बुधवार, 24 दिसंबर 2014

बीते बरस को सलाम

झाड़ू खरीदे गए । झाड़ू बेचे गए । झाड़ू लगाए गए । झाड़ू लगवाए गए । कूड़ा किया गया । कूड़ा साफ़ किया गया । कैमरे के सामने झाड़ू लगाया गया । झाड़ू लगाते समय कैमरे बुलवाए गए । 

धर्म का विवाद रहा । विवादों में धर्म रहा । कहीं लाउडस्पीकर को लेकर विवाद हुआ । कहीं विवाद पैदा करने लिए लाउडस्पीकर का प्रयोग किया गया ।  

साल भड़ास से भरा रहा । वर्ष पर्यन्त भड़ास निकलती रही । फेसबुक से, ट्विटर से, संसद से, मंच से, सभा से, इधर से उधर से,  जिधर से मौका मिला वहीं से, भड़ास की गंगा बहती रही ।   

साल सेल्फ़ियों का रहा । सेलफिशों का रहा । भाँति - भाँति की ट्वीट रही । भाँति - भाँति की बीट रही ।  

काले धन की हर जगह मुख्य रूप से चर्चा रही । हर चर्चा में काला धन मुख्य रहा । देश में ज़्यादा है या विदेश में इस पर सट्टा गर्म रहा । सूची में किसके नाम निकलेंगे,  किसके नहीं निकलेंगे ? इस रहस्य पर से पर्दा उठेगा या नहीं इस पर भी रहस्य बना रहा ।         

दामाद तनाव का कारण बने  रहे । कहीं सास को तनाव रहा । कहीं ससुर को तनाव रहा ।  जिनके वे दामाद थे उन्हें तनाव रहा । जिनके वे दामाद नहीं थे, उनको भी तनाव रहा । 

बयानों की बनी रही । जिनके बयानों की अहमियत थी उन्होंने अहम बयान दिए । जिनके बयानों  की अहमियत नहीं थी उन्होंने ऐसे बयान दिए जिससे उनके बयानों को अहमियत मिली ।  बयानों पर बबाल मचा । बयान वापिस लिए गए । वापिस लेने के लिए बयान दिए गए । बबाल मचाने के लिए बयान दिए गए । 

साल भर टूटने - जुड़ने का क्रम चलता रहा  । गठबंधन टूटे । ठगबंधन जुड़े ।  टूट -टूट कर जुड़े । जुड़ -जुड़ कर टूटे ।  

संबंधों की उठापटक चलती रही । कहीं सम्बन्ध टूटे कहीं मज़बूत हुए । कोई बेटे की वजह से शर्मिंदा हुई किसी को दामाद की वजह से शर्मिंदा होना पड़ा । कहीं चचेरे भाई ने बचाया कहीं चचेरे भाई ने डुबोया । 

यात्राओं में बढ़ोत्तरी हुई । कुछ विदेश यात्रा पर जाने के लिए मंत्री बने । कुछ ने मंत्री बन जाने के बाद विदेश यात्रा करी । कुछ ने जेल की यात्रा करी ।  

लव से लबालब रहा । लव किस में रहा । लव जिहाद में रहा । लव झगड़ों में रहा । लव फसाद में रहा । 

इण्टर पास को लैपटॉप मिला, एफ़. डी मिली । इण्टर पास को मंत्रालय मिला । पदवी मिली ।  जिन हाथों में देश का भविष्य सुरक्षित होता है, उनका भविष्य ज्योतिष के हाथ में सुरक्षित रहा । 

महिलाओं लिए साल बेहतरीन रहा । पाप की खान इस देह से उन्हें वर्षपर्यंत छुटकारा पाने का मौका मिलता रहा । किसी को मार कर पेड़ पर लटकाया गया । कोई खुद पेड़ पर लटक कर मरी । कोई ज़हर गटक कर ख़त्म हो गयी । कोई बलात्कार के बाद मरी । हाई प्रोफाइल वाली भी मरी । लो प्रोफाइल वाली भी मरी । बिना प्रोफाइल वाली भी मारी गयी । 




रविवार, 21 दिसंबर 2014

बरस की बारहखड़ी बरस का ककहरा ----

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बरस की बारहखड़ी बरस का ककहरा ----

अच्छे दिन, अमेज़न, अमित शाह, अडानी, अम्बानी 
आई. एस.,आई फोन -6, आदित्यनाथ, आईसबकेट, आत्मकथा 
इबोला, इंस्टाग्राम, इंच - इंच ज़मीन 
ईशांत शर्मा 
उपवास, उद्धव, उबर टैक्सी 
ऊ ---
ए---- एक्ज़िट पोल, एटनबरो 
ऐ ---
ई कॉमर्स 
ओ. एल. एक्स 
औ-- 
अं--अंतुले, अंतरिक्ष   
अः-- 
श्रीनगर, श्रीनिवासन  

काला धन, केजरीवाल, कैलाश सत्यार्थी, किस ऑफ़ लव, कोल आबंटन ,कमल का फूल, क्योटो, क्वीन, कपिल शर्मा, केन्डी क्रश 
खट्टर, खांसी, खुशवंत सिंह    
गिरिराज सिंह, गुड गवर्नेंस, गोडसे   
घर वापसी, घर - घर मोदी  
चाय वाला, चाइना, चिड़ियाघर 
छप्पन इंच 
जापान, जयललिता, जेल, जनता दल, जन - धन, जेटली, ज्योतिषी, जीतन मांझी 
झाड़ू, झापड़ 
ट्विटर, टमाटर, टीचर्स डे, टाइम पर्सन  
ठाकरे, ठुल्लु  
डिनर, डांडिया, डी. एल. एफ़  
ढोल 
तोगड़िया 
थरूर, थर्ड फ्रंट, थप्पड़ 
देहाती औरत, दही, देवयानी             
धरना, धर्म गुरु, धार्मिक दंगे,धूम 3 
निरंजन ज्योति, नसबंदी, नटवर सिंह, नक्सली हमले, नपुंसक  
पेड न्यूज़, पेड़ की न्यूज़ , पटेल, प्राण, पुतिन, पी. के.    
फेंकू, फ्लिपकार्ट, फणनवीस, फेसबुक, फेलिन  
बनारस, बदायूं, बुलेट ट्रेन, बिग बॉस, बाढ़, बिलावल,   
भैंसे, भूटान, भारत रत्न, भागवत, भगवतगीता   
मोदी, मीडिया, मंगलयान, मलाला, मेरीकॉम, मोतियाबिंद, महाराष्ट्र, मोहनलालगंज, मार्गदर्शक, मफलर, मेक इन इंडिया, मन की बात   
यू टर्न, यू.पी, यादव सिंह, यश चोपड़ा, यू आर अनंतमूर्ति, येल यूनिवर्सिटी, यरवदा जेल  
रामपाल, राहुल, रंजीत सिन्हा, राजदीप, राजनाथ, रामजादे, रघुराम राजन, रोहित शर्मा, रेडियो   
लव जेहाद, लहर, लालू प्रसाद, लाउडस्पीक,एल.जी. 
विपक्ष विहीन, वेद प्रताप वैदिक, वीसा, वाड्रा, विक्टोरिया बग्घी 
स्वच्छता अभियान, स्टडी टूर ,स्मृति ईरानी, स्विस बैंक, सानिया, सुनंदा, साक्षी महाराज, संघ 
शौचालय, शाहरुख़, शरीफ, शिव सेना, शिक्षा मंत्री,
हरियाणा के चुनाव, हरियाणा की लड़कियां, हाफ़िज़ सईद, हैलमेट, हूटिंग, हुदहुद, हिन्दू राष्ट्र 
क्ष -
त्र -
ज्ञ -
                                   
                   

शुक्रवार, 19 दिसंबर 2014

शर्मिंदा हूँ मैं , बहुत शर्मिंदा हूँ देशभक्तों !



मेरा गुनाह माफी के काबिल तो नहीं है लेकिन फिर भी मुझे माफ करना देशभक्तों ------------

मैं किसी भी तरह से देशभक्त साबित नहीं हो पा रही हूँ । मैं बहुत शर्मिंदा हूँ अपनी बुजदिली पर । अपने इस कदर कायर होने पर मुझे कभी - कभी ऐसा महसूस होता है कि मैं इस दुनिया में रहने के लायक नहीं हूँ । 

दुश्मनों के देश में, चारों और भविष्य के दुश्मनों का बिखरा हुआ खून देखकर मुझे उल्टी आने लगती है । सिर चकराने लगता है । बेहोशी छाने लगती है । सिर से लेकर पैर तक  दहशत की लहर दौड़ जाती है । 

दुश्मनों के बच्चों की लाशों को देखकर अपने बच्चों की शक्लें याद आने लगती हैं । रातों की नींद उड़ जाती है । मारे गए हैं वो  बच्चे , जिनका मुझसे दूर - दूर तक कोई सरोकार नहीं है और रातों को उठ - उठकर मैं अपने बच्चों की साँसों को टटोलने लगती हूँ । 

दुश्मनों के मरे हुए बच्चों की लाशें देखकर खुश होने के बजाय मेरा दिल हाहाकार करने लगती हूँ । मुझे जश्न मानना चाहिए था । लज़ीज़ दावतें उड़ानी चाहिए थी,  पर मुझसे एक निवाला तक निगला नहीं जाता । 

दुश्मन मुल्क की औरतों को रोता देखकर मैं भी रोने लगती हूँ, जबकि मेरे दिल को सुकून मिलना चाहिए था ।  

दुश्मनों के इस दिलकश मंज़र की मुझे ज़्यादा से ज़्यादा तस्वीरें फेसबुक या वाट्सअप पर साझा करनी चाहिए थी लेकिन मेरा मन फोन छूने तक का नहीं कर रहा । 

दुश्मनों के मुल्क की ऐसी हालत देखकर '' अच्छा हुआ'',''जैसे को तैसा '', '' बोया पेड़ बबूल का आम कहाँ से खाए '' जैसे मुहावरे भी नहीं निकल पा रहे ।  

शर्मिंदा हूँ मैं , बहुत शर्मिंदा हूँ देशभक्तों ! 



रविवार, 5 अक्तूबर 2014

कार - नामा --------

कार - नामा  --------


प्रिय साथियों, आज मैं आपको कार या गाड़ी खरीदने और उसे चलाना सीखने के विषय में विस्तार से बताने जा रही हूँ । गाड़ी खरीदना और उसे चलाना दो बिलकुल ही भिन्न बातें हैं । मेरी इस बात से  पुरुष वर्ग, जो पहले दिन गाड़ी खरीदता है और तीसरे दिन से ही सड़क पर फर्राटा भरने लगता है, हो सकता है कि इत्तेफाक न रखे लेकिन अधिकतर महिलाऐं इससे सहमत होंगी । 

अब मैं गाड़ी पुराण पर आती हूँ । हाँ ! मैंने भी गाड़ी खरीद ली है । कौन सी खरीदी ? कितने की खरीदी ? कब खरीदी ? यह मत पूछियेगा । मैं नहीं चाहती कि किसी भी कार कंपनी को इसके माध्यम से प्रचार मिले । 

जब गाड़ी नहीं थी तब भी नाक में दम था-- 
 
'' कब खरीद रही हो गाड़ी ''? [ स्वगत ] जब पैसा होगा तब खरीद लेंगे ' । जब पास में सरकारी नौकरी हो तो ऐसा खुलेआम कहने में एक तो शर्मिंदगी होती है और दूसरे कोई विश्वास भी नहीं करता। 

''आजकल तो सबके पास है गाड़ी ''।[ स्वगत ]  सब के पास कैसे हुई जी ? हमारे पास तो नहीं है अभी । हम क्या सब में नहीं आते ? 

''कब तक स्कूटी और बाइक से जाते रहोगे, अच्छा नहीं लगता  ''? [ स्वगत ] अब तो लेनी ही पड़ेगी । हमें कार में देखकर उन्हें अच्छा लगे यह हमारा फ़र्ज़ बनता है । 

'' कुछ तो शर्म करो, इतने सारे बैंक लोन दे रहे हैं ''। [स्वगत ] क्या कहना ! ऐसा लगता है मानो बैंक बिना ब्याज के क़र्ज़ बाँट रहा हो और हम इंकार किये जा रहे हों । 
  
''बिन कार जीवन बेकार, अब तो ले डालो यार ''। [ स्वगत ] अभी तक की गयी पढ़ाई - लिखाई, ऊंची - ऊंची डिग्रियां, शादी - विवाह, बच्चे, नौकरी सब व्यर्थ सिद्ध हो गया । 

ऐसे नीति वचन सुन - सुन कर जब कान पक गए और एकाउंट में डाउनपेमेंट लायक बीस प्रतिशत रकम जमा हो गयी तब चल पड़े उधर, जिधर सारे डग एक न एक दिन जाते हैं अर्थात, गाड़ी लेने । आधे दिन में बैंक से चैक और बचे हुए आधे दिन में शोरूम से कार की चाभी हाथ में लेकर हम कार के मालिक की हैसियत से घर आ गए । सुबह गए थे तब दोपहिए के मालिक थे,  शाम को लौटे तो चार पहियों के स्वामी हो चुके थे । जो यह कहते है कि भारत में लालफीताशाही और लेट लतीफी है, उन्हें भारत में आकर कार ज़रूर खरीदनी चाहिए वह भी किस्तों में ।   
मारे खुशी के चाभी का छल्ला उंगली में झुलाते हुए मुझे कई बार आभास हुआ कि निकट भविष्य में ऐसा भी समय आने वाला है जब इंसान के मुंह से 'कार' निकला नहीं कि कंपनी वाले दरवाज़े पर '' ये लीजिये चाभी,  आपने पांच मिनट पहले कार लेनी है कहा था ''।  

कार के मालिक हैं हम आज से । इतनी बड़ी खुशी अकेले कैसे हज़म करते ? अपने परिचितों, रिश्तेदारों को फोन से यह महत्वपूर्ण सूचना दी । कुछ ने बधाई दी कुछ चुप्पी साध गए । जब आस - पड़ोस में दो - दो लड्डू कागज़ की पुड़िया में रख कर बांटने लगे तब वही लोग जो अक्सर कार खरीद लेने के लिए सलाहें दिया करते थे, बधाई देना भूल कर कहने लगे ---

'' आजकल तो हर ऐरे - गैरे, नत्थू खैरे के पास गाड़ी हो गयी है ''। इनका तहे दिल से आभार । खुद को समाज का सम्माननीय नागरिक समझने की गलतफहमी से मुक्ति मिल गयी । 

'' खरीद तो लेते हैं सभी लेकिन चलाने की औकात हर किसी की नहीं होती ''। इनका भी शुक्रिया । इंसान को अपनी औकात जाननी हो तो कार ज़रूर खरीद लेनी चाहिए ।  

''चपरासी भी गाड़ी से चलते हैं आजकल ''। कार को वास्तविक रूप से समाजवाद स्थापित करने का आभार । 

'' पैसा बहुत है आजकल लोगों के पास, कहाँ फेंकू, कहाँ फेंकूं सोचते रहते हैं ''। कोटिशः धन्यवाद । हमें पैसे वाला समझ ही लिया गया आख़िरकार । 

''नई है या सेकेण्ड हैण्ड ?, आजकल अंदाज़ ही नहीं लगता''। ये भी खूब बात है । आए - दिन नई - नई कारें लांच करती कम्पनियाँ पता नहीं इसे सुनकर खुश होंगी या दुखी होंगी । 

'' हफ्ते में एक बार खड़े - खड़े स्टार्ट कर लेना वरना बैटरी खराब हो जाएगी ''। पड़ोसियों को हमारी नई गाड़ी की कितनी फ़िक्र है । कौन कहता है आजकल के पड़ोसी किसी के सुख - दुःख में काम नहीं आते ? 

