रविवार, 5 सितंबर 2010

आखिर क्यूँ ना बढ़े सांसदों का वेतन और क्यूँ न मिलें उन्हें भाँति - भाँति के भत्ते ?

 
जो स्वार्थी लोग सांसदों को मिलने वाले भाँति भाँति के  भत्तों  और वेतन में बढ़ोत्तरी  का विरोध  कर रहे हैं उनसे मेरा   यह कहना है कि   संसदाई  का  काम अब बहुत कठिन हो चला है | यूँ लोगों का यह भी मानना है कि आजकल हर सरकारी काम कठिन हो चला है | संसदाई के काम में तरह - तरह के जोखिम उठाने पड़ते हैं | टिकट के बंटवारे से शुरू हुआ संघर्ष का सफ़र किसी भी पदनाम  की कुर्सी  प्राप्ति तक जारी रहता है | साम, दाम, दंड, भेद  के समस्त प्रकार [अगर होते हों ] अपनाने पड़ते हैं | इसीलिये  साथियों, माननीय महोदयों   को कुछ भत्ते और मिलने चाहिए, जिन पर लोगों का ध्यान नहीं गया लेकिन जिन्हें दिए बिना इस वेतन बिल के  पास होने का कोई औचित्य नहीं रह जाएगा  |  

 पहले संसदाई के काम में  मानसिक श्रम करना पड़ता था | परन्तु विगत कुछ वर्षों से इसमें शारीरिक श्रम भी शामिल हो गया है | हलके -फुल्के जूते चप्पलों और से लेकर भारी - भरकम मेज - कुर्सियां, यहाँ  तक  की  माइक तक   उखाड़कर   अध्यक्ष के आसन तक और एक दूसरे के ऊपर फेंकने के लिए ताकत की आवश्यकता  होती है | पिछले दिनों इस प्रक्षेपण के अभियान में गमले भी शामिल हो गए हैं  | बिना किसी की बात सुने घंटों तक गला फाड़ - फाड़ कर हो - हल्ला मचाना कोई आसान बात नहीं है | हम मास्टर होकर भी लगातार दो घंटे तक नहीं बोल सकते | कभी कभार जब ऐसी परिस्थिति आती है तो हम अगले दो दिनों तक प्रतिकार के रूप में कक्षा में मौन व्रत धारण कर लेते हैं | प्रक्षेपण और चीख -पुकार का  यह  कार्यक्रम निर्बाध गति से चलता रहे इसके लिए माननीय  सांसदों को इतना वेतन अवश्य मिलना चाहिए जिससे वे पौष्टिक आहार ले सकें | दूध, बादाम इत्यादि खा सकें और अपने शरीर को स्वस्थ रख सकें  |इसके लिए सरकार से मेरा अनुरोध  है कि वह सांसदों को पुष्टाहार  भत्ता देने के सम्बन्ध में गंभीरता से विचार करे |  
 
 कुछ लोग, जिसमें  मेरे जैसे मास्टर लोग ज्यादा हैं, अक्सर सोचते हैं कि हमारे स्कूलों में जब बच्चे कुर्सी - मेज़ तोड़ते हैं, तो उन्हें दंडस्वरूप बैठने के लिए फटी  चटाई   दी जाती है | टूटे हुए फर्नीचर की मरम्मत के लिए सारी कक्षा से पैसे जमा करवाए जाते हैं |  पता नहीं संसद में ऐसा क्यूँ नहीं होता | मेरा सुझाव है कि संसद में भी दरी बिछा देनी चाहिए | दरी में बैठने के बहुत फायदे हैं एक तो तोड़ - फोड़ की गुंजाइश नहीं रहती , दूसरे कतिपय  सांसद  प्रश्नकाल  के  दौरान  नींद आने पर  दरी में आराम  से  सो  सकते हैं  | वैसे तो बड़ी - बड़ी कंपनियों  की  तर्ज़  पर  संसद में भी एक  झपकी  रूम  होना  चाहिए , जहाँ  टी. वी.  के  कैमरे न लगे हों  |
 
 सांसदों का वेतन और भत्ते अवश्य बढ़ने चाहिए | पांच साल की सर्विस के दौरान  साल में पांच  बार तो अवश्य ही बढ़ना चाहिए | कुछ दिलजले  लोग, जो बिना पसीना बहाए नेता बनने का ख्वाब देखा करते  थे, पर सफल नहीं हो पाए ,  यह  अफवाह उड़ाते हैं कि  एक बार नेता बनने का मतलब है  कई  पीढ़ियों तक कुछ करने की ज़रुरत नहीं है |  कुछ सात पीढ़ी कहते हैं आजकल  कुछ लोग  तेरह भी  कहने  लगे   हैं | पीढ़ियों का विवाद जारी है | इस पर विद्वानों के बीच अभी मतैक्य नहीं हो पाया  है | शोधकार्य जारी है | शोधकार्य के नतीजे आने तक हमें ऐसी अफवाहों पर ध्यान नहीं दिया जाना चाहिए | इसके लिए ऐसे आदमी की खोज की जा रही है जिसने किसी नेता की तेरह  नहीं  तो  कम  से कम  सात  सात पीढियां तो  अवश्य  देखी हों |   
 
