फिर आ गया ये बिन्दी दिवस ------
हाय ! फिर आ पहुंचा यह मुआ चौदह सितम्बर । शहर के चंद माननीयों का प्यारा बिन्दी दिवस । अभी तो पिछले वर्ष के बिन्दी दिवस के घाव सूखे भी नहीं थे, कि इस वर्ष यह फिर आ पहुंचा । लगता है एक न एक दिन यह मेरे प्राण लेकर ही जाएगा । अजीब है इस दिन का आना भी । मेरे सारे बिरादर दिवस अपने अपने 'डेज़' की कितनी बेसब्री से प्रतीक्षा किया करते हैं और एक मैं हूँ जिसे 'अब फिर बिन्दी दिवस आने वाला है' सोच - सोचकर कई महीने पहले से ही कंपकंपी आनी शुरू हो जाती है, डरावने सपने आते हैं और जब यह मुआ बीत जाता है तो बजाय चैन की साँस आने के कई हफ़्तों तक तक मुझे बुखार आता रहता है । मेरी बड़ी इच्छा है कि काश ! कुछ ऐसा हो कि ये हर साल मेरे भाल या मस्तक पर विद्वान और गणमान्य लोगों के द्वारा बिन्दी चिपकाने का झंझट ख़त्म हो जाए और इसे हर पाँच या दस साल में और हो सके तो मनाया ही न जाए ।
आप लोग सोच रहे होंगे कि यह बार- बार हिन्दी दिवस को बिन्दी दिवस क्यों कह रही है ? पर मैं भी क्या करूँ ? अब यह मेरा दिवस मेरा कहाँ रह गया ? बीते कई वर्षों से कई तरह के प्रकाण्ड, जिनके काण्डों को लिखा जाए तो एक नया महाकाव्य बन जाए, और कुछ हिन्दी के मूर्धन्य, असल में मूर्खधन्य विद्वान किस्म के लोग, जिनमे से कुछ ने विगत वर्ष हंस के संपादक राजेन्द्र यादव की याद में शोक सभा का आयोजन किया था । उसी सभा में एक हिंदी के एक प्राध्यापक ने अपनी संवेदना इन शब्दों में प्रकट करी ,'' बड़े दुःख की बात है कि राजपाल यादव हमारे बीच नहीं रहे ''। ऐसे विकट किस्म के विद्वान लोग हिन्दी दिवस के दिन हिन्दी के के इतिहास, भूगोल से शुरुआत करके तुरंत माथे की बिन्दी तक आ जाते हैं । कुछ तो इतने ज़्यादा विद्वान होते हैं कि इतिहास, भूगोल में जाने की भी आवश्यकता नहीं समझते । उन्हें बहुत जल्दी रहती है क्यूंकि उन्हें शहर के ओनों - कोनों में आयोजित समारोहों में हिन्दी के माथे पर बिन्दी चिपकाने जाना होता है । ये आते हैं, पांच मिनट बैठते हैं, बार - बार समय देखते हैं और जब रहा नहीं जाता तो संचालकों के कान में जाकर फुसफुसा आते है । संचालक बेचारा इनको मंच पर आमंत्रित करता है । ये हे- हे- हे करते हुए आते हैं, हाथ जोड़ते हैं, हिन्दी की बढ़ती ताकत, सोशल साइट, फेसबुक इत्यादि के विषय में चंद वाक्य बोलते हैं । इसके तुरंत बाद जेब से एक बिन्दी का पत्ता निकाल कर पूरी ताकत से मेरे माथे पर चिपका देते हैं और क्षमा मांगकर लगभग दौड़ते हुए अन्य हिन्दी - बिन्दी दिवस में हिन्दी का क़र्ज़ उतारने चले जाते हैं ।
