मंगलवार, 29 जुलाई 2014

देश में रेप से परे भी कई घटनाएं होतीं हैं।

रेप से परे कितना कुछ घट रहा है इस दुनिया में। हम हैं कि सिर्फ रेप की ख़बरों पर नज़र जमाए रहते हैं। सही कहना है मंत्री महोदय का, '' रेप के अलावा और कोई खबर नहीं है क्या''। चलिए देखते हैं कुछ और ख़बर, डालते हैं सुर्ख़ियों पर एक नज़र।     

खबर, सब की सब बेहतरीन हैं । एकदम ताज़ा तरीन है। 

आज ही बिलकुल आज ही-------- 

बस स्टेशन से एक किशोरी बरामद हुई। एंटी ह्यूमन ट्रेफिकिंग सेल के खाते में एक और सफलता दर्ज़ हुई। इस राज्य से उस राज्य तक फल - फूल रही है मानव तस्करी। बीस, तीस से लेकर चालीस हज़ार तक में सौदा कर रहे हैं माँ - बाप। अब सबकी गरीबी दूर हो जाएगी। लडकियां तो और पैदा जाएँगी। अधेड़ और विधुर बेकरार हैं दूल्हे बनने के लिए। तुल रहीं हैं चुपचाप लडकियां, जैसे तुलती हैं मुर्गियां कटने से पहले। बिक रहीें हैं चुपचाप लड़कियां, जैसे कटने के लिए बिकती है गाय। गिद्ध की नज़र लिए, बाज़ सी झपट लिए शहर, गाँव, देहात सक्रिय हैं बिचौलियों के गिरोह के गिरोह। 
         
पिछले छह महीनों के दौरान तकरीबन रोज़ ही बरामद हो रही है एक लड़की। 
 

आज ही बिलकुल आज ही -------

शहर के बिल्कुल बीचों - बीच, पॉश इलाके में कुछ समय से चल रहे हाई प्रोफाइल सैक्स रैकेट का भंडाफोड़। लडकियां बरामद हुई पाँच। पाँचों की उम्र कम है चौदह से सोलह साल के बीच। गिरोह में शामिल हुईं थीं चार लडकियां गरीबी की मार से, और एक अपनी लाइफ - स्टाइल मेंटेन करने की चाह से। पकड़ी गयी लड़कियों ने शर्म से, चेहरे ढक रखे हैं अपने - अपने दुपट्टों से। संचालिका के पास से मिले कई सफेदपोशों के फोन न. और पते। इन पतों को हमेशा की तरह गोपनीय रखा जाएगा और बरामद लड़कियों को सदा की तरह हवालात में रखा जाएगा।  

पिछले छह महीनों के दौरान पकड़ा जाने वाला यह आठवाँ रैकेट है।  
 

आज ही बिलकुल आज ही ----------

एक पंद्रह वर्षीया लड़की ने दुष्कर्म का आरोप लगाया, अपने ही सगे फूफा पर। उम्र में फूफा, बाप से भी बड़ा था। 'सबको दिखा दूंगा क्लिपिंग' कहकर धमकाता था। बेधड़क होकर घर में आता - जाता था। चुप थी वह पिछले दो साल से बदनामी के डर से। बात खुल गयी, जब वह गर्भवती हो गयी। आखिरकार फूफा को हथकड़ी लग गयी। फूफा का आरोपों से पूर्णतः इंकार। आपसी सहमति को बताया संबंधों का आधार। जनता का यह मानना है कि मामला काफ़ी संदिग्ध है। इतने साल चुप रही है लड़की। इसके पीछे ज़रूर कोई न कोई रहस्य है।  

पिछले छह महीनों के दौरान घरेलू रिश्तेदारों द्वारा दुष्कर्म की शिकायत दर्ज होने वाला यह पच्चीसवां मामला है। 


आज ही बिल्कुल आज ही ------------

एक नवजात कन्या का शव कूड़े के ढेर से बरामद हुआ। मंडरा रहे थे लाश पर कव्वे। खींचकर ले जा रहे थे कुत्ते। सुगबुगाहट है जनता के मध्य। यह किसी कुंवारी कन्या की अवैध संतान है या पुत्र पाने की लालसा का परिणाम है। मार कर फेंक दिया होगा या फेंक दिया होगा तब मर गयी। अलग - अलग लग रहे हैं कयास।बहरहाल इसे फेंकने वाले की जारी है तलाश।   

पिछले छह महीनों के दौरान का जानवरों द्वारा खींचा जाने वाला नवजात कन्या का यह नवां शव है। 