यूँ कार क्यों खरीदी जाए इस पर भी व्यापक शोध की सम्भावना है । मेरे आस - पास देखते ही देखते सभी लोग कार वाले हो गए । जितनी कारें उससे ज़्यादा उसे खरीदने के कारण पैदा हो गए । सबके पास अपना अलग कारण । सबकी अपनी अलग ज़रूरतें । 

एक  ने कहा, ''बीमारी में अस्पताल जाने की सुविधा होती है ''।  

गौर से सोचा जाए तो इंसान की आधी बीमारियां भी कार पर सवार होकर ही आती हैं । पैदल चलना कम हो जाता है । इंसान हर वीकेंड पर बाहर खाने के लिए जाने लगता है ।  पाचन तंत्र धीरे- धीरे कमज़ोर पड़ने लगता है । कॉलेस्ट्रोल का स्तर नई उचाईयों पर पहुँच जाता है । पेट्रोल के नित्य घटते और बढ़ते हुए दामों से दिमाग में हर समय तनाव हावी रहने लगता है । हर आने - जाने वाले को उनके परिचितों से मिलवाने ले जाना और जाते समय उन्हें स्टेशन तक छोड़ना,  इन सबमें ब्लडप्रेशर और शुगर दोनों बढ़ जाते है । 

दूसरे ने कहा, ''सभी सदस्य एक साथ कहीं भी आ - जा सकते हैं ''। इस तर्क में दम लगता है । सभी का मतलब पति - पत्नी ,दो बच्चे और माँ या बाप में से कोई एक । कार में सीट तो पांच ही होती हैं ना । इनमे से चार तो स्कूटर में भी आ जाते थे । 

तीसरे के शब्द थे, '' शादी - ब्याह में जाना आसान होता है'' । 

यह कारण थोड़ा वाजिब जान पड़ा । कार में सवार होकर शादी जाने से साड़ी की क्रीज़ और मेकअप के खराब होने का खतरा नहीं रहता । शादी - ब्याह में जाने का आधा मूड तब चौपट हो जाता है जब वापिस लौटने के लिए रिक्शे ,टेम्पो या बस का इंतज़ार करना पड़ता है । खाना खाने में भी मन नहीं लगता और सारा समय नज़रें उन कार वालों के ऊपर जमी रहतीं हैं जिनका घर हमारे घर रास्ते में पड़ता है । जैसे ही वे बाहर निकलते हैं, हम भी उनकी कार के सामने जाकर खड़े हो जाते हैं और उन्हें देखकर खीसें निपोरने लगते हैं । मजबूरन उन्हें साथ चलने के लिए पूछना ही पड़ जाता है और फिर सारा रास्ता वे कार खरीदने की नसीहतें और कौन सा मॉडल खरीदें इसका सुझाव देते हुए काट देते हैं।  

चौथे ने थोड़ा सोचकर बताया, ''स्टैण्डर्ड मेंटेन करने के लिए ज़रूरी हो गया है आजकल''। 

पांचवे के विचार थे, ''दफ्तर या ऑफिस जाने में आसानी होती है''। 
 
जिस तरह सभी नदियां समुद्र में जाकर मिलती हैं उसी तरह गाड़ी खरीदने के सभी कारण एक ही जगह जाकर मिलते हैं, '' उसने भी खरीद ली, इसने भी खरीद ली, बस मैं ही रह गया । ये जो कल तक साइकिल से चलते थे सिर ऊपर नहीं उठाते थे, और आज जब कार में बैठे होते हैं तो कैसे घमंड से देखते हैं सड़क पर चलने वालों को । क्या मैं इन सबसे भी गया गुज़रा हूँ जो एक कार तक नहीं खरीद सकता ? लानत है मेरी नौकरी और क़र्ज़ लुटाते बैंकों पर ।  

कार खरीदना एक ऐसे लड़के के लिए लड़की देखने जाने जैसा होता है, जिसके पास न नौकरी हो न रहने की जगह हो, लेकिन शादी करने की प्रबल इच्छा हो । लड़के की इच्छा का सम्मान करना चाहिए ऐसा सोचकर जब लड़के के माँ - बाप उसकी शादी कर सकते हैं तो हम बिना पार्किंग, बिना पक्की सड़क, गेट या मोड़ने की सुविधा के बिना कार नहीं ले सकते क्या ? ऐसी ही विकट किन्तु ज़रूरी परिस्थितियों में हमारी गाड़ी भी आकर खड़ी हो गयी आँगन में, अपनी पूरी आन - बान -शान के साथ । इतने साल के इंतज़ार के बाद नई - नवेली दुल्हन की तरह शर्माती हुई खड़ी है । इसके स्वागत - सत्कार में कोई कमी नहीं रखी जाएगी, यह सोचकर सबसे पहले पिछली दीपावली से पूजा में रखा हुआ नारियल फोड़ा । आरती उतारी । सबसे नज़दीकी मंदिर में इस नई दुल्हन को ले गए । देश में जगह - जगह मंदिर होने का यह फायदा भी है कि गाड़ी को दूर नहीं ले जाना पड़ता अन्यथा पहले ही दिन पेट्रोल के दाम दिल में फंस कर रह जाते । यूँ अभी तक हमने पेट्रोल दामों से कोई सरोकार नहीं रखा था । वह तीन रूपये महंगा हो रहा है या दो रुपया सस्ता, हमारी सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता था । गाड़ी जो नहीं थी । अब जब गाड़ी आ गयी तो पेट्रोल के दाम के साथ अपनापा भी आ जाएगा । 

मंदिर के पुजारी ने राई -  मंतर करके नज़र उतारी । पता नहीं किसकी नज़र लगती ? मोहल्ले में सबसे बाद में तो हमारी आई । हमारे लाख आहें भरने के बावजूद हमारी नज़र तो आजतक किसी की गाड़ी पर नहीं लग पाई,  फिर भला हमारी सबसे सस्ती गाड़ी पर क्यों कोई अपनी नज़र लगाएगा ? भक्ति से भरे हुए वातावरण में ऐसे तुच्छ से प्रश्नों को दिल में ही जज़्ब कर जाना पड़ा ।    

सुई - धागे से सिलकर गाड़ी में नीबू मिर्च लटका दिए । घर में पड़े - पड़े सूख रहे थे और बाजार वाला महंगा बेच रहा था। ड्राइविंग सीट के सामने शीशे के ठीक नीचे एक छोटी सी घंटी लटका दी, जिसे मंदिर के पुजारी, जिनकी मंदिर के एक कोने में नाना प्रकार के धार्मिक एवं नज़र उतारू वस्तुओं की दुकान भी है, से कार की नज़र उतारने एवज़ में खरीदना पड़ा था । घंटी सामने लटकी हो तो हर मंदिर आने पर टन्न से बजाने में आसानी होती है, कई ड्राइवरों को मैंने ऐसा करते हुए देखा है । हिंदुस्तान में हर दस मिनट की दूरी पर एक मंदिर है अतः ड्राइवर का एक हाथ स्टेयरिंग में और दूसरा हाथ घंटी में रहता है । एक प्लास्टिक के हनुमान जी भी सामने गदा पकडे हुए लटका दिए । डैश बोर्ड पर प्लास्टर ऑफ़ पेरिस के शिवजी बैठा दिए । इतनी सिक्योरिटी जुटाने के बाद भारतीयों को ड्राइविंग सीखने की ज़रूरत ही क्या है ? 

यही मैंने समझाना चाहा पति महोदय को लेकिन उन्होंने समझने से बिलकुल इंकार कर दिया ।'' गाड़ी सीख लो, तुम्हें आसानी होगी'' ऐसा उन्होंने कहा । दरअसल मेरे गाड़ी सीखने से आसानी उन्हें होने वाली थी लेकिन ऐसा उन्होंने कहा नहीं, परन्तु मैंने समझ लिया । पति - पत्नी एक दूसरे के संवादों के बीच छिपे हुए अर्थ मन ही मन समझ जाते हैं । 

मैंने उन्हें विश्वास में लेने की बहुत कोशिश करी कि '' औरतें बड़ा सा काला चश्मा लगाए हुए पति की बगल में बैठी हुई ही अच्छी लगतीं हैं । ये धूप भी कितनी कमाल की होती है जो गाड़ी चलाने वाले पति की आँखों में नहीं लगती बल्कि बगल में बैठी पत्नी को लगती है जिस कारण वे बड़े - बड़े गॉगल्स लगाने पर मजबूर हो जाती हैं । कितने खुश दिखते हैं सारे पति अपनी - अपनी पत्नियों को गाड़ी में बैठा कर दुनिया भर की सैर कराते हुए । रास्ते भर वो मुझे सड़क पर गाड़ी चलाती हुई महिलाएं दिखा रहे थे और मैं उन्हें पति के बगल में बैठी हुई महिलाओं को । निगाहों में फर्क शायद इसी को कहते हैं । मुझे सड़क पर गाड़ी चलते हुए सभी पुरुष नज़र आ रहे थे उन्हें केवल स्त्रियां ही दिख रहीं थीं । 

 मेरे सारे तर्कों को उन्होंने वही घिसी - पिटी सालों से चली आ रही पंक्तियों से काटने की कोशिश की,  ''आजकल की औरतें हवाई जहाज चला रहीं हैं और तुम कार तक नहीं सीखना चाह रही हो ''। 
 मैंने भरपूर प्रतिरोध किया, '' हवाई जहाज तो मैं भी चला लूंगी लेकिन इस शहर की सड़कों पर गाड़ी चलाना कितना मुश्किल है, जहाँ न सड़कें हैं, न ट्रैफिक के नियम हैं और न उन नियमों को मानने वाले हैं । हवाई जहाज चलाने वाली महिलाऐं ज़रा यहाँ की सड़क पर चला कर दिखाएँ'' । ये निशाना नहीं लगा तो उन्होंने दूसरा पासा फेंका । बड़ी चालाकी से गाड़ी चलाने को उन्होंने महिलाओं के आत्मसम्मान और आज़ादी से जोड़ दिया । मैंने दबे स्वरों में कई बार कहा '' मेरे लिए मेरी स्कूटी से ही पर्याप्त आत्मसम्मान की सप्लाई हो जाती है और आज़ादी का मतलब विचारों की आज़ादी होना चाहिए न कि गाड़ी चलाने की आज़ादी । मेरे सारे तर्क हमेशा की तरह उनकी निगाह में खोखले सिद्ध हुए और इतवार का दिन मुझे ड्राइविंग सिखाने के लिए मुक़र्रर कर दिया गया । बालों में मेहंदी लगाने वाला अनमोल समय समय ड्राइविंग जैसी फालतू चीज़ पर कुर्बान करने का मुझे बहुत अफ़सोस हुआ । लेकिन कुछ नहीं किया जा सका । उन्हें मेरे बालों की सफेदी मंज़ूर थी लेकिन ड्राइविंग सीखना टालना नामंज़ूर । सुबह - सुबह चल पड़े हम खाली सड़क पर । अपने कई मित्रों को ड्राइविंग सिखाने वाले और उसकी शान बघारने वाले पति की उम्मीदें तब धाराशाही हो गईं जब दिन समाप्ति कगार पर आ गया और मुझे क्लच क्या है ? गेयर , ब्रेक और एक्सीलेटर कौन से हैं यही समझ में नहीं आए । उन्होंने मुझसे कहा सिंपल सा फार्मूला है ----A  फॉर एक्सीलेटर B फॉर ब्रेक C फॉर क्लच याद रखना है बस । उन्होंने कह दिया बस लेकिन उन्हें नहीं पता कि शिक्षा में यही सबसे मुश्किल होता है। इसे ही सिखाने में टीचर्स को नानी याद आ जाती है । जब हमारे विभागीय अधिकारी ही ये बात समझ नहीं पाते तो  पतिदेव को कहाँ से समझ में आता । उन्हें बार - बार यह  महसूस हो रहा था कि मैं उन्हें परेशान करने के लिए ऐसा अभिनय कर रही हूँ । हम दोनों एक दूसरे को अपनी तकलीफ नहीं समझा पा रहे थे । यूँ शादी के महीने भर बाद वे यह मानने लगे थे कि उपरवाले ने मेरा निर्माण उन्हें तकलीफ देने के लिए ही किया है । कार सिखाने की इस घटना के बाद से उपरवाले पर उनका रहा - सहा विश्वास भी जाता रहा । 

एक हफ्ते तक लगातार मेरे पीछे माथा पच्ची करने के बाद जैसे मैं अपने स्कूल में बच्चों के आगे हार मान लेती हूँ कि 'तुम्हें कोई कुछ नहीं सिखा सकता' उसी तरह ''औरतों को दुनिया की कोई ताकत ड्राइविंग नहीं सिखा सकती'' कहकर उन्होंने भी आखिरकार हार मान ली । '' बेचारे बच्चे '' मेरे द्वारा रोज़ डांट - फटकार खाते उन बच्चों के साथ मुझे अचानक से बहुत सहानुभूति हो गयी । खुद मुझे ही विश्वास नहीं हो पा रहा था कि ये मैं ही हूँ क्या ? सुबह चार बजे उठने के बाद से एक हाथ से  रोटी बनाकर दूसरे हाथ से चाय बनाती हूँ । फिर एक हाथ से अपना और बच्चों का नाश्ता पैक करती हूँ दूसरे हाथ से बच्चों पानी की बोतलें भर कर रखती हूँ । इसी दौरान पानी गर्म करना और बच्चों के कपड़े निकालकर बिस्तर पर रखना भी चलता रहता है । 

एक हफ्ते की घनघोर मशक्क़त के बाद भी कार के साथ मेरी कुंडली मेल नहीं खा पा रही थी । राहु, केतु और शनि मानो क्लच, एक्सीलेटर और गेयर का रूप बदलकर मेरी कुंडली में कुंडली जमा कर बैठ गए थे । 

वे मानें या न मानें लेकिन कार सीखने की मैंने भरपूर कोशिश की । सपने में भी मैं खुद को स्टीयरिंग थामे देखती थी । रात भर पैर कवायद करते रहते थे कभी ब्रेक कभी एक्सीलेटर आँखों के सामने नाचते रहते । उन दिनों मैं सोचती थी कि सरकार ऐसे लोगों को अर्जुन पुरस्कार क्यों नहीं प्रदान करती है जो कार चलाते हुए मोबाइल में बात भी करते जाते हैं, सिगरेट सुलगा लेते हैं , दारु पी लेते हैं, और भी पता नहीं क्या - क्या कर लेते हैं ।  

बहुत सोच - विचार कर मेरे लिए ड्राइविंग स्कूल में सीखने की व्यवस्था की गयी । इसके लिए भारत में सबसे ज़्यादा कारें बेचने वाली कंपनी की सेवाएं ली गईं । कंपनी का  कर्मचारी बिलकुल सरकारी कर्मचारी  के सदृश्य मेहनतकश निकला । पहले दिन ही उसने जान लिया कि मैं सरकारी नौकरी में हूँ । आम भारतीय की तरह उसके भी दिमाग में यह बात आ गयी कि मेरे पास बोरों में भरकर रुपया - पैसा रखा हुआ है । दूसरे दिन उसने मेरे घर  का पता पूछा और तीसरे दिन वह सुबह - सुबह अत्यंत आवश्यक कार्य लिए मुझसे दो हज़ार रूपये उधार मांग कर ले गया कि दो - चार दिन में वापिस कर देगा । ''अभी नहीं है'' कहने में संकोच हुआ कि कहीं वह यह न समझे कि मेरी कमाई पर मेरा इतना भी हक़ नहीं है।  अतः दो हज़ार रूपये मन मारकर देने पड़े । दो - चार दिन गुज़र गए । इन दो - चार दिनों में ड्राइविंग सीट पर मैं अब थोड़ा - थोड़ा सहज महसूस करने लग गयी थी । असहजता मुझे तब महसूस होने लगी जब प्रशिक्षण अवधि ख़त्म होने में एक - दो दिन ही बाकी रह गए । मैं इंतज़ार करती रह गयी पर उसने रूपये लौटाने का नाम नहीं लिया । एक - दो बार याद दिलाने पर उसने इतनी बार सॉरी - सॉरी का पाठ किया कि मुझे अपनी क्षुद्रता पर शर्म आने लगी । उसने वादा किया कि वह स्वयं आकर दे जाएगा और मुझे तकलीफ नहीं होने देगा । 

