रविवार, 28 मार्च 2010

फेसबुक और ऑरकुट के दीवानों, ज़रा इधर भी नज़र डालो

[पुराने पन्नों से] साथियों .....मास्टरों और उधार का चोली दमन का साथ है अतः  आशा है कि आप लोग मुझे साहिर साहब की इस रचना को उधार लेकर, इसका  दुरुपयोग करने के लिए माफी प्रदान करेंगे ....
 
 
फेसबुक तेरे लिए एक टाइम पास ही सही 
तुझको ऑरकुट के रंगबिरंगे चेहरों से मुहब्बत ही सही 
मेरी महबूब ! कंप्यूटर छोड़ कर मिला कर मुझसे 
 
बज्म - ए गूगल में गरीबों का गुज़र क्या मानी ?
दफ़न जिन वाल पपरों  में  हों मेरे जैसों की आहें, उस पे
उल्फत भरी रूहों का सफ़र क्या मानी ?
 
मेरी महबूब इन प्रोफाइलों के पीछे छिपे हुए
झूठे चेहरों को तो देखा होगा
लड़का बनी लडकी और लडकी बनी लड़का
को तो देखा होगा
मुर्दा स्क्रेपों से बहलने वाली
अपने जिंदा प्रेमी को तो देखा होता
 
अनगिनत लोगों ने दुनिया में मुहब्बत की है
कौन कहता है कि सादिक ना थे जज़्बे उनके
लेकिन उनके लिए चैटिंग का सामान नहीं
क्यूंकि वे लोग भी अपनी ही तरह मुफ़लिस थे
ये वेबकैम, ये याहू मेसेंजेर, ये जी टाक
चंद दिल फेंकों के शौक के सतूं
दामन - ए आई .टी . पे रंग की गुलकारी है
जिसमें  शामिल है तेरे और मेरे हसीं लम्हों का खूं
 
मेरी महबूब उन्हें भी तो मुहब्बत होगी
जिनकी मेहनत से बना ये ऑरकुट, ये फेसबुक
उनके प्यारों की हसरतें रहीं बे नामोनुमूद
आज तक उनपे न बनी कोई कम्युनिटी
ना बना उनपे कोई ब्लॉग
 
ये मुनक्कश दरो दीवार ये ब्लॉग ये जी टाक
एक शहंशाह ने तकनीक का सहारा लेकर
हम गरीबों की मुहब्बत का
उड़ाया है मज़ाक
 
मेरी महबूब कंप्यूटर छोड़ के मिला कर मुझसे ...

शुक्रवार, 26 मार्च 2010

हो कहीं भी जूतियाँ, लेकिन पैर में ही रहनी चाहिए.

सीटियाँ प्रतीक हैं राष्ट्र की एकता का अखंडता का और  साम्प्रदायिक सौहार्द का| सीटी बजाने वाले की जाति  या मजहब नहीं पूछी  जाती | यहाँ ना कोई छोटा होता है ना बड़ा| यहाँ आकर सारे भेद समाप्त हो जाते हैं|
 
वर्तमान युग बेहद  अनिश्चिन्तताओं से भरा  है| ऐसे में सीटी प्रतीक है निश्चिंतता की, आश्चर्य की और प्रशंसा की| सीटियों से निकलने वाली वायु एवं ध्वनी  ने हमेशा से भारत के युवावर्ग  के अन्दर  प्राणवायु भरने का कार्य किया है|
 
पिछले कई वर्षों से, खासतौर पर जबसे छोटे-छोटे कस्बों में मल्टीप्लेक्सों ने अपना जाल बिछा दिया है, सिनेमाहाल में बजने वाली सीटी की आवाज़ सुनाई देनी बंद हो गई थी| एक तरह से यह सीटियों पर आया हुआ संकट था, जिसे कई लोग संस्कृति पर आया हुआ संकट भी कहते हैं|
 
आज जब मुलायम सिंह ने महिलाओं के संसद  में आने पर नौजवानों द्वारा सीटी मारने की बात को बहुत जोर - शोर से उठाया, तब आमजन के मुँह से लगभग लुप्तप्राय हो चुकी सीटी बजाना नामक कला को पुनर्जीवन प्राप्त हुआ|
 
मुलायम सिंह पुरानी पीढ़ी के हैं| राष्ट्र पर वर्तमान में आए हुए इस सीटी संकट से अनजान हैं| वैसे चाहें तो वे सीटी बजने की कोचिंग क्लास भी खोल सकते हैं| भूतपूर्व अध्यापकी अभी भी उनकी रगों में ज़िंदा होगी|
 
सीटी की उपयोगिता हमारे दैनिक जीवन में कितनी है, यह हम सीटी को अपने जीवन से निकाल कर देखें तभी पता चल पाएगी| क्यूंकि पत्नी सहित किसी भी चीज़ की उपयोगिता हमें तभी पता चलती है जब वह एक दिन यूँ ही बिना बताए हमारे  दैनिक जीवन से बाहर हो जाती  है|
 
रेलगाड़ियाँ अगर बिना सीटी बजे प्लेटफोर्म पर आ जाए, या क्रोसिंग को पार कर जाए तो क्या होगा? हांलांकि हममें  से कई लोगों के लिए सीटी का मतलब सामने से आती हुई रेल द्वारा क्रोसिंग को  पार करने की अनुमति होता है| वे रोमांच  के प्रेमी ठीक उसी समय बीबी - बच्चों सहित क्रोसिंग पार करते हैं जब धडधडाती हुई ट्रेन की आवाज़ से अगल - बगल खड़ी जनता की ऊपर की सांस ऊपर और नीचे की सांस नीचे रह जाती है|
 
गृहस्थ  जीवन में सीटी की महत्ता से भला कौन गृहिणी इनकार कर सकती है? जब तक रसोईघर से कुकर की सीटी नहीं बज जाती, हमारे प्राण अटके रहते हैं| चाहे घर के किसी भी कोने में चले जाएं, सीटी की आवाज़ कानों तक पहुँच ही  जाती है|  सीटी के अटक जाने पर कुकर को हर दिशा से ठोक - पीटकर बजाकर देखना पड़ता है| सीटी के पुनः बजने के साथ ही हमारी सांस वापिस लौटती है|
 
कुकर का ख़राब होना काफ़ी हद तक उसके मरम्मत  करने  वाले पर निर्भर रहता है| वह उसे इस कलाकारी से बनाता है, जिससे हमें उसे ढूँढने की हर दस दिन में ज़रुरत पड़ जाए|
 
बिना सीटी के स्कूली जीवन की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती है| यहाँ दोनों एक दूसरे के पूरक हैं| स्कूल में सीटी का मतलब होता है, चेतावनी, और यह निर्भर करता है स्कूल के पी. टी.  आई. पर, और उसको मिलने वाली तनखाह पर| अगर वह सरकारी  कर्मचारी हुआ तो सीटी का बजना महीने की शुरुआत में ही ख़त्म  हो जाएगा| बाकी महीने  सीटी उसके प्रिय चंद मुंहलगे शिष्यों के मुँह में शोभा पाती  है, जो उसे बजाने का अभ्यास सदा लड़कियों के सामने करते हैं|
 
वाचमेन अगर रात में सीटी ना बजाए तो कोई चैन की नींद सो सकता है भला? सुबह कूड़ा मांगने वाला अगर सीटी ना बजाए तो हममें  से कईयों की सुबह ही ना हो|
 
कई बार पुरुषों को सीटी बजाने पर महिलाऐं भी बाध्य करती हैं| ऐसा अवसर तब आता है जब हम बस से यात्रा कर रहे होते हैं, और कंडक्टर से हमारा निर्धारित स्टॉप आने पर सीटी बजाने का आग्रह करते हैं, '' भैय्या, सीटी बजा दीजिये, स्कूल आ गया''|कई बार भैय्या सुनकर झल्लाया हुआ कंडक्टर स्टॉप से दो किलोमीटर आगे बस रुकवाता है| ऐसे में अपने पास एक अदद सीटी ना होने की कमी बहुत खलती है|
 
