 
  फील्डिंग करने में कित्ती जोखिम है कभी देखा है ...फ्रंट के दर्शकों की बोतलें,खाली  रेपर्स से लेकर गाली तक खानी पड़ती है ...इतनी सब दिक्कतों को भी झेल लिया जाता है बशर्ते पैसा लगातार मिलता रहे ,लेकिन इन्हें क्या मिला ? , सहवाग और युवराज बेचारे तो लगभग रो ही पड़ते हैं '' जब तक बल्ला चलता है तब तक ठाठ हैं '' उसके बाद इनका क्या होगा यह सोचकर ही  आँसू आ जाते हैं और युवराज उसकी इंजरी  पर तो दुनिया का ध्यान ही नहीं गया , लगती होगी और खेलों में  भी चोट , लेकिन क्रिकेट में  इंजरी  जैसी कोई चोट नहीं हो सकती .ये सीधे दिल पर लगती है .इतनी चोट - चपेट खाने के बाद भी इन्हें क्या मिला?
हमने कभी सोचा नहीं था कि इन्हें इतनी आर्थिक असुरक्षा होती होगी ,क्या किसी और खेल के खिलाडी को हमने इस तरह पैसों का रोना  रोते हुए देखा ? असुरक्षा की इतनी गाढी क्रीज़   तो किसी रिक्शे चलाने वाले या दिहाड़ी पर लगे हुए मजदूर के माथे पर भी देखने को नहीं मिलती, जिसको पता ही नहीं कि कल अगर शहर बंद हुआ  चूल्हा कैसे जलेगा? दुनिया भर के उत्पाद बेचने वाले इन क्रिकेटरों को बिना बौल के एल . पी. डब्लू. होते देख कर मन खिन्न हो जाता है..आओ साथियों सब मिल कर धिक्कारें , साथियों सब मिल कर धिक्कारें ,
 
धिक्कार  है,  इन पेप्सी, कोक वालों को, इन एडिडास वालों को, इन पेन , पेंसिल बनने वालों को,  करोडों की  बोली लगाने वालों को ,उन्हें भी धिक्कार जिनकी  शानदार पार्टियों में इन्होने  ठुमका लगाया , दुकानों के रिबन काटे ,रियलिटी शो में शो पीस बने , जिनके लिए इन्होने अपना बल्ला  तक ताक पर रख दिया,    धिक्कार की यह सूची इतनी लम्बी है कि एक पोस्ट में उन्हें समेटना संभव नहीं हो पायेगा ,बाकी अगली पोस्ट में . 

बुधवार, 14 अक्तूबर 2009

इन्हें इंसान ही बने रहने दिया जाए

ग्रामीण इलाके में शिक्षण कार्य करने के कारण अक्सर मुझे वह देखने को मिलता है, जिसे देखकर यकीन करना मुश्किल होता है कि यह वही भारत देश है, जो दिन प्रतिदिन आधुनिक तकनीक से लेस होता जा रहा है,जिसकी  प्रतिभा और मेधा का लोहा सारा विश्व मान रहा है, जहाँ की स्त्री शक्ति दिन पर सशक्त होती जा रही है ,  लेकिन इसी  भारत के लाखों ग्रामीण इलाके अभी भी अंधविश्वास की गहरी चपेट में हैं, इन इलाकों से विद्यालय में आने वाली अधिसंख्य लडकियां कुपोषण, उपेक्षा, शारीरिक और मानसिक  प्रताड़ना का शिकार  होती  हैं, क्यूंकि ये एक अदद लड़के के इंतज़ार में जबरन पैदा हो जाती हैं, जिनके  इस दुनिया में आने पर कोई खुश नहीं हुआ था,  और यही  अनचाही लडकियां जब बड़ी हो जाती हैं, तो अक्सर खाली पेट स्कूल आने के कारण शारीरिक रूप   से कमजोरी के चलते   मामूली  सा  चक्कर आने पर यह समझ लेती हैं कि उनके शरीर में देवी आ गयी है, हाथ - पैरों के काँपने को वे अवतार आना समझ लेती हैं  , मैं बहुत प्रयास करती हूँ कि बच्चों की इस गलतफहमी को दूर करुँ, मैं उन्हें समझाती   हूँ कि ये देवी - देवता शहर के कॉन्वेंट या पब्लिक स्कूलों के बच्चों के शरीर में क्यूँ नहीं आते ? इन्हें सिर्फ ग्रामीण स्कूलों के  बच्चे ही क्यूँ याद आते हैं, लेकिन उन्हें समझाने का कोई फायदा नहीं होता क्यूंकि  उनके पास उन्हें  विरासत में मिले  हुए अकाट्य तर्क होते हैं, जिनसे पार पाना बहुत मुश्किल होता है. अपने इस विश्वास को सिद्ध करने के लिए उनके पास अनेकों झूठी अफवाहों  से उपजे उदाहरण,  माता - पिता की अज्ञानता  और  देवी माँ के द्वारे इंतज़ार करती हुई  भक्तों की भारी भीड़ के जयकारे होते हैं .
 
हमारे देश के लोगों की ख़ास आदत होती है कि किसी मुसीबत में फंसे हुए या  दुर्घटना
 में घायल , दम तोड़ते हुए  इंसान की मदद को आगे आने के बजाय आँखें मूँद कर  चुपचाप कन्नी काट लिया करते  हैं, लेकिन किसी इंसान के शरीर में देवता का अवतरण हुआ है , यह सुनते हीबिना आगा - पीछा सोचे , उस  घर की दिशा की ओर दौड़ पड़ते हैं, देखते ही देखते  देवी के चरणों पर चढ़ावे का ढेर लगा  देते हैं,  जिसे देखकर   इन लड़कियों के लिए  इस दैवीय  मकड़जाल से निकल पाना बहुत मुश्किल हो जाता है .
 