प्रशिक्षण असफलतापूर्वक ख़त्म हो गया । असफलतापूर्वक इसलिए क्यूंकि उसने उन निर्जन स्थानों पर ड्राइविंग का अभ्यास करवाया जहाँ परिंदा भी पर नहीं मार सकता था । मैंने बार - बार उससे भीड़ वाली सड़क पर सिखाने की ज़िद की लेकिन उसने अनसुना कर दिया । उसके पैर में भी ब्रेक और क्लच होने के कारण आख़िरी दिन तक मुझे पता नहीं चल पाया कि मैं कितने पानी में हूँ । प्रशिक्षण ख़त्म होने के दिन पति बहुत खुश हो गए कि अब उन्हें मेरा ड्राइवर नहीं बनना पड़ेगा,  जिसका कि डर उन्हें शादी की शुरुआत से ही था । पता नहीं हम औरतों को कभी यह डर क्यों नहीं लगता कि हम शादी के बाद किसी के घर की नौकरानी बनकर रह जाएँगी ? हम घर की मालकिन होने के झूठे एहसास को पकड़ कर सारी उम्र काट लेती हैं । पतिदेव इतने खुश हो गए कि तुरंत गाड़ी बाहर निकाल कर मेरी परीक्षा लेने लगे । मैं भी ताज़ा प्रशिक्षण प्राप्त किये होने के कारण आत्मविश्वास से लबालब होकर ड्राइविंग सीट पर बैठ गयी । जैसे ही गाड़ी स्टार्ट करनी चाही वह इतनी ज़ोर से झटके के साथ आगे बढ़ गयी कि मैं सब भूल गयी , कहाँ ब्रेक हैं, कहाँ हॉर्न है, और फिर मुझे अपनी ज़ोर की चीख के साथ धड़ाम की आवाज़ सुनाई दी । उसके बाद पांच हज़ार प्रशिक्षण की फीस और पंद्रह हज़ार गाड़ी बनवाने के । यह आत्मविश्वास दिखाना मुझे कुल जमा बाईस हज़ार रुपयों में पड़ा । दो हज़ार उधार दिए भी इसमें जोड़ देना पड़ा क्यूंकि प्रशिक्षण देने वाले ने मुझे वाकई तकलीफ नहीं दी,  उस दिन के बाद से उसका सिम बदल जो गया था । ऑफिस जाकर पता चला कि यह उसका अंतिम बैच था और अब वह दिल्ली के किसी अमीर आदमी को अपनी सेवाएं देगा । मैं खिसियाई हंसी हंस कर रह गयी जब वहां  रिसेप्शनिस्ट ने पूछा '' वह आपसे भी पैसे ले गया क्या ''?

बाईस हज़ार के नुकसान से से उतनी तकलीफ नहीं हुयी जितनी यह सुनकर हुई,'' तुम औरतें बस बेलन और करछी पकड़ने के लायक हो ''। ऐसा कुछ मुझे सुनाई दिया लेकिन उन्होंने ऐसा बिलकुल भी नहीं कहा नहीं कहा, ऐसा वे दावे के साथ कई दिन तक दोहराते रहे  । 

यह झटका वाकई बड़ा था । शारीरिक और आर्थिक दोनों प्रकार की हानि की आशंका के मद्देनज़र दोबारा स्टीयरिंग पकड़ने का साहस नहीं हुआ । महीने भर की शान्ति रही । मैं निश्चिन्त हो गयी थी । मेरी निश्चिंतता देखकर पति महोदय परेशान हो गए । बार - बार मेरे आगे वह शेर दोहराने लगते , '' गिरते हैं शहसवार ही मैदान - ए - जंग में, वो तिफ़्ल क्या गिरे जो घुटनों के बल चले ''। मुझे शहसवार बनने की तनिक भी इच्छा नहीं है, मुझे तिफ़्ल ही रहने दिया जाए, मैंने साफ़ - साफ़ कहा । बहुत दिनों के बाद लम्बी शान्ति जो मिली थी ।  किसे पता था कि वह तूफ़ान के आने से पहले की शाांति थी । 

फिर एक दिन दरवाज़े की घंटी बजी और ड्राइविंग को ज़िंदगी के अनिवार्य पाठ्यक्रम का दर्जा देते हुए मुझसे बिना पूछे मुझे दूसरे ड्राइविंग स्कूल वाले की शरण में डाल दिया गया । 

दूसरे ड्राइविंग स्कूल वाले ने मुझे गाड़ी सहजतापूर्वक चलाने के कुछ नुस्खे बताए जिन्हें आप सब को बताना मैं अपना कर्तव्य समझती हूँ --------

''एक्सीडेंट से कभी डरना नहीं चाहिए, गाड़ी चलाते समय बेधड़क होकर रहना चाहिए । यूँ समझना चाहिए कि सड़क अपने बाप ने बनवाई है और बाकी लोग इस पर आपकी दरियादिली  के कारण चल रहे हैं '' । 

''जानवरों की वजह से कभी गाड़ी की स्पीड काम नहीं करनी चाहिए । जिस दिन आपकी गाड़ी के नीचे पहला कुत्ता आके मर गया, समझो आपको गाड़ी चलानी आ गयी । कुत्ते गाड़ियों के  लिए नारियल के सामान होते हैं । पहिये के नीचे इनका सर आते ही समझो शगुन हो गया और पहली बाधा पार हो गयी । आपके दिल में जो डर बैठा हुआ है वह भी इसी से जाएगा ''। 

''औरतें अगर गाली देना सीख जाएं तो देखना चुटकियों में गाड़ी सीख सकती हैं । गलती चाहे अपनी हो लेकिन अगर आपको धुँवाधार, धाराप्रवाह घनघोर किस्म की गालियां देना आता हो तो कोई आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकता । पुरुषों को देखा है कितनी जल्दी सीख लेते हैं । मैं तो कहता हूँ कि गाड़ी खरीदने से पहले हर महिला के पास गालियों का भरपूर भण्डार होना चाहिए । गालियां सीट बेल्ट से ज़्यादा महत्वपूर्ण होती हैं । सीट बेल्ट आपको मात्र दुर्घटना से बचाने में सहायक होती है, जबकि गालियां आपको दुर्घटना होने बाद होने वाले लड़ाई - झगडे और मुआवज़े की रकम बचाने में सहायक सिद्ध होती हैं''।  

'' सड़क पर गाड़ी हमेशा यह सोचकर उतारनी चाहिए की हम गाड़ी चलाने लिए ही सड़क पर आए हैं, हमारे पास ब्रेक नहीं है । ब्रेक नाम की चीज़ अगले के पास हैं । रोकनी होगी तो अगला रोकेगा, हम क्यों रोकें'' ? 

''दुर्घटनाएं हमेशा सामने वाले की गलतियों की वजह से होतीं हैं । यह सामने वाला ही होता है जिसके ऊपर आप जैसे नौसिखियों की गलती माफ़ करने की और उन्हें जगह देने की ज़िम्मेदारी होती है'' ।     

'' गाड़ी पर खरोंच मतलब आपकी त्वचा पर खरोंच । गाड़ी पर निशान माने आपके अपने शरीर पर निशान । गाड़ी पर ज़रा से आघात को सीधे - सीधे दिल का आघात मानना चाहिए । पहले सड़क पर जम कर तमाशा करें । तमाशे से मन नहीं भरे तो पुलिस को बुलाने की धमकी देनी चाहिए । घबरा कर वह आपका मुंहमांगा मुआवज़ा देने को तैयार हो जाएगा । पांच सौ रूपये  के नुकसान के लिए सीधे पांच हज़ार मुआवज़ा मांगने में ज़ुबान ज़रा भी लटपटानी नहीं चाहिए । 
'' ओवरटेक करने में इतनी उतावली दिखानी चाहिए जैसे कि स्टेशन में ट्रेन सीटी बजा कर आपको बुला रही हो या आपकी फ़्लाइट उड़ान भरने के लिए आपका इंतज़ार कर रही हो । पास लेने की जगह हो न हो आप हॉर्न बजाते रहिये । आस - पास के लोग लगातार पीं - पीं -पीं  की कर्कश आवाज़ से तंग आकर किनारे हो जाएंगे, और आप आसानी से आगे निकल जाते हैं ''।  

साथियों , गाड़ी सीखना आपके अनुभवों को नया विस्तार देता है,  खासतौर से अगर आप महिला हैं तो अनुभवों की बाढ़ सी आ जाती है । रास्ते चलते कई तरह की बातें, कानों में यहाँ - वहाँ, कई - कई दिशाओं से आती रहती हैं । मसलन -

''ज़रूर कोई लेडीज़ होगी, ऐसी स्पीड में लेडीज़ ही चला सकती हैं 

''चींटी जैसी चाल, न पास देंगी, न आगे ही जाएंगी''।  

''कछुआ भी इनसे तेज़ चलता है'' । 

''आप अभी तक नहीं सीख पाई, हद हो गयी''। 

इस तरह के वातावरण में, मैं या कोई अन्य महिला गाड़ी कैसे सीख सकती है बताइये ? 





 

  

मंगलवार, 29 जुलाई 2014

देश में रेप से परे भी कई घटनाएं होतीं हैं।

रेप से परे कितना कुछ घट रहा है इस दुनिया में। हम हैं कि सिर्फ रेप की ख़बरों पर नज़र जमाए रहते हैं। सही कहना है मंत्री महोदय का, '' रेप के अलावा और कोई खबर नहीं है क्या''। चलिए देखते हैं कुछ और ख़बर, डालते हैं सुर्ख़ियों पर एक नज़र।     

खबर, सब की सब बेहतरीन हैं । एकदम ताज़ा तरीन है। 

आज ही बिलकुल आज ही-------- 

बस स्टेशन से एक किशोरी बरामद हुई। एंटी ह्यूमन ट्रेफिकिंग सेल के खाते में एक और सफलता दर्ज़ हुई। इस राज्य से उस राज्य तक फल - फूल रही है मानव तस्करी। बीस, तीस से लेकर चालीस हज़ार तक में सौदा कर रहे हैं माँ - बाप। अब सबकी गरीबी दूर हो जाएगी। लडकियां तो और पैदा जाएँगी। अधेड़ और विधुर बेकरार हैं दूल्हे बनने के लिए। तुल रहीं हैं चुपचाप लडकियां, जैसे तुलती हैं मुर्गियां कटने से पहले। बिक रहीें हैं चुपचाप लड़कियां, जैसे कटने के लिए बिकती है गाय। गिद्ध की नज़र लिए, बाज़ सी झपट लिए शहर, गाँव, देहात सक्रिय हैं बिचौलियों के गिरोह के गिरोह। 
         
पिछले छह महीनों के दौरान तकरीबन रोज़ ही बरामद हो रही है एक लड़की। 
 

आज ही बिलकुल आज ही -------

शहर के बिल्कुल बीचों - बीच, पॉश इलाके में कुछ समय से चल रहे हाई प्रोफाइल सैक्स रैकेट का भंडाफोड़। लडकियां बरामद हुई पाँच। पाँचों की उम्र कम है चौदह से सोलह साल के बीच। गिरोह में शामिल हुईं थीं चार लडकियां गरीबी की मार से, और एक अपनी लाइफ - स्टाइल मेंटेन करने की चाह से। पकड़ी गयी लड़कियों ने शर्म से, चेहरे ढक रखे हैं अपने - अपने दुपट्टों से। संचालिका के पास से मिले कई सफेदपोशों के फोन न. और पते। इन पतों को हमेशा की तरह गोपनीय रखा जाएगा और बरामद लड़कियों को सदा की तरह हवालात में रखा जाएगा।  

पिछले छह महीनों के दौरान पकड़ा जाने वाला यह आठवाँ रैकेट है।  
 

आज ही बिलकुल आज ही ----------

एक पंद्रह वर्षीया लड़की ने दुष्कर्म का आरोप लगाया, अपने ही सगे फूफा पर। उम्र में फूफा, बाप से भी बड़ा था। 'सबको दिखा दूंगा क्लिपिंग' कहकर धमकाता था। बेधड़क होकर घर में आता - जाता था। चुप थी वह पिछले दो साल से बदनामी के डर से। बात खुल गयी, जब वह गर्भवती हो गयी। आखिरकार फूफा को हथकड़ी लग गयी। फूफा का आरोपों से पूर्णतः इंकार। आपसी सहमति को बताया संबंधों का आधार। जनता का यह मानना है कि मामला काफ़ी संदिग्ध है। इतने साल चुप रही है लड़की। इसके पीछे ज़रूर कोई न कोई रहस्य है।  

पिछले छह महीनों के दौरान घरेलू रिश्तेदारों द्वारा दुष्कर्म की शिकायत दर्ज होने वाला यह पच्चीसवां मामला है। 


आज ही बिल्कुल आज ही ------------

एक नवजात कन्या का शव कूड़े के ढेर से बरामद हुआ। मंडरा रहे थे लाश पर कव्वे। खींचकर ले जा रहे थे कुत्ते। सुगबुगाहट है जनता के मध्य। यह किसी कुंवारी कन्या की अवैध संतान है या पुत्र पाने की लालसा का परिणाम है। मार कर फेंक दिया होगा या फेंक दिया होगा तब मर गयी। अलग - अलग लग रहे हैं कयास।बहरहाल इसे फेंकने वाले की जारी है तलाश।   

पिछले छह महीनों के दौरान का जानवरों द्वारा खींचा जाने वाला नवजात कन्या का यह नवां शव है। 

 
आज ही बिल्कुल आज ही ------------

एक विवाहिता का शव पंखे से लटका मिला। दो मासूम बच्चों को बिलखता छोड़ गयी। मरने से पहले एक चिट्ठी लिख गयी 'मेरी मौत का किसी को ज़िम्मेदार न ठहराया जाए, किसी को परेशान बिला वजह न किया जाए। रिश्तेदारों ने बताया लव मैरिज हुई थी। साथ जीने और साथ मरने की कसमें हुईं थीं। दो ही साल में क्या हुआ दोनों के बीच, कोई नहीं जानता। 'क्या वजह रही होगी मरने की ? मासूम बच्चों को अकेला छोड़ने की? लव मेरिज का अंजाम आखिर में यही होता है'। फंदे पर झूलती औरत को देख आँखें बंद कर रहे हैं। सब आपस में बातें कर रहे हैं। 'आजकल औरतों को मरने की बीमारी है'। इस पूरे मामले की भी तफ्तीश जारी है।   
     
पिछले छह महीनों के दौरान विवाहिताओं के द्वारा स्वेच्छा से की जाने वाली आत्महत्या की यह पंद्रहवीं घटना है।  