हमें याद रखना चाहिए कि जब वे चुनाव के दौरान अपनी संपत्ति की घोषणा करते हैं तो कितने बेचारे होते हैं | स्वयं के पास बस एक साइकिल होती है लेकिन पत्नी के पास मोटरसाइकिल, स्कूटर, कार, बोंड, निवेश, जेवरात, ज़मीन, बंगले  से लेकर तमाम तरह के ऐशो - आराम की वस्तुएं मौजूद होती हैं |  ऐसे त्यागी महामानवों को  त्याग भत्ता देने के विषय में गंभीरता से विचार होना चाहिए  |
 
इधर जनता का मिजाज भी बहुत तेज़ी से बदल रहा है | पहले वह निर्विकार भाव से वोट देती थी | नेतागण भी पंद्रह - बीस साल तक निश्चिन्त हो जाते थे | लेकिन अब जनता जिसे एक बार भारी वोटों से जिताकर गद्दी पर बैठाती है, अगले ही चुनाव पर  उसकी जमानत ज़ब्त करवाने में नहीं हिचकिचाती | ऐसे अनिश्चय के माहौल में, जहाँ सरकारी होते हुए भी जॉब सीक्योरिटी  नहीं है, नेतागिरी का काम और कठिन हो जाता है |  ऐसे में सांसदों को जॉब सीक्योरिटी एलाउंस भी दिया जाना चाहिए |
 
ऐसा भी सुनने में आया कि तनखाह कम होने के कारण सांसदों को भ्रष्टाचार की शरण में जाना पड़ता था | इससे हमें पता चलता है कि विगत वर्षों में जितने भी   घोटाले हुए सब इसी  मजबूरी का परिणाम रहे हैं |  किसी माननीय ने यह बात भी उठाई थी की उनका ईमानदारी का  वेतन उनसे मिलने वाले आगंतुकों को  चाय पिलाने में ही ख़त्म हो जाता है  |विश्वस्त सूत्रों के द्वारा ज्ञात हुआ है कि ये घोटाले लोगों के चाय प्रेम के कारण हुए हैं, क्यूंकि   भारतवर्ष में घर  हो  या  सरकारी  कार्यालय,  बिना चाय  पिए और  पिलाए कोई  पल्ला  नहीं  छोड़ता  |  चाय जैसा तुच्छ समझे जाने वाला पेय पदार्थ सख्त से सख्त  फाइलों को इधर से उधर सरकाने के महत्वपूर्ण कार्य में कितना सहायक सिद्ध होता है, यह बताने की ज़रुरत नहीं है  | इससे यह स्पष्ट हो गया की भारतवासी चाय पीना छोड़ दें तो भ्रष्टाचार अपने आप कम हो जाएगा | विदेशी  आगंतुकों  को चाय  के अलावा समोसे , मिठाई ,नमकीन  खिलाने  के  लिए  कतिपय  नेताओं  ने  कॉमनवेल्थ   घोटाले  का  सहारा  लिया , जिस  पर  काफी  हो  - हल्ला  मचा  | लेकिन  अब  जनता  समझ  चुकी  है  कि   यह   मजबूरी  में  किया  गया  था  ताकि  हमारे  देश  की  ''अतिथि  देवो  भाव'' वाली   साख  पर  ज़रा सी बात पर  बट्टा  ना  लगा  जाए |  मजबूरी  का नया नामकरण यह हो सकता है '' मजबूरी का नाम जालसाजी, धोखेबाजी '' |गांधीजी  माफ़  करें   सही  तुक  नहीं बैठ  पा   रहा  | आम कर्मचारी  की मजबूरी कुछ सौ से लेकर कुछ हज़ार पर आकर ठहर जाती है  | लेकिन  पद जितना बड़ा होता है , मजबूरियाँ व  घोटाले भी उसी अनुपात में बढ़ते जाते हैं |   माननीय सांसदों को इतने वर्षों का मजबूरी भत्ता मय एरियर के दिया जाने की व्यवस्था होनी चाहिए |
 