 
आज ही बिल्कुल आज ही ------------

एक विवाहिता का शव पंखे से लटका मिला। दो मासूम बच्चों को बिलखता छोड़ गयी। मरने से पहले एक चिट्ठी लिख गयी 'मेरी मौत का किसी को ज़िम्मेदार न ठहराया जाए, किसी को परेशान बिला वजह न किया जाए। रिश्तेदारों ने बताया लव मैरिज हुई थी। साथ जीने और साथ मरने की कसमें हुईं थीं। दो ही साल में क्या हुआ दोनों के बीच, कोई नहीं जानता। 'क्या वजह रही होगी मरने की ? मासूम बच्चों को अकेला छोड़ने की? लव मेरिज का अंजाम आखिर में यही होता है'। फंदे पर झूलती औरत को देख आँखें बंद कर रहे हैं। सब आपस में बातें कर रहे हैं। 'आजकल औरतों को मरने की बीमारी है'। इस पूरे मामले की भी तफ्तीश जारी है।   
     
पिछले छह महीनों के दौरान विवाहिताओं के द्वारा स्वेच्छा से की जाने वाली आत्महत्या की यह पंद्रहवीं घटना है।  


आज ही बिल्कुल आज ही ------------

एक मनचला रोज़ पीछा करता था उसका। तरह - तरह से परेशान करता था। रास्ते से चलना हराम कर देता था। परेशान होकर लड़की ने आखिर दे दिया जवाब, 'मेरा पीछा करना बेकार है, मुझे किसी और से प्यार है'। आशिक झल्ला गया । एकदम से पगला गया। गुस्से का पारावार नहीं रहा। लाया तेज़ाब खरीद कर। पूरी की पूरी बोतल उलट दी, सरे - राह चेहरे पर। बोला, 'ले ! अब बैठी रह जला और गला हुआ चेहरा लेकर। मुझको  'ना' बोलने वाली, अब भुगत उमर भर'। 

पिछले छह महीनों के दौरान तेजाबी हमलों से चेहरा, जिस्म और आत्मा के झुलसने का यह ग्यारहवां मामला है। 


आज ही बिलकुल आज ही ------------

एक लड़की ने प्यार करने की बड़ी भारी कीमत चुकाई। खाप  - पंचायत ने सजा सुनाई। मार कर फांसी पर लटका दिया। मामले को आत्महत्या ठहरा दिया। पंचायतें आने वाली पीढ़ी को प्यार करने से बचाएंगी। इनके कंधे पर बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी है। दोस्ती, प्रेम और प्यार से निपटने की इनकी पूरी तैयारी है। हर प्यार करने वाले को ऐसे ही सबक सिखाएंगी। प्यार करने से पहले लड़के - लडकियां फांसी पर झूलते हुए शव को याद करेंगे। ये पंच, ये परमेश्वर, प्यार को एक दिन दुनिया से खत्म कर देंगे।  

पिछले छह  महीनों के दौरान प्यार करने की कीमत जान देकर चुकाने वाली यह सातवीं लड़की है।    


आज ही बिल्कुल आज ही ---------------

तीन औरतों को सज़ा दी गयी। बच्चों की हो रही मौतों का ज़िम्मेदार ठहराया गया। उन पर शक था कि वे टोना - टोटका करती हैं, मासूम बच्चों की जान लेती हैं। पहले उन्हें खंभे से बांधा गया। मारा गया। पीटा गया। काट दिए उनके बाल। बुरा कर दिया हाल। फिर भी भर नहीं सका मन। तब क्या किया जाए? कैसे सज़ा पूरी की जाए? प्रश्न यह सबके आगे खड़ा था।  मिलजुल कर किया विमर्श। सलाह, मशविरा और परामर्श। एक उपाय सबके मन को भा गया। तीनों को निर्वस्त्र किया गया। सबने देखा तमाशा। बच्चे - बूढ़े, जवान। ताली बजा रहे थे हुक्मरान। वे चीखती रहीं, रोती रहीं। सबके पाँव पड़ती रहीं। गाँव - गाँव इन्हें घुमाया गया। सबको इन जादूगरनियों का अंजाम दिखाया गया।       

