सोमवार, 8 मार्च 2010

महिला दिवस पर ...कुछ पुरानी, कुछ नई ,कुछ

महिला दिवस पर ......साथियों महिला दिवस पर सभी महिलाओं को मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ ... एक बार फिर पुरानी डायरी से कुछ पन्नों को निकाल लाई हूँ ...
 

रोना ...........

 

रोज़ सुबह जब

छः बजे की बस पकड़कर

काम पर जाती हूँ

तुम्हारा नन्हा सा मुँह

अपनी छाती से और

बंद मुट्ठी  से आँचल छुड़ाती हूँ

तुमसे ज्यादा मैं रोती हूँ

बिटिया ! मैं बिलकुल सच कहती हूँ ....

 
 
सजावट वाली घास

 

सजावटी घास बनती तो

बाहों के झूले में झूलती

धूप, बारिश से बची रहती

बराबर खाद पड़ती

सुबह - शाम

पानी से तर रहती

पर यह क्या?

नन्हीं - नन्हीं जड़ों ने

इनकार किया

अपना रास्ता आप चुनना

स्वीकार किया

झरोखों से बाहर

निकल आई

दीवार भी उन्हें

रोक ना पाई

उसने हाथ फैलाए

तो सूरज बेकरार होकर

उतर आया आगोश में

तारों ने बिछा दी

मखमली रात की चादर

चंद्रमा बन गया

सिरहाना

धरती की ख़ुशी का

न रहा कोई ठिकाना

रात भर उसको भींचे

सोयी रही

अच्छा हुआ

जो चुन लिया उसने

जंगली घास बन जाना    

 

 

मैंने उगली आग

मुझे

मर्दों के खिलाफ़

आग उगलनी थी   

स्त्री विमर्श पर

थीसिस लिखनी थी   

पिता ने मुझको

किताबें लाकर दीं

भाई ने इन्टरनेट

खंगाल दिया

बूढ़े ससुर ने

गृहस्थी संभाल ली

पति ने देर रात तक   

जाग कर

पन्ने टाइप किए

बहुत थक गयी तो

बेटे ने पैर दबा दिए

मैं गहरी नींद सो गयी   

मर्दों के खिलाफ़ 

सोचते सोचते 

 

 

[अ] मंगलसूत्र ......

 

यह

जो मेरे गले में

काला नाग बना 

डसता रहा

जिससे

ना मैं बंधी 

ना तू जुड़ा

तेरा भी मंगल नहीं

ना मेरा हुआ भला

यह घोर अमंगल

का प्रतीक, यह सूत्र

फांस बना चुभता रहा

तोड़ना इसको फिर भी

काम सबसे कठिन रहा.