    पाठ्यक्रम निर्धारित करने वाले बड़े - बड़े शिक्षाविद पाठ्यक्रम का निर्धारण करते समय अधिसंख्य ग्रामीण इलाकों के बच्चों के विषय में नहीं सोचते हैं, उनकी नीतियाँ शहरी क्षेत्रों के चंद सुविधासंपन्न बच्चों को फायदा पहुँचती हैं , शिक्षाविद  यौन शिक्षा की जोर - शोर से वकालत करते हैं ,स्कूलों में कंडोम बांटने के बारे में विचार करते हैं , योग की कक्षाएं अनिवार्य कर देते हैं,  नैतिक शिक्षा की बात करते हैं, मिड डे मील का मेनू सेट करते हैं, नंबरों की जगह  ग्रेडिंग सिस्टम लागू कर देते हैं,  लेकिन देश को सदियों पीछे ले जाते इस अंधविश्वास के निर्मूलन की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता.यह जानने की कोशिश कोई नहीं करता कि  कितनी  लडकियां  देवी बनकर, पढ़ाई - लिखाई से दूर होकर अपने घर वालों के लिए सोने का अंडा देने वाली मुर्गियां बन गयी  हैं, जहाँ से वापस लौटना अब उनके लिए संभव नहीं  है .
इन्हें इंसान ही बने रहने दिया जाए  

शुक्रवार, 9 अक्तूबर 2009

करवा चौथ ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकता है

वर्तमान भारतवर्ष में शायद ही कोई ऐसा त्यौहार बचा हो जो  सम्पूर्ण राष्ट्र को एकता के सूत्र में पिरो सके, ऐसे समय में करवाचौथ ही एकमात्र ऐसा त्यौहार बच गया है जिसमे थोड़ी बहुत सभी धर्मों की झलकियाँ मिल जाती हैं ...देखिये
दीवाली : के रूप में महीनों पहले से पति की जेब में मेहनत से जमा किये हुए "हाथ के मैल" की सफाई; चेहरे की रंगाई-पुताई और टूट-फूट की मरम्मत; पति के दिल का बिना तेल-बाती के जलना; कमाई का धुँआ उड़ना; महँगी  डिजाइनर  साड़ी और  मंहगे जेवरों को देखकर पडोसिनों का चकरघिन्नी की तरह आगे-पीछे घूमना और इस घमंड में पत्नी के दिल में अनार, फुलझडी का छूटना ........
 
होली: पतियों द्बारा खरीदारी रूपी चीर को किसी कदम्ब पर बाँधने का असफल प्रयास और असफल होने पर दिल में होली का जलना; पत्नी का चेहरा मेकप के कारण गुलाबी, होंठ लिपस्टिक से लाल, पति के चेहरे का रंग पीला पड़ना, इस सदमे से  खोया - खोया रहना ...
 
ईद: पति रूपी बकरे को  चुपचाप हलाल हो जाना पड़ता है अन्यथा मुहर्रम का मातम भी लगे-हाथ हो सकता है .
 
जब पति सांता क्लॉस बनकर  चुपचाप तकिये के नीचे महँगी ज्वेलरी रखे या लेटेस्ट मोबाइल रखे तभी  उसे दुनिया के आगे संत की उपाधि मिलती है| बड़ा दिन: व्रत करने वाली महिला के लिए यह दिन सबसे बड़ा होता है, किसी भी तरह से ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेता.
 
सारा दिन व्रत रखने से महिलाओं के चेहरे पर सिखों के शहीदी दिवस के भाव आना ,उनकी इस अदा पर पतियों का शहीद हो जाना.
 
भगवान् बुद्ध के वचनों  का पतियों द्बारा  पूर्णतः पालन करना. साल भर चाहे कितनी भी मार - कूट कर ले, इस दिन संयम रखना .
 
जन्माष्टमीअगर कोई नासमझ पति खाली हाथ घर आ जाए तो आँखों से गंगा जमुना बहने लगती है और डलिया भर के उपहार लाने पर ही घर रूपी जेलखाने में पुनः प्रवेश मिलता है  
 
शिवरात्रीमहिलाओं की  खरीदारी देखने से ऐसा लगना मानो  इन्होने भांग का नशा किया हो, जिसका सुरूर उतरने का नाम ही नहीं लेता.
 
 
बाल दिवस: दिन भर बच्चों को संभालना पड़ता है तो पतियों के लिए यह बाल दिवस| यह दिन पत्नियों द्वारा ड्राई दिन और अहिंसा का डिक्लेयर कर देने से दो अक्टूबर ....
 
क्यूँ हुआ ना यह एक सर्व धर्म त्यौहार ??
 

बुधवार, 7 अक्तूबर 2009

करवा चौथ पर इन देवियों से मिलिए ...