पिछले छह महीने में औरतों को निर्वस्त्र करके घुमाए जाने की यह बारहवीं घटना है।        
     

होती हैं साहब बिल्कुल होती हैं। देश में रेप से परे भी कई घटनाएं होतीं हैं।         
          

रविवार, 20 जुलाई 2014

कज़िन के बहाने ……

इन दिनों अजीबो - गरीब घटनाएं हो रही हैं। समझ में नहीं आ रहा है कि ये क्या घाल - मेल चल रहा है ? होना कुछ चाहिए और हो कुछ और रहा है। देश में चोरी की एक अजीबो - गरीब घटना हुई। इससे पुलिस और चोर दोनों के चरित्र  संदेह के घेरे में आ गए। चोरी की रिपोर्ट लिखवाने वाले के चरित्र का विश्लेषण अभी जारी है।  

यह बात ही कुछ ख़ास है। देश में एक आदमी हैं। पहले वे आम आदमी होते थे, अब वे ख़ास हो गए हैं। उनके घर चोरी हुई। उन्होंने पचास हज़ार चोरी की रिपोर्ट लिखवाई। पुलिस ने बरामद किये डेढ़ करोड़। देशवासी समझ नहीं पा रहे कि उन पुलिस वालों को सजा मिलनी चाहिए या ईनाम। चोरों को भी पता नहीं था कि वे अब आम नहीं रहे, अन्यथा वे उनके घर चोरी करने का रिस्क नहीं लेते। 

वे कहते हैं बरामद रुपया उनका नहीं, उनके 'कज़िन' का है। उन्होंने गलती से भी 'भाई' नहीं कहा। भाई कहने में खतरा ही खतरा  है। भाई शब्द बड़ा भारी होता है इसका वजन संभाल पाना हर किसी के बस की बात नहीं होती। अगर उन्होंने बरामद रुपया 'भाई का है' कहा होता तो भाई मीडिया के चैनलों से भी तेज गति से आता और तुरंत उन बरामद हुए रुपयों पर अपना हक़ जताने लगता। इंकार करने पर केस दर्ज करवा देता और भाई की बाकी जायदाद पर भी अपना दावा पेश कर देता। 

वह तो शुक्र है कि ऐन मौके पर कज़िन ने बात संभाल ली। ऐसे ही होते हैं कज़िन। रक्षक, संकटमोचक, विघ्नहर्ता जैसे। अँग्रेज़ों ने  कितने सुन्दर, संक्षिप्त और अत्यंत सुविधाजनक शब्द 'सॉरी' और 'कज़िन' हमारे शब्दकोष को प्रदान किये। इन दो सुन्दर शब्दों के लिए हम अंग्रेज़ों का एहसान कभी नहीं चुका पाएंगे। हिन्दी के सौ शब्द मिलकर भी इन दो शब्दों की महत्ता का मुकाबला नहीं कर सकते।

आम आदमी के घर में चोरी होती है। अव्वल तो वह रिपोर्ट लिखवाता ही नहीं है। अगर लिखवाता भी है तो डेढ़ छदाम तक पाने की उम्मीद नहीं रखता। चोरी का शोक मनाने के लिए आने वाले ज्ञानी लोग सांत्वना के रूप में मुंह से पहला शब्द ही यही निकालते हैं, ''कोई फायदा नहीं रिपोर्ट लिखवाने का, आज तक किसी का कुछ वापिस नहीं मिला।'' तमाम लोगों के चोरी और उसके उपरान्त होने वाली पुलिसिया कार्यवाही से सम्बंधित एक से बढ़कर एक अनुभवों का लाभ उठाते हुए वह रिपोर्ट लिखवाने को मात्र एक रस्म की तरह लेता है और चोरी होने के दो दिन बाद थाने जाकर इस रस्म का निर्वाह करता है।      
    
इतनी बड़ी दुनिया है। अरबों लोग इस दुनिया में निवास करते हैं। इस दुनिया में कोई न कोई कहीं न कहीं किसी न किसी का कज़िन है। मुझे याद है अपना ज़माना। अब मेरी इतनी उम्र चुकी है कि मैं ''हमारे ज़माने में'' नामक मन्त्र का दिन में कई बार पाठ कर सकती हूँ। उस ज़माने में मेरी कई दोस्तों के कज़िन हुए करते थे। कुछ एक दोस्तों के एक - आध ही कज़िन हुआ करते थे। कुछ के कई - कई कज़िन होते थे। किसी का हर हफ्ते एक नया कज़िन बनता था। ऐसा नहीं था कि उनके अपने भाई नहीं होते थे। भाई भी होते थे और कई होते थे। भाइयों के होने के बावजूद भी उनके कज़िन होते थे। जिनके सगे भाई नहीं होते थे, उन्हें कज़िन बनाने का परमिट खुद - ब - खुद मिल जाता था। वे जिसको चाहें, खुलेआम कज़िन बना सकती थीें।      