आज ही बिल्कुल आज ही ------------

एक मनचला रोज़ पीछा करता था उसका। तरह - तरह से परेशान करता था। रास्ते से चलना हराम कर देता था। परेशान होकर लड़की ने आखिर दे दिया जवाब, 'मेरा पीछा करना बेकार है, मुझे किसी और से प्यार है'। आशिक झल्ला गया । एकदम से पगला गया। गुस्से का पारावार नहीं रहा। लाया तेज़ाब खरीद कर। पूरी की पूरी बोतल उलट दी, सरे - राह चेहरे पर। बोला, 'ले ! अब बैठी रह जला और गला हुआ चेहरा लेकर। मुझको  'ना' बोलने वाली, अब भुगत उमर भर'। 

पिछले छह महीनों के दौरान तेजाबी हमलों से चेहरा, जिस्म और आत्मा के झुलसने का यह ग्यारहवां मामला है। 


आज ही बिलकुल आज ही ------------

एक लड़की ने प्यार करने की बड़ी भारी कीमत चुकाई। खाप  - पंचायत ने सजा सुनाई। मार कर फांसी पर लटका दिया। मामले को आत्महत्या ठहरा दिया। पंचायतें आने वाली पीढ़ी को प्यार करने से बचाएंगी। इनके कंधे पर बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी है। दोस्ती, प्रेम और प्यार से निपटने की इनकी पूरी तैयारी है। हर प्यार करने वाले को ऐसे ही सबक सिखाएंगी। प्यार करने से पहले लड़के - लडकियां फांसी पर झूलते हुए शव को याद करेंगे। ये पंच, ये परमेश्वर, प्यार को एक दिन दुनिया से खत्म कर देंगे।  

पिछले छह  महीनों के दौरान प्यार करने की कीमत जान देकर चुकाने वाली यह सातवीं लड़की है।    


आज ही बिल्कुल आज ही ---------------

तीन औरतों को सज़ा दी गयी। बच्चों की हो रही मौतों का ज़िम्मेदार ठहराया गया। उन पर शक था कि वे टोना - टोटका करती हैं, मासूम बच्चों की जान लेती हैं। पहले उन्हें खंभे से बांधा गया। मारा गया। पीटा गया। काट दिए उनके बाल। बुरा कर दिया हाल। फिर भी भर नहीं सका मन। तब क्या किया जाए? कैसे सज़ा पूरी की जाए? प्रश्न यह सबके आगे खड़ा था।  मिलजुल कर किया विमर्श। सलाह, मशविरा और परामर्श। एक उपाय सबके मन को भा गया। तीनों को निर्वस्त्र किया गया। सबने देखा तमाशा। बच्चे - बूढ़े, जवान। ताली बजा रहे थे हुक्मरान। वे चीखती रहीं, रोती रहीं। सबके पाँव पड़ती रहीं। गाँव - गाँव इन्हें घुमाया गया। सबको इन जादूगरनियों का अंजाम दिखाया गया।       

पिछले छह महीने में औरतों को निर्वस्त्र करके घुमाए जाने की यह बारहवीं घटना है।        
     

होती हैं साहब बिल्कुल होती हैं। देश में रेप से परे भी कई घटनाएं होतीं हैं।         
          

रविवार, 20 जुलाई 2014

कज़िन के बहाने ……

इन दिनों अजीबो - गरीब घटनाएं हो रही हैं। समझ में नहीं आ रहा है कि ये क्या घाल - मेल चल रहा है ? होना कुछ चाहिए और हो कुछ और रहा है। देश में चोरी की एक अजीबो - गरीब घटना हुई। इससे पुलिस और चोर दोनों के चरित्र  संदेह के घेरे में आ गए। चोरी की रिपोर्ट लिखवाने वाले के चरित्र का विश्लेषण अभी जारी है।  

यह बात ही कुछ ख़ास है। देश में एक आदमी हैं। पहले वे आम आदमी होते थे, अब वे ख़ास हो गए हैं। उनके घर चोरी हुई। उन्होंने पचास हज़ार चोरी की रिपोर्ट लिखवाई। पुलिस ने बरामद किये डेढ़ करोड़। देशवासी समझ नहीं पा रहे कि उन पुलिस वालों को सजा मिलनी चाहिए या ईनाम। चोरों को भी पता नहीं था कि वे अब आम नहीं रहे, अन्यथा वे उनके घर चोरी करने का रिस्क नहीं लेते। 

वे कहते हैं बरामद रुपया उनका नहीं, उनके 'कज़िन' का है। उन्होंने गलती से भी 'भाई' नहीं कहा। भाई कहने में खतरा ही खतरा  है। भाई शब्द बड़ा भारी होता है इसका वजन संभाल पाना हर किसी के बस की बात नहीं होती। अगर उन्होंने बरामद रुपया 'भाई का है' कहा होता तो भाई मीडिया के चैनलों से भी तेज गति से आता और तुरंत उन बरामद हुए रुपयों पर अपना हक़ जताने लगता। इंकार करने पर केस दर्ज करवा देता और भाई की बाकी जायदाद पर भी अपना दावा पेश कर देता। 

वह तो शुक्र है कि ऐन मौके पर कज़िन ने बात संभाल ली। ऐसे ही होते हैं कज़िन। रक्षक, संकटमोचक, विघ्नहर्ता जैसे। अँग्रेज़ों ने  कितने सुन्दर, संक्षिप्त और अत्यंत सुविधाजनक शब्द 'सॉरी' और 'कज़िन' हमारे शब्दकोष को प्रदान किये। इन दो सुन्दर शब्दों के लिए हम अंग्रेज़ों का एहसान कभी नहीं चुका पाएंगे। हिन्दी के सौ शब्द मिलकर भी इन दो शब्दों की महत्ता का मुकाबला नहीं कर सकते।

आम आदमी के घर में चोरी होती है। अव्वल तो वह रिपोर्ट लिखवाता ही नहीं है। अगर लिखवाता भी है तो डेढ़ छदाम तक पाने की उम्मीद नहीं रखता। चोरी का शोक मनाने के लिए आने वाले ज्ञानी लोग सांत्वना के रूप में मुंह से पहला शब्द ही यही निकालते हैं, ''कोई फायदा नहीं रिपोर्ट लिखवाने का, आज तक किसी का कुछ वापिस नहीं मिला।'' तमाम लोगों के चोरी और उसके उपरान्त होने वाली पुलिसिया कार्यवाही से सम्बंधित एक से बढ़कर एक अनुभवों का लाभ उठाते हुए वह रिपोर्ट लिखवाने को मात्र एक रस्म की तरह लेता है और चोरी होने के दो दिन बाद थाने जाकर इस रस्म का निर्वाह करता है।      
    
इतनी बड़ी दुनिया है। अरबों लोग इस दुनिया में निवास करते हैं। इस दुनिया में कोई न कोई कहीं न कहीं किसी न किसी का कज़िन है। मुझे याद है अपना ज़माना। अब मेरी इतनी उम्र चुकी है कि मैं ''हमारे ज़माने में'' नामक मन्त्र का दिन में कई बार पाठ कर सकती हूँ। उस ज़माने में मेरी कई दोस्तों के कज़िन हुए करते थे। कुछ एक दोस्तों के एक - आध ही कज़िन हुआ करते थे। कुछ के कई - कई कज़िन होते थे। किसी का हर हफ्ते एक नया कज़िन बनता था। ऐसा नहीं था कि उनके अपने भाई नहीं होते थे। भाई भी होते थे और कई होते थे। भाइयों के होने के बावजूद भी उनके कज़िन होते थे। जिनके सगे भाई नहीं होते थे, उन्हें कज़िन बनाने का परमिट खुद - ब - खुद मिल जाता था। वे जिसको चाहें, खुलेआम कज़िन बना सकती थीें।      

इन कज़िन्स के साथ वे दुनिया भर सारे लुत्फ़ उठाया करतीं थीं। वे बेधड़क होकर शान से बाइक में उस कज़िन की कमर को कस कर पकड़ कर शहर भर में घूमा करतीं थीं। महंगे से महंगे होटलों में खाना खाया करतीं थीं। कीमती तोहफे लिया करतीं थीं। फिल्म देखतीं थीं। अगर किसी परिचित ने देख लिया तो बड़ी शान से कहती थीं, 'मेरा कज़िन है'। तब ज़माना लाज का था, शर्म का था, शिष्टाचार का था, संकोच का था। खुलकर 'बॉयफ्रेंड' या 'लवर' कहने का रिवाज़ नहीं था। 'कज़िन है' कह देने भर से काम बन जाया करता था और घर तक एक लड़के के साथ घूमने - फ़िरने की सनसनीखेज ख़बर नहीं पहुँच पाती थी। कोई नहीं पूछता था, 'कैसा कज़िन है' या 'किसका बेटा है, चाचा का, मामा का, मौसी का, ताऊ का या बुआ का'?।लड़कियों के मन में भी किसी क़िस्म का संकोच नहीं होता था। भाई, भाई होता है और कज़िन, कज़िन होता है। दोनों शब्द एक जैसे भी हैं और अलग - अलग भी। अगर भविष्य में सब कुछ ठीक - ठाक रहता था तो इन्हीं कज़िन्स से शादी भी हो जाया करती थी। मुझे बाद में ऐसे कई कज़िन्स की शादी में जाने का सुअवसर भी प्राप्त हुआ। 

एक तरफ ऐसे सुविधाजनक कज़िन होते हैं और एक तरफ सगा भाई होता है। यह सगा भाई अगर ज़्यादा ही सगा निकल जाए तो कज़िन होने की संभावनाऐं ख़त्म हो जाती हैं। सगा भाई नाम का यह प्राणी ज़रा दूसरे ही किस्म का हुआ करता है। वह एक साथ कई - कई विशेषताएं लिए होता है। अपनी बहनों को वह छोटे और स्मार्ट कपड़े पहनने से मना कर देता है। वह नहीं चाहता कि उसकी बहन स्मार्ट दिखे या आधुनिक कहलाए। स्टाइलिश और लेटेस्ट फैशन के बालों की कटिंग देखकर उसका खून खौल जाता है। चोरी - छिपे फोन की कॉल डिटेल और मैसेज चेक करता है। हर हफ़्ते फेसबुक का पासवर्ड तोड़ने का प्रयास करता है। फ़र्ज़ी आई. डी. बनाकर अपनी ही बहन से चैटिंग करता है। पक्की सहेली की शादी में भी रात को में नहीं जाने देता। 'बॉय फ्रेंड' शब्द सुनते ही उसे बिजली का नंगा तार छू जाता है। स्कूल, कॉलेज से आने में एक मिनट की देर हो जाए तो खुद ही क्लास देखने चला आता है।  

यह सगा भाई जासूस, शक्की, गुस्सैल, खूसट होने साथ - साथ अपने दोस्तों की एक गुप्तचर संस्था का सदस्य होता है। यह संस्था एक -  दूसरे की बहनों की निगरानी में चौबीसों घंटे मुस्तैद रहती है। संस्था के ये समर्पित सदस्य छोटी से छोटी जानकारी भी साझा करते हैं। आज 'क' की बहन उस लड़के के साथ कॉलेज जा रही थी या आज 'ख' की बहन फ़ोन पर न जाने किससे घंटों बातें कर रही थी। देश में आज जितनी भी बची - खुची अरेंज मैरिज हो रही हैं, सब इस तरह के सगे भाइयों की वजह से संभव हो रहीं हैं।    

इसे दुर्भाग्य मानूं या सौभाग्य कि ऊपर की पंक्तियों में वर्णित कज़िन्स के बारे में हमारे भाई का सामान्य ज्ञान काफी उत्तम प्रकार का था। इसके अलावा किसी लड़की का कज़िन बनने की खासियत उसके अंदर बचपन से ही नहीं थी। यही कारण था कि उसने हमें भी किसी की कज़िन बनने का सुअवसर नहीं  दिया। बदले की इस भावना से न उसका भला हुआ न हमारा। माता - पिता के कई साल हम बहनों के लिए ढंग का लड़का और उसके लिए ढंग की लड़की ढूंढने में बर्बाद हो गए। इतने प्रयास करने और जूते चटखाने के बाद भी यह 'ढंग का' शब्द हमारे माता - पिता की डिक्शनरी में दर्ज़ नहीं हो पाया।  
                     

सोमवार, 7 जुलाई 2014

महिलाएं, चुनाव और ग्राम पंचायतें

भारत को निःसंकोच चुनावों का देश कहा जा सकता है। एक चुनाव ख़त्म होता नहीं है कि दूसरा आ जाता है। अभी महीने-दो-महीने पहले ही लोकसभा के चुनाव संपन्न हुए थे, अब पंचायतों के चुनाव आ खड़े हुए हैं। प्रत्याशी एक साल चुनाव लड़ने में और बाकी के चार साल उसकी तैयारी करने में व्यस्त रहते हैं।

 

ग्राम पंचायतों के चुनाव छोटे स्तर पर ज़रूर होते हैं लेकिन इनमें लोकसभा या विधानसभा के चुनावों से कम रोमांच नहीं होता। यह चुनाव बड़े ही दिलचस्प होते हैं, जिनमें एक-एक वोट की कीमत होती है, हर वोटर अनमोल होता है, हर वोट ज़रूरी होता है। मतदाता ख़ुद को एक दिन का राजा समझने लगता है। एक दिन का राजा या तो वह अपनी शादी वाले दिन होता है या फिर इस मतदान वाले दिन। उसे गाड़ी भेजकर सम्मान-सहित मतदान स्थल तक लाया और वापस घर भी पहुँचाया जाता है। मतदान वाला दिन भी शादी वाले दिन की तरह ख़ास होता है। मतदाता रूपी दूल्हा किसी भी प्रकार का बहाना बना कर घर में नहीं बैठ सकता। एक वोट, मात्र एक वोट, से हार-जीत के फैसले हो जाते हैं, जिस स्थिति में लॉटरी से विजेता का चुनाव किया जाता है। एक वोट से हारने वाला अपनी हार को स्वीकार नहीं कर पाता।  भला एक वोट से कोई हारता है क्या? जब तक मतदान-कर्मी झल्ला न जाएं तब तक वह बार-बार मतगणना करवाता रहता है। कई बार चुनाव भी मैच की तरह ड्रॉ हो जाता है। ड्रॉ के द्वारा हारने वाला अपनी हार को मरते दम तक पचा नहीं पाता और अगले चुनाव तक हर जान - पहचान वाले के आगे उस एक मनहूस वोट की माला जपता रहता है। दूसरी तरफ जीतने वाला अपनी जीत को लेकर हमेशा सशंकित रहता है कि पता नहीं कब यह जीत, हार में बदल जाए ।

 

गांवों में चुनावों की सुगबुगाहट होते ही प्रत्याशियों द्वारा महानगरों में रहने वाले अपने सभी नातेदारों और रिश्तेदारों से संपर्क साधा जाता है। महीनों पहले वोट डालने ज़रूर आने की चिरौरियां की जाती है। 'हमारी इज़्ज़त का सवाल है' कहकर दुहाई दी जाती है। महानगरों या दूसरे शहरों से वोट देने आने वाले भी सालों से वोट देते-देते बड़े ही शातिर हो गए हैं। ये अपनों और परायों में फर्क नहीं करते। साधारण किराए की बस से आते हैं और 'इमरजेंसी में टैक्सी से आना पड़ा, आपके कहने पर वोट देने आये हैं' कहकर पूरी टैक्सी का किराया प्रत्याशी से वसूल करते हैं| एहसान दिखाते हैं सो अलग। कुछ वोट देने आने वाले इससे भी एक हाथ आगे बढ़कर होते हैं। ये ट्रेन के जनरल डिब्बे से आते हैं, 'टैक्सी लाए हैं' कहकर पक्ष व विपक्ष दोनों पार्टी वालों से किराया वसूल करते हैं और वोट तीसरी पार्टी को दे जाते हैं।

 