इस पूरे सप्ताह दौरान बिंदियों की इतनी ज़्यादा खपत होती है कि बाज़ारों से बिंदियों के पत्ते के पत्ते गायब हो जाते हैं और इनकी कालाबाज़ारी शुरू हो जाती है । हर कवि, कुकवि, नेता, नेता के चमचे, हिन्दी के अध्यापकों, प्राध्यापकों की और भी न जाने किन - किन अज्ञात हिन्दी सेवियों की जेबें इस दौरान बिंदियों के पत्तों से भरी रहती हैं । जसको जहाँ मौका मिलता है, मुझसे बिना पूछे, जेब से पत्ता निकाल कर तपाक से शोभा, श्रृंगार, सम्मान, मातृभाषा जैसे कुछ शब्द कहकर माथे पर चिपकाता चला जाता है
मैं तो कहती हूँ भगवान ! ज़िंदगी में कभी भी किसी की किसी के साथ इतनी अच्छी तुक न मिले जैसे मेरी बिन्दी के साथ मिलती है । मेरी हालत शौचालय के उस आईने के जैसी हो गयी है जिसके ऊपर इतनी बिंदियाँ चिपक गईं हैं, जिससे उसमे चेहरा दिखना बंद हो गया है ।
सच बात तो यह है कि बिन्दी शब्द सुनते ही मुझे बहुत घबराहट होने लगती है । बीते कुछ सालों से मेरे माथे पर इन बिंदियों के चिपकने से सफ़ेद - सफ़ेद दाग पड़ गए हैं । ये दाग धीरे - धीरे मेरे शरीर के अन्य हिस्सों में भी फैलते जा रहे हैं । मैं हाथ जोड़ - जोड़कर थक गयी लेकिन ये हिन्दी वाले मानते ही नहीं । इनको मैं अच्छी तरह से जानती हूँ, इनकी पत्नियों ने विवाह के दिन के बाद से ही माथे पर बिंदियाँ और सिन्दूर लगाना छोड़ दिया था । कारण कुछ भी हो सकता है - वे समाज के सामने स्वयं को विवाहित नहीं दिखाना चाहती हों या हो सकता है मेरी तरह माथे पर सफ़ेद निशान पड़ने के डर से नहीं लगाती हों । अपने घर की स्त्रियों पर तो इनका ज़रा भी वश नहीं चलता और मेरे भाल पर सालों - साल बिन्दियों पर बिन्दियां चिपकाए चले जाते हैं । यूँ आजकल मैं देख रही हूँ कि आधुनिक महिला और बिन्दी वैसे ही एक दूसरे के शत्रु हो गए हैं जैसे ये हिन्दी वाले हिन्दी के ।
ये लोग खूब महिमा गाते हैं बिन्दी क्षमा कीजिये हिन्दी दिवस की । सच्चाई यह है कि ये हिन्दी की पैरवी करने वाले सिर से लेकर पैर तक अंग्रेजियत में रंगे होते हैं । इनके जो विद्यालय माफ़ कीजिये स्कूल होते हैं, उनमे बच्चे छोटे हों या बड़े, हिन्दी का एक भी शब्द बोलने पर सजा मिलती है और पांच से लेकर पचास तक, जो भी स्कूल के मैनेजर की इच्छा हो, आर्थिक दंड देना पड़ता है। हिन्दी बोलने से वसूल की गयी इनकी इतनी कमाई है जिससे इन्होंने इस खटारा से स्कूल को दो मंजिला बना दिया है । यह इमारत तमाचा है उन लोगों पर जो यह कहते हैं कि हिन्दी कमाई नहीं करवा सकती ।