इन कज़िन्स के साथ वे दुनिया भर सारे लुत्फ़ उठाया करतीं थीं। वे बेधड़क होकर शान से बाइक में उस कज़िन की कमर को कस कर पकड़ कर शहर भर में घूमा करतीं थीं। महंगे से महंगे होटलों में खाना खाया करतीं थीं। कीमती तोहफे लिया करतीं थीं। फिल्म देखतीं थीं। अगर किसी परिचित ने देख लिया तो बड़ी शान से कहती थीं, 'मेरा कज़िन है'। तब ज़माना लाज का था, शर्म का था, शिष्टाचार का था, संकोच का था। खुलकर 'बॉयफ्रेंड' या 'लवर' कहने का रिवाज़ नहीं था। 'कज़िन है' कह देने भर से काम बन जाया करता था और घर तक एक लड़के के साथ घूमने - फ़िरने की सनसनीखेज ख़बर नहीं पहुँच पाती थी। कोई नहीं पूछता था, 'कैसा कज़िन है' या 'किसका बेटा है, चाचा का, मामा का, मौसी का, ताऊ का या बुआ का'?।लड़कियों के मन में भी किसी क़िस्म का संकोच नहीं होता था। भाई, भाई होता है और कज़िन, कज़िन होता है। दोनों शब्द एक जैसे भी हैं और अलग - अलग भी। अगर भविष्य में सब कुछ ठीक - ठाक रहता था तो इन्हीं कज़िन्स से शादी भी हो जाया करती थी। मुझे बाद में ऐसे कई कज़िन्स की शादी में जाने का सुअवसर भी प्राप्त हुआ। 

एक तरफ ऐसे सुविधाजनक कज़िन होते हैं और एक तरफ सगा भाई होता है। यह सगा भाई अगर ज़्यादा ही सगा निकल जाए तो कज़िन होने की संभावनाऐं ख़त्म हो जाती हैं। सगा भाई नाम का यह प्राणी ज़रा दूसरे ही किस्म का हुआ करता है। वह एक साथ कई - कई विशेषताएं लिए होता है। अपनी बहनों को वह छोटे और स्मार्ट कपड़े पहनने से मना कर देता है। वह नहीं चाहता कि उसकी बहन स्मार्ट दिखे या आधुनिक कहलाए। स्टाइलिश और लेटेस्ट फैशन के बालों की कटिंग देखकर उसका खून खौल जाता है। चोरी - छिपे फोन की कॉल डिटेल और मैसेज चेक करता है। हर हफ़्ते फेसबुक का पासवर्ड तोड़ने का प्रयास करता है। फ़र्ज़ी आई. डी. बनाकर अपनी ही बहन से चैटिंग करता है। पक्की सहेली की शादी में भी रात को में नहीं जाने देता। 'बॉय फ्रेंड' शब्द सुनते ही उसे बिजली का नंगा तार छू जाता है। स्कूल, कॉलेज से आने में एक मिनट की देर हो जाए तो खुद ही क्लास देखने चला आता है।  

यह सगा भाई जासूस, शक्की, गुस्सैल, खूसट होने साथ - साथ अपने दोस्तों की एक गुप्तचर संस्था का सदस्य होता है। यह संस्था एक -  दूसरे की बहनों की निगरानी में चौबीसों घंटे मुस्तैद रहती है। संस्था के ये समर्पित सदस्य छोटी से छोटी जानकारी भी साझा करते हैं। आज 'क' की बहन उस लड़के के साथ कॉलेज जा रही थी या आज 'ख' की बहन फ़ोन पर न जाने किससे घंटों बातें कर रही थी। देश में आज जितनी भी बची - खुची अरेंज मैरिज हो रही हैं, सब इस तरह के सगे भाइयों की वजह से संभव हो रहीं हैं।    

इसे दुर्भाग्य मानूं या सौभाग्य कि ऊपर की पंक्तियों में वर्णित कज़िन्स के बारे में हमारे भाई का सामान्य ज्ञान काफी उत्तम प्रकार का था। इसके अलावा किसी लड़की का कज़िन बनने की खासियत उसके अंदर बचपन से ही नहीं थी। यही कारण था कि उसने हमें भी किसी की कज़िन बनने का सुअवसर नहीं  दिया। बदले की इस भावना से न उसका भला हुआ न हमारा। माता - पिता के कई साल हम बहनों के लिए ढंग का लड़का और उसके लिए ढंग की लड़की ढूंढने में बर्बाद हो गए। इतने प्रयास करने और जूते चटखाने के बाद भी यह 'ढंग का' शब्द हमारे माता - पिता की डिक्शनरी में दर्ज़ नहीं हो पाया।  
                     