इस साल मेरे मोहल्ले की महिलाओं के बीच जैसे चुनाव में खड़े होने की होड़ सी मच गई। जैसे-जैसे मतदान का दिन नज़दीक आता जा रहा था, चुनावी बुखार बढ़ता ही जा रहा था। एक दिन उम्मीदवारों के जुलूस अलग-अलग दिशाओं से आकर एक जगह पर मिल गए। मैंने स्वयं को चक्रव्यूह में फंसा हुआ पाया। नारा एक उम्मीदवार का गूँज रहा था, पैम्फलेट दूसरी ने पकड़ाया, तीसरी ने दूर से हाथ जोड़ा और अपना ख़याल रखने को कहा। चौथी ने चुनाव निशान 'अनार' सजीव रूप से  दिखाया। यूँ दिखाने की जगह अगर एक-एक अनार सबको पकड़ाती जाती तो शायद उसे वोट कुछ तो मिल ही जाते। मेरे सामने चारों को आश्वासन देने सिवाय कोई और रास्ता नहीं बचा था।

 

पंचायत चुनावों के पोस्टर भी कम आकर्षक नहीं होते। जबसे पंचायत चुनावों में महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित होने लगी हैं तबसे चुनाव खासे दिलचस्प हो चले हैं। तरह-तरह की मोहक मुद्राओं में बड़े ही रोचक चेहरे दिखाई पड़ते हैं। अधिकतर महिलाएं सिर पर पल्लू रख कर फोटो खिंचवाना अच्छा मानती हैं। इससे आज्ञाकारी बहू की छवि उभर कर आती है। इस आज्ञाकारिता का प्रत्यक्ष प्रमाण जनता उनका चुनाव में खड़े होने को मानती है। जनता जानती है कि कौन अपने पति की राजनैतिक आकांक्षा और कौन अपनी सास की सामाजिक महत्वाकांक्षा को शिरोधार्य करके चुनाव में खड़ी है। इक्का-दुक्का प्रत्याशी पल्लू को सिर पर धरे बगैर फोटो निकलवाती हैं। ऐसी महिलाओं को बुजुर्गों के वोट नहीं पड़ते। पोस्टरों पर तरह-तरह की भाव-भंगिमाएं दिखती हैं। किसी की पूरी बत्तीसी दिखती है तो किसी के चेहरे पर हल्की सी मुस्कान। कोई न हंसती है न मुस्कुराती है, बस गंभीर मुद्रा में दिखती है मानो कह रही हो कि पहले जीत जाऊं फिर जी भर कर हंस लूँगी। अधिकतर पोस्टरों में पत्नी की बड़ी फोटो के नीचे पति महाशय की फोटो चस्पा होती है, जिससे बताया जाता है की ये फलाने-फलाने की पत्नी हैं। सीट महिलाओं के लिए आरक्षित होने कारण वे चुनाव लड़ पाने सक्षम नहीं हैं, अतः उनके बदले इन्हें वोट दें। एक ही पोस्टर में उम्मीदवार की और उसके निवेदक पति की फोटो होने से  कभी-कभी प्रत्याशी को बहुत नुकसान उठाना पड़ जाता है, चुनाव-चिन्ह के लिए पोस्टर में जगह ही नहीं बचती। चुनाव चिन्ह एक कोने में, बहुत ढूंढने पर दिखाई पड़ता है।  देखने वाले को पति-पत्नि दोनों के नाम तो याद रह जाते हैं पर चुनाव निशान याद नहीं रहता। किसी-किसी पोस्टर में पति महाशय गायब होते हैं, लेकिन ऐसे पोस्टर बस इक्के-दुक्के दिखाई देते हैं। पिछले पंचायत चुनावों में और इस बार के पंचायत चुनावों में एक बड़ा फर्क यह देखने को मिला कि इस बार चुनाव लड़ने वाली महिला की तस्वीर खिसक कर पोस्टर में सबसे ऊपर आ गई। पति की फोटो बिलकुल नीचे या छोटी सी किनारे पर दिखाई दे रही है जबकि पिछले चुनावों में पति की फोटो बिलकुल बराबर में और अक्सर पत्नी की फोटो से ऊपर लगी रहती थी। 

 

मुझे अच्छी तरह से याद है कि करीब दसेक साल पहले जब महिलाएं चुनाव लड़ती थीं तो उनकी शक्ल भी कोई नहीं पहचानता था। सामने आकर वोट मांगने वाली महिला को लोग अच्छी नज़रों से नहीं देखते थे। महिला उम्मीदवार की फोटो वाले पोस्टर नहीं चिपकाए जाते थे। सभी जगह उसका पति ही हाथ जोड़कर वोट माँगता नज़र आता था। लोग भले होते थे, पत्नी के नाम पर पति को वोट देने में किसी को आपत्ति नहीं होती थी। ऐसी महिला को बहुत सुशील समझा जाता था। लेकिन विगत कुछ वर्षों से महिलाओं के सामने न आने पर लोग बेधड़क होकर उनके पतियों से पूछने लगे हैं '' जो चुनाव लड़ रही है, वह वोट मांगने क्यों नहीं आई ? अगर वह बाहर नहीं निकलेगी तो गाँव के काम क्या खाक करेगी ''? ऐसी हालत में धीरे - धीरे महिलाओं का सामने आना ज़रूरी होने लगा और विगत चुनावों से वे स्वयं वोट मांगने घर - घर जाने लगीं।   


ऐसे समय में, जब हम सबको महिला उम्मीदवारों को देखने की आदत पड़ चुकी हो, तब उम्मीद के विपरीत इस चुनाव में एक उम्मीदवार के पति ने प्रचार का मोर्चा संभाल रखा था। वह एक बड़े से जुलूस के साथ घर-घर जा रहा था। गेट खटखटाकर वह दल-बल समेत अंदर आ गया। उसने मेरे आगे अपने हाथ जोड़े और अपना सर नीचे ज़मीन तक झुका दिया। यह देखकर मैंने हड़बड़ाहट में उसे ही उम्मीदवार समझ कर आश्वासन देकर टालने की नीयत से कहा, ''चिंता मत कीजिये, आपको तो हम बहुत पहले से जानते हैं। निश्चिन्त रहिये, हमारा वोट आपको ही जाएगा ''। मेरे ऐसा कहते ही उनका चमचानुमा साथी झट से बोल पड़ा  ''नहीं, ये नहीं, इनकी पत्नी चुनाव में खड़ी है, यह चुनाव निशान उनका है ''। बिना पैम्फ्लेट देखे बोलने की अपनी पुरानी आदत पर मैं शर्मिंदा हो गयी। मैंने दल को गौर से देखा और पाया कि उसकी पत्नी जुलूस में नहीं थी। मैंने कहा, '' इनकी पत्नी तो दिख नहीं रही है ''। उसने बिना शर्मिंदा हुए जवाब दिया '' वो ज़रा बीमार हैं, इसीलिये नहीं आ पाईं ''।   

 

इन चुनावों में चुनाव चिन्ह भी खासे दिलचस्प होते हैं। उम्मीदवारों को ज़मीन से जुड़ें हुए निशान आबंटित किये जाते हैं। इन्हें देखकर ऐसा प्रतीत होता है मानो आपसे कहा जा रहा हो कि पंजा, हाथी, साइकिल, कमल की हवाई दुनिया से बाहर आकर साधारण इंसान की दुनिया में आ जाओ, जहाँ अनार, अनानास, कटहल, अनाज की बाली, गैस का चूल्हा, कढ़ाई, कैमरा, टी. वी. इत्यादि मौजूद हैं। कुछ लोगों का यह मानना है कि प्रत्याशियों को मोबाइल, एल. सी. डी., लैपटॉप जैसे हाई टेक चिन्हों के ज़माने में ऐसे घरेलू चिन्हों को दिया जाना पिछड़ेपन की निशानी है। इसके विपरीत मेरा यह मानना है कि इस प्रकार के चुनाव चिन्ह भारतीय संस्कृति को जीवित रखने का कार्य करते हैं, अन्यथा इमली और कलम - दवात जैसी वस्तुओं को आज की पीढ़ी कैसे पहचानेगी?  

 

चुनाव चिन्हों के आवंटन में भी अजीब घाल-मेल था। लग रहा था कि जैसे उपरवाले ने इसकी कमान अपने हाथों में थाम रखी हो। जिसको जो मिलना चाहिए था, वह उसके बदले दूसरी को मिल गया था। जिस उम्मीदवार को अनानास का चिन्ह मिला था वह भूतपूर्व विधायक की पत्नी थी। विधायक बनने के बाद से उनकी शक्ल किसी ने नहीं देखी। चुनाव चिन्ह और वे एक दुसरे के पूरक थे। उनसे मिलना उतना ही मुश्किल था जितना अनन्नास को छीलना। दूसरी उम्मीदवार डबल एम. ए. और पी. एच. डी. है। एक पब्लिक स्कूल में टीचर है। उसे शिकायत है कि उसे चुनाव चिन्ह कलम-दवात मिलनी चाहिए थी और मिल गयी कुल्हाड़ी। जिसे कलम और दवात चिन्ह मिला है वह केवल हाई स्कूल पास है।

 

कुछ उम्मीदवारों के साथ बड़ी विडम्बना हुई। जब उन्होंने चुनाव लड़ने का निश्चय किया था तब चुनाव तिथि घोषित नहीं हुई थी और न ही चुनाव चिन्ह आबंटित हुए थे। उन्हें जीत का भरोसा था, जिसके चलते उनके पोस्टर हर खंभे पर कई महीनों पहले ही चिपक गए थे। लोगों को उनका नाम याद हो गया। महीनों बाद जब चुनाव की तिथि की घोषणा हुई और चुनाव चिन्ह आबंटित हुए तब उन्हें नए पोस्टर चिपकाने पड़े। नए पोस्टरों में सबसे बड़ी उनकी फोटो, उससे छोटी उनके पति की फोटो और सबसे अंत में बचे हुए छोटे से कोने में उनका चुनाव चिन्ह छपा था। लोगों को अब तक उनके नाम रट चुके थे। चुनाव चिन्ह चाहने पर भी याद नहीं आ रहे थे। जब चुनाव चिन्ह याद आ रहे थे तो नाम गायब हो जा रहे थे।   

 

कहीं तीन तो कहीं चार बैलेट पेपर होने से अक्सर पता ही नहीं चल पाता है कि कौन किस पद हेतु खड़ा है। उस पर नाम भी न छपे होने से वोट देने वाला इतना कन्फ्यूज़ जाता है कि कई बार मतदान कर्मियों से ही कह बैठता है, ''मुझे तो कुछ समझ नहीं आ रहा, आप ही बता दीजिये किसको डालूँ वोट? '' या '' मैं तो बस प्रधान पद के प्रत्याशी को वोट डालने आया हूँ किसी और को नहीं जानता हूँ। ऐसा कीजिये, बाकी तीन में आप ही लगा दीजिये ठप्पा''। ऐसे में मतदान कर्मी अकबका कर एक दूसरे का मुंह देखने लगते हैं। हर तीसरा मतदाता जब यही बात दोहराता है तो उन्हें यह लगता है कि इस मुहर को अपने माथे में ठोक लें।

 

कभी-कभी बहुत मुश्किल पेश आ जाती है। मेरे घर के बिल्कुल पड़ोस में रहने वाली महिला को भी इस बार चुनावी कीड़े ने काट लिया। एक दिन वह हाथ जोड़कर वोट मांगने द्वार पर आकर खड़ी हुई तो मैं उससे पूछ बैठी, '' कहिये क्या काम है?'' इस पर वह अपमानित महसूस करते हुए कहने लगी, '' लगता है आपने मुझे पहचाना नहीं, आपके पड़ोस में रहती हूँ। आपके घर के सामने ही मेरा पोस्टर लगा हुआ है। मैं इस बार पंचायत चुनाव में खड़ी हूँ|'' मैं शर्मिन्दा होकर माफी मांगने लगी। उसके जाने के बाद जब मैंने गौर से उसके पोस्टर को देखा तो महिलाओं की फेसबुक में लगाने वाली फोटो और असल जीवन की शक्ल में जितना अंतर होता है, उतना ही अंतर उसके और उसके पोस्टर के बीच में मुझे नज़र आया। अपने पोस्टर से वह इतनी भिन्न लग रही थी कि मैं चाहती भी तो उसे पहचान नहीं पाती।

 

प्रत्याशियों के नाम बैलेट पेपर पर छपे नहीं होने के कारण चुनाव चिन्हों पर आश्रित आम मतदाता ने इस तरह से अपने गाँव की सरकार बनाने में अपना अमूल्य योगदान दिया।  


इनको वोट न देने के कारण ये रहे -


कटहल और अनानास को छीलने में बहुत दिक्कत होती है। सिलेंडर दिन पर दिन महँगा होता जा रहा है। अनार खून बढ़ाता है पर हमेशाबजट से बाहर होता है। इमली बचपन में अच्छी लगती है पर अब दांत खट्टे कर देती है। कैमरा तो अब फ़ोन में आने लगा है। 


इनको वोट देने के कारण ये रहे -    

 

अंगूठी पर दिल न चाहते हुए भी अटक जाता है। उगते सूरज को तो दुनिया सलाम करती है। कलम - दवात का सम्मान हर हाल में होना ही चाहिए। कार तो अब हर घर की ज़रूरत में शामिल हो गयी है।     

 

इस तरह चुनाव रूपी यज्ञ में आख़िरी आहुति देकर वह अगले पाँच साल तक निश्चिन्त हो गया।   

सोमवार, 30 जून 2014

मान जाओ

मान जाओ मानसून .... 