महिलाओं की उम्र से सीटियों का गहरा सम्बन्ध रहा है. जहाँ एक तरफ किशोरावस्था में युवकों द्वारा बजाई गई सीटियाँ लड़कियों की साख में बढ़ोत्तरी करती हैं, वहीं संसद जाने की उम्र में साख में बट्टा लगाने का कार्य करती हैं| सोलह साल की उम्र में लडकियां सीटियों को लेकर एक दूसरे की जाने दुश्मन तक बन जाया करती हैं| एक दावा  करती है कि उस लड़के ने मुझे देखकर सीटी मारी थी| दूसरी उसका पुरज़ोर विरोध करके बाजी हुई सीटी को अपने पक्ष में करने की कोशिश करती है| इतनी हिम्मत उस उम्र में नहीं होती कि जाकर पूछ लें कि ''आपके पवित्र मुँह से निकली सीटी पर हममें  से किसका नाम लिखा था?'' ऐसा भी हो सकता है कि  दोनों डाइरेक्ट ऐसा विवादस्पद प्रश्न  पूछकर अपने -अपने  भ्रम को नहीं तोडना चाहती हों|
 
लड़कियों का सीटी द्वारा पटना, सीटी बजाने के अंदाज़ पर भी निर्भर करता है| गाने वाली सीटी सदा से लड़कियों की मनपसन्द रही है|
क्यूंकि इसमें बहुत मेहनत लगती है| वहीं एक ही सुर में जोर जोर से सीटी बजाने वाले को पसंद नहीं किया जाता| यूँ सीटी बजाना  बहुत आसान काम भी ना समझा जाए| इसकी उचित ट्रेनिंग गर्ल्स  कोलेज के पास के वातावरण में मिलती है| उचित वातावरण के अभाव में मुँह से हवा ही हवा निकलती रहती है| ऐसे हवा - हवाई लड़कों को हवा में उड़ाने लडकियां  तनिक भी देरी नहीं करती हैं|
 
कभी कभी बिना प्रयास किये हुए भी मुँह से सीटी बज जाती है| आजकल जब थैला  पकड़कर बाज़ार जाती हूँ, तो सब्जियों और फलों के दामों को सुनकर मेरे भी मुँह से सीटी निकल जाती है| जिस कला को मेरी कतिपय सीटी बजाने वाले दोस्तें भी मुझे नहीं सिखा पाईं, वह इस महंगाई ने एक झटके में सिखा दिया|
 
 मुलायम सिंह सीटी बजाने के जोश में इतना उत्साहित हो गए कि यह बताना  भूल गए कि सीटियाँ मुँह से बजाई जाएँगी या बाज़ार से बनी बनाई सीटियाँ इस काम के लिए प्रयुक्त होंगी| यहाँ यह बात ध्यान देने वाली है कि संसद  में जाती हुई महिलाओं को देखकर सीटी बजाने वाले नवयुवक मेहनत करने वालों की श्रेणी में नहीं होंगे, क्यूंकि जो मेहनत कश  होंगे  उन्हें  सीटी बजाने का समय कहाँ होगा?
 
मुलायम सिंह चाहते तो सीटी बजाने के स्थान पर ढोल नगाड़े  बजाने को वरीयता दे सकते थे, लेकिन ढोल नगाड़ों को बजने का हक़ तभी है जब उनकी बहू या बेटी संसद की शोभा बढ़ाए. 
 
अंत में फिर से उधार लेकर कुछ पंक्तियाँ....आजकल महंगाई बहुत ज्यादा है ना इसीलिये उधारी से ही काम चलाना पड़ रहा है....आप समझ ही जाएंगे कि उधारी किसकी है....
 
हो गई है चीर द्रौपदी सी, यह बंद होनी चाहिए
इन मुलायम सरीखों को अब सजा मिलनी चाहिए.
 
आज ये बाहुबली, डर के मारे कांपने लगे
आने वाले कल की सोच, आज ही से हांफने लगे.
 
हर मकान में, कोठी में, हर बंगले में, झोंपड़ी में
पिटकर भी हमको चुप रहना चाहिए.
 
सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना इनका मकसद नहीं
इनकी कोशिश है कि औरत को देखकर
सीटी बजनी चाहिए.
 
मेरे पैरों में ना सही, तेरे पैरों में सही
हो कहीं भी जूतियाँ, लेकिन पैर में ही रहनी चाहिए.
 
 
 

रविवार, 21 मार्च 2010

पहाड़ की औरतें उदास सी लगती हैं

तीस की उम्र में पचास की लगती हैं  
पहाड़ की औरतें  उदास सी लगती हैं
 
काली हथेलियाँ, पैर बिवाइयां
पत्थर हाथ, पहाड़ जिम्मेदारियां 
चांदनी में अमावस की रात लगती हैं
 
कड़ी मेहनत सूखी रोटियाँ
किस माटी की हैं ये बहू, बेटियाँ
नियति का किया मज़ाक लगती हैं
 
दिन बोझिल, रात उदास
धुँआ बन उड़ गई हर आस
भोर की किरण में रात की पदचाप लगती हैं 
 
पीली आँखें, सूना चेहरा
आठों पहर दुखों का पहरा
देवभूमि को मिला अभिशाप लगती हैं
 
 
तीस की उम्र में पचास की लगती हैं  
पहाड़ की औरतें  उदास सी लगती हैं
 
 
 

शुक्रवार, 19 मार्च 2010

फिर छिड़ी रात, बात नोटों की ......

पता नहीं सोने को आदिकाल से लोगों ने अपने सर पर  क्यूँ चढ़ा रखा  है. कभी-कभी टेलिविज़न  पर आने वाले एक विज्ञापन को देखकर मन में अक्सर यही ख्याल आता है. उसमें  दिखाया गया है कि सोना पीढ़ियों को जोड़ता है. जबकि हकीकत यह है कि सोना  पीढ़ियों से लोगों को तोड़ने का काम करता आया है. इसके कारण कभी तिजोरियां टूटतीं हैं, तो कभी ताले. सास  अपने जेवरों को तुड़वा - तुड़वा कर बहुओं और बेटियों के लिए जेवर बनवाती है. कमर के साथ-साथ वह खुद भी टूट जाती है. और जब जेवर बांटती  है, तो क्या बेटी क्या बहू , दोनों के दिल टूट जाते हैं . हर कोई यही समझता है कि दूसरे को ज्यादा मिला है.
सोने को स्मगलरों और सुनारों की सात  पीढ़ियों तक के धन जोड़ते हुए अवश्य देखा गया है.
 
सोने की  उपयोगिता का पता तब चलता  है, जब बाज़ार में  आभूषणों को बेचने के लिए जाओ, हाँ बेचने, क्यूंकि भारत की आम महिला के लिए  सोना सदा के लिए नहीं होता. वह बनवाया ही  इसीलिये जाता  है कि ज़रुरत के वक्त काम आ सके. और ऐसी ज़रुरत आने में ज्यादा देर नहीं लगती .इन ज़रूरतों के कई नाम हो सकते हैं,  मसलन - ननद की शादी, ससुर की बीमारी, देवर की फीस, फसल का चौपट होना, इत्यादि-इत्यादि कारणों से वह जल्दी  ही उसे बनाने वाले सुनारों के हाथ में फिर से आ जाता है. तब पता चलता है कि खरीदते  समय  जिसे  २४ कैरेट  का कहकर बेचा गया था, वह वास्तव में २० कैरेट   का है.सुनार टांकों के, नगों के, मोतियों के,  खूबसूरत डिज़ाइन के, और उन सभी चीज़ों, जिनके कारण उसे खरीदा गया था, के पैसे काट लेता है. उस समय बहुत कोफ़्त होती है. मोटे - मोटे दानों की माला जो शादी के समय सबकी आँखों में चुभ गई थी, अन्दर से खोखली और लाख भरी हुई निकलती है. कई बार मन करता है कि काश इससे तो सोने का सिक्का दे दिया होता, कम से कम शुद्ध तो होता.
 