उस घर में जब पहुँची मैं
अजब वहां का हाल था
वो बनी थी अंबे - दुर्गा
झगड़ा ही जिनका काम था 
 
बिखरे हुए थे सारे बाल 
आँखों में जलते थे अंगार 
भभूत लपेटी थी तन पे 
सिर पे सुशोभित चूनर लाल 
 
आँखों को घुमाया गोल - गोल 
एक नज़र में लिया सबको तोल 
उछल - उछल कर लगी नाचने 
थर - थर क्रोध से लगी काँपने 
 
" और जोर से बजाओ थाली 
मुझमें आ गयी शेरोंवाली 
मैं ही काली, कलकत्ते वाली 
मेरा वार ना जाए खाली "
 
किया जोर से अट्टहास 
रुक गयी सबकी पल में सांस 
सिंहासन से कूद कर 
नाचती आई घर वालों के पास 
 
हाथ - पैरों को ऐसे मरोड़ा 
देवर - जेठ का हाथ तोड़ा 
सास - ननद का पकड़ा झोंटा 
ससुर की पीठ पर जमाया सोटा 
चुप्पी साधे खड़ा था जो भी 
 फ़ौरन चरणों पर जा लोटा
 
पडोसिनों को मारी लात
थप्पड़ - घूसों की हुई बरसात
मेरी पूजा नहीं करोगी
सुन लो कलमुंही , कुल्च्छ्नियों
आजीवन रोती रहोगी
 
इतने में पति की आई याद
था दूर खड़ा वह दम को साध
"समझे खुद को प्राणनाथ
कुत्ते - कमीने ,और बदजात
वहां खड़ा है सहमा - सिमटा"
कहकर फेंका थाली, चिमटा
 
बोली सास कराह कर
लिखी भूमिका तूने इसकी
मैं करूंगी उपसंहार
जीत गयी तू अबकी, मैं गयी हूँ हार
जी भर के करवा ले अपनी जय जैकार
 अगली बार, लूंगी जब अवतार,
सात पुश्तें तेरी, करेंगी  हाहाकार ...
 
 
 
 
 
 
 
 
 
  

शुक्रवार, 2 अक्तूबर 2009

लो आया बचत का मौसम ....

मंत्रियों  ने होटल छोडे , 
हर गली में बबुआ डोले 
लो आया बचत का मौसम 
नए अंदाज़  का मौसम .......बचत के इस सीजन में देखिये ऊपर वाले के यहाँ क्या चल रहा है ?
 
 
ईश्वर - चित्रगुप्त से .....
बताओ चित्रगुप्त ! पृथ्वी पर क्या चल रहा है ?
चित्रगुप्त .....महाराज ! पृथ्वी तो मात्र चल रही है , लेकिन भारत वर्ष दौड़ रहा है।
 
ईश्वर ...वो कैसे ? पहेली मत बुझाओ, साफ़ साफ़ कहो।

चित्रगुप्त ...पूरा भारतवर्ष इस समय बचत की चपेट में है।

 
ईश्वर ....ये कौन सी नई बीमारी है ? हमने तो लेटेस्ट स्वाइन फ्लू भेजी थी , इसमें ज़रूर विदेशी ताकतों का हाथ है ।
.चित्रगुप्त ..महाराज इसके कीटाणु बहुत तेजी से फैलते हैं, इससे ग्रस्त होने पर इंसान के अन्दर बचत करने की भावनाएं जोर मारने लगती हैं।.
 
ईश्वर  ...अच्छा !! इसका मतलब मैं ये समझूं कि मंत्रियों और नेताओं ने हवाई जहाज से उड़ना छोड़ दिया है?
चित्रगुप्त....नहीं महाराज, ये आपने कैसे सोच लिया ? भारत वर्ष में जो ज़मीन से जितना ऊपर उड़ान भरता है , उसकी जड़ें ज़मीन में उतनी गहरी होती जाती हैं। हाँ यह अवश्य हुआ है कि अब वे लोग आम इंसान यानि कि जानवर के साथ सफ़र करने में शर्मिन्दा नहीं हो रहे हैं । ये लोग उड़ भले ही हवा में रहे हों , लेकिन खाना ज़मीन पर, वो भी गरीब के घर खा रहे हैं । समाजवाद का समाजवाद , बचत की बचत ,पाँचों उंगलियां कढाई में और सिर हेंडपंप  के नीचे।.
 
ईश्वर .....और कौन कौन बचत में सहयोग कर रहा है ?
चित्रगुप्त....सारी पार्टियां ....यथा ...भाजपा ,  और बसपा ..।.
 
ईश्वर .....क्या मायावती ने चंदा माँगना और हीरे ज़वाहरात, बंगले खरीदने बंद कर दिए हैं ?और भाजपा  ने कुर्सी का मोह त्याग  दिया है ?
चित्रगुप्त .....महाराज ! मायावती ने  एक मूर्ति कंस्ट्रक्शन कंपनी खोल ली है ,  जिसमे सिर्फ उसकी ही मूर्तियाँ बनाईं  जाएँगी। अब जनता अपनी फरियाद लेकर अपने गली और मोहल्ले की मूर्ति के पास चली जाया करेगी , इससे मायावती के अनमोल समय की बचत  होगी। परिणामस्वरूप वह
अपने जन्मदिन का  सेलिब्रेशन  धूम - धाम से कर सकेगी ।

 और भाजपाई तो सिर से लेकर पैर तक बचत रस से सराबोर चल रहे हैं । नेताओं की बचत तो अपने - आप ही हो गयी। बाकी बचत वे अपने बच्चों एवं रिश्तेदारों को टिकट देकर पूरी कर रहे हैं ,आजकल वहां 'दो टिकट पर एक फ्री' ऑफर चल रहा है।
   
ईश्वर... युवा शक्ति क्या कर रही है इस अभियान में?
चित्रगुप्त .... महाराज जवान लड़के और लडकियां भी इस बचत अभियान में बराबर सहयोग प्रदान कर रही हैं।
 