मान जाओ 
सुन लो 
मानसून 
अब आ भी जाओ । 

मत 
तरसाओ 
जल्दी से आओ 
सब तर कर जाओ । 

बरस 
बाद आए हो 
पाहुन 
बिन बरसे मत जाओ । 

यूँ  ही 
मत गुजरो  
तुम 
ज़ोर - ज़ोर से गरजो । 

मत लो 
हमसे बदला 
प्यारे - प्यारे 
तुम हो बदरा । 

सूख गई  
सारी धरती 
इस धरती को 
अब सुख सारे दे जाओ । 

प्यासी 
अँखियों को 
और न भटकाओ 
भर दो गागर 
भर दो सागर  
नदियों का 
सीना भर जाओ । 

सुनो  ! मान जाओ 
मानसून 
अब आ भी जाओ ।        [मास्टरनी ]






 





 








सोमवार, 19 मई 2014

चुनावी क्षणिकाएँ

चुनावी क्षणिकाएँ 

वे 
बताएँगे
अपनी हार का कारण
कड़कती धूप,
कम मतदान,
वोटर का रुझान
और
उदासीनों का
वे क्या करते
श्रीमान ?
सच भी ये 
क्यूंकि 
आज भी 
महात्मा गांधी है 
मजबूरी का 
दूजा नाम । 

वे 
दिखाएंगे 
पूरी ईमानदारी 
स्वीकार करेंगे 
हार की ज़िम्मेदारी 
जनता के फैसले का 
करेंगे स्वागत 'औ 'सम्मान 
क्यूंकि 
आज भी 
महात्मा गांधी है 
मजबूरी का 
दूजा नाम । 

 वे 
करेंगे हार के 
कारणों की समीक्षा 
मजबूरन 
पाँच साल तक 
मौके की प्रतीक्षा 
सबके 
सिरों को जोड़ेंगे 
फिर ठीकरों को 
फोड़ेंगे 
साफ़ बचेगा 
हाईकमान 
क्यूंकि 
आज भी 
महात्मा गांधी है 
मजबूरी का 
दूजा नाम ।     [मास्टरनी ]









रविवार, 18 मई 2014

उनका और इनका …

उन्हें -
हार मिले 

इन्हें -
हार मिली । 

उन्हें -
जनादेश हुआ 

इन्हें - 
जाने का 
आदेश हुआ । 

उन्होंने -
भारी 
मत पाए 

इन्होने -
भारी 
मन पाए । 

उनका -
बढ़ गया 
जनाधार 

इनका -
जन ने किया 
बंटाधार । 

उनके -
चौखट 
ढोल बाजे 

इनके -
चौखटे 
बारह बाजे । 

उनके  -
गठबंधन का 
पव्वा हाई 

इनका -
ठगबंधन 
हवा - हवाई । 

उनकी - 
होली, दीवाली 
अबीर, गुलाल 

इनका -
मुहर्रम, मातम 
गाल शर्म से लाल । 

उनको -
जनता ने 
माफ़ किया 

इनको -
जनता ने
साफ़ किया । 

उनके -
हाथ युवा 
जोश 

इनके -
साथ युवा 
रोष । 

वे - 
चढ़ेंगे 
सिंहासन 

ये  -
करेंगे 
शीर्षासन । 

उधर -
पंजा - पंजा 
कमल हो गया 

इधर -
पंजा - पंजा 
कलम हो गया । 

गुरुवार, 15 मई 2014

अलविदा चुनाव २०१४ .... बहुत भारी मन से अलविदा ।

यूँ लग रहा है जैसे शरीर से प्राण अलग हो गए हों जैसे किसी की मेहनत से बसी - बसाई दुनिया अचानक से उजड़ गयी हो जैसे आसमान मे एकाएक घटाटोप अँधेरा छा गया हो, जैसे बसंत के खत्म होने से पहले ही पतझड़ आ गया हो । हर तरफ सूनापन दिखाई दे रहा है । और हो भी क्यों न ?  देशवासियों को लोकतंत्र के इन तमाशों और तमाशबीनों के लिये अब फिर से पांच साल का इंतज़ार जो करना होगा । 

इन दिनों सोशल साइट्स की छटा सबसे निराली रही । विद्वजनों का यह भी मानना था कि यह चुनाव अगर फेसबुक पर लड़ा जाता तो कबका निपट गया होता । पता नहीं क्यों इस चुनाव पर इतना धन - बल लुटाया गया । उन दिनों उनके समर्थकों का एक गिरोह हर समय सक्रिय रहता था । दिन हो या रात, यह गिरोह हर समय जागता रहता था । किसी ने कोई स्टेटस पोस्ट किया नहीं, बिना एक भी सेकेण्ड गंवाए ये जांबाज़ गुरिल्ले अपना खोटी जी के समर्थन वाला लेख पेस्ट कर देते थे । ये इतने हिम्मती थे कि किसी के भी मेसेज बॉक्स में भी घुस जाया करते थे । कविता पोस्ट करो या कहानी, एक भी टिप्पणी नहीं मिले तब भी इनकी टिप्पणी हमेशा तैयार रहती थी, जिसमे ये खोटी जी को वोट देने की अपील करते थे । रोज़ाना हज़ारों नए फेसबुक अकाउंट खुल रहे थे । एक दिन में सैकड़ों फ्रेंड रिक्वेस्ट आतीं थीँ । इनमें से आधों के चेहरों पर खोटी ज़ी की शक्ल दिखतीं थीं और आधे रिक्वैस्ट के स्वीकार करते ही फ़ौरन मैसेज बॉक्स में कमल का फूल लिये प्रकट हो जाते थे । कुछ मित्र लोग चैट पर मिलते , हम पूछते 'कैसे हो यार' ? वे कहते 'अबकी बार खोटी सरकार '। हम सिर धुन लिया करते । फेसबुक विचारों की अभिव्यक्ति का माध्यम न रहकर इन बेचारो की अंधभक्ति का माध्यम बन चुका था । 

इन दिनों अच्छा - खासा सामान्य इन्सान भी असामान्य किस्म का व्यवहार करते हुए पाए जा रहा था । हर चर्चा में वह चुनावी चर्चा को कहीं न कहीं से ले आता था । शादी - ब्याह, जन्म -मृत्यु , नामकरण, सगाई हो या अन्य कोई अवसर हो, चाहे कहीँ सफ़र कर रहे हों, या किसी प्रकार की लाइन मे लगे हों, सब जगह एक ही चर्चा चला करती थी ,' वे पी एम बनेंगे या नहीं '। उनसे ज़्यादा तनावग्रस्त उनके समर्थक रहा करते थे । उनके ये अंध भक्त कहीं भी, किसी भी दिशा से प्रकट हो जाते थे । गली, कुञ्ज, सड़क, पान की दुकान, चाट के ठेलें, उत्तर, दक्षिण, पूरब, पश्चिम, आकाश, पाताल कहीं से भी प्रकट हो जाते थे । अक्सर वे बहुत घबराए हुए रहते थे । तनाव के कारण बीड़ियों पर बीड़ियाँ फूंक दिया करते थे । गुटखों के पैकेट एक बार मे ही मुंह मे उड़ेल देते थे । उनके सहकर्मी और मित्र जो दूसरी पार्टी के समर्थक थे, उनके साथ पान मसाला और सुर्ती से लेकर तम्बाखू तक शेयर करना उन्होंने छोड़ दिया था । बरसों का दोस्ताना एक झटके में तोड़ने मे उन्हेँ ज़रा भी तकलीफ महसूस नहीं हुई । उनके द्वारा उंगलियां चटखाने की आवाज़ें एकाएक ज़्यादा सुनाई पड़ने लगीं । बार - बार पहलू बदलते रहते फ़िर भी उनका चित्त शान्त नहीं हो पाता था । रात को नींद की गोलियां लिये बगैर सोना उनके लिये बेहद मुश्किल हो गया था । अगर भूल से भी उनके सामने दूसरी पार्टी का नाम लिया जाता था तो वे भयानक क्रोधित हो जाते थे । मन ही मन श्राप दिया करते थे । दूसरी पार्टी का हर नामलेवा को उन्होंने अपना परम शत्रु मान लिया था । मुस्कुराना तो दूर की बात, उनसे हाथ मिलाने से भी वे कतराने लगे थे । 

इस ड़र से कि कहीं विरोध का कोई बिन्दु छूट न जाए, अक्सर छुट्टियों पर रहने वाले महानुभाव भी इन दिनों छुट्टियां भी नहीं ले रहे थे । फ्रेंच लीव मारने वाले और सदा देर से आने वाले भी रोज़ कार्यालयों मे समय से पहले उपस्थिति दे रहे थे । चुनावी चर्चा में उनका योगदान कहीं कम न हो जाए, इसका तनाव उन पर बुऱी तरह से हावी होने लगा था । सरकारी दफ्तरों में काम - काज तेजी से निपटाए जा रहे थे ताकि उनके लिये सीटों का गणित लगाने के लिये ज़्यादा से ज्यादा समय मिल सके । उन्हें घर जाने की भी जल्दी नहीं रह गयी थी । वे हर समय इस डर से घिरे रहते थे कि एक वोट भी इधर से उधर हो गया तो जाने क्या हो जाएगा । उन्हें इतना बौखलाया हुआ देखकर ऐसा लगता था जैसे आने वाले समय में भारत वर्ष में चुनाव बैन होने वाले हैं । 'आपका मत अमूल्य है' ऐसा पहले भी लोग कहा करते थे ',  लेकिन ज़िंदगी में पहली बार मुझे अपना मत इतना अमूल्य महसूस हुआ। शुक्रिया उनका और उनके भक्तों का । 

इन दिनों सबसे प्रसन्न कोई देश था तो वह था पाकिस्तान । भारत से अलग हो जाने के बाद शायद यह उसकी पहली खुशी थी । वैसे सामान्य दिनों मे लोग भारत - पाकिस्तान के बंटवारे को लेकर के नेहरू और गाँधी जी की नीतियों को दोषी ठहराया करते थे। परन्तु इन दिनों पाकिस्तान के अलग राष्ट्र होने से सभी पार्टियों को बहुत सुविधा हुई थी । भारत से ज़्यादा इन दिनों पाकिस्तान जैसे हमारे दिल में बस गया था । 
उनको वोट नहीं देने वाले को पाकिस्तान चले जाने को कहा जाता था । जो उनको टक्कर देने की सोचे वह पाकिस्तान का एजेँट कहलाता था । उनके खिलाफ बोलने वालों के लिये कह जाता था कि उन्हेँ पाकिस्तान पैसा दे रहा है । पाकिस्तान जब - जब यह सुनता, इन चुनावों को धन्यवाद देता कि ' धन्य भाग मेरे, जो मुझ पर भारत वाले इतना भरोसा कर रहे हैं,  इतना भरोसा मेरे देश वाले मुझ पर करते होते तो कितना अच्छा होता' । 
इस  चुनाव मे ऐसी हवा बह रही थी कि हर कोई अपने विरोधियों को देशद्रोही ठहराने को बेकरार हुआ जा रहा था । देशभक्ति का एक ही पैमाना बचा रह गया था । देशद्रोही का ठप्पा न लग जाए इसीलिये आम इन्सान उनकी पार्टी का समर्थन करने पर मजबूर हो गया था ।  

इन दिनों बस एक ही शहर चर्चा मे था । वह भाग्यशाली शहर था बनारस । भारत इतनी जनसंख्या शायद इसीलिये झेल जाता है क्यूंकि उसके चार नाम हैं । बनारस के भी तीन नाम इसीलिये पड़े होंगे जिससे कि वह वर्ष २०१४ में होने वाले चुनावों के दौरान देश - विदेश से आने आने वाली भारी भीड़ को झेल जाए । शहर में पत्रकार, नेता, समर्थक, पर्यटक तो थे ही, सबसे ज़्यादा भीड़ तमाशाइयों की थी । बनारस के नाम से ऐसा रस टपकता था कि जिसका स्वाद लेने के लिये देश - विदेश से लोग टूटे पड़ रहे थे । महीनों तक गाड़ियों में रिज़र्वेशन नहीं मिल रहा था । चारों धाम बनारस से रश्क खाने लगे थे । इतनी भीड़ किसी तीर्थ नगरी मे नहीं उमड़ रही थी जितनी कि बनारस में । इस भीड़ - भाड़ से बचने के लिये शहर के अधिकांश वोटर शहर से बाहर घूमने या अपने रिशतेदारों के घर चले गये थे । जो शहर में रह गए थे वे वोटर नहीं थे लेकिन दुनिया को वोटर होने का आभास दे रहे थे । पलक झपकते ही हर पार्टी के समर्थन मे उतनी ही भीड़ जुट जाती थी । आदमी अब आदमी नहीं बल्कि भीड़ या कहेँ कि भेङ में बदल चुका था जिसे हरा पत्ता दिखा कर जहाँ चाहे हांका जा सकता था । 

इन अति व्यस्त दिनों में हम लोग सपरिवार सारे पार्टियों की रैलियों में जाते थे । रैलियों में जाने के पैसे मिलती थे और खाना भी मिलता था । ये कान के सोने के टॉप्स मैने इन्हीं रैलियों मे जाकर जोड़ें हैं ।  कभी - कभी एक ही दिन मे चार - चार रैलियां हो जाती थीं, तब खासी मुश्किल का सामना करना पड़ता था । लेकिन हम भागते - दौड़ते सभी जगह पहुँच ही जाते थे । हम ही क्यों, हमारे सारे पङोसी, रिश्तेदार और जान  - पहचान वाले ऐसा ही किया करते थे । नेता भीड़ देखकर खुश हो जाते थे । सभी यह सोचते थे कि हमारा वोट उन्हेँ ही पड़ रहा है । किसी - किसी साल हम लोग उन रैलियों से मिले पैसों को इकट्ठा करके मतदान वाले दिन पिकनिक मनाने भीड़ - भाड़ से बोर होकर कहीं दूर चले जाया करते थे और वापिस आकर अपनी - अपनी उँगलियों पर नील से निशान बनाकर फेसबुक़ पर फोटो अपलोड कर देते थे । 


यह  समय गहन राज़ों के फ़ाश होने का भी था । माननीयों के नित नए रूप सामने आ रहे थे । लोग टी. वी. के सीरियलों बजाय मनोरंजन के लिये समाचार चैनलों का सहारा ले रहे थे । बालिका वधू हो या कपिल का कॉमेडी शो, सबकी टी आर पी समाचार चैनलों के मुकाबले औंधे मुंह गिर गयी थी । हम रोज़ उनके मुंह से हज़ारों करोड़ की बातें सुन रहे थे । आज से पहले इन आंकड़ों को हम इन्हीं सीरियलों में सुनते आए थे । टेलीविज़न के नकली मेकअप से पुते हुए कलाकारों के स्थान पर असल ज़िंदगी के कलाकारों की पूछ बढ़ गयी थी । लोगों की दिलचस्पी अठासी साल की उम्र मे पिता फिर दूल्हा बन रहे तिवारी जी, अढ़सठ की उम्र मे शादी का ऐलान करते दिलविजय सिँह, बचपन के रिश्ते को स्वीकार करते गोदी दी जी पर केन्द्रित हो गयी थी । उन दिनों उम्र मानो थम सी ग़ई हो । जिसकी जितनी ज़्यादा उम्र होतीं थीं उसका उतना ही बड़ा खुलासा सामने आ रहा था । 

दिन क्या थे, बिल्कुल सोने के से थे । पिछले दिनों हमें स्कूल से घर आने के लिये आसानी से लिफ्ट मिल जाया करती थी । हर लिफ्ट देने वाला गाड़ी मे बैठाने के पाँच मिनट के अन्दर अन्दर यह सुनिश्चित कर लेता था कि हमारा वोट सिर्फ़ गोदी ज़ी को जाना चाहिए।  दिनों सर्वत्र यह प्रचारित किया जा रहा था कि उनकी लहर है, उनका कहर है । उस लहर पर सवार होकर हम भी अक्सर समय से घर पहुँच जाते थे । इस चुनाव से पहले ऐसा नहीं होता था । तब लिफ्ट देने वाला जैसे ही यह जान जाता था कि हम सरकारी टीचर हैँ वैसे ही बात का रुख हमारी तनखाह और हमारे सरकारी नौकरी के मज़े पर मोड़ देता था और रोज़ के किराये से ज़्यादा पैसा वसूल किया करता था । लेकिन आहा वे दिन ! बहुत याद आते हैं । ''गोदी जी'' ही जीत रहे हैं सुन कर वे हमारे लिये गाड़ी का ए. सी. चालू कर देते थे । पैसे देने पर हाथ जोड़ कर कहते थे, '' बहन ! एक ही प्रार्थना है आपसे, अबकी बार खोटी सरकार '' । 

कभी - कभी धोखा भी हो जाया करता था । एक बार ऐसे ही लिफ्ट मांगने पर उनके द्वारा यह पूछे जाने पर कि ' किसकी हवा चल रही है आपके उधर ?' के जवाब में जब मैने पहले उनकी थाह जानने की गरज से कहना चाहा कि ' आप किसको वोट दे रहे हैं ?' लेकिन मैंने जैसे ही 'आप' कहा, उन्हें सैंकड़ों ततैयाएँ मानो एक साथ डंक मार गईं । उन्होंने हमें कार से नीचे उतार दिया । उस दिन हमें तपती दोपहरी मे बीच रास्ते मे घंटो तक ख़ड़े होकर बस का इंतज़ार करना पड़ा था । उस सुलगते हुए दिन मुझे पार्टी का नाम 'आप' होने पर क्रोध और क्षोभ साथ - साथ हुआ था ।

