सोमवार, 30 मार्च 2009

मैंने भी लिखने चाहे थे प्रेम गीत .....

मैं प्रेम गीत लिखना चाहती हूँ

मैं हास्य व्यंग्य रचना चाहती हूँ

और कुछ देश भक्ति की चाशनी घोलना चाहती हूँ

 

जब मैं उठाती हूँ कलम

कि कुछ मधुर मीठे एहसासों को

बाँधू शब्दों में

और उड़ जाऊं उनको लिए गगन में

 

थी उसी समय कई चेहरे,

कुछ अखबार की लाइनें

शोर मचाती हैं 

मेरी आँखों के सामने तैरने लग जाती हैं

निठारी के गंदे नाले में पड़े

मासूम बच्चों की हड्डियां

नंदीग्राम के निर्दोषों की लाशें

और उठ कर नाचने लगते हैं

रेल की पटरी पर रखे गुर्जरों के कंकाल

 

ठीक जिस समय मैं सोचती हूँ शब्द प्रेम के

उसी समय मेरे आगे दौड़ पड़ते हैं

चिथड़े पहिने, एक मुट्ठी अनाज के लिए

गाय के गोबर को साफ़ करते बच्चे

और चाँद रुपयों की खातिर

उन बच्चों को बेचती माएं

 

मैंने जब लिखने चाहे सुन्दर सुन्दर गीत

मेरे आगे वे लोग नाचने लगते हैं

बरसात से जिनके पोलिथीन के घरों में

चूल्हे नहीं जलते हैं

जिनके बच्चे रोज़ फ़ूड पोइज़न या डायरिया से 

चल बसते हैं

 

जब मैंने लिखना चाहा इस हरी भरी धरती पर

इसकी ताकत, इसकी मेधा, इसकी सम्रद्धि पर

अजीज प्रेमजी, अम्बानी और मित्तल पर

मेरे सामने कुछ हड्डी के ढाँचे चुपके से आ जाते हैं  

जिन्हें किताबों में किसान कहते हैं

बच्चे जिन पर निबंध लिखते हैं

और जो आजकल नित्य ही नुवान पीते हैं

या सलफाज गटकते हैं

और मेरी कलम से बन जाती है

उन होरी जैसे लोगों की आकृति

जो तड़पते हैं जिन्दगी भर और अंत में

एक अदद गोदान की आस लिए

इस दुनिया से चले जाते हैं

 

मैंने जब लिखने चाहे धर्म गीत

मेरी कलम से निकलने लगा लाल रंग

और बहने लगा सफ़ेद कागज़ पर

जो शायद किसी बम धमाके में

मारे गए व्यक्ति का रक्त था

जिसका कुसूर सिर्फ इतना था

कि वह आम जनता था

 

इसलिए बन्धु! मैं लिख नहीं पाती प्रेम के गीतों को  

रच नहीं पाती विरह के संदेशों को

और ना ही जगा पाती हूँ उत्साह वीर रस का