माननीय सांसदों को एक भत्ता और दिए जाने की मैं पुरज़ोर सिफारिश करती हूँ | इसका नाम है आकस्मिक या केजुअल भत्ता |   आकस्मिक रूप से होने वाली पिटाई, यदा - कदा सामूहिक रूप से जनता द्वारा  गालियाँ पड़ने पर यह भत्ता दिया जाना चाहिए |जैसा कि मैं पहले ही बता चुकी हूँ कि इस काम में अब सुरक्षा नहीं रह गई | बीते दिनों एक विधायक को किसी ने सरे कैमरा   थप्पड़ लगा दिया | वह रो रहा था और जनता पहली बार किसी नेता के रोने का लाइव टेलीकास्ट  देखकर प्रसन्न हो रही थी | सदा मिस कॉल देने वाले भी फोन या मेसेज करके  इस  आश्चर्य मिश्रित खुशी की  सूचना एक दूसरे को दे रहे  थे  | क्वीन   बेटन  के  स्वागतार्थ  झाँकने के लिए आँगन में तक नहीं आने वाली जनता  इस ऐतिहासिक एवं दुर्लभ क्षण का गवाह बनने  की चाह में सड़कों पर टूटी  पड़ रही थी  |  
 
जिस तरह से सुप्रीम  कोर्ट को देश के हर मामले में चाहे वह व्यक्तिगत हो या सार्वजनिक, फटकार लगानी  पड़ती है, आने वाले दिनों में वह बात पर भी सरकार को फटकार लगा सकता  है कि गेहूँ की तरह बैंकों में भी पैसा पड़े - पड़े सड़ रहा है, इसे गरीबों में बाँट दो | बहुसंख्य जनता  इसे सुझाव जैसा  कुछ मान रही हैं, कुछ को यह फटकार लग रही है तो  कुछ  इसे आदेश कह रहे हैं  | इस पर एक कमेटी बैठा दी गई है | पता लगाया जाएगा कि क्या कारण है  जब सुप्रीम कोर्ट आदेश करता  है तो लगता है कि सुझाव दे रहा है, वहीं सोनिया गाँधी सुझाव भी देती है तो वह आदेश लगता है | 
 
कई लोगों का सदियों से यह मानना रहा है कि अगर गरीबों के हाथ में पैसा आ गया तो निश्चित तौर से वे इस पैसे का दुरूपयोग करेंगे | वे पेट भर के खाएंगे | तन ढकेंगे | बाद में सिर ढकने का इंतजाम भी करना चाहेंगे | गरीबों के पास सौन्दर्य बोध जैसी चीज़ नहीं होती अतः वे रोटी, कपडा और हो सके तो मकान पर खर्च करके  अंततः रुपयों का दुरुपयोग ही करते हैं | इससे पहले कि सुप्रीम कोर्ट इस सड़ते हुए पैसों को भी गरीबों में बंटवाने का [मान लिया तो आदेश अन्यथा सुझाव] दे,   - सरकार को  यह सड़ता हुआ पैसा अविलम्ब सांसदों को बंटवा देना चाहिए | उनके पास सौन्दर्य बोध और गरीबी, दोनों  प्रचुर मात्रा में मौजूद  है |
 
विचारणीय प्रश्न यह है कि  जिस तरह हम मास्टरों का वेतन बढ़ने के साथ हमारे ऊपर सरकार का शिकंजा कसता जा रहा है,  आये दिन छापामारी अभियान, सूक्ष्म निरीक्षण, गहन निरीक्षण, सतत निरीक्षण और नाना प्रकार के विविध  नामों के  निरीक्षण और इतने ही नामों से मूल्यांकन शुरू हो गए हैं | जल निगम, विद्युत् विभाग, क्षेत्र का पटवारी, ग्राम प्रधान से लेकर  किसी भी विभाग का कोई भी कर्मचारी जब चाहे आ कर हमारे  विद्यालयों का निरीक्षण करके अपने बहुमूल्य सुझाव या अमूल्य फटकार दे सकता है | हमारे विद्यालयों में आए दिन धमक जाने वाले  अधिकारी और  सरकारी आदेश बिना किसी लाग लपेट के इसी एक वाक्य से  शुरूआत  करते  है '' चूँकि आपको केंद्र के बराबर वेतन दिया जा रहा है '',  इसीलिये आपको वे सभी सरकारी काम करने पड़ेंगे  जो हम आदेश करेंगे  |  गौरतलब है कि उनके मुंह से  कभी हमको नहीं निकलता | इससे हमें लगता है कि तनखाह बढ़ोत्तरी पर सिर्फ अफसरों का हक़ होना चाहिए था | शिक्षक को अवैतनिक सेवा करनी  चाहिए, तनखाह जैसी तुच्छ चीज़ के लिए लालच नहीं करना  चाहिए | कतिपय शिक्षकों ने  हस्ताक्षर अभियान शुरू किया है जिसमे यह कहा गया है  कि इस तरह के आए दिन होने वाले  उत्पीड़न  को सहने से अच्छा तो यह है कि तनखाह की बढ़ोत्तरी वापिस हो  जाए  | ये लोग रोज़ कक्षा में जाकर पढ़ाने को भी उत्पीड़न की श्रेणी  में रखते हैं | क्या  सांसदों का वेतन बढ़ने पर उनके कार्यों का भी  इसी  तरह मूल्यांकन संभव होगा ? उनके कार्यों की भी सघन जांच करी जाएगी ?