रिश्ते की जिस चाची के लिए मेरे मन में बहुत आदर का भाव था. क्यूंकि उन्होंने शादी में सोने का हार दिया था, बदले में पूरे एक महीने तक वे सपरिवार जमी रहीं और जाते समय फल, सूखे मेवे और  मिठाइयों के टोकरे बाँध कर ले गई थी.  बड़े दिनों तक उनके दिए हुए हार  की दूर - दूर तक चर्चा रही थी. वह आदर, सम्मान  सब सिर्फ़ एक बार  सुनार की दुकान पर जाने में चकनाचूर हो गया. जब पता चला कि इसमें सोना तो दूर, उसका पानी तक नहीं है, वह तो मात्र ताम्बे का हार निकला. और शादी में चांदी से भी ज्यादा चमकने  वाले  गिलट के  पायल व बिछुवे  मुँह दिखाई  में देने वाली उस मामी को क्या कभी भूल पाउंगी?
 
आज जब मैंने माया बहिन को नोटों की माला पहने हुए देखा तो ख्याल आया कि अगर मेरे देश की समस्त बहिनें, सोना, चांदी या हीरे को छोड़कर अगर  नोटों की  माला पहिनने लग जाएं तो कितनी सुविधा होगा. नोटों की माला पहिन कर बाज़ार जा सकते हैं. इससे एक तो पर्स ले जाने के झंझट से मुक्ति मिलेगी और जेबकतरों से भी बचाव संभव हो सकेगा. हाँ माला खींचने वालों से सावधान रहना होगा. अगर माला खिंच भी जाती है तो चेन की अपेक्षा चोटिल होने की संभावना कम होंगी. इससे बचने का एक  उपाय यह हो सकता है  कि नोटों  की माला पहिनने का तरीका माया बहिन जैसा ही दबा छिपा हुआ हो, कि बिना क्लोज़ सर्किट कैमरों की मदद लिए  पता ही ना चल पाए  कि बीस के नोट हैं या हज़ार के.
 
रुपयों की माला, आभूषणों की माला से इस मामले में अधिक उपयुक्त इसलिए  है कि  आम इंसान के लिए यह अनुमान लगाना आसान होता है कि यह कितने की होगी. मुझे अपने देश की महिलाओं से हमेशा से यह यह शिकायत रही है कि वे कभी अपने आभूषणों के सही दाम नहीं बतातीं है, जिस कारण मेरे सहित कई बहिनों को दिन रात तनाव का सामना करना पड़ता है. नोटों की माला पहिनने से इस तनाव से निपटने में सहायता मिलेगी. कई बार सोने, चांदी या हीरे की माला बनवाते समय यह ख्याल रखना पड़ता है कि कहीं इसी डिजाइन की माला, बहिन,  भाभी या पड़ोसिन के पास तो नहीं है, अन्यथा सारी मेहनत बेकार चली जाएगी. नोटों की माला के चलन में आने से इस तरह की परेशानियों से निजात मिलने की प्रबल संभावना है.
 
नोटों की माला का एक लाभ मुझे यह होगा कि मुझे दुकानदार के सामने शर्मिन्दा नहीं होना पड़ेगा. मेरे साथ अक्सर ऐसा होता है कि जितनी देर मैं सामान पसंद करने में लगाती हूँ, उससे ज्यादा देर मैं पर्स के अन्दर पैसे ढूँढने में लगाती हूँ. और तब बहुत शर्मिन्दगी  होती है जब पूरा पर्स उलट देने पर याद आता है कि रूपये तो स्कूल जाने वाले  बैग  में रखे हैं, जो घर की खूंटी में लटका हुआ है. घंटों तक दुकानदारों से की हुई सौदेबाजी व्यर्थ चली जाती है. शर्मिंदा होना पड़ता है सो अलग. अब ऐसा नहीं होगा, दाम पूछा और तड़  से माला से नोट निकाल कर थमा दिया.
 
गले में पड़ी हुई माला देखकर ही दुकानदार औकात भांप लेगा और उससे ज्यादा की साड़ी या जेवर दिखाएगा ही नहीं. अभी उन्हें ग्राहकों की शक्ल, वेशभूषा और पर्स का वजन देखकर अनुमान लगाना पड़ता है कि किस रेंज  से ऊपर का समान नहीं दिखाना है. अक्सर दुकानदार पूछते रह जाते हैं कि '' बहिनजी ज़रा रेंज बता दीजिये तो आसानी होंगी'' और मजाल है कि हमने कभी सही रेंज बताई हो  ''तुम दिखाओ तो सही, पसंद आने की बात है, रेंज का कोई सवाल नहीं है", कहने के बाद हम इत्मीनान से  लाखों रुपयों तक की तक की साड़ियों के मुफ्त में दर्शन कर लेती है . सारी दुकान खुलवाने के बाद ''पसंद नहीं आया'' कहकर मुँह बिचकाते हुए उठकर चली जाने से हमें आज तक कोई नहीं रोक पाया.  दुकानदार के चेहरे पर छाए रंज और भविष्य में होने वाली रंजिश की  परवाह हमने  कभी नहीं की.
 
हाँ, लेकिन नोटों की  माला पहिनने में कुछ बातों की सावधानियां अवश्य रखनी होंगी. माला के द्वारा पहिनने वाली के स्टेट्स का पता चले इसके लिए हर वर्ग की महिला को अलग-अलग श्रेणी के नोटों की माला पहिनना अनिवार्य कर दिया जाए. जैसे महिला राजनेताओं के लिए १००० से कम के नोट की माला पहिनना ज़रूरी हो. अविवाहित महिला राजनेताओं ने चूँकि गले में कभी वरमाला  नहीं पहनी इस कारण वे  मनचाही लम्बाई की माला पहिन सकती हैं. ऐसी राजनेताएं,  जिनकी  गर्दन  एक बार पहिनी गई वरमाला के बोझ से आज तक झुकी हुई है, उन्हें माला की लम्बाई में  मनचाही सीमा तक कटौती करने का प्रावधान होना चाहिए. 
 
बड़ी बड़ी कंपनियों की सी .ई. ओ,  ब्यूरोक्रेट  या अन्य उच्च पदस्थ महिलाओं के लिए ५०० के नोट की माला पहिनना अनिवार्य हो.
 
जिन महिलाओं के हाथ में पति की  पूरी तनखाह आती हों, वे चाहें  अलग अलग नोटों की तो रंग - बिरंगी माला पहिन सकती हैं. हांलाकि   ऐसी मालाएँ दिखने की संभावनाएं न्यून ही हैं.
 
मेरे जैसी मास्टरनी के लिए १० या ज्यादा से ज्यादा २० रूपये के नोटों की माला मुफीद रहेगी, क्यूंकि एक बार में इससे ज्यादा का सामान मैं कभी नहीं खरीदती.
 
और अंत में यह  ग़ज़ल प्रस्तुत है,  इसे चाहें तो मेरे गायक  ब्लोग्गर भाई या बहिन अपना स्वर दे सकते  है.
 
फिर छिड़ी रात, बात नोटों की
बात है या बारात नोटों की.
 
नोट के हार, नोट के गजरे
शाम नोटों की, रात नोटों की.
 
आपकी बात, बात रोटी की
आपका साथ, साथ नोटों का.
 
नोट मिलते रहेंगे दुनिया में
रोज़ निकलेगी बारात  नोटों की.
 
विरोधी जलते हैं, लोग कुढ़ते हैं
रोज़ पहनेंगी  हम, हार नोटों के.
 
ये लहकती हुई फसल मखदूम
चुभ रही  क्यूँ,आज बात नोटों की.
 
 
 
 
 
 

मंगलवार, 16 मार्च 2010

एक नए अंदाज़ में...बहुत मुबारक नव संवत्सर .........

बहुत मुबारक नव संवत्सर .........
 
कुंवारी कन्याओं के लिए ......
 