ईश्वर .....क्या वाकई ? क्या नवजवानों  ने  शादी - विवाह में होने वाला  दान- दहेज़ , बैंड - बाजा दिखावा , और आडम्बर बंद कर दिए हैं ?
चित्रगुप्त ....इन्होने तो बैंड का ही बाजा  बजा दिया . अब नवजवान लिव - इन यानी कि बिना विवाह किये साथ रह रहे हैं , जो इनसे महरूम रह गए वे समलैंगिक  हो गए हैं .ना होगी शादी , ना बजेगा बैंड , बचत ही बचत ...{ ईश्वर अपनी कुर्सी से गिरते - गिरते बचे }

 
ईश्वर ....वहां सुप्रीम कोर्ट नामक एक संस्था भी तो है , जो हर फ़टे  में अपनी टांग अडाती है , उसने इसका विरोध नहीं किया ?
चित्रगुप्त .....दरअसल सुप्रीम कोर्ट के कई वकील अपनी पत्नियों से त्रस्त हैं , वे अक्सर सरेआम कहते हैं कि पत्नी के चरणों में ही स्वर्ग जान लेना चाहिए .उन्हीं के अथक प्रयासों से यह संभव हो पाया।
 

 ईश्वर ....और कौन कौन इस कार्यक्रम में शामिल हैं ?राखी सावंत का नाम आजकल सुनने में नहीं आ रहा ?क्या उस भारतीय नारी की शादी करके बोलती बंद हो गयी है ?
चित्रगुप्त ....शादी का तो पता नहीं , लेकिन आजकल वह बच्चे पालना सीख रही है , ताकि बाद में क्रेच का एवं नौकर का  खर्चा बच सके .पहले कपडों की बचत करती थी अब पैसों की कर रही है ।

 
ईश्वर ...और मातृ  शक्ति ? वह  इस कार्यक्रम पीछे क्यों है ?
चित्रगुप्त .....महाराज , महिलाएं अपनी तरह से योगदान दे रही है यथा एक स्वाइन फ्लू वाला नकाब लगाकर वे लिपस्टिक , पाउडर, फेशिअल , क्रीम इत्यादि नाना प्रकार के सौंदर्य प्रसाधनों पर होने वाला खर्चा बचा रही हैं ।

 
ईश्वर ....शिक्षा के मंदिरों यानि स्कूलों में इस दिशा  में क्या चल रहा है ?
चित्रगुप्त .....वहां सी. बी. एस. सी. ने नम्बरों की बचत करके ग्रेडिंग सिस्टम लागू कर दिया है। अब कोई फेल  नहीं होगा

 
ईश्वर ...अरे वाह ! तो अब से कोई बच्चा फेल  होने की वजह से आत्महत्या नहीं करेगा ।

चित्रगुप्त ...हाँ महाराज ! अब बच्चे फ़ेल होने की  वजह से नहीं बल्कि  ग्रेडिंग कम होने की वजह से आत्महत्या कर सकेंग। इससे फेल होने पर भी आत्महत्या का स्टेंडर्ड मेंटेन रहता है ।

 
ईश्वर ...और चित्रगुप्त , समाज के ठेकेदार ....कवि और साहित्यकार इस दिशा में क्या कर रहे हैं ?
चित्रगुप्त .....महाराज , कवि गण मंचों पर फूहड़ चुटकुले सुनाकर  कविताओं की बचत कर रहे है , लेखक लोग मुद्दों की बचत कर रहे हैं ..स्त्री शरीर ...और स्त्री - पुरुष के जटिल संबंधों के अलावा और कुछ नहीं लिख रहे हैं ।

 
ईश्वर ....और बुद्धू बक्सा ?
चित्रगुप्त ....महाराज ! यहाँ बचत की बहुत संभावना है , आजकल एक बड़ा सा खेत और चार - पांच लड़कियों को एकत्र कर लिया जाता है , एक ही कहानी को अलग - अलग तरीके से फिल्माया जाता है ,या कभी उब गए तो  टेस्ट बदलने को ८ - १० तथाकथिक मशहूर लोगों को एक कमरे में बंद करके एक दूसरे पर छोड़ दिया जाता है , इसमें न हींग लगती है ना फिटकरी और रंग चोखा ही चोखा। डायलोग, स्क्रिप्ट ,ऐक्टिंग सबकी बचत।.  इसमें सिर्फ साउंड का खर्चा आता है, कार्यक्रम की सफलता  ज्यादा  से ज्यादा ढोल - नगाडों की आवाज़ पर निर्भर करती है।
 
ईश्वर ...और मास्टर ? समाज का निर्माता , उसका क्या योगदान है ?उसने बच्चों का मिड डे मील खाना छोड़ा या नहीं ?
चित्रगुप्त ...महाराज ! हमने  हर संभव उपाय किये , कभी मेंढक तो कभी साँप खाने में डाले ,लेकिन यह पता नहीं किस मिटटी का बना है इस पर किसी का कुछ असर नहीं हुआ। बचत के नाम पर पेन बच्चों से मांगता है । बीड़ी तक शेयर करके पीता  है। इसे  समय की बचत में महारथ हासिल है । कक्षा में १० मिनट देरी से जाता है । १० मिनट पहले आ जाता है । भरी बस में कंडक्टर के द्बारा बेइज्ज्ती करने पर भी आधा ही टिकट देता है।
 
ईश्वर ... और इधर   ब्लागर नाम की एक नई प्रजाति विकसित हुई है , जो स्वयं  को बहुत फन्ने खां समझती  है। उन्होंने कुछ किया या हमेशा की तरह सिर - फुटव्वल में ही वक्त गुजार दिया ?
चित्रगुप्त ....महाराज ! ब्लागर पोस्ट की बचत कर रहे हैं , वे टिप्पणियों पर नज़र रखते हैं ,और टिप्पणियों पर ही पोस्ट लिख रहे हैं.
 
