| सोचिये कैसा लगेगा आपको जब आप रोज़ सुबह किसी रिज़र्व फॉरेस्ट क्षेत्र से होकर के अपने काम पर जाते हों और सारे रास्ते आपको मासूम जानवरों के कुचले हुए क्षत विक्षत शरीर दिखाई पड़ते हों । हल्द्वानी -हरिद्वार राष्ट्रीय राजमार्ग में कोर्बेट का रिज़र्व फॉरेस्ट क्षेत्र पड़ता है ,जहाँ से होकर रोजाना कई मंत्री , विधायक , नेता ,अफसर ,एवं नौकरशाह गुज़रते हैं .इसके अतिरिक्त सैकडों पर्यटक विश्वविख्यात जिम कोर्बेट पार्क की सैर करने के लिए एवं वाइल्ड लाइफ का आनंद लेने के लिए यहाँ आते हैं , पता नही उन्हें दिखाई देता है या नहीं ,लेकिन मुझे रोज़ सुबह कम से कम पाँच या छः बेजुबान जानवर सड़क के किनारे या बीचों -बीच कुचले हुए दिख जाते हैं , जिनमें कुत्ते व बिल्ली तो रोज़ होते ही हैं ,कभी -कभार सांप , नेवले ,बकरी भी दिखाई दे जाते हैं हैं , मैं देख नहीं सकती क्यूंकि उनकी आंखों में तैरते सवालों के जवाब मेरे पास नहीं होते हैं उनकी मुर्दा ,खुली हुई बेजान आँखें हर आने -जाने वाले से चीख -चीख कर एक ही सवाल करती हैं कि 'हम तो अपने ही क्षेत्र में सुरक्षित नहीं हैं ,हमने तो किसी का कुछ नहीं बिगाड़ा, हमारा कुसूर क्या था ? हमारे लिए कोई रोने वाला नहीं ,कोई तोड़ - फोड़ करने वाला नहीं ,कोई धरना -प्रदर्शन करने वाला नहीं और ना ही कोई मुकदमा करने वाला हैं क्या सिर्फ इसीलिए हमें इतनी बेदर्दी से कुचल दिया गया '? आज हम मनुष्यों ने अपनी जिन्दगी की रफ़्तार इतनी बढ़ा ली हैं कि हम इस पर ज़रा सा भी अंकुश नही लगाना चाहते हैं , चाहे इस रफ़्तार के तले किसी की जान ही क्यूँ ना चली जाए , हम अपनी महँगी -महँगी गाड़ियों को किसी भी किस्म की खरोंच एवं निशान से बचाने के लिए को सड़क पर पड़े हुए छोटे -छोटे गड्ढों से तक तो बचा ले जाते हैं ,लेकिन हमारी रफ़्तार के बीच में आए हुए जानवरों को कुचलते हुए चले जाते हैं , हमारे एक -एक मिनट की कीमत तो हमें पता हैं लेकिन जानवरों की जान की कीमत हमें नहीं पता ।लेकिन हमें यह सदैव याद रखना चाहिए की प्रकृति के इस चक्र में हर प्राणी चाहे वह छोटा हो या बड़ा ,उसकी जान की कीमत होती हैं , आज हम शक्ति के मद में चूर होकर इन बेजुबानों को कुचल रहे हैं , तो क्या कल प्रकृति हमें इस अपराध के लिए माफ़ कर पाएगी ? प्रकृति के साथ खिलवाड़ की कीमत हम आए दिन किसी ना किसी नई महामारी या आकस्मिक आने वाली प्राकृतिक आपदाओं के रूप में चुका ही रहे हैं , इतने पर भी हमारी आँखें नहीं खुलती हैं , या यूँ कहिये की खुलना ही नहीं चाहतीं हैं । मैं रोज़ सोचती हूँ कि हे ईश्वर ! क्या कभी ऐसा दिन भी आएगा जब सड़क से गुज़रते हुए किसी निरीह प्राणी को आधुनिकता की रफ़्तार के आगे अपनी जान की बलि ना चढानी पड़े ? |
बुधवार, 9 सितंबर 2009
सोचिये कैसा लगेगा आपको
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