हों मात-पिता कोई भी
इस वर्ष ना टूटे कमर
बिन छीछालेदर, बिन स्वयंवर
कन्याओं को मिल जाएं वर.
 
बहुत मुबारक नव संवत्सर .........
 
विद्यार्थियों के लिए
 
इस वर्ष का है या मंजर
ना होगा फ़ेल कोई, न होगा टॉपर
अगले साल घर बैठोगे तुम
और गुरुजन देंगे पेपर.
 
बहुत मुबारक नव संवत्सर .........
 
नेताओं के लिए .....
 
नेताओं को मिल जाए गद्दी
साथ में हो एक लाल बत्ती
पोस्टरों में ही चिपके ना रह जाएं
छुट्भैय्यों को भी मिल जाए माल तर
 
बहुत मुबारक नव संवत्सर .........
 
महिलाओं के लिए .....
 
दृष्टि हो बस अब संसद पर
फेंक दो सब  सोने के जेवर
माया कंगन, माया झुमके
हो माया हार, हर गर्दन पर.
 
बहुत मुबारक नव संवत्सर .........
 
ब्लोगर्स के लिए ......
 
पोस्ट विवादित हो जाए हर
मिलें टिप्पणियाँ भर - भर कर
उंगली कोई उठाने लग जाए तो,
झट बेनामी का रूप धर
 
बहुत मुबारक नव संवत्सर .........
 
 

सोमवार, 15 मार्च 2010

संस्मरण : किस्सा पहली बोर्ड ड्यूटी का

संस्मरण २५ अप्रैल सन् २००० को  लिखा  गया  था , जब मैं नई - नई शिक्षा विभाग में आई थी.
 
मेरी बरसों से एक  इच्छा थी कि मैं टीचर  बनूँ, किसी और व्यवसाय में जाने की मैंने कभी नहीं सोची क्यूंकि जब से आँखें खोलीं शिक्षक  माता - पिता को बड़ी - बड़ी सिद्धांतवादी  बातें करते  हुए, और दूसरों को उपदेश देते हुए  पाया. उपदेश  देने  की  सहूलियत  के  चलते मैंने सिर्फ़ और सिर्फ़ शिक्षिका  बनने को प्राथमिकता दी.
 
टीचर बन जाने के पश्चात एक दिन बोर्ड परीक्षा में ड्यूटी करने का भी मन किया.  ड्यूटी करने की एवज में रूपये मिलने का कारण उस समय  गौण  था, क्यूंकि उस समय बहुत कम पैसा मिलता था, जो कि सेंटर तक आने - जाने में ही ख़त्म हो जाता था. इसके पीछे छिपा हुआ  मुख्य  कारण यह  था कि मैंने  अपने कक्ष निरीक्षकों से परीक्षाओं के दौरान उस  ज़माने में बहुत डांट खाई थी. आदत से मजबूर गर्दन पीछे  की  सीट में ना चाहते हुए भी चली ही जाती थी. मन में बदले की भावना कबसे कुण्डली मारे बैठी  हुई थी  कि आएगा कभी ना कभी ऐसा दिन कि मैं भी बच्चों को डांट लगाउंगी  और मौका मिले या ना मिले कान  ज़रूर उमेठुन्गी.
 
मैं नौकरी में लग चुकी थी. दो महीने बाद  बोर्ड परीक्षाएं भी गईं थीं और मैं अपनी बचपन की  इच्छा के चलते  ड्यूटी लगवाने अधिकारी के पास गई, जिसने पूरी धौंस के साथ आदेश दिया '' आप देर से आई हैं, लड़कियों  के स्कूल में जगह भर गई हैं, अब सिर्फ़ एक जगह बची है वह भी इस कॉलेज  में, [जिसके नाम से शहर भर की जनता थर्राती थी], अब आपको यहीं ड्यूटी करनी पड़ेगी.'' मना करने की मजाल किसके अन्दर थी?
 
अपने आप को कोसते हुए, मैं डरते, काँपते  घर आ गई. रात भर डरावने सपने आते रहे और कई बार पसीना - पसीना होकर नींद से उठ बैठी. सुबह के समय ज़रा सी नींद आने लगी थी कि अलार्म की कर्कश आवाज़ ने उठा दिया. ड्यूटी पर जाते समय अनुभवी माँ - बाप ने भांप लिया कि इसकी हालत पतली है '' किसी लड़के पर हाथ मत उठाना, करने देना नकल, तेरा क्या जाता है''? वे समझ गए थे कि नई नई ज़िम्मेदारी मिली है, सो डर और जोश दोनों उछालें मार रहा होगा  '' मैंने हाँ में हाँ मिलाई क्यूंकि दोनों से ही  प्रतिवाद करने का कोई फायदा नहीं था.
 
रास्ते भर ऐसा महसूस हुआ कि निहत्थे  किसी रणक्षेत्र में जा रही हूँ,.अकेली हूँ और दुश्मनों की फ़ौज अस्त्र - शस्त्रों  से लेस होकर सामने खड़ी है
 
मेरे साथ - साथ ऑटो वाला जाने क्यूँ परेशान था, इसीलिये मुझे कॉलेज के गेट पर छोड़ने के बजे एक किलोमीटर आगे छोड़ गया, और शिकायत करने पर टीचर ना होते हुए भी अमूल्य सलाह देने लगा  ''बहिन जी आप दूसरे ऑटो में चले जाइए''. समय बीत रहा था सो गुस्से को पीकर दूसरा ऑटो पकड़ कर पीछे आयी और लगभग दौड़ते, हाँफते, पसीने से तरबतर  कॉलेज के गेट पर पहुँची. घड़ी में देखा तो पाया कि पंद्रह मिनट बचे थे . साँस  में साँस लौट आई.
 
गेट के अन्दर घुसी ही थी कि लड़कों की चीखों से घबरा उठी-
''ओ मैडम! हाय क्या बात है''
''आई लव  यू मैडम, दू यू लव मी''
''मज़ा आ गया यार, पेपर देने में बहुत मन लगेगा''
एक लड़का बिलकुल मेरे पास आ गया और गाने लगा,
''ओ मैडम तेरे गाल, तेरे सिल्की सिल्की बाल, दिल तल्ली साडा हो गया, ओये की करिए''
मैंने नज़रें उठा आर देखा, सिर के ऊपर संजय  दत्त स्टाइल का चश्मा सुशोभित था और दाँत गुटखा खाने के कारण काले हो चुके थे, जिनसे वह ही ही कर के हंस रहा था और आँख मार रहा था.
 
मैंने अपनी चाल को तेज़ किया और स्टाफ रूम में आ गई. वहाँ  मेरे अतिरिक्त सभी पुरुष अध्यापक थे, जिनकी आँखों में उभरे हुए प्रश्नचिन्हों को मैंने ड्यूटी का कागज़ दिखा कर शांत कर दिया. कक्ष निरीक्षक के रूप में मेरे साथ जो अध्यापक थे, वे करीब ४० से ४५ वर्ष के बीच के होंगे.
 