 ईश्वर ...और आम आदमी ? क्या वह अभी भी दो वक्त का खाना खा रहा है ?
चित्रगुप्त .....उसके तो अंदाज़ हे अनोखे हैं। पानी में हल्दी घोल कर दाल  समझ कर पी जाता है। बड़े - बड़े लोग कहते है कि एक घंटा बत्ती बंद करनी चाहिए तो वह गर्मी की रातें मच्छरों   के बीच गुजार देता है। वे कहते है पानी बचाओ , तो वह नहाना बंद कर देता है। वे कहते हैं कि पर्यावरण बचाओ तो वह  डर के मारे सारा जीवन टूटी साइकिल से स्कूटर पर नहीं आ पाता।
और क्या बताऊं, बुड्ढे लोगों के भी मुँह में मास्क लगे हुए हैं ताकि खाने को देखकर उनके मुँह में लार  ना टपकने लग जाए , बुढ़िया औरतें किसी ना किसी बहाने से  हफ्ते में चार दिन व्रत - उपवास रख रही हैं।

 
ईश्वर .... चित्रगुप्त, तुमने तो मेरी आँखें ही खोल दीं ..अब हमें भी बचत करनी चाहिए ...मैं अभी आदेश पंजिका में बचत करने के आदेश निकलवाता हूँ .आज से सारे नाच गाने , मौज मस्ती बंद।
 
चित्रगुप्त फ़ाइलें और अपना मुंह लटकाये हुये बाहर आते हैं। सभी देवतागण उनको घेरकर उनके खिलाफ़ नारे लगाने लगते हैं कि इतना भी सच बताने की क्या जरूरत थी। धर्मराज ने अपने काम का अपहरण चित्रगुप्त द्वारा किये जाने की बात कहकर उनके खिलाफ़ मानहानि का मुकदमा ठोक दिया है। 

 

शनिवार, 26 सितंबर 2009

कुछ ख़बरों का पोस्टमार्टम ....

कुछ ख़बरों का पोस्टमार्टम ...
..
चाँद पर पानी ....................
 
आदमी की आँखों से जब मर जाएगा
अभी तो मिला है चाँद पर ,
कल सूरज पर भी नज़र आएगा ....
 
शाइनी को स्लीप डिस्क का अटेक 
 
डॉक्टरों का चेहरा 
पड़ गया सर्द  
जिसके पास रीढ़
की हड्डी ही नहीं
उसको भी हुआ
रीढ़ में  दर्द ....
 
 
 

अचार - ए - आडवानी के बहाने अचार बनाने का तरीका.....

 अचार - ए - आडवानी के बहाने अचार बनाने का तरीका.....
हमें कुछ साथियों ने बताया कि देश का सबसे टिकाऊ, मजबूत और सक्षम माना जाने वाला अचार -अचार-ए-अडवाणी सड़ गया। बहुत दुख की बात है। सड़े हुये को अब काम लायक नहीं बनाया जा सकता लेकिन आपको मैं अचार बनाने  का तरीका बता रही हूं जिससे कि अचार लम्बे समय तक खराब नहीं होगा।
 
तो साथियों अचार बनाने के कुछ ख़ास तरीके होते हैं , जिनका सही ढंग से पालन किया जाए तो अचार सौ साल तक भी खराब नहीं होता है . हमारे घर में एक नीबू का अचार है जो तकरीबन ४५ साल पुराना है , जिसका उपयोग अब हम औषधि के रूप में करते हैं .
 
सबसे पहले जिस मर्तबान में आचार  डालते हैं उसे कई साल तक धूप में सुखाते हैं ताकि उसमे किसी किस्म की नरमी सॉरी नमी बाकी ना रहे , दूसरी बात अचार सदा ही कांच के पारदर्शी मर्तबान में ही डालना चाहिए , जिसके आर - पार देखने की सुविधा हो ,इससे एक फायदा यह भी है कि बाहर से देखने पर ही यह पता चल जाता है कि अचार कहीं खराब होना शुरू तो नहीं हो गया ,
 ताकि समय रहते ही इसका उपचार किया जा सके .

सावधानी ....अचार को कभी भूले से भी  पुराने लौह मर्तबान में नहीं डालना चाहिए .....
 
अचार बनाने में कभी भी विदेशी मसलों सॉरी मसालों का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए ,हमेशा घरेलू ताजे पिसे हुए मसाले डालने चाहिए, हो सके तो खेतों से आए हुए खड़े मसालों को पीस कर डालना चाहिए , इनका रंग और गंध कभी खराब नहीं होती .

 
सावधानी ..... शहरों से आए हुए चमकीले रेपर में लिपटे  सूट - बूट धारी ,  ब्रांडेड मसालों पर ज्यादा भरोसा ना करें .कांधार की हींग भूले से भी इसमें ना डालें .
 
अचार को संरक्षित  के लिए कभी भी कृत्रिम संरक्षकों का सहारा नहीं लेना चाहिए , ये संरक्षक शुरू में तो लगता है कि काफ़ी साथ देंगे , लेकिन जब अचार का रंग फीका  होने लगता है ,या तेल सूख जाता है ,और जब  वह डाइनिंग टेबल से  भी गायब हो जाता है तो ये उसका  साथ छोड़ने में ज़रा भी देरी नहीं लगाते हैं .
 
सावधानी ...अन्य मर्तबानों से पाला बदल कर आए हुए अचार के टुकडों पर कतई भरोसा नहीं करना चाहिए .ना ही इन्हें ऊपर से रखना चाहिए .
 