इन दिनों बीमार लोगों ने भी अपनी अपनी बीमारियों की चर्चा वोटिंग काल तक स्थगित कर दी थी ।किसी  बीमार का हाल पूछने जाओ तो वह भी यही कहता था ' किसकी सरकार बनाने जा रहे हो '? मानो सरकार बनाना आम आदमी के हाथ मे जैसे । हांलाकि कहा यही जाता है लेकिन असल में ऐसा होता नहीं है । सरकार बनाते समय जो कुछ होता है उसमे जनता की इच्छा के अलावा सब कुछ होता है । बीमार अपने ब्लडप्रेशर, शुगर और दवाइयों की चिन्ता के बजाय सरक़ार के गठन की चिन्ता मे घिरे हुए पाए गए । इस काल में बीमारों ने स्वयं को काफी बेहतर महसूस किया, और डॉकटरों के क्लीनिकों मे मंदी क़ी मार छाई रही । घरवाले शुक्र मनाते और प्रार्थना करते ' काश, कुछ दिन और गुज़ारते ये चुनाव मे '।   

वे जो इन सबके केंद्र बिंदु थे, उनकी कथा उनकी और उनके समर्थकों की तरह ही अनन्त थी । 'भाइयों और भैनों' से बात शुरु करना इनकी आदत थी । ये देश के जिस कोने मे भाषण देने जाते थे, एक बात कहना कभी नहीं भूलते थे 'मेरा इस जगह से पुराना रिश्ता रहा है', या ' मैं आया नहीं हूँ, मुझे बुलाया गया है'। वे सच ही कहते थे । उन्हें वाक़ई ऊनके समर्थक बुलाया करते थे 'कि साहेब, एक बार आकर रोड शो कर जाइये, आपकी हालत जरा पतली लग रही है' । 

एक लड़की के लिए पूरी सरकारी मशीनरी को दौड़ाने वाले और हर चुनावी क्षेत्र से अपना पुराना रिश्ता जोड़ने वाले को सिर्फ अपनी पत्नी से ही रिश्ता स्वीकारने मे लगभग चाळीस दशक लग गए । इससे इस विचार को बल मिलता है कि सच्चा नेता वही होता है जो ' विश्व बंधुत्व का मतलब अच्छी तरह से जाने और अपने भाई के अलावा सारी दुनिया को भाई माने '। 

बीते कुछ महीनों को निश्चित रूप से भारत के स्वर्णकाल की संज्ञा दी जा सकती है ।  यूँ लगता था जैसे इस विशाल देश मे अब कोई समस्या हीं नहीं रही । अगर कोई समस्या है तो बस खोटी जी के जीतने की । जनता अपने समस्त दुःख - दर्द भूल चुकी थी । हर जगह चुनाव, चुनावी गणित, जातियों के समीकरण, सीटों के पूर्वानुमान, मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण, हिन्दुओं के वोटों का बंटवारा, निर्दलीयों का रुख, आम आदमी का रूझान, आप पार्टी को गालियाँ, बस यही सुनायी पड़ता थीँ ।    

इन चुनावों के दौरान अम्बानी को अडानी साथ मिला । अभी तक भारत के लोगों को टाटा के साथ बिरला कहने मे सुविधा होती थी लेकिन उनके साथ अम्बानी कहने में अच्छा तुक नहीं बैठता था । अब अम्बानी के साथ अडानी बोलने मे जनता को बडी सुविधा हो गई । वे हमारे सामान्य ज्ञान मे अभूतपूर्व बढ़ोत्तरी कर रहे थे । रामायण में रोज़ एक नया अध्याय जुड़ रहा था । किसने किसको कितने रूपये फुट के हिसाब से कहाँ कहाँ ज़मीन बेची है, हमेँ उनके द्वारा पता चल रहा था । अगर ये चुनाव नहीं होते तो हम जानकारी के लिहाज़ से कितने पिछड़े रह जाते । किस - किसके रिश्तों की ड़ोर कहां कहां उलझीं हुई है, जैसी राष्ट्रहित के लिए अति महत्वपूर्ण जानकारियां हमें इसी दौरान प्राप्त हुईं । 

हमने यह भी घर बैठे - बैठे ही जाना कि किसके शासनकाल में कहाँ - कहाँ और कितने दंगे हुए और उन दंगों के पीछे प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से किसका हाथ था । हमें यह भी पता चला कि कई विदेशी मुल्क, जिन्हें हम अपना जानी दुश्मन समझते हैं, वे भारत से बेहद प्यार करते हैं । कई विदेशी फाउंडेशन भी भारत के चुनावों में बहुत रूचि लेते हैं और इस महापर्व में अपना पैसा लगा कर पुण्य बटोरते हैं । किस समाचार चैनल में किस उद्योगपति का कितना पैसा लगा है, यह बताने वाले हमें इसी चुनाव के दौरान मिले । 

इन  दिनों जो नारे लगते थे, उनके भी एक अलग ही सुर था, अलग ही ताल थी । हमें दिन में कई बार कहा जाता था ' अच्छे दिन आने वाले हैं' । हमने कई दिनों तक इंतज़ार किया अच्छे दिनों का । लेकिन अच्छे दिन जब कहीं थे ही नहीँ तो आते कहां से ? अलबत्ता उनके अच्छे दिन ज़रूर आ गए । वैसे भी उन्होंने ये थोड़े ही कहा था कि जनता के अच्छे दिन आने वाले हैं । यह तो जनता खुद ही गलतफहमी पाल बैठी थी । दूसरी पार्टी वालों का नारा था ' कट्टर सोच नहीं, युवा जोश '। इसमें मुश्किल यह थी की जिस चेहरे को बार - बार दिखाया जाता था, अंत तक उसे जनता किसी भी हालत में युवा मानने को तैयार ही नहीं हुई । 

बहुत याद आएंगी वो चाय की चौपालें, जिनमें आने वालों को सुबह से शाम तक वही चायपत्ती उबाल - उबाल कर ही सही, चाय पिलाई तो जाती थी । 

याद आएँगे वे अंडे, टमाटर, स्याही, जो उछाले जाते थे खास पार्टी वालों पर जो मन ही मन खुश हो रहे थे कि इतनी जल्दी यह नौबत आ गयी, वरना तो सालों साल लग जाते हैं ढंग के विरोधी बनने और बनाने में ।  

इस चुनाव की बहुत याद आएगी । इसकी ज़ुबानी जंग की, आरोपों, प्रत्यारोपों की , वार, पलटवारों की । एक दूसरे को बस माँ - बहिन की गालियां ही सरेआम नहीं दी जा रहीं थीं, बाकी सारे अपशब्दों का प्रयोग धड़ल्ले से हो रहा था ।  

यह चुनाव कभी भुलाया नहीं जा सकेगा मीडिया की रोचक रिपोर्टिंग के लिए जिसके कारण मुझे अपने कॉलेज के दिनों के चुनावों की याद ताज़ा हो आई । हमारे कॉलेज में छात्रसंघ के लिए मतदान वाले दिन, जब मतदान शुरू हुए पाँच भी नहीं बीते होते थे, नेताओं के समर्थक झुण्ड बनाकर हर बूथ  ज़ोर - ज़ोर से चिल्लाते थे ' फलाने - फलाने दस हज़ार वोटों से आगे '। तब कॉलेज में पांच हज़ार विद्यार्थी भी नहीं होते थे ।

अलविदा चुनाव २०१४ .... बहुत भारी मन से अलविदा । 

सोमवार, 5 मई 2014

एक मजिस्ट्रेट की मौत

 आज मतदान ख़त्म हो गया, इसी के साथ मास्साब की पीठासीन की कुर्सी भी छिन गयी, एक दिन जो मिली थी वो मजिस्ट्रेटी पॉवर क्या चली गयी, मानो उनके शरीर का सारा रक्त निचोड़ ले गयी, चेहरा सफ़ेद पड़ गया, इतने दिनों से तनी हुई गर्दन और कमर फिर से झुक गयी.
कई रातों तक जाग जाग कर पीठासीन की डायरी का अध्ययन किया करते थे, उसके मुख्य बिन्दुओं को बाय हार्ट याद कर लिया था, विद्यालय में भी कई बार  साथियों से मतदान से सम्बंधित बिन्दुओं पर  जब तक वे बहस नहीं कर लेते थे, उन्हें मिड डे मील का मुफ्त का  खाना हजम नहीं होता था.
रात भर डायरी को सिरहाने रखकर सोते थे, नींद में भी कई बार टटोल कर देखते थे, कभी कभी उसे सीने पर रखकर सो भी जाते थे. जिन्दगी में कभी भी अपने बच्चों के लिए वे रात में नहीं जागे, लेकिन आज इस डायरी पर इतना प्यार बरसा रहे हैं मानो इसने उनकी कोख से जन्म लिया हो.
पत्नी को भी इतने दिनों तक बिलकुल अपने जूतों की नोक पर रखा. "देखती नहीं, मैं पीठासीन अधिकारी हूँ "
पत्नी अधिकारी शब्द सुनकर ही थर थर काँपने लगती, मन ही मन सोचती 'कल तक तो ये मास्टर थे, आज सरकार ने इन्हें अधिकारी बना दिया है तो ज़रूर इनके अन्दर कोई ऐसी बात होगी जो सरकार ने देख ली और मैंने इतने सालों  में नहीं देखी, लानत है मुझ पर'
इतने दिनों तक ना सिर्फ उनहोंने पत्नी से अपनी पसंद का खाना बनवाया वरन रात को पैर भी दबवाए.
बच्चों की नज़रों में भी वे सहसा ऊँचे उठ गए थे, कल तक जो बच्चे उनके आदेश की अवज्ञा करना अपना परम कर्त्तव्य समझते थे, जुबान चलाते थे, आज अचानक श्रवण कुमार सरीखे बन गए. मोहल्ले  में उनहोंने तेजी से ये खबर फैला दी कि हमारे पापा को सरकार ने पीठासीन अधिकारी बनाया है, और वो पूरे एक दिन तक डी.एम्. बने रहेंगे, वे चाहे तो किसी पर भी गोली चलवा सकते हैं. मोहल्ले में उनके परिवार का रुतबा अचानक बढ़ गया. कल तक जो उन्हें टीचर, फटीचर कहकर पानी को भी नहीं पूछते थे , आज बुला बुला  कर चाय पिला रहे हैं.
हाँ तो अब समय आ गया था ड्यूटी की जगह मिलने का, जब मतदान स्थल का पात्र उनको थमाया गया, तो उनके पैरों तले ज़मीन खिसक गयी. मतदान केंद्र सड़क से पंद्रह किमी. की खड़ी चढ़ाई चढ़ने के बाद आता था. अधिकारी बनने की आधी हवा तो नियुक्ति पत्र मिलते ही खिसक गयी, रही सही कसर रास्ते भर जोंकों ने पैरों में चिपक चिपक कर पूरी कर दी.बारी बारी से सभी मतदान कर्मियों को अपनी पीठ पर ई. वी. एम्. मशीन को  आसीन करके ले जाना  पडा . इस तरह सभी पीठासीन बन गए.
बेचारे मास्साब की किस्मत वाकई खराब है. पिछले साल विधान सभा के चुनावों में उन्होंने बड़ी मुश्किल से जुगाड़ लगाकर अपना उस अति दुर्गम मतदान स्थल के लिए लिस्ट में चढवा दिया था, जहाँ तक पहुँचने के लिए हेलिकोप्टर ही एकमात्र साधन होता है. वे फूले नहीं समां रहे थे कि जिन्दगी में पहली और आख़िरी बार हवाई यात्रा का मुफ्त में आनंद ले सकेंगे. लेकिन हाय रे किस्मत! जैसे ही रवाना होने की घड़ी आई, आंधी पानी और बर्फपात की वजह से हवाई यात्रा केंसिल हो गयी. और फिर शुरू हुई अति दुर्गम पैदल यात्रा, जान हथेली में रखकर  गिरते पड़ते किसी तरह मतदान स्थल पहुंचे, और गिनती के पांच लोगों को मतदान करवाया, आज भी वो दिन याद करके मास्साब के तन बदन में झुरझुरी दौड़ जाती है.
इधर १५ किमी की चढाई करने के बाद उनके थके हुए बाकी साथियों ने अपने साथ लाई हुई बोतलें निकली और  टुन्न होकर लुड़क गए. मास्साब ने  कुढ़ते हुए अकेले रात भर जाग कर लिफाफे तैयार किये.और मतदान की बाकी तयारियाँ पूरी  करीं. 
तो मास्साब की बची हुई अकड़ सुबह  मतदाताओं ने निकाल दी. एक मतदाता को जब उन्होंने बूथ के अन्दर मोबाइल पर बात करने के लिए पूरे रूआब के साथ मन किया तो उसने तमंचा निकाल कर कनपटी पर लगा दिया.
"ज्यादा अफसरी मत झाड़, पिछले बूथ में तेरे जैसे एक मजिस्ट्रेट को ढेर करके आ रहा हूँ ज्यादा बोलेगा तो तेरेको भी यहीं पर धराशाही कर दूंगा"
उन्होंने कातर भाव से डंडा पकडे हुए पुलिसवालों को देखा तो उन दोनों ने उससे भी ज्यादा कातर भाव से पहले अपने डंडे को फिर  उस तमंचे वाले को देखा.
किसी तरह डरते डरते मतदान संपन्न करवाया.
कितने ही लोग एक ही राशनकार्ड लेकर वोट डालने आ गए. एक लडकी तो मात्र १० या बारह साल की होगी, माथे पर बिंदी लगाकर वाह सूट पहिनकर वोट डालने आ गयी, उस लडकी की खुर्राट माँ उसके पीछे ही खड़ी थी, जब उन्होंने लडकी की उम्र पूछी तो वह दहाड़ उठी "लडकी की उम्र पूछता है कार्ड में दिखता नहीं २१ साल है"
"लग नहीं रही है इसीलिए पूछा" उन्होंने डरते डरते कहा.
"लो कर लो बात, अब इसे लडकी की उम्र दिखनी भी चाहिए, अरे लडकी की उम्र का अनुमान तो फ़रिश्ते भी नहीं लगा सकते.पता नहीं कैसे कैसों को सरकार भेज देती है ज़रूर मास्टर होगा, स्कूल में तो ठीक से पढाई करवाते नहीं है यहाँ क्या ठीक से काम करेंग" वह जोर जोर से बोलती रही और लाइन में लगे हुए लोग उन्हें देख कर हंसते  रहे.  वे उसका मुँह देखते रहे और वो लडकी के साथ बूथ में  ही घुस गयी.वे मन ही मन उस घड़ी को कोसने लगे जब उन्हें नियुक्ति पत्र मिला था
तो इस प्रकार उनके पीठासीन अधिकारी बनने की इच्छा अब हमेशा हमेशा के लिए ख़त्म हो गयी थी.