कक्षा में पहुंचकर मैंने राहत की सांस  ली . क्या पता था कि असली  मुसीबत तो अब शुरू होंगी , बाहर जो हुआ वह  तो मात्र  ट्रेलर था. मुझे इस कमरे में देखकर दूसरे कमरे के लड़कों से रहा नहीं गया, उन्होंने खिड़की पर भीड़  लगा दी, और वहीं से चीखने लगे-
''अबे नसीब खुल गए सालों के''
अबे देखता नहीं मैडम कुंवारी है, ना सिन्दूर न मंगलसूत्र है ना मैडम ?
''कल हमारे कमरे में आइयेगा मैडम, आएंगी ना?''
अनसुना करके मैंने अपने कक्ष में नज़र दौड़ाई तो पाया कि वही संजय दत्त स्टाइल के चश्मे वाला लड़का आगे की सीट पर विराजमान था और मुझे देखकर मेज़ बजा रहा था. मैंने उसकी उपेक्षा की और कक्षा को संबोधित किया
'' आप लोग अगर नकल आदि लाए हैं तो यहाँ जमा कर दीजिये, वर्ना आपको जुर्माना और जेल दोनों ही हो सकते हैं''
यह सुनकर दो - चार लड़के समवेत स्वर में बोले-
''मैडम हम तैयार हैं, तलाशी ले लीजिये अच्छी  तरह से'' पूरी कक्षा में ठहाके गूंज उठे. मुझ पर घड़ों पानी पड़ गया.
इतने में एक और बोल पड़ा-
''मैडम, आपकी शादी हो गई क्या''?
''शटअप'' मैं गरजी 
'''मैडम हमको अंग्रेजी नहीं आती, जो कहना है हिन्दी में कहो'' जवाब मिला.
''वैसे मैडम आपने लड़का नहीं ढूँढा तो यहाँ भी स्टाफ में कई कुंवारे हैं, कहिये तो बात करा दें '' सब हंस रहे थे, और मैं अपनी बचपन की इच्छा को पानी पी पी कर कोस रही थी.
सहयोगी अध्यापक से रहा ना गया, उन्होंने कोने में ले जाकर मुझे  समझाया.
''मैडम, इनके मुँह मत लगिए, आपको बाद में परेशान कर सकते हैं'' बात मेरी  समझ में आ गई थी.
इतने में वह चश्मे वाला लड़का मेरे पास आया और टक्कर मार कर बाहर पानी पीने चला गया. मैंने जलती हुई आँखों से उसे घूरा तो उसने एक आँख दबा दी और गुटखे का पूरा पाउच हलक के अन्दर उड़ेल दिया.
कुछ एक सभ्य लड़के भी इस भीड़ में थे, मुझसे बोले-
''मैडम लगा दीजिये इसे दो हाथ, बहुत अकड़ दिखाता है''
मैंने स्थिति को समझ कर उत्तर दिया-
''कोई बात नहीं, बच्चा है, गलती से टक्कर लग गयी  होगी''
''नहीं मैडम, ये तो पिछले पाँच सालों से फ़ेल होता  आ रहा है, इससे सभी सर  लोग डरते हैं''
अच्छा हुआ जो मैंने उसे कुछ नहीं कहा, मैंने मन ही मन शुक्र मनाया.
मैंने कॉपी  और पेपर बांटे, और हस्ताक्षर करने के लिए प्रवेश पत्र मांगे तो पाया कि इनकी हालत इतनी जीर्ण - शीर्ण हो चुकी थी कि पढना  लगभग असंभव था कि क्या लिखा है. शक्ल पहचानना तो लगभग नामुमकिन था.  चश्मे वाले लड़के का नंबर आया. मैंने प्रवेश पत्र माँगा तो जवाब मिला कि वह नहीं लाया है. मैंने सर से उसका नाम व अनुक्रमांक लिखने को कहा तो प्रवेश पत्र जेब से निकाल कर घृष्टता से मुस्कुराते हुए बोला '' ये लो प्रवेश पत्र''
मेरा पारा चढ़ गया, ''हम तुम्हारे नौकर नहीं हैं समझे, कि जब तुम चाहो तब हस्ताक्षर करें''
वह भी भड़क गया ''ये आपकी ड्यूटी है, आपको करनी पड़ेगी''
इसी पहले कि मैं पलटवार करुँ सर ने मुझे आँखें दिखा कर रोक दिया. इस यज्ञ को निपटाने के बाद कुर्सी पर आकर बैठ गई. तभी मेरे पैरों से कागज़ का एक गोला टकराया, उठाकर देखा तो घृणा  के मारे बुरा हाल हो गया. कागज़ के पुर्जे को बुरी तरह से चबाकर गोल गोल लड्डू बनाकर फेंका गया था.  जैसे - तैसे उसे खिड़की से बाहर फेंका.
 
अभी आधा घंटा बीता होगा कि महसूस हुआ कि साथ वाली अध्यापक मुझे लगातार घूरे जा रहे हैं  मैंने नज़रें फेरी और चहलकदमी करने लगी. मैं उसी चश्मे वाले लड़के के पास जाकर बार - बार खड़ी हो जाती, मुझे शक था कि इसके पास नकल की सामग्री है. मैंने उसकी कॉपी, हाथ,  डिब्बा सबका निरीक्षण कर डाला. जब तक मैं उसके पास खड़ी थी वह पेन को मेज पर रखकर मुझे घूरता रहा.
''क्या है मैडम, कुछ काम है क्या''?
''काम क्यूँ नहीं कर रहे हो? समय गुज़रता जा रहा है''
वह बोला ''जब तक आप सर पर खड़ी रहेंगी, मैं नहीं लिख सकता, आप जाइए पहले''
मैंने उसकी आज्ञा मानी और फिर घूमने लगी, एक लड़के ने, जिसके बाल बौबी  देओल कट के थे [ उस समय वही फैशन  में था ], ने जोर से आवाज़ लेकर अंगड़ाई ली.
मैंने कहा ''ठीक से बैठो''
''मैडम, अंगड़ाई लेने की भी नहीं हो रही क्या? कर्फ्यू लगा है क्या"? पूरी कक्षा हंस पड़ी.
एक छुटका सा लड़का अपने आगे बैठे लड़के से बार बार पूछता जा रहा था, सर ने उसके पास जाकर मना किया तो अन्य गुंडा टाइप लड़के भड़क गए,
''बच्चा समझ कर हड़का रहे हो , ज़रा हमें डांट कर दिखाओ''
''अरे कुछ नहीं, मैडम के सामने रौब मार रहा है साला, बाहर निकल के आ तब बताएंगे'' पता  नहीं किस कोने से आवाज़ आई. सर बेबसी और लाचारी के चलते चुप हो गए.
''मैडम, थोडा सा बता दीजिये, यह दूसरे प्रश्न का 'ग' वाला बता दीजिये, एक लड़का बोला.
''हम यहाँ आपको बताने नहीं आए हैं, पेपर आपका है, हमारा नहीं'' मैंने कड़कते स्वर में कहा.
कहीं पीछे से आवाज़ आई, ''अबे छोड़ यार, मैडम को भी नहीं आता होगा, तभी ऐसे डांट रही है''
 
अधिकतर सभी लड़कों के शर्ट के ऊपर के सभी बटन खुले थे, सर से लेकर पैर तक की वेशभूषा ऐलान कर रही थी कि किसका आदर्श कौन सा हीरो है. सिर्फ़ दो तीन लड़कों को छोड़ दिया जाए तो ऐसा कहा जा सकता है कि इन्होने साल भर से किताब का मुँह भी ठीक से नहीं देखा होगा, एक दूसरे से पूछ - पूछ कर ही सभी ने पेपर पूरा कर डाला.
 
''चुप रहो, चुप रहो'' का इतनी बार प्रयोग करना पड़ा कि मेरे सर में दर्द हो गया, लेकिन मजाल  है कोई  चुप हो जाए.
पेपर छूटने में पंद्रह  मिनट पहले कक्षा में बेहद अव्यवस्था फैल  गई, कोई चुप  होने का और  अपनी सीट पर बैठने का नाम  तक नहीं ले रहा था, हमारी  उपस्थिति से उन्हें कोई सरोकार नहीं रह गया था, उलटे एक लड़का मुझसे बोला,
'' मैडम, वो पीछे की सीट वाले लड़के से प्रश्न न.. तीन का उत्तर पूछ लाइए''
मैंने उसे जबरदस्त झाड पिलाई, वह बोला,
''मैडम आपको मेरा काम नहीं करना है तो मत करिए, मेरे पास लेक्चर सुनने का टाइम नहीं है, मैं खुद जाकर पूछ लाता हूँ''
कहकर उसने पीछे की सीट की ओर दौड़ लगा दी, मैं अवाक देखती रह गई.
 