अचार को समय - समय पर मर्तबान खोलकर देखते रहना चाहिए कि कहीं फफूंद इत्यादि लगना शुरू तो नहीं हो गया है , यह धीरे - धीरे सारा अचार चुटकियों में खराब कर देती है ,
 
सावधानी....फफूंद वाले हिस्से को जितना जल्दी हो सके निकाल कर फेंक देना चाहिए , इसके साथ ज़रा सी भी नरमी बरतने का मतलब होता है ,स्वयं की मौत को दावत देना .
 
समय - समय पर अचार को उल्टा - पुल्टा कर देखते रहना चाहिए , कभी बड़े -बड़े शक्तिशाली टुकडों को सबसे नीचे डाल देना चाहिए ,और सबसे छोटे टुकडों को  ऊपर कर देना चाहिए , इससे छोटे टुकडों को भी ऊपर आने का मौका मिलता है .छोटे टुकड़े देखने में भी सुन्दर लगते हैं और लम्बे समय तक मर्तबान में बने रहते हैं .
 
सावधानी .... अन्य मर्तबानों से छोटे टुकडों के आने पर  उनका विशेष स्वागत - सत्कार करना चाहिए ,
 
जिन बाहुबली  टुकडों को तेल - मसालों में लिपटे रहने की आदत हो गयी है , जो किसी भी प्रकार से बाहर नहीं आना चाहते, उन्हें तत्काल प्रभाव से तेलविहीन कर देना चाहिए .ऐसे टुकड़े किसी को पनपने नहीं देते हैं . जब बाहर से देखने वाला इन टुकडों को दादागिरी करते देखता है  तो उसका मन बिन अचार चखे ही खट्टा हो जाता है .
 
जो टुकड़े अचार का  रंग खराब हो जाने का कारण पाकिस्तानी हल्दी को शामिल ना किया जाना मानते हों , और अचार खराब होने के १०१ कारणों  पर किताब भी लिख मारते हों , उनको कई दिनों तक लाल मिर्च में डुबो देना चाहिए .इससे उनकी अक्ल ठिकाने आ जाती है .इसके बाद  उन टुकडों को पाकिस्तान एक्सपोर्ट कर दिया जाए .वहां इसे पसंद करने वाले बहुत होते हैं .
 
सावधानी .. अचार हमेशा मुफ्त दें. नोट के बदले अचार कभी भी किसी को ना दें , इससे अचार से प्राप्त होने वाले गुणों में कमी आ जाती है .बदहजमी होने की संभावना प्रबल हो जाती है .
 
अचार को सदा घर की  महिलाओं के संरक्षण में ही डालना चाहिए , उन्हें हर किस्म के मसालों का सही - सही अनुपात पता रहता है ,जो पुरुष अचार डालने के मसले पर महिलाओं की राय नहीं लेते , उनके हाथ से डाला गया अचार सबसे जल्दी खराब होता है .
 
सावधानी ...हो सके तो विदेशी मूल की महिला के हाथों से ही अचार डलवाएं , क्यूंकि  वे जानती हैं कि हलके  मसालों के साथ स्वादिष्ट अचार कैसे बनाया जाता है , लोगों का भरोसा भी उन पर बना रहता है और वे लगातार दस साल तक  उस हलके - फुल्के अचार को खा सकते हैं. 
 
कुछ और सावधानियां .....
 
अचार लम्बे समय तक खराब ना हो इसके लिए उसे गंदे हाथों से बचाना चाहिए , समय - समय पर धूप दिखानी चाहिए , अचार  के संघ पर ज्यादा निर्भर नहीं रहना  चाहिए .अचार सुखाने के मामले में  कुछ गिनी चुनी  छतों का ही प्रयोग ना करके अन्य छतों को भी मौका दिया जाना चाहिए,. इससे अचार की देखभाल भली प्रकार से हो सकती है  ,देखने में आया है कि कई बार जिन छतों पर ज्यादा भरोसा किया जाता है, वे ही चुपके चुपके उसका बेडा गर्क कर डालती  हैं . 
अगली बार जब भी अचार डालें तो इन सावधानियों को मद्देनज़र रखें , अचार कभी खराब नहीं होगा .
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 

 

गुरुवार, 24 सितंबर 2009

यह मेरा स्वीट होम है ....

यह मेरी बेटी है
जीती जागती
सांस लेती
नोटों की पेटी है
इसने पिछले ही साल
चलना  सीखा है
सुबह तीन  बजे
उठ जाती है
चार बजे हैवी
पांच बजे लाइट म्युज़िक
सीखने जाती है
बचे समय में
कत्थक , भरतनाट्यम
और डिस्को  में पसीना बहाती  है
पिछले हफ्ते बुगी - बुगी में
फर्स्ट आई थी
अगले हफ्ते इसे लिटिल चैम्प्स में
जाकर जगमगाना है
पैसा और नाम दोनों
 साथ - साथ कमाना है
 
यह मेरा बेटा है
अभी बहुत छोटा है
 ठीक से बोल नहीं पाता है
लेकिन आढ़े- तिरछे मुँह बनाकर
फूहड़ चुटकुले  खूब सुनाता है
यह नींद में भी बल्ला घुमाता है
इसीलिए मुझे बहुत भाता है
नाम है इसका शहर में अब
बहुत ही जाना माना
क्रिकेट में चल गया तो ठीक
वर्ना लाफ्टर का है ज़माना
 