सोमवार, 7 जुलाई 2014

महिलाएं, चुनाव और ग्राम पंचायतें

भारत को निःसंकोच चुनावों का देश कहा जा सकता है। एक चुनाव ख़त्म होता नहीं है कि दूसरा आ जाता है। अभी महीने-दो-महीने पहले ही लोकसभा के चुनाव संपन्न हुए थे, अब पंचायतों के चुनाव आ खड़े हुए हैं। प्रत्याशी एक साल चुनाव लड़ने में और बाकी के चार साल उसकी तैयारी करने में व्यस्त रहते हैं।

 

ग्राम पंचायतों के चुनाव छोटे स्तर पर ज़रूर होते हैं लेकिन इनमें लोकसभा या विधानसभा के चुनावों से कम रोमांच नहीं होता। यह चुनाव बड़े ही दिलचस्प होते हैं, जिनमें एक-एक वोट की कीमत होती है, हर वोटर अनमोल होता है, हर वोट ज़रूरी होता है। मतदाता ख़ुद को एक दिन का राजा समझने लगता है। एक दिन का राजा या तो वह अपनी शादी वाले दिन होता है या फिर इस मतदान वाले दिन। उसे गाड़ी भेजकर सम्मान-सहित मतदान स्थल तक लाया और वापस घर भी पहुँचाया जाता है। मतदान वाला दिन भी शादी वाले दिन की तरह ख़ास होता है। मतदाता रूपी दूल्हा किसी भी प्रकार का बहाना बना कर घर में नहीं बैठ सकता। एक वोट, मात्र एक वोट, से हार-जीत के फैसले हो जाते हैं, जिस स्थिति में लॉटरी से विजेता का चुनाव किया जाता है। एक वोट से हारने वाला अपनी हार को स्वीकार नहीं कर पाता।  भला एक वोट से कोई हारता है क्या? जब तक मतदान-कर्मी झल्ला न जाएं तब तक वह बार-बार मतगणना करवाता रहता है। कई बार चुनाव भी मैच की तरह ड्रॉ हो जाता है। ड्रॉ के द्वारा हारने वाला अपनी हार को मरते दम तक पचा नहीं पाता और अगले चुनाव तक हर जान - पहचान वाले के आगे उस एक मनहूस वोट की माला जपता रहता है। दूसरी तरफ जीतने वाला अपनी जीत को लेकर हमेशा सशंकित रहता है कि पता नहीं कब यह जीत, हार में बदल जाए ।

 

गांवों में चुनावों की सुगबुगाहट होते ही प्रत्याशियों द्वारा महानगरों में रहने वाले अपने सभी नातेदारों और रिश्तेदारों से संपर्क साधा जाता है। महीनों पहले वोट डालने ज़रूर आने की चिरौरियां की जाती है। 'हमारी इज़्ज़त का सवाल है' कहकर दुहाई दी जाती है। महानगरों या दूसरे शहरों से वोट देने आने वाले भी सालों से वोट देते-देते बड़े ही शातिर हो गए हैं। ये अपनों और परायों में फर्क नहीं करते। साधारण किराए की बस से आते हैं और 'इमरजेंसी में टैक्सी से आना पड़ा, आपके कहने पर वोट देने आये हैं' कहकर पूरी टैक्सी का किराया प्रत्याशी से वसूल करते हैं| एहसान दिखाते हैं सो अलग। कुछ वोट देने आने वाले इससे भी एक हाथ आगे बढ़कर होते हैं। ये ट्रेन के जनरल डिब्बे से आते हैं, 'टैक्सी लाए हैं' कहकर पक्ष व विपक्ष दोनों पार्टी वालों से किराया वसूल करते हैं और वोट तीसरी पार्टी को दे जाते हैं।

 