पेपर का समय ख़त्म हो गया, जब  कॉपियां  लेने गए तो दादी और नानी, सब  याद  आ गई,
'' मैडम, बस एक मिनट, ज़रा सा रह गया है'' जिसने सारा समय इधर उधर देख कर बिता दिया था वह बोला.
''मैडम, आपका क्या जाएगा, हम पास हो जाएंगे तो, आपको तो खुशी होनी चाहिए ना, वैसे आप रहती कहाँ है? हम पास हो जाएंगे तो मिठाई  ले कर आएँगे.
अब सर को मोर्चे पर आना पड़ा, उन्होंने कॉपियां  जमा की. मैं कोने में खड़ी तमाशा देखती रही.
'' अच्छा मैडम, बाय बाय, सी यु टुमॉरो'' कहकर दो तीन लड़कों ने हवा में चुम्बन उछाल दिया.
 
हाथ में कापियां लेकर मैं और सर स्टाफ रूम की ओर चलने लगे तो सर मुझसे मुखातिब होकर बोले-.
''मैडम ,आपको बुरा तो नहीं लग रहा है ना, क्या करें ये लड़के हैं ही ऐसे, पता नहीं कैसे घरों से आए हैं''
'नहीं सर , इसमें बुरा क्या मानना , उनकी तो उम्र है ऐसा व्यवहार करने की, हाँ हम और आप ऐसा व्यवहार करें तो शोभा नहीं देगा है न ?
सर चुपचाप सर झुकाकर चल दिए.
इस प्रकार मेरी ज़िंदगी की पहली ड्यूटी पूरी हुई.
 
 
 
 
 
 
 

शुक्रवार, 12 मार्च 2010

आने दो हमें संसद में, क्यूंकि ....

 
नेताओं  और औरतों या के मध्य कई समानताएं पाई जाती हैं, जिसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि एक नेता बनने के सारे ही गुण एक महिला में विद्यमान रहते हैं, अतः उन्हें संसद से दूर रखने की कोशिश किसी भी सूरत में नहीं करनी चाहिए|
 
नेता और नारी दोनों पर जितना भी लिखा जाए, उतना कम है|
 
 स्वतंत्रता से पहले दोनों की छवि समाज में बहुत अच्छी  थी|
 
दोनों ही का वजन कम हो तभी लोगों के अन्दर सुकून रहता है, जैसे ही  चर्बी चढ़ने लगती है, औरतें पति व ससुराल की नज़रों में और नेता जनता की आँखों में खटकने लगता है|
 
दोनों की  जैसे - जैसे उम्र बढ़ती जाती है, जवानी लौट लौट कर आती है|  
 
दोनों की भोली भाली सूरत ही दिल को भाती है, दोनों की  छवि जितनी गिड़गिडाती  हुई, हो उतना  जनता और समाज को सुकून मिलता है| दोनों का हाथ पर हाथ धर के  बैठे रहना कोई बर्दाश्त नहीं कर पाता| दोनों हर समय काम करते हुए ही अच्छे लगते हैं|
 
दोनों को तब तक नोटिस में नहीं लिया जाता, या महत्व को जानबूझ कर  अनदेखा किया जाता है, जब तक वे बगावत या विद्रोह ना कर दें, या कहिये कि पार्टी बदल लेने और अपनी स्वयं की  स्वतंत्र पार्टी बनाने की धमकी ना दे दें| 
 
घोटाले करने की आदतें दोनों में समान रूप से पाई जाती हैं, महिलाओं के घोटाले जहाँ घर के राशन -पानी में कटौतियां करके  साड़ी  या गहने खरीदने तक ही सीमित रहते हैं, वहीं नेताओं के घोटालों का आकाश असीमित  रहता है|
 
दोनों ही जोड़ - तोड़ और दिखावा करने की  कला में पारंगत होते हैं|
 
  वोट मांगने जाते समय नेता,और शादी से पहले महिलाएं अपने होने वाले पति की हर बात पर हाँ जी हाँ जी करती हैं, दोनों ही मन ही मन सामने वाले को गालियाँ  दिया करते हैं, और मन ही मन में  बाद में बताने की धमकी दिया करते हैं, और  कार्य सिद्ध हो जाने पर रंग बदलने में  गिरगिट को भी मात कर देते है| वोटर और पति दोनों ही, हाय फिर ठगे गए  वाली भावना महसूस करते हैं
 
औरतों के दिल में लाभ वाला पति और नेता के ह्रदय में  लाभ वाला पद मिलने की आकांक्षा  समान रूप से  रहती है,  जिसको प्राप्त करने के  लिए दोनों किसी भी सीमा तक झूठ बोल सकते हैं या कहिये कि एढ़ी-चोटी का जोर लगा दिया करते हैं|
 
 दोनों की बढ़ी हुई तनखाहें लोगों की ईर्ष्या का केंद्र बिंदु होती हैं, दोनों के बढे हुए भत्तों को नज़रंदाज़ करना आसान नहीं होता| दोनों के वेतन को लोग कामचोरी का वेतन मानते हैं और लगातार  डिटेल जानने की कोशिश करते रहते है|
 
दोनों की कड़ी मेहनत को अनदेखा करने की प्रवृत्ति  समाज के अन्दर समान भाव से पायी जाती है|
 
दोनों के चरित्र पर उंगली उठाना बहुत आसान है, ज़रा सी चारित्रिक फिसलन से दोनों को  बहिष्कार का सामना करना पड़ता है.
 
दोनों को हम जब चाहे तब भरपूर गालियाँ  दे सकते हैं, और मौजूदा समाज में आये हुए पतन का ज़िम्मेदार ठहरा सकते हैं
 
दोनों को मज़े की ज़िंदगी जीते हुए देखकर बहुत तकलीफ होती है| दोनों की ज़िंदगी को लोग बहुत आसान समझते हैं लेकिन खुद वैसी ज़िंदगी नहीं जीना चाहते|
 
दोनों अच्छा पहने या बुरा, आलोचना का शिकार होना पड़ता है, अच्छा पहनने पर जहाँ फिजूलखर्ची का आरोप और बुरा पहनने पर  ढोंग करने की संज्ञा दी जाती है| दोनों के  रहन सहन या अन्य किसी प्रकार के शौक  पर अक्सर लम्बी लम्बी बहसें होती रहती हैं, यहाँ पर भिन्नता यह है कि महिलाओं  के लिए हम चाहिए शब्द का प्रयोग धड़ल्ले से और अधिकार पूर्वक करते हैं, वहीं नेताओं की वेशभूषा हमें ग्राह्य होती है.
 
 दोनों के लिए हर कोई आचरण संहिता का निर्माण करना चाहता  है|
 
दोनों का अंत जानना आज भी उतना ही  असंभव है  जितना प्राचीन काल में हुआ करता था|
 
दोनों जैसे - तैसे अपना कार्यकाल पूरा कर ही ले जाते हैं| दोनों के कार्यकाल की सफलता हाईकमान के वरदहस्त मिलने पर ही संभव होती है|
 
 समय आने पर दोनों बँगला हो यो झोंपड़ी हर जगह, हर परिस्थिति में एडजस्ट  सकते हैं|
 
दोनों को बेचारा समझने की भूल कभी नहीं करनी करनी चाहिए|
 
दोनों समय पड़ने पर आंसुओं और मुस्कान को कैश करना अच्छे तरह से जानते हैं, यह भी सच है कि दोनों के आंसुओं की तुलना बेहिचक लोग घड़ियाल से कर लेते हैं|
 
 कितनी ही आलोचना क्यों ना करें, संकट के समय इन्हीं के पास जाना पड़ता है, और यही हमारे संकटमोचक साबित होते हैं|
 
दोनों के ही पर कतरना अब किसी के बस की बात नहीं है और, किसी भी हाल में संभव नहीं है|
 
 
 
 
 

मंगलवार, 9 मार्च 2010

बंद करो घर के अन्दर यह ...

साथियों, बहुत समय बाद क्षणिका का मौसम आया है ....

बंद करो .......