यह मेरी पत्नी है
एंटरटेनमेंट के लिए
कुछ भी कर सकती है
इसका ठुमका देख के
सारे चैनेल घबरा जाते हैं
बिना परफोरमेंस देखे
नोट थमा जाते हैं
आजकल सच बोलने की
प्रेक्टिस कर रही है
भूतकाल के प्रेमी
वर्तमान के संगी और
अश्लील प्रश्नों से भी
नहीं डर रही है
भरी सभा में भले ही
वस्त्र हीन हो जाए
कान्हा को नहीं बुलाएगी
यह आधुनिक द्रौपदी है
खुद की बिछाई चौपड़ में
साड़ी उतार के भी मुस्कुराएगी 
 
यह जो फोटो के अन्दर
हँस रहे हैं
ये मेरे माँ - बाप हैं
नहीं - नहीं ..ये अभी जिंदा हैं
कलेजे में लोट  रहे साँप हैं
हम रात दिन व्यस्त रहते हैं
इसीलिए ये वृद्धाश्रम में रहते हैं
इनको भी जल्दी ही
काम मिलने वाला है
क्यूंकि अगले महीने मरने का
एक लाइव शो आने वाला है
 
 मैं इस घर का बिग बॉस हूँ 
दिन - रात गंदी गालियों का
करता अभ्यास  हूँ
घने जंगल के बीचों - बीच
साँप , ,बिच्छू कीडों  के साथ
मीठी तान लेता हूँ   
शोहरत के लिए   जीता हूँ
 रुपयों के लिए जान देता हूँ  
 
 
यह मेरा स्वीट होम है
 इसके हर कमरे में
कई कैमरे  फिट हैं
यहाँ की हवा में नफरत और
कड़वाहट घुली रहती है
ज़िंदा हैं हम सब लेकिन
साँसें घुटीं घुटीं रहती हैं 
इस घर में कोई आता, जाता
 हँसता , मुस्कुराता नहीं है
ये ऐसी रियलिटी है जिसमे
सब कुछ है लेकिन अपनापा नहीं है ....  

सोमवार, 21 सितंबर 2009

है कोई ऐसा अनुवादक

बुकर पुरकार का ऐसा अनुवाद शायद ही कोई अनुवादक कर पाए ....हुआ यह कि कल हमारे क्षेत्र में   बी .एड यानी की भावी अध्यापकों के लिए  प्रवेश परीक्षा थी ...प्रश्नपत्र में यूँ तो अनेक गलतियां थी ...लेकिन सबसे बड़ी गलती जिस पर आप ही बताइए पेपर सेट करने वाले को क्या कहा जाए .....
पेपर में लिखा था 'पुस्तक यानि [बुकर] पुरस्कार किस क्षेत्र में दिया जाता है '
 

रविवार, 20 सितंबर 2009

शिक्षा मंत्री जी ....सी. बी.एस.सी.ये क्या कर रही है ?.

