निर्णायक बनना कभी भी मेरा प्रिय विषय नहीं रहा . मेरा बचपन से यही मानना है कि किसी के बारे में अच्छे - बुरे या प्रथम और द्वितीय का निर्णय देने वाले हम होते ही कौन हैं ? इसी अवधारणा के चलते कक्षा में प्रथम आने वाली छात्रा और उसे प्रथम स्थान देने वाली अध्यापिका से मेरे सम्बन्ध कभी भी सामान्य नहीं रहते थे. वे मुझे तिरछी नज़र से देखती थीं और मैं उन्हें भवें तरेर कर .
आज सहसा इतने सालों बाद जब मुझे बच्चों के अन्ताक्षरी प्रतियोगिता का जज बनाया गया तो यूँ लगा कि जैसे भारत से बिना पूछे ही उसे ओलम्पिक की मेजबानी सौंप दी हो .कोलेज के ज़माने में टूर में जाना और बस में अन्ताक्षरी खेलने के मध्य जन्मजन्मान्तर का सम्बन्ध तो
समझ में आता है, इससे ज्यादा अन्ताक्षरी को मैं और किसी परिपेक्ष्य में देख नहीं पाती . वैसे अन्ताक्षरी मेरे लिए हमेशा पूजनीय रही है क्यूंकि इसे शुरू करने वाली पंक्तियों में सदियों से जिस लाइन मान्यताप्राप्त है उसमे मेरे पूज्य पिता का नाम आता है इसे मैं यूँ कहती थी '' समय बिताने के लिए करना है कुछ काम ,शुरू करो अन्ताक्षरी , लेकर पापा [हरि] का नाम''. जवानी के उन दिनों में टाइम ही टाइम हुआ करता था, जिसे इसी प्रकार नाच गाकर बिताना पड़ता था. कुछ एक फिल्मों में दिखाई गई अन्ताक्षरियाँ आज भी मानस पटल में अंकित हैं, क्या पता फिर कभी टूर में जाने का मौका लग जाए, और यह वर्षों से संचित धन काम आ जाये, हांलाकि यह भी तय है कि अगर ऐसा मौका आया भी तो मन ही मन में गाने गुनगुनाती रह जाउंगी, लेकिन गा नहीं पाउंगी .
इधर जिस प्रतियोगिता में मुझे जज बनाया गया था, उसमे मात्र देशभक्ति की कवितायेँ और पाठ्यपुस्तक के दोहों के आलावा कुछ भी गाना वर्जित था, इस नियम से मेरे माथे पर परेशानी की चिंताएं दृष्टिगोचर हो गईं, मैं सोच में पड़ गई कि क्या बच्चे इस बाधा दौड़ को पार कर पाएंगे , क्या देशभक्ति की कविताएँ, या दोहे जिन्हें मैंने मृत समझ कर अपने सेलेबस से बाहर कर दिया था, क्या अभी तक बच्चों की किताबों में उससे भी बढ़कर क्या उनकी ज़ुबानों में ज़िन्दा हैं?
आखिरकार अन्ताक्षरी की प्रतियोगिता शुरू हुई, पांच बिन्दुओं के आधार पर नंबर देने थे ...शुद्धता, तत्परता, प्रस्तुतीकरण, समय सीमा और विषय - वस्तु .
संकट का असली समय अब आया था, मात्र दो मिनट की समय सीमा में इतने सारे पहलुओं को समेटना ऐसा लगा कि जैसे लडकी देखने जा रहे हों और एक नज़र में ही उसकी खूबसूरती , चरित्र, व्यवहार, गृहकार्य की दक्षता सबकी जांच परख कर लेनी है, और मैं इस एक बात पर अक्सर आश्चर्यचकित रह जाती हूँ कि मोहल्ले में जब भी कोई नववधू आती है और उसे देखकर लौटती हुई महिलाओं से पूछ बैठो कि ''बहू कैसी है''? वे मुझे बतलाती जाती हैं ''बहुत अच्छी है'' दूसरी समर्थन करती है ''स्वभाव तो मत पूछो ,सिर पर पल्ला रखकर सबके पैर छू रही है'' तीसरी बताती है ''घर के काम में भी चट - पट है'' चौथी बताती है ''कुछ मत पूछ, भाग खुल गए उनके, ऐसी बढ़िया बहू चिराग लेकर ढूँढने से भी नहीं मिलेगी'' काश ऐसी नज़रें भगवान् सभी को प्रदान करे. साथियों ये संवाद लगभग हर बहू के आने के बाद हर मोहल्ले में समान रूप से सुने जाते हैं, कहना ना होगा कि साल भर बीतते बीतते संवाद में से सं निकल कर मात्र वाद - विवाद रह जाता हैं.
