सोमवार, 8 जून 2009
हल्द्वानी में काव्य की रसधार
लघुकथा - आउटगोइंग
सुदूर पहाड़ में रहकर खेतीबाड़ी करने वाले अपने अनपढ़ एवं वृद्ध माता पिता के हाथ में शहर जाकर बस गए लड़कों ने परमानेंट इन्कमिंग फ्री वाला मोबाइल फ़ोन पकड़ा दिया. साथ ही फ़ोन रिसीव करना व काटना भी अच्छी तरह से समझा दिया. बेटे चिंता से अब पूर्णतः मुक्त.
रविवार –
बड़ा लड़का "इजा प्रणाम, कैसी हो?"
इजा की आंखों में आंसू, 'कितना ख्याल है बड़के को हमारा, हर रविवार को नियम से फ़ोन करता है'.
"ठीक हूँ बेटा, तू कैसा है?'
"मैं ठीक हूँ, बाबू कहाँ हैं?"
"ले बाबू से बात कर ले, तुझे बहुत याद करते हैं".
"प्रणाम बाबू, कैसे हो?"
"जीते रहो".
"बाबू तबियत कैसी है?"
"सब ठीक चल रहा है ना? खेत ठीक हैं? सुना है इस साल फसल बहुत अच्छी हुई है. ऑफिस के चपरासी को भेज रहा हूँ, गेंहूँ, दाल, आलू और प्याज भिजवा देना. यहाँ एक तो महंगाई बहुत है दूसरे शुद्धता नहीं है. जरा इजा को फ़ोन देना."
"इजा, तेरी तबियत कैसी है?"
"बेटा, मेरा क्या है? तेरे बाबू की तबियत ठीक नहीं है तू...........". "बाबू इतनी लापरवाही क्यों करते हैं? ठीक से ओढ़ते नहीं होंगे. नहाते भी ठंडे पानी से ही होंगे. बुढापे में भी अपनी जिद थोड़े ही छोडेंगे. इजा, तू उनको तुलसी-अदरक की चाय पिलाती रहना, ठीक हो जायेंगे".
"पर मेरी.......".
"अच्छा इजा, अब फ़ोन रखता हूँ, अपना ख्याल रखना. फ़ोन में पैसे बहुत कम बचे हैं" कहकर बेटे ने फ़ोन काट दिया.
"अरे, असल बात तो मैं कहना ही भूल गई कि अब हम दोनों यहाँ अकेले नहीं रहना चाहते. आकर, हमें अपने साथ ले जाये. कैसी पागल हूँ मैं, सठिया गई हूँ शायद", माँ ने पिता कि ओर देख कर कहा तभी फ़ोन कि घंटी दुबारा बजी, 'शायद छोटू का होगा', दोनों की आंखों में चमक आ गई. "हेलो इजा, मैं छोटू, अभी-अभी दद्दा के घर आया हूँ. तू जब दद्दा के लिए सामान भेजेगी, मेरे लिए भी भिजवा देना. हमारी भी इच्छा है कि गाँव का शुद्ध अनाज खाने को मिले", कहकर छोटू ने फ़ोन काट दिया.
माँ ने जब उसका नम्बर मिलाया तो आवाज़ आई, 'इस नम्बर पर आउटगोइंग की सुविधा उपलब्ध नहीं है'.