इस साल मेरे मोहल्ले की महिलाओं के बीच जैसे चुनाव में खड़े होने की होड़ सी मच गई। जैसे-जैसे मतदान का दिन नज़दीक आता जा रहा था, चुनावी बुखार बढ़ता ही जा रहा था। एक दिन उम्मीदवारों के जुलूस अलग-अलग दिशाओं से आकर एक जगह पर मिल गए। मैंने स्वयं को चक्रव्यूह में फंसा हुआ पाया। नारा एक उम्मीदवार का गूँज रहा था, पैम्फलेट दूसरी ने पकड़ाया, तीसरी ने दूर से हाथ जोड़ा और अपना ख़याल रखने को कहा। चौथी ने चुनाव निशान 'अनार' सजीव रूप से  दिखाया। यूँ दिखाने की जगह अगर एक-एक अनार सबको पकड़ाती जाती तो शायद उसे वोट कुछ तो मिल ही जाते। मेरे सामने चारों को आश्वासन देने सिवाय कोई और रास्ता नहीं बचा था।

 

पंचायत चुनावों के पोस्टर भी कम आकर्षक नहीं होते। जबसे पंचायत चुनावों में महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित होने लगी हैं तबसे चुनाव खासे दिलचस्प हो चले हैं। तरह-तरह की मोहक मुद्राओं में बड़े ही रोचक चेहरे दिखाई पड़ते हैं। अधिकतर महिलाएं सिर पर पल्लू रख कर फोटो खिंचवाना अच्छा मानती हैं। इससे आज्ञाकारी बहू की छवि उभर कर आती है। इस आज्ञाकारिता का प्रत्यक्ष प्रमाण जनता उनका चुनाव में खड़े होने को मानती है। जनता जानती है कि कौन अपने पति की राजनैतिक आकांक्षा और कौन अपनी सास की सामाजिक महत्वाकांक्षा को शिरोधार्य करके चुनाव में खड़ी है। इक्का-दुक्का प्रत्याशी पल्लू को सिर पर धरे बगैर फोटो निकलवाती हैं। ऐसी महिलाओं को बुजुर्गों के वोट नहीं पड़ते। पोस्टरों पर तरह-तरह की भाव-भंगिमाएं दिखती हैं। किसी की पूरी बत्तीसी दिखती है तो किसी के चेहरे पर हल्की सी मुस्कान। कोई न हंसती है न मुस्कुराती है, बस गंभीर मुद्रा में दिखती है मानो कह रही हो कि पहले जीत जाऊं फिर जी भर कर हंस लूँगी। अधिकतर पोस्टरों में पत्नी की बड़ी फोटो के नीचे पति महाशय की फोटो चस्पा होती है, जिससे बताया जाता है की ये फलाने-फलाने की पत्नी हैं। सीट महिलाओं के लिए आरक्षित होने कारण वे चुनाव लड़ पाने सक्षम नहीं हैं, अतः उनके बदले इन्हें वोट दें। एक ही पोस्टर में उम्मीदवार की और उसके निवेदक पति की फोटो होने से  कभी-कभी प्रत्याशी को बहुत नुकसान उठाना पड़ जाता है, चुनाव-चिन्ह के लिए पोस्टर में जगह ही नहीं बचती। चुनाव चिन्ह एक कोने में, बहुत ढूंढने पर दिखाई पड़ता है।  देखने वाले को पति-पत्नि दोनों के नाम तो याद रह जाते हैं पर चुनाव निशान याद नहीं रहता। किसी-किसी पोस्टर में पति महाशय गायब होते हैं, लेकिन ऐसे पोस्टर बस इक्के-दुक्के दिखाई देते हैं। पिछले पंचायत चुनावों में और इस बार के पंचायत चुनावों में एक बड़ा फर्क यह देखने को मिला कि इस बार चुनाव लड़ने वाली महिला की तस्वीर खिसक कर पोस्टर में सबसे ऊपर आ गई। पति की फोटो बिलकुल नीचे या छोटी सी किनारे पर दिखाई दे रही है जबकि पिछले चुनावों में पति की फोटो बिलकुल बराबर में और अक्सर पत्नी की फोटो से ऊपर लगी रहती थी। 

 

मुझे अच्छी तरह से याद है कि करीब दसेक साल पहले जब महिलाएं चुनाव लड़ती थीं तो उनकी शक्ल भी कोई नहीं पहचानता था। सामने आकर वोट मांगने वाली महिला को लोग अच्छी नज़रों से नहीं देखते थे। महिला उम्मीदवार की फोटो वाले पोस्टर नहीं चिपकाए जाते थे। सभी जगह उसका पति ही हाथ जोड़कर वोट माँगता नज़र आता था। लोग भले होते थे, पत्नी के नाम पर पति को वोट देने में किसी को आपत्ति नहीं होती थी। ऐसी महिला को बहुत सुशील समझा जाता था। लेकिन विगत कुछ वर्षों से महिलाओं के सामने न आने पर लोग बेधड़क होकर उनके पतियों से पूछने लगे हैं '' जो चुनाव लड़ रही है, वह वोट मांगने क्यों नहीं आई ? अगर वह बाहर नहीं निकलेगी तो गाँव के काम क्या खाक करेगी ''? ऐसी हालत में धीरे - धीरे महिलाओं का सामने आना ज़रूरी होने लगा और विगत चुनावों से वे स्वयं वोट मांगने घर - घर जाने लगीं।   