अब सी .बी .एस .सी .हमें यह बताएगी कि विज्ञान और गणित को खेल खेल में कैसे पढ़ाया जाता है .माननीय शिक्षा मंत्री जी ,हमने इतने साल घास नहीं खोदी है ,खेल - खेल में कैसे पढ़ाया जाता है यह हमें ना सिखलाएँ . हम सदियों से बच्चों को खेल खेल में ही पढाते आए हैं .
हमने कक्षा में ताश के ५२  पत्तों द्बारा बच्चों को जोड़ - घटाने, गुणा, भाग सिखाए ,केरम बोर्ड द्बारा आयत और वर्ग के मध्य  भेद स्पष्ट किया ,उसकी गोटियों के माध्यम से वृत्त की जानकारी दी .गिल्ली डंडा से लेकर लूडो और जूडो भी सिखाए. बच्चों के बीच   कुश्ती करवाकर  गुरुत्वाकर्षण के नियम की पुष्टि करी,कि चाहे कितना भी उंचा उछाल लो अंत में बन्दा ज़मीन पर ही आएगा .बच्चों को कंचों के द्बारा यह बतलाया कि प्रकाश का परावर्तन कैसे होता है . 
प्रकाश संश्लेषण  वाला पाठ हमने सदा जाड़ों के दिनों के लिए सुरक्षित रखा .घंटों तक धूप में बैठकर इसे दिखाया ,इसके अलावा जब बीज के उगने की क्रिया दिखानी होती है तब हम कई दिन तक उसके उगने का इंतज़ार किया करते हैं ,कई बार बीज के इनकार करने पर भी हम वहां से नहीं हटे ,हमारा इतना समर्पण भाव देखकर बीज भी शर्मा गया .पुष्प की संरचना को सजीव रूप में  दिखाने के लिए हम बच्चों को बड़े - बड़े खेतों में ले गए ,होशियार बच्चों को संरचना दिखाए एवं बाकियों को खेत से मटर, मूली, चना ,टमाटर लाने का काम सौंपा .
न्यूटन  का नियम सिखाने के लिए बच्चों से सेब मंगवाया और उसे  ऊपर उछाल कर दिखाया, फिर उसे खाकर यह भी बताया कि यह एक आभासी फल होता है ,और इसके बीज की संरचना इस प्रकार की  होती है  
विज्ञान के नाम पर जो कक्ष बने होते हैं उनमें  बैठकर जुआ खेला , साथ के विरोधी मास्टरों के विरुद्ध खेल - खेल में रणनीतियां बनाईं. एक विज्ञान क्लब का  नाम भी  स्कूल के रजिस्टर में दर्ज होता है ,जिसका बस रजिस्टर ही रजिस्टर पाया जाता है , इसमें सरकार हर साल कुछ रूपये डालती है ,जिसका सदुपयोग हमने  जाडों में चाय और गर्म पकोड़े ,और गर्मियों में कोल्ड ड्रिंक के साथ   बहुत ही वैज्ञानिक रीति से किया ,
एक गणित किट भी किसी कोने में दाँत किटकिटाती हुई पड़ी रहती है , इसमें कुछ गणित की तरह के ही आड़े- तिरछे उपकरण पड़े रहते हैं ... इसे खोल कर दिखाने में बहुत किट - किट होती है इसीलिए इसे हम घर ले जाते हैं जिससे हमारे बच्चे भांति - भांति के गेम खेलते हैं  
कतिपय अध्यापक और उनकी शिष्याओं के मध्य गणित और विज्ञान जैसे नीरस विषयों में ही प्रेम की सरस धार बहने लगती है , रेखागणित पढ़ते- और पढ़ाते हाथों की रेखा का मिलान शुरू हो जाता है ,विज्ञान के वादन में दिलों में रासायनिक क्रियाएं होने लगती हैं . मुझे याद है कि हमारे स्कूल में एक बार एक जवान और खूबसूरत गणित का अध्यापक आया ,उसका दिल एक रेखा नामक कन्या पर आ गया ,जब वह सारी कक्षा से कहता था कि अपनी अपनी कापियों में इस सवाल को हल करो , तब सभी लड़किया उसे सुलझाने में उलझ जाती थी , और ठीक इसी दौरान वह रेखा नाम्नी कन्या अपने सिर ऊपर उठाती थी ,और दोनों एक दूसरे को तरह - तरह के कोण जैसे - समकोण -और नियूनकोण बनाकर निहारने लगते थे. साल ख़त्म होते होते रेखा के दिमाग में बीजगणित तो नहीं घुसी लेकिन  पेट में  प्यार का बीज पनपने लगा .जिसे द्विगुणित होते देखकर वह मास्टर गृहस्थी के गुणा - भाग से घबरा कर नौ दो ग्यारह हो गया.  रेखा उस बीज को अंक से लगे हुए अंकगणित को आज भी कोसती है ,जिसकी वजह से उसकी जिन्दगी के सारे समीकरण बिगड़ गए थे ,जिन्दगी सम में आते -आते विषम संख्या हो गयी क्यूंकि  उसे अपने से दोगुनी उम्र के गुणनफल से शादी करनी पड़ी ,और   सदा के लिए कोष्ठक में बंद हो जाना पड़ा. 
प्रायमरी में शिक्षण के दौरान हमने यह जाना कि वास्तव में खेल खेल में पढ़ाई क्या होती है ,एक अध्यापिका के तीन   बच्चे  हुए जो  बारी - बारी से स्कूल के सभी बच्चों की गोद में खेलते थे जो बच्चा जितना अच्छा बच्चा खिलाता था , हाथी -घोडा बन जाने से तक परहेज़ नहीं करता था ,उसे ही प्रथम स्थान मिलता था. जो बच्चे पढाई में गधे होते थे ,लेकिन अपने घर से गाय का शुद्ध दूध बच्चों के लिए लाया करते थे ,उन्हें पास कर दिया जाता था  जो बच्चे किसी काम के नहीं होते थे ,उनका हश्र आप स्वयं समझ सकते हैं . इस प्रकार उन्होंने विद्या के मंदिर में अपनी संतानों को पाल पोस कर बड़ा किया ,और बड़ा हो जाने पर उन्हें पब्लिक स्कूल की गोदी में सौंप दिया. उनके द्बारा स्वेटर बुनने से ही बच्चों ने फंदों के द्बारा जोड़ - घटाने की जटिल  प्रक्रिया को आत्मसात किया.
गणित को खेल में हमसे ज्यादा किसने पढ़ाया होगा ? छठा वेतनमान के निर्धारण हेतु देश में एक समिति बनी ,लेकिन हमने साहित्य और कोमर्स वाले टीचरों से मतभिन्नता होने के कारण एक ही दिन में कई बार कमेटियां बैठायीं.
बच्चों से हमने कहा कि इतने शोर - गुल में भी कभी पढ़ाई हुई है कभी ,इसीलिए घर में आया करो ,वहां पढ़ाई और क्रिकेट दोनों साथ -साथ होंगे , जितने ज्यादा बच्चे होंगे, मैच में उतना मज़ा आएगा .और ज्यादा बच्चों को लाने वाले को बोनस अंक दिए जाएंगे .
एक और खेल हम अक्सर स्कूलों में खेलते हैं वह भी गणित और विज्ञान के घंटे में ..वह है छुप्पन - छुपाई  का . बच्चे पूरे पीरियड के दौरान हमें ढूंढते रह जाते हैं ,लेकिन हम हाथ नहीं आते ,क्यूंकि कभी हम चाय पीने, कभी रजिस्टर भरने , कभी कार्यालय में और अक्सर ट्रांसफर और प्रमोशन के लिए जुगत भिडाने के लिए मुख्यालय में पाए जाते हैं 
कभी किसी अधिकारी ने विद्यालय में छापा मारा तो हमने चपरासी को मास्टर तक बताने का खेल खेला है   बच्चे स्कूल में रहते रहते इस गणित से भली प्रकार परिचित हो जाते हैं कि किस - किस मास्टर के बीच छत्तीस का आंकडा है और कौन दो दुनी चार करता है किसके मध्य समीकरण ठीक बैठती है और किसके मध्य नहीं .
तो माननीय  सिब्बल जी ,हम मात्र गणित और विज्ञान ही नहीं सारे विषयों को खेल - खेल में ही पढ़ाते  हैं ..... .