महिलाओं के डायलोग कुछ इस प्रकार परिवर्तित हो जाते हैं '' मुझे तो पहले ही दिन ठीक नहीं लग रही थी '' ,दूसरी समर्थन करती है, ''हाँ ! ओवर स्मार्ट बन रही थी, ना शर्म न लिहाज़ '', तीसरी क्यूँ चुप रहती ''ऐसी बहू भगवान् दुश्मनों को भी ना दे ''
बच्चों को देखकर मेरे सामने यह स्पष्ट हो चुका था कि प्रतिभाएं हम मास्टर या मास्टरनियों के कक्षा में जाकार जानकारी उलट देने की मोहताज नहीं होतीं, वे कहीं न कहीं से प्रकट हो ही जाती हैं, किसी पिछड़े हुए बिजली ,पानी विहीन गाँव से, अनपढ़, निरक्षर वातावरण के बीच से या आधे -भरे पेट वाले किसानों की झोपड़ियों से धुंए की तरह बाहर निकल ही आती हैं.
बीच में एक दौर चाय पीने का भी आया. चाय की मात्रा देखकर लगा ही नहीं कि इस देश की आँखें किसी दिल को झिंझोड़ देने वाली क्रूर घटना के स्थान पर सुबह - सुबह चाय की प्यालियों के साथ खुलती हैं, और क्या कहें , विश्वप्रतिष्ठित नारा ''जागो इंडिया जागो'' इस चाय देश की ही देन है.
इस समय स्कूल के छोटे - छोटे बच्चे बहुत या आ रहे थे, इस एक ग्लास के माध्यम से उन्हें एक चौथाई को समझाना कितना आसान हो जाता.
खाली चाय पीनी पड़ी तो समझ में आ गया कि जज की कुर्सी काँटों भारी क्यूँ कही जाता है.
क्यूँ इस पर बैठने से पहले दिल को पक्का कर लेना पड़ता है?
प्रतियोगिता की समाप्ति पर जब सबके नंबरों को जोड़ने की बारी आई तो यह साफ़ हो चुका था कि स्कूलों में बच्चों के फ़ेल होने का प्रमुख कारण क्या है , और पुरुष अध्यापक स्कूलों में क्यूँ पसंद नहीं किये जाते...हम दो महिला जजों ने नंबर का खज़ाना, सरकारी खजाने की तरह दोनों हाथों से लुटाया हुआ था, और पुरुष अध्यापकों ने बचत करने के कोंग्रेसी आदेश को हर जगह आत्मसात किया हुआ था.
परिणाम घोषित होने के बाद की स्थिति तो हमारी जनसँख्या वृद्धि की तरह विस्फोटक हो गई थी, कुछ मास्टरनुमा लोग जो फ़ौज में भर्ती होने गए थे, परन्तु उंचाई कम होने की वजह से रिजेक्ट हो गए,थे और अंत में मास्टर बन गए, कहा भी तो गया है , कुछ नहीं तो टीचर तो बन ही जाएंगे'', इन असफल रणबांकुरों ने मिलकर पूरा संसद के शून्यकाल के जैसा दृश्य उपस्थित कर दिया था, ये परिणाम घोषित होने का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे थे, इन्हें बच्चों की प्रस्तुतीकरण से कोई मतलब नहीं था, प्रतियोगिता के दौरान ये समोसे खाने चले गए थे , लेकिन परिणामों के घोषित होते ही एकाएक करवाचौथ के चाँद की तरह उपस्थित हो गए. बार - बार अपने बहुत दूर से आने की बात को रटे जा रहे थे, मानो दूर से आने का मतलब प्रथम स्थान पर उनका अधिकार हो जाना है. मन ही मन भविष्य की आशंका से दिल काँप उठा कि खुदा ना खास्ता कभी चाँद के निवासी धरती पर विसिट करने के लिए आएं और कहें कि हम इत्ती दूर से आये हैं, अतः हमें अपनी दो चार नदियाँ दे दो, या आठ - दस पहाड़ और पर्वत दे दो, तब हम क्या करेंगे ?
मैंने मन ही मन सोचा असंतुष्टों की इतनी बड़ी फ़ौज तो किसी भी पार्टी में नहीं हो सकती, साथ ही यहां कुर्सी - मेज ना होने पर शुक्र भी मनाया, जिस पर कुछ देर पहले मैं सरकार को कोस रही थी, कभी - कभी असुविधाओं में भी सुविधा छिपी होती है, यह धारणा आज सच साबित हुई.
बहरहाल बड़ी मुश्किल से प्रधानाचार्य और उन असंतुष्टों के मध्य एक उच्च स्तर की वार्ता हुई जिसमे सर्वसम्मति से , सर्व से आशय स्वयंभू प्रधानाचार्य और उनके सबसे बड़े जवान से है, के बीच यह फैसला हुआ कि प्रतियोगिता दुबारा कराई जायेगी इस बार पिछले जज यानि, हम लोग नहीं होने चाहिए , और इस बार उनके इतनी दूर से आने का विशेष ख्याल रखा जाएगा, तभी वे भी अगले वर्ष इस प्रतियोगिता में ,जो कि उनके क्षेत्र में होनी प्रस्तावित है ,में वे हमारे इत्ती दूर से आने का ख्याल कर पाएंगे.