रविवार, 13 अप्रैल 2014

राजनीति के रैम्प पे


 पैरोडी -------


राजनीति के रैम्प पे    

चलना संभल-संभल के  

ये स्टेज है तुम्हारा  

एक्टर तुम्हीं हो कल के । 

 

वोटर के ताने सहना 

और कुछ ना मुंह से कहना   

सिर को झुका-झुका के

गाली को सुनते रहना । 

 

रख दोगे एक दिन तुम

श्रीराम को कमल पे । 

 

साइकिल कोई चलाए

या राह में हाथी आए

देखो कमल तुम्हारा

हरगिज़ न मुरझा पाए । 

 

युवराज जो रोके रास्ता

चलना राह बदल के । 

 

मोदी के सिर पे           

दिल्ली का ताज रखना

दल को बदल जो आए

दरवाज़ा खुला रखना । 

 

गोटी नई बिछेगी

मोदी बिसात चलके । [मास्टरनी] 

सोमवार, 7 अप्रैल 2014

अथातो कूड़ा जिज्ञासा …

 
कूड़ा - करकट के चहुँ ओर फैले होने से वर्त्तमान की भागमभाग वाली व्यस्त ज़िंदगी में भी आप बिना अलग से समय निकाले प्राणायाम कर सकते हैं ।  कूड़े के ढेर के आने से पहले एक लम्बी सांस खींच लो फिर कूड़े के ढेर के पीछे छूट जाने के बाद उस सांस को छोडो । इस प्राणायाम को आप सुबह - सुबह की मीठी नींद को ख़राब किये बगैर और बाबा रामदेव के दीदार किये बिना भी कर सकते हैं । मेरी बस रोज़ जिस रास्ते से होकर गुज़रती है उस रास्ते पर लोग मरे हुए जानवर फेंक जाते हैं । उधर से गुज़रते हुए बस या अन्य वाहनों में सवार सभी यात्री कई - कई मिनटों तक सांस रोक सकते हैं । 

कूड़े के ढेर इफरात से हों हों तो देश में सुलभ शौचालय बनवाने की ज़रूरत ही नहीं रहेगी । ये इस देश के निवासियों की महान परंपरा रही है कि धरती का जो कोई भी कोना खाली देखो, पहले तो उसे गन्दा करो फिर उसे शौचालय बनाने में तनिक भी देरी मत लगाओ । जगह - जगह बने हुए इन कूड़े के ढेरों पर इंसान शौच के लिए बिना शर्म महसूस किये जा सकता है । इससे आए दिन उठने वाला शौचालय बनाम देवालय या शौचालय बनाम मोबाइल सम्बन्धी विवाद भी उत्पन्न नहीं हो पाएगा । 

कूड़े के पहाड़ों से पर्वतारोहण का अभ्यास किया जा सकता है । 'सत्यमेव जयते' के एपिसोड में एक जगह पर दिखाया गया था कि किन्हीं प्रबुद्ध नागरिकों द्वारा मुम्बई के कूड़े के पहाड़ को एक महीने में समतल किया गया । इन्हीं चंद अदूरदर्शी लोगों की वजह से भारत पर्यटन के क्षेत्र में तरक्की नहीं कर पा रहा है । विचार कीजिये, यदि उस कूड़े के पहाड़ को और ऊंचा कर दिया गया होता तो हम भारतीयों को पर्वतारोहण के लिए माउंट एवरेस्ट की ओर नहीं देखना पड़ता । कुछ समय से यह देखने में आ रहा है कि ऐसा हर इंसान जो खुद को कुछ अलग साबित करना चाहता है, माउन्ट एवरेस्ट को फतह करने निकल पड़ता है । ऐसी हालत में अगर हम भारतीय एकजुट हो जाएं तो हम अपने शहर में भी ऊंचे - ऊंचे कूड़े के पर्वतों का निर्माण कर सकते हैं । इस तरह हर शहर में हमारे अपने एवरेस्ट होंगे और विदेशी लोग उन पर पर्वतारोहण के लिए आया करेंगे । गौर से सोचा जाए तो पर्वतारोहण के क्षेत्र में आत्मनिर्भर होना देश के अंदर एक स्थिर सरकार के होने से भी बड़ी आवश्यकता बन चुका है । 

कूड़ा फेंकना बहुत हिम्मत का काम होता है । इसमें जोखिम तो है ही साथ ही साथ रोमांच भी भरपूर होता है । इसे एक तरह से साहसिक खेलों की सूची में भी शामिल किया जा सकता है । इसमें गुरिल्ला युद्ध के सभी लक्षण मौजूद रहते हैं । कूड़ा फेंकना एक कला भी है । कूड़े से भरी हुई पोलिथीन को चुपचाप सड़क पर या पार्क के किनारे रखना पड़ता है । लोगों को ऐसा भ्रम दिलाना पड़ता है जैसे कि आप कोई राष्ट्रीय महत्त्व की वस्तु बहुत सावधानी से ले जा रहे हों । चौकन्ने होकर चारों तरफ नज़र रखनी पड़ती है । सबकी नज़रों से बचा कर अपनी थैली को चुपके से कोने में रख कर फुर्ती से आगे बढ़ जाना होता है । अगर किसी ने पीछे से टोक दिया '' भाईसाहब आपका थैला रह गया '' तब तुरंत चेहरे पर ऐसे भाव चेहरे पर लाने होते हैं जैसे आप बहुत भुलक्कड़ किस्म के इंसान हों, और अक्सर अपनी वस्तुएं इसी तरह सड़क पर भूल जाते हों । इस नाज़ुक समय में किसी भी जान -पहचान वाले को न नमस्कार किया जाता है न किसी का नमस्कार लिया जाता है । इस तरह से चाल तेज़ करनी होती है, मानो अफसर ने दफ्तर में आपातकालीन मीटिंग बुलाई हो । रोज़ अलग - अलग बस स्टॉप से जगह से बस पकड़नी पड़ती है, ताकि अगल - बगल के किसी फड़, ठेले वाले या दुकानदार को आप पर शक न होने पाए । 

मेरे पड़ोस की दो महिलाओं के मध्य कूड़ा फेंकने को लेकर बहुत लम्बे समय तक चूहा - बिल्ली का खेल चलता रहा । इसे एक तरह से पॉलीथीन वार भी कह सकते हैं । एक सुबह तड़के ही दूसरी के घर के आगे कूड़े से भरा हुआ पॉलीथीन फेंक देती थी । दूसरी सुबह जल्दी नहीं उठ पाती थी तो वह देर रात को कूड़े का बदला कूड़े से चुकाती थी । यूँ दिन के उजाले में दोनों एक दुसरे की अभिन्न मित्र थीं । दोनों जब दिन में मिलती तो यूँ मुंह छिपा कर कूड़ा फेंकने वाले को जम कर लानत भेजतीं । इस पता दोनों को था कि कूड़ा फेंकने वाला दरअसल है कौन ?

यह कूड़ा करकट मेरे शहर का दो तरफ़ा भला करता है । एक तरफ यह नालियों में फंस कर पानी को सड़कों पर ले आता है जिस कारण सड़कें झील का सा आभास देती हैं । दूर - दराज से नैनीताल घूमने आने वाले पर्यटकों को नैनीझील के दर्शन यहीं पर हो जाते हैं । बच्चे उनमे कागज़ की नाव बनाकर तैराते हैं, छप - छप करके खेल खेलते हैं, वहीं दूसरी तरफ इन चोक नालियों की वजह से सड़कों में घुटने - घुटने तक भरे पानी के कारण रिक्शे और ऑटो वालों की अच्छी कमाई हो जाती है । बरसात के मौसम में जहाँ और फड़ या ठेले बंदी की कगार पर आ जाते हैं, ये ऑटो और रिक्शे वाले सड़क के दोनों और फंसे, पानी के कम होने का इंतज़ार कर रहे लाचार इंसानों को सड़क के बीचों - बीच बनी हुई झील को पार करवाने की एवज में मनचाहा किराया वसूल करते हैं । लोग अपने मन को यह तसल्ली देते हैं '' चलो इस साल नैनीताल नहीं जा सकने का अफ़सोस नहीं हो रहा ।  झील के दर्शऩ यहीं हो गए ''। 

कूड़ा सड़क पर फेंकने के कुछ फायदे भी होते हैं । इसी कूड़े के द्वारा हम एक दूसरे की आर्थिक स्थिति का आकलन कर सकते हैं । कई लोग जान बूझकर इस तरह से कूड़ा फेंकते हैं जिससे सामने वाला उनके स्टेटस का अनुमान लगा ले । ऐसे लोग कूड़ा फेंकने के मामले में आत्मनिर्भर होते हैं । इन्हें कूड़ा उठाने वाले की कोई आवश्यकता महसूस नहीं होती । इनके  पड़ोसी की एक आँख इन पर रहती है और दूसरी आँख इनके कूड़े के थैले पर रहती है । वह मन ही मन सोचता है ''वाह ! आजकल तो बड़े - बड़े डिब्बे फेंके जा रहे हैं  , कल तक ब्रेड की थैली भी नहीं दिखती थी कूड़े में और आजकल हर दूसरे दिन पिज़्ज़ा और जूस के डिब्बे फेंक रहे हैं, इतना पैसा कहाँ से आ गया इनके पास ? ज़रा पता करिये तो ''  या '' क्या बात है शर्मा जी के यहाँ ब्रांडेड कपड़ों की पोलिथीन कबसे आने लगी, मिसेस शर्मा तो अक्सर शनि बाज़ार से कपडे खरीद कर लाती थीं ? सच में कपडे लाये होंगे या पड़ोसियों को दिखने के लिए टॉप ब्रांड्स की पॉलीथीन इकट्ठा की होगी ?'' । कूड़े की इन थैलिओं की वजह से इनकम टैक्स विभाग को बहुत सुविधा होती । विभाग आदमी के हर साल के फेंके गए कूड़े और उनमे आने वाले अंतर के आधार पर आदमी की हैसियत का अनुमान लगा सकता है और इस के आधार पर टैक्स चोरी का पता आसानी से लगाया जा सकता है ।  

सड़क पर कूड़ा फेंकने वाले जाने या अनजाने कुछ लोगों का भला भी करते हैं । रिटायर्ड एवं वृद्ध लोगों के लिए ये कूड़े के ढेर जीवनदायिनी औषधि का कार्य करते हैं । मेरे पड़ोस में रहने वाले एक रिटायर्ड अध्यापक साल भर इसी अभियान में लगे रहते हैं । वे रास्ते भर अपने अपने कुत्ते से बातें करते हुए चलते हैं और कूड़ा फेंकने वालों को जी भर के गालियां देते हैं । कुत्ता भी उनकी गालियों में अपना स्वर मिलाता हुआ सा हुआ प्रतीत होता है । जहाँ गंदगी का ढेर देखते हैं उस जगह की दीवार पर तुरंत लिख देते हैं '' कूड़ा फेंकने वाला झाड़ी की पैदाइश है ''। लोग दीवार पर लिखी इबारत पढ़ते हैं, आस - पास झाड़ी ढूंढते हैं, झाड़ी के न मिलने पर तसल्ली महसूस करते हैं, और फिर से कूड़ा फेंकने का पुनीत कर्म शुरू कर देते हैं । एक बार उन्होंने गुस्से में लिख दिया था, '' कूड़ा फेंकने वाले की अर्थी को रानीबाग लेकर जाएंगे ''। गुस्से में वे यह भूल गए कि सभी की अर्थियों को एक न एक दिन रानीबाग जाना ही है । रानीबाग मेरे शहर का दाह स्थल है । उनके इस अभियान से कूड़ा फेंकने वालों को आतंरिक खुशी मिलती है। लिखने के अगले ही दिन से वे उसी दीवार के नीचे कूड़ा फेंकना शुरू कर देते हैं । सच्चे रिटायर्ड सरकारी अध्यापक की तरह वे हार नहीं मानते और अपनी जेब में सदैव रहने वाली चॉक निकालते हैं और फिर से दीवार पर लिख देते हैं '' कूड़ा फेंकते हुए पकडे जाने पर पांच सौ रूपये का जुर्माना ''। 

मेरे शहर में ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण देश में जगह - जगह इस तरह की जुर्माना वसूल करने वाली धमकी लिखी हुई दिखती रहती है । यह धमकी देने वाला आदमी दिखता कैसा होगा ? कहाँ रहता होगा ? क्या खाता - पीता होगा ? जुर्माना वसूल करने का इसका क्या तरीका होगा ?   यह किस कोने में छुपकर कूड़ा फेंकने वालों पर नज़र रख रहा होगा ? पांच सौ रूपये जुर्माना वसूल करने वाले इस व्यक्ति को देखने की मेरी बचपन की इच्छा आज तक पूरी नहीं हो पाई ।

पिछले साल भारत की सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही कि हम भारतवासियों ने यह जाना कि गरीबी वास्तव में एक दिमागी अवस्था होती है, उसका वास्तविकता से कोई लेना - देना नहीं होता । इस साल इसी विचारधारा को एक कदम आगे ले जाते हुए मैं कहना चाहती हूँ कि गन्दगी भी एक दिमागी अवस्था है । गन्दगी देखने वाले को हर जगह गन्दगी दिखती है, कूड़े का ढेर दिखता है । कह सकते हैं कि जिसका मन गन्दा होता है उसे ही गंदगी के दर्शन होते हैं । जिसका मन साफ़ होता है उसे सब जगह साफ़ दिखती है । इसीलिए साथियों हमें अपने मन को स्वच्छ रखने का प्रयास करना चाहिए । कूड़े के ढेर मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास सहायक होते हैं । जिस व्यक्ति को रोज़ कूड़े के ढेर को देखने की आदत हो, उसे किसी भी जगह गंदगी नज़र नहीं आती । ऐसा इंसान गंदी से गंदी वस्तु से भी घृणा नहीं करता । इसके विपरीत साफ़ - सफाई से रहने वाला हमेशा गन्दगी को लेकर तनाव में रहता है । ज़रा सी गंदगी को देखकर भी अवसाद का शिकार हो जाता है । 


'' आप सड़क पर कूड़ा क्यूँ फेंकते हैं ?'' प्रश्न के जवाब में लोगों के जो उत्तर सामने आये वे इस प्रकार हैं -------

''ये जो सत्यमेव जयते एपिसोड में कूड़ा उठाने वाले दिख रहे हैं, ये हमारे यहाँ नहीं आते ।  हमारे यहाँ जो आते हैं वे इनसे बहुत भिन्न किस्म के होते हैं ''।  

''महीने के पहले दिन का भी इंतज़ार नहीं करते, तीस तारीख को ही एडवांस मांग लेते हैं, जिससे हमारे घरेलू बजट बिगड़ने की सम्भावना रहती है । बात पचास रुपयों की नहीं है, बात सिर्फ आदत के खराब होने की है, एक बार एडवांस दे दिया तो हर बार मांगने लगेंगे '' ।  

''महाशय हर त्यौहार पर ईनाम मांगते हैं, और ईनाम में सीधे पांच सौ का नोट मांगते हैं, न देने पर एक हफ्ते तक कूड़ा उठाने नहीं आते ''। 

'' जिससे खुन्नस होती है या जो एडवांस नहीं देता या त्यौहार पर जेब ढीली नहीं करता उसके दरवाज़े पर इतनी हलके से सीटी बजते हैं कि उसे सुनाई ही न दे । एक बार सीटी बजा कर एक पल का भी इंतज़ार नहीं करते और तुरंत अगले घर की और दौड़ लगा देते हैं । जब कूड़ा लेकर दौड़ते - भागते गेट पर पहुँचो तो ये ऐसे गायब हो जाते हैं जैसे गधे के सर से सींग ''। 

'' घर पर पुराना स्कूटर, झूला या चारपाई पड़ी हुई देखते हैं तो उस पर अपना हक़ समझने लगते हैं ,लाख मना करो तब भी माँगना नहीं छोड़ते '' ।  

'' बहुत घमंडी है, कभी नमस्कार नहीं करता ''। 

मेरी नज़र में सबसे बढ़िया उत्तर ये रहा -----

'' अजी कूड़े का क्या है, आज है कल नहीं है । जैसे इंसान आज है, कल नहीं रहेगा । इंसान और कूड़ा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं । इंसान है तो कूड़ा है । कूड़ा है तो इंसान है । जब इंसान ही नहीं रहेगा तो कूड़ा कौन करेगा ?  इससे शर्म कैसी और इससे क्यूँ डरना ? आपने देखा नहीं क्या ? हर साल जब बरसात आती है तो कैसा भी कूड़ा क्यूँ न हो, सब अपने साथ बहा ले जाती है । शहर के शहर साफ़ हो जाते हैं । पानी में बड़ी शक्ति होती है । जय इंद्र देव की, जय गंगा मैया की ''।