ऐसे समय में, जब हम सबको महिला उम्मीदवारों को देखने की आदत पड़ चुकी हो, तब उम्मीद के विपरीत इस चुनाव में एक उम्मीदवार के पति ने प्रचार का मोर्चा संभाल रखा था। वह एक बड़े से जुलूस के साथ घर-घर जा रहा था। गेट खटखटाकर वह दल-बल समेत अंदर आ गया। उसने मेरे आगे अपने हाथ जोड़े और अपना सर नीचे ज़मीन तक झुका दिया। यह देखकर मैंने हड़बड़ाहट में उसे ही उम्मीदवार समझ कर आश्वासन देकर टालने की नीयत से कहा, ''चिंता मत कीजिये, आपको तो हम बहुत पहले से जानते हैं। निश्चिन्त रहिये, हमारा वोट आपको ही जाएगा ''। मेरे ऐसा कहते ही उनका चमचानुमा साथी झट से बोल पड़ा  ''नहीं, ये नहीं, इनकी पत्नी चुनाव में खड़ी है, यह चुनाव निशान उनका है ''। बिना पैम्फ्लेट देखे बोलने की अपनी पुरानी आदत पर मैं शर्मिंदा हो गयी। मैंने दल को गौर से देखा और पाया कि उसकी पत्नी जुलूस में नहीं थी। मैंने कहा, '' इनकी पत्नी तो दिख नहीं रही है ''। उसने बिना शर्मिंदा हुए जवाब दिया '' वो ज़रा बीमार हैं, इसीलिये नहीं आ पाईं ''।   

 

इन चुनावों में चुनाव चिन्ह भी खासे दिलचस्प होते हैं। उम्मीदवारों को ज़मीन से जुड़ें हुए निशान आबंटित किये जाते हैं। इन्हें देखकर ऐसा प्रतीत होता है मानो आपसे कहा जा रहा हो कि पंजा, हाथी, साइकिल, कमल की हवाई दुनिया से बाहर आकर साधारण इंसान की दुनिया में आ जाओ, जहाँ अनार, अनानास, कटहल, अनाज की बाली, गैस का चूल्हा, कढ़ाई, कैमरा, टी. वी. इत्यादि मौजूद हैं। कुछ लोगों का यह मानना है कि प्रत्याशियों को मोबाइल, एल. सी. डी., लैपटॉप जैसे हाई टेक चिन्हों के ज़माने में ऐसे घरेलू चिन्हों को दिया जाना पिछड़ेपन की निशानी है। इसके विपरीत मेरा यह मानना है कि इस प्रकार के चुनाव चिन्ह भारतीय संस्कृति को जीवित रखने का कार्य करते हैं, अन्यथा इमली और कलम - दवात जैसी वस्तुओं को आज की पीढ़ी कैसे पहचानेगी?  

 

चुनाव चिन्हों के आवंटन में भी अजीब घाल-मेल था। लग रहा था कि जैसे उपरवाले ने इसकी कमान अपने हाथों में थाम रखी हो। जिसको जो मिलना चाहिए था, वह उसके बदले दूसरी को मिल गया था। जिस उम्मीदवार को अनानास का चिन्ह मिला था वह भूतपूर्व विधायक की पत्नी थी। विधायक बनने के बाद से उनकी शक्ल किसी ने नहीं देखी। चुनाव चिन्ह और वे एक दुसरे के पूरक थे। उनसे मिलना उतना ही मुश्किल था जितना अनन्नास को छीलना। दूसरी उम्मीदवार डबल एम. ए. और पी. एच. डी. है। एक पब्लिक स्कूल में टीचर है। उसे शिकायत है कि उसे चुनाव चिन्ह कलम-दवात मिलनी चाहिए थी और मिल गयी कुल्हाड़ी। जिसे कलम और दवात चिन्ह मिला है वह केवल हाई स्कूल पास है।

 