तोड़ फोड़
मार पीट 
गली - गलौज 
चीख पुकार 
बार बार ,
पत्नी को 
कहना ही  पड़ा 
आखिरकार 
कृपया,
घर में  प्रयोग 
मत कीजिये 
संसदीय भाषा, 
और संसदीय व्यवहार ...

सोमवार, 8 मार्च 2010

महिला दिवस पर ...कुछ पुरानी, कुछ नई ,कुछ

महिला दिवस पर ......साथियों महिला दिवस पर सभी महिलाओं को मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ ... एक बार फिर पुरानी डायरी से कुछ पन्नों को निकाल लाई हूँ ...
 

रोना ...........

 

रोज़ सुबह जब

छः बजे की बस पकड़कर

काम पर जाती हूँ

तुम्हारा नन्हा सा मुँह

अपनी छाती से और

बंद मुट्ठी  से आँचल छुड़ाती हूँ

तुमसे ज्यादा मैं रोती हूँ

बिटिया ! मैं बिलकुल सच कहती हूँ ....

 
 
सजावट वाली घास

 

सजावटी घास बनती तो

बाहों के झूले में झूलती

धूप, बारिश से बची रहती

बराबर खाद पड़ती

सुबह - शाम

पानी से तर रहती

पर यह क्या?

नन्हीं - नन्हीं जड़ों ने

इनकार किया

अपना रास्ता आप चुनना

स्वीकार किया

झरोखों से बाहर

निकल आई

दीवार भी उन्हें

रोक ना पाई

उसने हाथ फैलाए

तो सूरज बेकरार होकर

उतर आया आगोश में

तारों ने बिछा दी

मखमली रात की चादर

चंद्रमा बन गया

सिरहाना

धरती की ख़ुशी का

न रहा कोई ठिकाना

रात भर उसको भींचे

सोयी रही

अच्छा हुआ

जो चुन लिया उसने

जंगली घास बन जाना    

 

 

मैंने उगली आग

मुझे

मर्दों के खिलाफ़

आग उगलनी थी   

स्त्री विमर्श पर

थीसिस लिखनी थी   

पिता ने मुझको

किताबें लाकर दीं

भाई ने इन्टरनेट

खंगाल दिया

बूढ़े ससुर ने

गृहस्थी संभाल ली

पति ने देर रात तक   

जाग कर

पन्ने टाइप किए

बहुत थक गयी तो

बेटे ने पैर दबा दिए

मैं गहरी नींद सो गयी   

मर्दों के खिलाफ़ 

सोचते सोचते 

 

 

[अ] मंगलसूत्र ......

 

यह

जो मेरे गले में

काला नाग बना 

डसता रहा

जिससे

ना मैं बंधी 

ना तू जुड़ा

तेरा भी मंगल नहीं

ना मेरा हुआ भला

यह घोर अमंगल

का प्रतीक, यह सूत्र

फांस बना चुभता रहा

तोड़ना इसको फिर भी

काम सबसे कठिन रहा.

 

 

 

रविवार, 7 मार्च 2010

भए प्रकट कृपालु ......

भए प्रकट कृपालु ......
 
भक्तजनों, महाराज पुनः प्रकट हो गए हैं| वे कुछ समय के लिए अंतर्ध्यान क्या हुए, आप लोगों ने उनके देवत्व पर संदेह करना प्रारम्भ कर दिया!
 
प्रजा जनों, महाराज लोग कभी कभी स्थूल शरीर को छोड़ कर सूक्ष्म संसार में विचरण करने चले जाते हैं| आप साधारण लोग यूँ ही बिना कारण के गायब हो जाते हैं और कभी कभी मिल भी जाया करते हैं, लेकिन साधू महात्मा सदैव अंतर्ध्यान और अनिवार्य रूप से प्रकट होते हैं| भक्तजनों, महाराज जी ईश्वर से साक्षात्कार करने के लिए बीच बीच में चले जाया करते हैं| राक्षस प्रवृत्ति के लोग जिसे अन्तः पुर या राजप्रासाद कहते हैं, वहीं के एक कोने में वे ईश्वर के साथ आप लोगों के जीवन - मृत्यु, आत्मा - परमात्मा  के सम्बन्ध में चर्चा करते हैं|
आपके परिजन, जिन्हें मीडिया वाले बार बार 'मारे गए' कह कर प्रचारित कर रहे हैं, वास्तव में वे मोक्ष को प्राप्त हुए हैं|
 
देह तो नश्वर है, दुर्गुणों की खान है, माया मोह का केंद्र बिंदु है| एक न एक दिन सभी को इसे त्यागना ही है (महाराज लोग मरना शब्द से परहेज करते हैं, इसीलिये सदा देह त्यागना शब्द का प्रयोग करते हैं)|
 
खुशकिस्मत हैं आपके परिजन कि उन्हें बुढापे तक इस शरीर के भार को  ढोते रहने से मुक्ति मिल गई| शुक्र मनाइए आप लोग कि उन्हें इस पवित्र भूमि पर देह त्यागने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है| इस आश्रम के चप्पे-चप्पे में पवित्रतता व्याप्त है| आप किसी भी कोने पर जाकर प्राण छोड़ सकते हैं| धूल का हर कण इतना पवित्र है कि इसमें मिल जाने पर सीधे स्वर्ग का टिकट मिलता है| भक्तजनों, ईमानदारी से हाथ उठाइये कि आप में से कितने लोग इस संसार से उब कर देह त्यागने की बात करते हैं, लेकिन हिम्मत नहीं कर पाते (नब्बे प्रतिशत हाथ खड़े हो जाते हैं| समझाने की ज़रुरत नहीं है कि बचे हुए दस प्रतिशत अपने को ज़िन्दा ही नहीं समझते)|
 
कल्पना कीजिये कि आप बस में लदे हुए हों और बस पलट जाए| रेल की छत पर सो रहे हों और बिजली का नंगा  तार छू जाए| झोंपड़ी में सो रहे हों और आग लग जाए| बरसात के मौसम में बाढ़ में डूब जाएं या सूखे के कारण  फसल ख़राब हो जाने पर  फांसी पर लटक जाएं| आपके साथ कुछ भी हो सकता था, लेकिन सौभाग्यशाली हैं वे लोग जो इस पवित्र भूमि पर शरीर के बंधन से मुक्त हुए|
 
भक्तजनों, महाराज अभी मौन हैं| जब भी इस प्रकार की कोई महत्वपूर्ण घटना होती है, वे अक्सर मौन व्रत ले लेते हैं| इस अवधि में वे किसी भी शंका का समाधान नहीं करते| वे सिर्फ़ और सिर्फ़ ईश्वर से संवाद  करते हैं| महाराज जी ने प्रण  लिया है कि जब तक वे सभी देह त्यागने वालों को स्वर्ग नहीं पहुंचा देते तब तक मौन रहेंगे|
 
भक्तजनों, महाराज अन्तर्यामी हैं| उनके दिव्य चक्षुओं ने पहले ही देख लिया था कि लोगों की भीड़ मुफ्त का खाना खाने के लिए उमड़ पड़ेगी| उन्हें पता  था कि जब से आप लोगों  ने खाने व बीस रुपयों की बात सुनी, आप ठीक से सोये नहीं होगे| सभी ने एक हफ्ते तक एक ही समय खाना खाया होगा| गर्भवती माताओं, बहिनों, बीमार और अशक्त लोगों ने उस दिन मजदूरी से छुट्टी ले ली होगी कि चलो एक दिन तो बिना खटे  हुए पेट भर खाना मिलेगा| बच्चों ने सपने में गोल-गोल पूरियां  देखी होंगी| महाराज को ज्ञात था कि हज़ारों-लाखों की भीड़ उमड़ पड़ेगी, लेकिन उन्होंने खुलासा नहीं किया| दिव्य लोग  किसी भी  बात का खुलासा पहले से ही नहीं किया करते, बस एक या दो विश्वसनीय लोगों के कान में कह दिया करते हैं| कुछ तथाकथित महात्मा भविष्य की घटनाओं का वर्तमान में  खुलासा  करने के लिए टी. वी. कैमरे वालों को बुलाते है, अखबार वालों की भीड़ इक्कट्ठा किया  करते वे प्रचार के भूखे और ढोंगी  होते हैं, और आम आदमी की मौत मारे जाते हैं.
 