अभी जो माननीय मेरे भाल पर हिन्दी की बिंदी चिपका कर गए हैं, इनकी बात बताती हूँ । इनका शहर में एक नामी - गिरामी स्कूल है । सौ प्रतिशत अँगरेज़ी माध्यम । हिन्दी बोलने पर किसी बच्चे को को थप्पड़ पड़ता है तो कोई हाथ ऊपर करके खड़ा रहता है तो किसी की हथेलियों की तगड़ी सिंकाई होती है । शहर के अधिकाांश प्रतिष्ठित लोगों के बच्चे इसी स्कूल में पढ़ते हैं । कल इनके इसी बड़े स्कूल में हिन्दी टीचर के लिए इंटरव्यू था । यह एक हिन्दी की अध्यापिका का साक्षात्कार नहीं था । लड़की के पास हिन्दी का स्वर्ण पदक था । उसके लेख कविताएँ और कहानियां कई पत्र - पत्रिकाओं में छप चुके थे । हिन्दी साहित्य के क्षेत्र का वह उभरता हुआ सितारा थी । उसके प्रमाणपत्र और उपलब्धियां देख कर इसने उस लड़की से जानते हैं क्या कहा ----सुनिए -----
'' आपका रिकॉर्ड तो बहुत अच्छा है, लगता है हिन्दी विषय में आपको काफी ज्ञान है । हिन्दी साहित्य में आपका काफी नाम भी देख रहा हूँ । बहुत खुशी की बात है लेकिन हम आपको नहीं रख सकते ''।
''ऐसा क्यों''? लड़की के लिए जवाब नया नहीं था ।
''आपका बैक ग्राउंड हिन्दी मीडियम का है''।
''ऐसा क्यों''? लड़की के लिए जवाब नया नहीं था ।
''आपका बैक ग्राउंड हिन्दी मीडियम का है''।
लेकिन मैंने हिन्दी अध्यापिका के पद के लिए आवेदन किया है ''। लड़की के स्वर में न अफ़सोस था , न दुःख था ।
''वह तो ठीक है लेकिन हमें ऐसी टीचर चाहिए जो बस पाठ को पढ़ाते समय हिन्दी में बोले, बाकी के सारे समय वह बच्चों से अंग्रेज़ी में बात करे । हमारी मज़बूरी है कि हमारे स्कूल में हिन्दी अभी हिन्दी में ही पढ़ानी पड़ती है । हम तो ऐसी टीचर देख रहे हैं जो हिन्दी को अंग्रेज़ी में पढ़ाना जानती हो । यह देखो आवेदनों का ढेर । ये सारे लोग हिन्दी को अंग्रेज़ी में पढ़ाने की काबिलियत रखते हैं "।
''हिन्दी को अंग्रेज़ी में पढ़ाना ? यह तो बड़ी अजीब बात है''। लड़की ने इन्हें शहर में कई हिन्दी के समारोहों की अध्यक्षता करते देखा था ।
क्या करें ? हमारे हाथ भी बंधे हुए हैं । हमें पेरेंट्स को जवाब देना पड़ता है । वे लोग यही चाहते हैं कि उनका बच्चा हिन्दी भी बोले तो लगे कि इंग्लिश बोल रहा है ''। उसने अपने दोनों हाथों की मुट्ठी बनाई और मुझे लगा कि उसने मुझे अपनी हथेलियों के बीच पीस दिया ।
''विचित्र ''। लड़की के मुँह से निकला ।
''किन्तु सत्य '' हिन्दी के इस अनन्य सेवक ने मजबूरी में सिर हिलाकर वाक्य पूरा किया ।
'' तब तो उम्मीद रखना बेकार है ''। लड़की ने अपनी फ़ाइल उठाई तो मुझे लगा कि वह रो पड़ेगी ।
''निराश होने की ज़रूरत नहीं है आप योग्य हैं आपको कहीं भी नौकरी मिल जाएगी ''। वह लड़की को बाहर तक छोड़ने आया ।
'' जी ! मैं जानती हूँ ''। कहकर वह उसके दुर्ग से बाहर चली गयी ।
यह यह पांचवा स्कूल है जहाँ के दरवाज़े उसके लिए बंद हो चुके हैं ।
अब भी आप कहेंगे कि मैं क्यों हिन्दी दिवस के आने पर खुश नहीं होती हूँ ?