कुछ उम्मीदवारों के साथ बड़ी विडम्बना हुई। जब उन्होंने चुनाव लड़ने का निश्चय किया था तब चुनाव तिथि घोषित नहीं हुई थी और न ही चुनाव चिन्ह आबंटित हुए थे। उन्हें जीत का भरोसा था, जिसके चलते उनके पोस्टर हर खंभे पर कई महीनों पहले ही चिपक गए थे। लोगों को उनका नाम याद हो गया। महीनों बाद जब चुनाव की तिथि की घोषणा हुई और चुनाव चिन्ह आबंटित हुए तब उन्हें नए पोस्टर चिपकाने पड़े। नए पोस्टरों में सबसे बड़ी उनकी फोटो, उससे छोटी उनके पति की फोटो और सबसे अंत में बचे हुए छोटे से कोने में उनका चुनाव चिन्ह छपा था। लोगों को अब तक उनके नाम रट चुके थे। चुनाव चिन्ह चाहने पर भी याद नहीं आ रहे थे। जब चुनाव चिन्ह याद आ रहे थे तो नाम गायब हो जा रहे थे।   

 

कहीं तीन तो कहीं चार बैलेट पेपर होने से अक्सर पता ही नहीं चल पाता है कि कौन किस पद हेतु खड़ा है। उस पर नाम भी न छपे होने से वोट देने वाला इतना कन्फ्यूज़ जाता है कि कई बार मतदान कर्मियों से ही कह बैठता है, ''मुझे तो कुछ समझ नहीं आ रहा, आप ही बता दीजिये किसको डालूँ वोट? '' या '' मैं तो बस प्रधान पद के प्रत्याशी को वोट डालने आया हूँ किसी और को नहीं जानता हूँ। ऐसा कीजिये, बाकी तीन में आप ही लगा दीजिये ठप्पा''। ऐसे में मतदान कर्मी अकबका कर एक दूसरे का मुंह देखने लगते हैं। हर तीसरा मतदाता जब यही बात दोहराता है तो उन्हें यह लगता है कि इस मुहर को अपने माथे में ठोक लें।

 

कभी-कभी बहुत मुश्किल पेश आ जाती है। मेरे घर के बिल्कुल पड़ोस में रहने वाली महिला को भी इस बार चुनावी कीड़े ने काट लिया। एक दिन वह हाथ जोड़कर वोट मांगने द्वार पर आकर खड़ी हुई तो मैं उससे पूछ बैठी, '' कहिये क्या काम है?'' इस पर वह अपमानित महसूस करते हुए कहने लगी, '' लगता है आपने मुझे पहचाना नहीं, आपके पड़ोस में रहती हूँ। आपके घर के सामने ही मेरा पोस्टर लगा हुआ है। मैं इस बार पंचायत चुनाव में खड़ी हूँ|'' मैं शर्मिन्दा होकर माफी मांगने लगी। उसके जाने के बाद जब मैंने गौर से उसके पोस्टर को देखा तो महिलाओं की फेसबुक में लगाने वाली फोटो और असल जीवन की शक्ल में जितना अंतर होता है, उतना ही अंतर उसके और उसके पोस्टर के बीच में मुझे नज़र आया। अपने पोस्टर से वह इतनी भिन्न लग रही थी कि मैं चाहती भी तो उसे पहचान नहीं पाती।

 

प्रत्याशियों के नाम बैलेट पेपर पर छपे नहीं होने के कारण चुनाव चिन्हों पर आश्रित आम मतदाता ने इस तरह से अपने गाँव की सरकार बनाने में अपना अमूल्य योगदान दिया।  


इनको वोट न देने के कारण ये रहे -


कटहल और अनानास को छीलने में बहुत दिक्कत होती है। सिलेंडर दिन पर दिन महँगा होता जा रहा है। अनार खून बढ़ाता है पर हमेशाबजट से बाहर होता है। इमली बचपन में अच्छी लगती है पर अब दांत खट्टे कर देती है। कैमरा तो अब फ़ोन में आने लगा है। 


इनको वोट देने के कारण ये रहे -    

 

अंगूठी पर दिल न चाहते हुए भी अटक जाता है। उगते सूरज को तो दुनिया सलाम करती है। कलम - दवात का सम्मान हर हाल में होना ही चाहिए। कार तो अब हर घर की ज़रूरत में शामिल हो गयी है।     

 

इस तरह चुनाव रूपी यज्ञ में आख़िरी आहुति देकर वह अगले पाँच साल तक निश्चिन्त हो गया।