हाँ तो भक्तजनों, महाराज चाहते तो सुबह से ही गेट खुलवा  सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया क्यूंकि वे अगर तब गेट खुलवा देते तो आज आपके ज्ञान चक्षु नहीं खुल पाते| वह कोई साधारण गेट नहीं था, बल्कि महात्मा जी ने ख़ास तौर से अपने प्रिय भक्तों के लिए माया, मोह, लोभ , लालच को मिला कर, वर्षों की तपस्या और कड़ी मेहनत के पश्चात तैयार किया था जिसे आप लोगों ने ही तोड़ना था और जिस परीक्षा में आपके परिजन सफल रहे| उस गेट को तोड़कर ही असली संसार अर्थात परमपिता परमेश्वर के द्वार में प्रवेश संभव था| इसे तोड़ने में जो कुछ भी हुआ, उसे मीडिया वाले भगदड़ कहते है लेकिन हमारे महाराज  इसे प्रभु चरणों में जल्द  से जल्द  पहुँचने की बेकरारी कहते हैं|
 
महाराज की महिमा का बखान संभव नहीं है| उनकी सोच और समझ आम आदमी की समझ के दायरे से बाहर है| आप लोग रह-रह कर वही तुच्छ से प्रश्न पूछते है कि 'छोटे-छोटे मासूमों  का क्या दोष था?' या 'हमने किसी का क्या बिगाड़ा था, कौन से जन्म की सजा मिली?' इसका जवाब महाराज ने संकेतों के माध्यम से दिया है कि मासूम और पवित्र लोगों की हर जगह ज़रुरत होती है| आप लोग अभी गरीब है इसीलिये पवित्र भी हैं| जैसे-जैसे आप लोग अमीर होते जायेंगे अपवित्र हो जायेंगे और भगवान् के होने पर प्रश्नचिन्ह लगाने लग जायेंगे| महाराज की पत्नी भी पवित्र आत्मा थीं सो भगवान ने ने उन्हें जल्दी बुला लिया था| महाराज कम पवित्र थे सो अभी तक यहीं हैं और आप लोगों को पत्नी की याद में भोजन करवा रहे हैं, ताकि जल्द से जल्द वे भी पवित्र हो सकें | भक्तजनों, आतंकवादी भी गोली मारने से पहले महिलाओं और बच्चों को अलग कर देते हैं, क्यूंकि उनमें अभी पवित्रता बरकरार है|
 
भक्तजनों, महाराज चाहते तो आप लोगों से समाज सेवा के कार्य भी करवा सकते थे| पर्यावरण की रक्षा के लिए पेड़ लगवा सकते थे, श्रम-दान करवा के सड़कें बनवा सकते थे, निरक्षरों को साक्षर करवाने  का ज़िम्मा सौंप सकते थे, लेकिन नहीं किया क्यूंकि ये सब सांसारिक और भौतिक विषयवस्तु हैं| महाराज आपका सत्य के साथ साक्षात्कार करवाना चाहते थे और मृत्यु  से बड़ा सत्य आज भी दूसरा नहीं है| जब तक आप रिश्तों-नातों के कुचक्र में फंसे रहेंगे, सत्य को नहीं देख पायेंगे|
 
भक्तजनों, कलियुग में मोक्ष की प्राप्ति के लिए दो ही तरीके हैं, या तो भंडारों में खाने के लिए जाए  या त्योहारी मौसम में मंदिरों में भगवान को ज़रूर दर्शन दें| क्यूंकि भगवान भी महंगाई की तरह त्योहारी सीज़न में ही जाग्रत होते हैं| बिना त्यौहार के जाएंगे तो चाहे आप प्रार्थना कर-कर के मंदिर ही क्यूँ ना हिला दें या चढ़ावे की ढेरियाँ चढ़ा दें, वे ध्यान नहीं देते हैं| ऑफ़ सीज़न  में भगवान का मूड भी ऑफ हो जाता है|
 
भक्जनों, कुछ  लोग बीस रूपये की राशि को लेकर शंकाग्रस्त हैं| वे मूढ़ लोग कह रहे हैं कि महाराज एक तरफ कहते हैं कि रुपया हाथ का मैल है और स्वयं इस मैल को लोगों को बांट रहे हैं| शंका  निर्मूल है भक्तों| स्वामी जी ने इशारों से समझाया है कि वह आपके स्वर्ग जाने के लिए दिया गया जेबखर्च है| यह सत्य है कि मनुष्य  खाली हाथ आया था और खाली हाथ जाएगा, लेकिन महाराज की दी हुई दक्षिणा को स्वर्ग में परमिट प्राप्त है|
 
भक्तजनों, महाराज चाहते थे कि आप सब लोगों को एक साथ  मोक्ष की प्राप्ति हो, लेकिन ऐन वक़्त पर स्वर्ग में हाउस  फुल  का बोर्ड लग गया| बचे-खुचे लोगों को निराश होने की ज़रुरत नहीं है| अगले महीने फिर त्योहारी सीज़न  आने वाला है और  कुम्भ में अभी भी प्रबल संभावनाएं  है, इसलिए शान्ति और भीड़ दोनों बनाए रखें|
 
इस प्रकार के प्रवचन सुनकर पब्लिक के ज्ञान चक्षु खुल गए| खासतौर पर उनके जिनके बीबी-बच्चे मोक्ष को प्राप्त हो गए| एक बार फिर महाराज के जयकारों से आसमान गूँज उठा|  

गुरुवार, 4 मार्च 2010

अगले जन्म मोहे ब्लोगर का पति ना कीजो .........

पुराने पन्नों से  ......मंगलवार, २४ मार्च २००९

अगले जन्म मोहे ब्लोगर का पति ना कीजो .........

मैं कपड़े धोता

छप छप छप

तुम की बोर्ड पे करती   

खट खट खट

 

मैं अपनी किस्मत फोडूं  

सूखी रोटी रोज़ तोडूं

तुम लो बातों के चटखारे  

मैं देखूं दिन में तारे

 

दाल में मेरी नमक नहीं

चावल भी खाऊं मैं कच्चा  

कपड़े बिखरे जहाँ तहाँ

बच्चे फिरते यहाँ वहाँ

सारी दुनिया झूठी प्रिये!

एक तेरा ब्लॉग है सच्चा

 

टिप्पणियाँ तुम देती हो दिन भर  

मैं जो कर दूँ एक भी तुम पर

आँखों से बह जाए गंगा जमुना

उठ जाता है घर सिर पर

 

मेहमान भी जो घर पे आते

अपनी चाय आप बनाते

कहते हैं वो हंस हंस कर

भगवान् बचाए उसको

जिसकी बीबी हो ब्लोगर

 

याद है मुझको वह काला दिन

जब तुमको मैंने नेट सिखाया

पटके ज़मीन में बच्चे तुमने

गोदी में लैपटॉप बिठाया

 

फूल सूख गए गमलों में सारे

ताजा गुलाब तेरा चेहरा

पीले पड़ गए मैं और बच्चे

तेरे होंठों का रंग हुआ गहरा

 

दीवाली में छाया अँधेरा

होली में नहीं उड़ा गुलाल

त्यौहार सारे फीके हुए

तेरा ब्लॉग हुआ गुलज़ार

 

एक्सेप्ट और रिजेक्ट के

तेरे इस खेल में

मोडरेट हो गया मैं बेचारा

अपनी डाली आप ही काटी

कालिदास हूँ किस्मत का मारा

 

हे प्रभु! करुणानिधान

करना बस तुम इतना काम

अगला जन्म जब मुझको देना

ये दौलत भी लेना

ये शौहरत भी लेना

छीन लेना मुझसे मेरी जवानी

मगर मुझको लौटा देना

वो प्यारी सी पत्नी

वो मीठी कहानी